Thursday, 22 May 2014

चेतना के स्तर

मित्रों , 


              आज  प्रातः एक  बिंदु  से  विचार   शुरू  किया था  ... छोटा  सा   विषय  था   ' चेतना  के  स्तर  '   मस्तिष्क  में  यूँ आया  , जितने  जीव  उतने  सत्य  , कोई  भी  ये  मानने  को   तैयार    नहीं  की  उनका  अनुभव  किसी  भी  मामले    में   कम  है या स्वप्नवत भ्रम ही है , कुछ दिमागी भटकाव है |

              ये तो हम मान  सकते है की जीवन स्वप्न है क्यूंकि लोगो का नित मरना दिखता है . आपदाए दिखती है वो सब दिखता है , जो आंखो से देख सकते है , पर वो सब बिलकुल नहीं दिखता  जहा सिर्फ अंदर की यात्रा  वो नेत्र  खोलती है , वैसे तो शिव का तीसरा नेत्र उनके क्रोध के के साथ ही खुलता है , पर चेतना का तीसरा नेत्र उसके ज्ञान के साथ खुलता है  !  

             यहाँ सवाल ये है की ; क्यों  माने  कोई की उनका अनुभव ... अनुभव नहीं,  भरम है   ! अच्छा  खासा  समय  लगा  है  सभी का वो  भी  दिमागी  अंतर्द्वंद  और चिंतन  के  साथ  .

चलिए  विचार  करे  की  चेतना  के  कौन  कौन  से  स्तर   हो  सकते  है  .. क्या है ये " कबीर की झीनी झीनी बिनी हुई चंदरिया " और ये  आध्यात्मिकता  के कलेवर  से  कैसे झीनी और झीनी  झीनी होती ही चली जाती है ....  

( ध्यान देने वाली  बात  है  की यहाँ  सिर्फ  स्तर  की चर्चा है, उनसे  उत्पन्न  परिणाम  एक  अलग  विषय है आत्म-चिंतन का  ) 


A-  अलौकिक स्तर  ( वो  है  जो  मन  बुध्ही  से  परे  है  , जिनको  स्वीकार  करना  और सम्पूर्ण समर्पण  ही  बुध्हिमानी  है  ) 


1- आयु  जनित  (ये यात्रा संसार में   जन्म  से भी पहेले मत के गर्भ से शुरू हो जाती है ,   नवजात की  ,  शिशु  की  , बालक  की  और  युवा  की   फिर  बुजुर्ग   की  और  फिर  वृद्ध  की    एक  और वर्ग  है   वो  है  अति  वृध्ह  का  ) 

2- इन्द्रियजनित (इस भाग की चर्चा  सांसारिक नहीं  अतः सुख दुःख यहाँ उचित विषय नहीं , यहाँ  भी  वर्ग  है  और  बड़े  ही  बलशाली  है  , किसी  को  पांचो  का  पूर्ण  सुख  है  तो  किसी  को  कुछ  कम  का , तो  किसी  के  पास  है  तो पर  स्वस्थ नहीं  )

3-  देश , स्थान , परिवार   ( जन्म  के  आधार    पर  निश्चित  होता  है  और  जो  जीव  के  कई  विकास  की  यात्रा  में  महत्वपूर्ण   भूमिका  का कारन  बन जाता है  )  

4  - विषयो  के  स्वाभाविक  रुझान जो जन्म से प्राप्त  है  इश्वरीय उपहार के रूप में  ( ये  भी   पकृति  प्रद्दत  ही  है  , जो  अहम्   भूमिका  निभाते  है  ).

5- कार्मिक   भेद  अद्भुत   है  की  ये   भी  प्राक्रतिक  कैसे  !( इसीको   कुछ  लोग   प्रारब्ध  जनित  भी  कहते  है  ,  यानी  की रुझान  एक  बात है   और जो  कर्म  एक  एक  कदम  पे   गाइड  करता  है   वो  अलग  अपना  रास्ता  स्वयं  बनाता  है  ) 

इसके  बाद  है  .... 


