दोस्तों ! ये रहस्यमयी इतना प्रचलन मे है कि कभी कभी लगता है कि जैसे वस्त्रो मे फैशन कि लहर आती है दिल दिमाग पे छाती है और फ़िर वो ही अजीज वस्त्र बक्से मे बन्द हो जाते है और हम नये की तलाश मे , नये कास्मेटिक , नई सुगंधे , नये वस्त्र , नये विचार , नये सम्बन्ध , नये दोस्त सब हम को नए नए ही चाहिए , परन्तु एक स्वर ऐसा है जो कभी पुराना नहीं पड़ता चाहे कितना ही हम इसको अपने सुर मे बांधे .... अपनी तरीके से अपने-अपने सुर मे गाएंगे , पर फ़िर भी हज़ारों वर्षो से मानव यही करते आ रहा है। पर हर बार "चुक" भी जाते है और "चूक" भी जाते है , परम का संगीत बार बार अवसर सा देता हुआ गूंजता जा रहा है।
एक ही अक्षर "ॐ" का मानव उच्चारण किये जा रहा है , कितने बोल बन गये और कितनी डिक्शनरी ने जनम ले लिया ..... इसकी ध्वनि प्रतिध्वनि इतनी रहस्यमयी है कि पता नहीं कितने शब्दों मे बदल के , कितनी भाषाओँ से गुजर के , कितनी मानसिक तरंगो को भेदती हुई हम तक आती है , और हर बार हमको लगता है कि पिछली बार से इस बार का हमारा चयन सही है , इस बार " ये ओमकार नया है " और इसको कहने वाला भी सही है .... मेरी खोज है , मेरा संगीत है (कॉपीराइट है ) ऐसा भाव , माया प्रेरित है। जी हाँ ; भक्ति , धर्म और अध्यात्म तीनो ही इस ओमकार की ध्वनि का ही अनुसरण कर रहें है। इसी एक मे समस्त कला , समस्त ज्ञान , समस्त विज्ञानं , समस्त विषय_दर्शन , समस्त उपभोग , सौंदर्य , तृष्णा , मिलन विछोह , सब निहित है।
और हम बुद्धू से पता नहीं क्या समझ रहे है !
संदेह और अविश्वास के प्रश्न पे प्रश्न ऐसे उगते जा रहे है जैसे किसी हृष्ट पुष्ट फलदार वृक्ष पे फल और पत्तियां ...... फल उनके लिए जो थोड़ा बहुत समझ पाते है और पत्तियां उनके लिये जो पहले से ही धारणा बनाये हुए उलझन और संदेह के कांटे लिये आते है युं ही अपना समय व्यर्थ गवाँया ; समझ के चले जाते है। अपने ही शरीर से अनजान ,अपने ही मन से बेसुध , अपने ही मानसिक खेलों से हम अनजान है , सम्मोहित से , कदम उठाते पता नहीं किधर को बढ़ते जा रहे हैं।
मानवीय इस संघर्ष कि मानसिक और आत्मिक अवस्था को आप क्या कहेंगे ? मैं तो सिर्फ़ एक शब्द दूंगी " सम्मोहन " ये सम्मोहन कभी बाहर से प्राप्त होता है और कभी स्वयं से। पर सम्मोहन की ये तन्द्रा समाप्त जीवन के साथ ही होती है। मित्रों , विश्वास किजिये , आखिरी हिचकी के समय वो अनहद वो ओमकार स्वर फ़िर से प्रकट होता है , पूरी स्पष्टता के साथ , पर , हमारे पास ही वक्त नहीं होता। मजाक हैं न ! हमारे पास वख्त कभी होता भी है क्या ? हमेशा रेत की तरह जो हमारी मुठी से निरंतर फिसला जा रहा है ; वो वक्त है ..... बन्धु !
