ऊर्जा एक वैज्ञानिक शब्द और आध्यात्मिक भी , जब हम तरंगो के स्तर पर उतरते है तो पाते है कि अस्तित्व के मूलभूत तत्व में से एक तत्व ऊर्जा का है। अंतर सिर्फ इतना कि विज्ञान बाह्य गामी है और अध्यात्म अंतर्गामी , विज्ञानं उर्ज़ा का सञ्चय सांसारिक उपयोग के लिये करता है , और अध्यात्म इसी उर्ज़ा के सहयोग से परगामी यात्रा।
जरा ध्यान मे विचार कीजिये उर्ज़ा रहित शव की , जो ना ज़ी सकता है ना , जीवन का उपयोग ही कर सकता है। निरर्थक सा धरती पे पडा हुआ , मिट्टी मे मिल जाने को तैयार। अग्नि दी और समाप्त हुआ ।
पर मौन सा पड़ा तत्वों का झुन्ड , थोडी देर पहले ही समस्त विकारों से ग्रस्त था , इसकी अपनीँ चिंताएं थी , व्यथाएं थीं , विचार थे , उद्वेग भी थे , मोह थे , लोभ थे , निती थीं , कूटनीति थीं। फिर अब क्या हुआ ?
निश्चित " एक मात्र ऊर्जा " अब नहीं , यही से उर्ज़ा क्षेत्र को अध्यातम विचार देता है , इसके पहले इस क्षेत्र में विज्ञानं कार्य करता है।
ऊर्जा का नियंत्रण कहाँ-कहाँ है ! अब ये विस्तार से कहने क़ी आवष्यकता नहीं , हाँ दोहराने के लिये कहना है ,' जिनको भी चाहे वो भावात्मक स्तर पे हो या शारीरिक स्तर पे ; एक_एक भाव रूप तरंग ... एक_एक शरीर के जीवन लिये लिया गया आहार .... उर्ज़ा और ऊर्जा के उपयोंग के अंदर ही है। सकारात्मक और नकरात्मक भेद हमारे है , जो लाभ देता है वो सकारात्मक और जो हानि दे वो नकारात्मक , ये वर्गीकरण बहुत व्यक्तिगत है , अति निजी है , अपनी अपनी क्षमता यानि कि ऊर्जा के प्रकार और उपयोग , एक ऊर्जा जो एक के लिये सकारात्मक है दूसरे के लिए नकारात्मक।
निश्चित है ऊर्जा को कार्य करने के लिये माध्यम की आवश्यक्ता है , बिना माध्यम के उर्जा निरर्थक है , मस्तिश्क का प्रबल सह्योग है , और मन प्रेरक , सभी प्रकार कि ऊर्जा को माध्यम तो चाहिए हीं। फिर चाहे वो सुख भाव हो या दुख का भाव हो , घृणा हो द्वैष हो याकि प्रेम हो। हँसाना हो हँसना हो , रुलाना हो या के रोना , उदासी देंना हो या लेना , ऊर्जा क़ा उपयोग हर क्षेत्र मे है , उसकी गुणात्मकता का स्वरुप का ग्राह्यात्मकता से पूर्व साकारत्मक है या नकरात्मक "स्वयं ही" स्वयम के लिये निश्चित करनी है
हमारा सम्पूर्ण सामान्य प्रयास की ऊर्जा के नकारात्मक चक्र से सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ बाहर आ जाएँ , पर ईसको बिना जाने चक्र तोडा ही नहि जा सकता , और सम्पूर्ण कथा को समझने के लिये , साक्षी भाव का सधना भी आवष्यक है। और समझते ही सबसे पहले विचार कि ऊर्जा का साकारत्मक और नकरात्मक कोइ भी पक्ष हो गतिमान उसको हम ही करते है। हमारे प्रयास के बिना उसको गति नहि मिल सकती। और एक बार हमारे शरीर पे वो उर्ज़ा (जो हमारे लिये उपयोगि नहि ) कार्य शुरु करदेती है तो हम निःसहाय महसूस करने लगती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझे तो ऊर्जा खप रही है तो असंभव है कि अपनी योजना अनुसार हम उसे सकारात्मक ऊर्जा का नाम दे दे और शरीर जब भी प्रभाव से मुक्त होगा तो वो हि ऊर्जा प्रभाव तो डाल ही रही है , उस प्रभाव को भी स्वीकार करना ही है। फिर , अपनी उपयोगिता और आवशयकता अनुसार साकारत्मक ऊर्जा का प्रवेश कराना है। और तत्परिणाम सम्पूर्ण जागरूकता के साथ अनुभव होंगे !