B- लौकिक  स्तर  के  भेद  है  जो  मानव  बुध्ही  रचित  है  . इनका  भी  भी  घना जाल  है  आस्थाओ का  , जिनसे  निकल  पाना  असंभव  है  , इसको  समाज  , धर्म   और  अर्थ  व्यवस्था   के  नाम  से  जाना   जाता  है  .. इनके  अंदर  भी  भेदों  ने  अपना  अपना  घर  बना  रखा  है  ..


(यहाँ  हम  एक  और  शब्द  का  उपयोग  कर  सकते  है  , वो  है  चेतना  के  आयाम  , या  पड़ाव  )

1- समाज   -

 सबसे पहला जुड़ा है  पारिवारिक  भेद  - जन्म   से  ले  के   मृत्यु  तक साथ रहते है । इसी  समाज से जुड़े हुए " आर्थिक   भेद " उपार्जन  के  अनुसार  , धार्मिक भेद  - भी  जनम   से  ही  जुड़े  जाता  है  .कार्मिक भेद ,उदाहरण के लिए  वर्ण व्यवस्था  जो जन्मे से भी है और कर्म से भी  ( " हर  प्रकार का  स्तर  अपने  अपने  स्वाभाव  के  अनुसार   चेतना  के  स्तर  को  छूने  का  प्रयास  करता   दिखता  है , और वो भी पूरी शक्ति  से  ") 

2- धर्म  -  

 धर्म    सामाजिक भेद , जन्म से और वर्ण से  दोनों से जीव को  प्रभावित करते है .. अगर  सम्पूर्ण  संसार  की धर्म व्यवस्था  का जायजा  ले तो  पायेंगे बंटवारा  एक गहरी नदी के सामान   मुख्य तीन  धाराओं  से होते हुए  एक एक धारा पुनः पुनः  कई कई संकीर्ण धाराओ में  विभाजित  हुई दिखती है , जिनमे  जन्म भेद  तो है ही , कर्म का बटवारा  भी होता हुआ दिखता है । इसी  में  एक अन्य धारा  दिखती है  वो है अध्यात्म की , जो कर्म काण्ड  के आडम्बर  या क्रिया  से रहित  सीधा  ध्यान  के माध्यम परम उर्जा से जुड़ने का प्रयास करते  दीखते है। धर्म की ही  एक और धारा जो तंत्र और मंत्र  में उलझ गयी . तांत्रिक और अघोरी हो गए वो लोग } 

3- अर्थ  -

 सबसे  बड़ा   सांसारिक जीवंत  भेद     यही  से   आता   है  सामाजिक  व्यवस्था    में  .. जो  किसी  के  भी  जीवन  की  दिशा  को  मोड़ने   का  दावा  करता  दिखता  है  ... इसीके  गर्भ _गृह  से  लौकिक  प्रभावशालिता  / पराक्रम   का  जनम   होता  है  , यही  से  राजनीती  का  जन्म  होता  है  , यही  से  सुंदर  एक  पृथ्वी  पे  कई कई देश  बंट  जाते  है ( एक और प्रश्न यहाँ पैदा हो जाता है इस सुंदर  पृथ्वी पे  शहीद  होने का जज्बा क्या है ? और जेहाद का जज्बा  क्या है ? कहाँ  से आता है और  क्या मायने है ? लगते है न सब  राजनैतिक  गठबंधन !! )   , यही  से  रिश्ते   बिखर  जाते  है  , यही  से   दुराचार   शुरू  हो जाता  है , व्यभिचार  की नीव यही पड़ती है  .. यही  है  जिसके  महीन  धागे के ताने और बाने   कब  जीवित  चेतना  को  अपनी गिरफ्त  में  ले के अचेतन कर दे या सम्मोहित कर दे ; कुछ  पता  नहीं चलता  , यही  से  योग  पूजा   , कर्म  सब  कुछ  प्रभावित हो के  विधान  में बदल जाता है  .. क्यों  ? उत्तर  सिर्फ  एक  ; वो है जीव का  मूलभूत  आवशयकताओ  की  पूर्ती  में  घिरा  होना  मात्र  , जो  कवी  की  कविता  , चित्रकार  का  चित्र  ,नृत्यकार  का  नृत्य ,  कलाकार  की  कला  ,चिकित्सक  की  चिकित्सा  , राजनेता   की  राजनीती  , धर्म  की  धार्मिकता  , अध्यात्मिक  की  आध्यात्मिकता   ,( ये उदाहरन इसलिए क्यूंकि इनका एक सिरा जमीन से तो दूसरा असमान  से जुड़ा होता है )  यहाँ  सब  कमजोर  पड़ते  दिखते   है  ( बड़े  महीन  धागे  है   जिन्हें  व्यक्ति  जो  विशेष धागो से जुड़े है   कभी  नहीं  मानेंगे  पर इसकी  बुनावट  में   जो  आकृति  उभरती  है  वो  सभी  संवेदनशील जीव  महसूस  कर  सकते  है  ). 