अपने अपने फेरे , अपने अपने बोल , अपने अपने राग , और अपने अपने प्रकटीकरण , वस्तुतः ये सब भी छलावा ही है , चहुँदिशा से अगर कोइ भी स्वर उठ रहा है , तो एक ही है ,जो एकाकार होके , प्रक्रति की लय मे खोके हीं सुना जा सकता है , कोइ अडचन नहीं कि कोइ भी धारा हो ! कोई भी विश्वास हो ! कोई भी वाद्य (समाज ) हो ! कोई भी गीत ( मानसिकता ) हो ! कोइ भी बोल (व्यक्ति ) हो , "सा " से "सा" तक यात्रा करके ही पाता चलता है कि सा से शुरु की यात्रा का अन्त सिर्फ़ एक स्वर सा मे ही है।
संगीतकार ( व्यवस्थापक) कितने राग बनाले , किन्तु तारों और बोलो पे दौड़ते स्वर सा से चलकर सा पे ही रुकेंगे। जैसे स्वर में सा वंदनीया और वांछनीय है , हर आत्मा इस स्वर को साधे बिन गीत पूरा नहीं कर सकती , वैसे ही वाद्य मे स्थान है ..... थाप " धा " का। कितने ही गति और विभिन्न बोलो से चंचलता का वाद्य ठेका_प्रदर्शन करे , लय बनाये , परन्तु "धा" से से शुरू हो के " धा " पे ही समाप्त होगा।
हर तरफ से एक ही गूंज , एक ही टंकार , एक ही स्वर , वो बड़ा संगीतकार एक ही लय , और एक हीं राग गाये बजाय जा रहा है , क्या सिर्फ़ हमारे लिये !!! ...... नही नहीं , वो तो मस्त है अपने नृत्य गीत संगीत और वाद्य मे , हम सुन ले तो हमारा सौभाग्य , हम देख ले तो हमारा मोक्ष , हमारे सांसारिक हांथों दृष्टि कान बुद्धि और मन से परे दृष्टा के ह्रदय से सम्भावना है की वो देख सके , सुन सके , छू सके।
और जैसे ही उसको देखा , जाना , माना , समझा ....... उलझन शंका के सारे फेरे स्वयं ही गिर जाते है। सारा मर्म समझ मे आजाता है , सारे उपद्रवी चक्कलस सहम जाते है। प्रशन समाप्त , मस्तिष्क थम जायेगा , मन शांत हो जायेगा , ह्रदय (कमल ) खुल जायेगा , खिल जायेगा।
इस स्थान से जब आप पीछे को पलटेंगे , तो ही आप पाएंगे कि , बाकि सब सांसारिकता है ..... जीवन जीने के अद्भुत माया प्रेरित छलावे , जो आपको आपकी अज्ञानतावश छल तो रहे है .... परन्तु ..... आश्चर्य है कि अपने विभिन्न वाद्य और विभिन्न गले को ठोंकने बजाने के बाद भी और इस छल से भरे मायावी कर्तव्यों के साथ भी स्वर एक ही निकाल पा रहे है।
और सिर्फ़ एक अट्टहास ! एक स्वर ! एक लय ! एक गीत ! एक चित्र ! एक कला का ..... एक सौन्दर्य।
सो जो इनको पकड़ ले वो सुन लेगा "अनहद "
हा हा हा हा हा हा
ॐ ॐ ॐ
एक ही अक्षर "ॐ" का मानव उच्चारण किये जा रहा है , कितने बोल बन गये और कितनी डिक्शनरी ने जनम ले लिया ..... इसकी ध्वनि प्रतिध्वनि इतनी रहस्यमयी है कि पता नहीं कितने शब्दों मे बदल के , कितनी भाषाओँ से गुजर के , कितनी मानसिक तरंगो को भेदती हुई हम तक आती है , और हर बार हमको लगता है कि पिछली बार से इस बार का हमारा चयन सही है , इस बार " ये ओमकार नया है " और इसको कहने वाला भी सही है .... मेरी खोज है , मेरा संगीत है (कॉपीराइट है ) ऐसा भाव , माया प्रेरित है। जी हाँ ; भक्ति , धर्म और अध्यात्म तीनो ही इस ओमकार की ध्वनि का ही अनुसरण कर रहें है। इसी एक मे समस्त कला , समस्त ज्ञान , समस्त विज्ञानं , समस्त विषय_दर्शन , समस्त उपभोग , सौंदर्य , तृष्णा , मिलन विछोह , सब निहित है।
और हम बुद्धू से पता नहीं क्या समझ रहे है !