पर ये होगा कब ? जब आप चेतना के स्तर पे जागरूक हो जायेंगे ! ऊर्जा के एक एक कार्य क्षेत्र की कार्य प्रणाली तथा उसकी बुनावट के महीन धागे से परिचित हो जायेंगे।
चेतना के स्तर पे इसकी समझ ही स्वीकरोक्ति है , जागरूकता है , सीमित शक्ति का महा शक्ति के समक्ष समर्पण है ....
ॐ ॐ ॐ
जरा ध्यान मे विचार कीजिये उर्ज़ा रहित शव की , जो ना ज़ी सकता है ना , जीवन का उपयोग ही कर सकता है। निरर्थक सा धरती पे पडा हुआ , मिट्टी मे मिल जाने को तैयार। अग्नि दी और समाप्त हुआ ।
पर मौन सा पड़ा तत्वों का झुन्ड , थोडी देर पहले ही समस्त विकारों से ग्रस्त था , इसकी अपनीँ चिंताएं थी , व्यथाएं थीं , विचार थे , उद्वेग भी थे , मोह थे , लोभ थे , निती थीं , कूटनीति थीं। फिर अब क्या हुआ ?
निश्चित " एक मात्र ऊर्जा " अब नहीं , यही से उर्ज़ा क्षेत्र को अध्यातम विचार देता है , इसके पहले इस क्षेत्र में विज्ञानं कार्य करता है।
ऊर्जा का नियंत्रण कहाँ-कहाँ है ! अब ये विस्तार से कहने क़ी आवष्यकता नहीं , हाँ दोहराने के लिये कहना है ,' जिनको भी चाहे वो भावात्मक स्तर पे हो या शारीरिक स्तर पे ; एक_एक भाव रूप तरंग ... एक_एक शरीर के जीवन लिये लिया गया आहार .... उर्ज़ा और ऊर्जा के उपयोंग के अंदर ही है। सकारात्मक और नकरात्मक भेद हमारे है , जो लाभ देता है वो सकारात्मक और जो हानि दे वो नकारात्मक , ये वर्गीकरण बहुत व्यक्तिगत है , अति निजी है , अपनी अपनी क्षमता यानि कि ऊर्जा के प्रकार और उपयोग , एक ऊर्जा जो एक के लिये सकारात्मक है दूसरे के लिए नकारात्मक।
निश्चित है ऊर्जा को कार्य करने के लिये माध्यम की आवश्यक्ता है , बिना माध्यम के उर्जा निरर्थक है , मस्तिश्क का प्रबल सह्योग है , और मन प्रेरक , सभी प्रकार कि ऊर्जा को माध्यम तो चाहिए हीं। फिर चाहे वो सुख भाव हो या दुख का भाव हो , घृणा हो द्वैष हो याकि प्रेम हो। हँसाना हो हँसना हो , रुलाना हो या के रोना , उदासी देंना हो या लेना , ऊर्जा क़ा उपयोग हर क्षेत्र मे है , उसकी गुणात्मकता का स्वरुप का ग्राह्यात्मकता से पूर्व साकारत्मक है या नकरात्मक "स्वयं ही" स्वयम के लिये निश्चित करनी है
हमारा सम्पूर्ण सामान्य प्रयास की ऊर्जा के नकारात्मक चक्र से सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ बाहर आ जाएँ , पर ईसको बिना जाने चक्र तोडा ही नहि जा सकता , और सम्पूर्ण कथा को समझने के लिये , साक्षी भाव का सधना भी आवष्यक है। और समझते ही सबसे पहले विचार कि ऊर्जा का साकारत्मक और नकरात्मक कोइ भी पक्ष हो गतिमान उसको हम ही करते है। हमारे प्रयास के बिना उसको गति नहि मिल सकती। और एक बार हमारे शरीर पे वो उर्ज़ा (जो हमारे लिये उपयोगि नहि ) कार्य शुरु करदेती है तो हम निःसहाय महसूस करने लगती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझे तो ऊर्जा खप रही है तो असंभव है कि अपनी योजना अनुसार हम उसे सकारात्मक ऊर्जा का नाम दे दे और शरीर जब भी प्रभाव से मुक्त होगा तो वो हि ऊर्जा प्रभाव तो डाल ही रही है , उस प्रभाव को भी स्वीकार करना ही है। फिर , अपनी उपयोगिता और आवशयकता अनुसार साकारत्मक ऊर्जा का प्रवेश कराना है। और तत्परिणाम सम्पूर्ण जागरूकता के साथ अनुभव होंगे !
पर ये होगा कब ? जब आप चेतना के स्तर पे जागरूक हो जायेंगे ! ऊर्जा के एक एक कार्य क्षेत्र की कार्य प्रणाली तथा उसकी बुनावट के महीन धागे से परिचित हो जायेंगे।
चेतना के स्तर पे इसकी समझ ही स्वीकरोक्ति है , जागरूकता है , सीमित शक्ति का महा शक्ति के समक्ष समर्पण है ....
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