               इतने  स्तरों   की  चर्चा  के  बाद   अब  हमारा  शुरुआती  बिंदु  आता  है  , चेतना  के  अलग   और  विलक्षण  स्तर   वो  जो    लौकिक  से  अलौकिक  की  यात्रा  करवाते  है   वो  स्तर   , जो  हर   जीव  के  मूल  में   है  , वो  किसी  जीव  का  अलग  ही  स्तर  सुनिश्चित  करते  है  ... ये  भी  अलग  अलग  रूपों  में  प्रकट  होते  है  , यानि  इनके  भी  स्तर है अलग अलग  ... पर  ये  सभी  लौकिक  जिज्ञासाओं  और उलब्धियों  से  परे  है , इनके स्तर  भी अलौकिक ही है  ..

 शून्यता   का प्रतिशत  शून्य  शून्य-स्थति के लिए आवश्यक है .... 

1- प्रेम  का  स्तर (0 % )
2- करुना  या  दया  का  स्तर (0%) 
3- आभार  या  कृतज्ञता  का  स्तर  (0%)
4- एकाग्रता  का  स्तर (00%)
5- मनन  - चिंतन , परा - अध्यन  , विचारशीलता  के  स्तर  (0%)  
6- एकात्मकता   का  या  एक  उर्जा  के   अनुभव   के  भिन्न भिन्न  स्तर  (0%)  
7- लौकिक  से  परलौकिक   यात्रा  की  उछालो  (swings ) अनुभूतियों   के  स्तर  (0%)  
8- और  अंत  में  परम -प्रकाश  का  अनुभव  . (00%)



अंत  में  !! कोई भी विषय या विचार नया नहीं , आप सभी सब जानते है यहाँ कुछ भी ऐसा नहीं जो  किसी को पता न हो , परन्तु यह  दरवाजा  खटखटाने जैसा है , आपको सहज ही फिर से  अनुभव होगा , कितने  मस्तिष्क  कितने  विचार  कितने स्तर और कितने  पड़ाव है ,  यही  वो  है  परम - शिखर या महीन  चोटी है जहा  रुक पाना  असंभव  सा  होता है , लोग अथक प्रयास  कर के किसी प्रकार  आ तो  जाते है ( आना भी  यहाँ तक अति दुर्गम  है आके ठहर पाना  और भी दुर्गम  )  यहाँ भी  प्रयास  और प्रयोग  के  स्तर   है  ... कुछ  रुक  भी  जाते  है  , कुछ  फिसल  फिसल   के  रुके  रहते  है   और  कुछ  फिसल  जाते  है , कुछ इस  नवीन  अनुभव घबरा के  वापिस लौट  जाते है   और  फिर  से  उनको  वो  ही  सब  ज्ञान अनुभव की क्रिया  पुनः   दोहराना  पड़  जाता  है  , एक दम नए बैच  के साथ .. 


आज सिर्फ  इतना ही 

 शुभकामनाये 

No comments:

Post a Comment