संदेह और अविश्वास के प्रश्न पे प्रश्न ऐसे उगते जा रहे है जैसे किसी हृष्ट पुष्ट फलदार वृक्ष पे फल और पत्तियां ...... फल उनके लिए जो थोड़ा बहुत समझ पाते है और पत्तियां उनके लिये जो पहले से ही धारणा बनाये हुए उलझन और संदेह के कांटे लिये आते है युं ही अपना समय व्यर्थ गवाँया ; समझ के चले जाते है। अपने ही शरीर से अनजान ,अपने ही मन से बेसुध , अपने ही मानसिक खेलों से हम अनजान है , सम्मोहित से , कदम उठाते पता नहीं किधर को बढ़ते जा रहे हैं।
मानवीय इस संघर्ष कि मानसिक और आत्मिक अवस्था को आप क्या कहेंगे ? मैं तो सिर्फ़ एक शब्द दूंगी " सम्मोहन " ये सम्मोहन कभी बाहर से प्राप्त होता है और कभी स्वयं से। पर सम्मोहन की ये तन्द्रा समाप्त जीवन के साथ ही होती है। मित्रों , विश्वास किजिये , आखिरी हिचकी के समय वो अनहद वो ओमकार स्वर फ़िर से प्रकट होता है , पूरी स्पष्टता के साथ , पर , हमारे पास ही वक्त नहीं होता। मजाक हैं न ! हमारे पास वख्त कभी होता भी है क्या ? हमेशा रेत की तरह जो हमारी मुठी से निरंतर फिसला जा रहा है ; वो वक्त है ..... बन्धु !
अपने अपने फेरे , अपने अपने बोल , अपने अपने राग , और अपने अपने प्रकटीकरण , वस्तुतः ये सब भी छलावा ही है , चहुँदिशा से अगर कोइ भी स्वर उठ रहा है , तो एक ही है ,जो एकाकार होके , प्रक्रति की लय मे खोके हीं सुना जा सकता है , कोइ अडचन नहीं कि कोइ भी धारा हो ! कोई भी विश्वास हो ! कोई भी वाद्य (समाज ) हो ! कोई भी गीत ( मानसिकता ) हो ! कोइ भी बोल (व्यक्ति ) हो , "सा " से "सा" तक यात्रा करके ही पाता चलता है कि सा से शुरु की यात्रा का अन्त सिर्फ़ एक स्वर सा मे ही है।
संगीतकार ( व्यवस्थापक) कितने राग बनाले , किन्तु तारों और बोलो पे दौड़ते स्वर सा से चलकर सा पे ही रुकेंगे। जैसे स्वर में सा वंदनीया और वांछनीय है , हर आत्मा इस स्वर को साधे बिन गीत पूरा नहीं कर सकती , वैसे ही वाद्य मे स्थान है ..... थाप " धा " का। कितने ही गति और विभिन्न बोलो से चंचलता का वाद्य ठेका_प्रदर्शन करे , लय बनाये , परन्तु "धा" से से शुरू हो के " धा " पे ही समाप्त होगा।
हर तरफ से एक ही गूंज , एक ही टंकार , एक ही स्वर , वो बड़ा संगीतकार एक ही लय , और एक हीं राग गाये बजाय जा रहा है , क्या सिर्फ़ हमारे लिये !!! ...... नही नहीं , वो तो मस्त है अपने नृत्य गीत संगीत और वाद्य मे , हम सुन ले तो हमारा सौभाग्य , हम देख ले तो हमारा मोक्ष , हमारे सांसारिक हांथों दृष्टि कान बुद्धि और मन से परे दृष्टा के ह्रदय से सम्भावना है की वो देख सके , सुन सके , छू सके।
और जैसे ही उसको देखा , जाना , माना , समझा ....... उलझन शंका के सारे फेरे स्वयं ही गिर जाते है। सारा मर्म समझ मे आजाता है , सारे उपद्रवी चक्कलस सहम जाते है। प्रशन समाप्त , मस्तिष्क थम जायेगा , मन शांत हो जायेगा , ह्रदय (कमल ) खुल जायेगा , खिल जायेगा।
इस स्थान से जब आप पीछे को पलटेंगे , तो ही आप पाएंगे कि , बाकि सब सांसारिकता है ..... जीवन जीने के अद्भुत माया प्रेरित छलावे , जो आपको आपकी अज्ञानतावश छल तो रहे है .... परन्तु ..... आश्चर्य है कि अपने विभिन्न वाद्य और विभिन्न गले को ठोंकने बजाने के बाद भी और इस छल से भरे मायावी कर्तव्यों के साथ भी स्वर एक ही निकाल पा रहे है।
और सिर्फ़ एक अट्टहास ! एक स्वर ! एक लय ! एक गीत ! एक चित्र ! एक कला का ..... एक सौन्दर्य।
सो जो इनको पकड़ ले वो सुन लेगा "अनहद "
हा हा हा हा हा हा
ॐ ॐ ॐ
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