15 Jan 2014
स्वामी जी ने कह ही डाला - "21 सदी में भी लोग धर्म , जाति , नस्ल आदि आदि को ले कर लड़ रहे है . कैसी दयनीय स्थिति है ?"
एक जागरूक के लिए ये प्रश्न दुविधा और असमंजस से भरा हुआ है , क्यूंकि वो जानता है कि सम्पूर्ण रूप से तो सिर्फ पूर्ण ही करवट लेता है , बदलता नहीं क्यूंकि पूर्ण हर हाल में पूर्ण है बाकी आधा जो है उसके लिए न कुछ बदला है न कुछ बदलेगा क्यूंकि आधा तो आधा ही रहेगा। अगर दो आधे मिल जाये तो भी। है न अचरज ! तो कुछ नहीं बदला ये अचरज नहीं। हाँ यदि कोई आधा पूर्णता को उपलब्ध हो तो अचरज जरुर है।
आप जिसकी चर्चा कर रहे है , ये सदियों से चली आ रही व्यवस्था है , आप और हम जैसे कितने आये और चले गए। . व्यवस्था का कुछ नहीं बिगड़ा , बल्कि और शक्ति शाली हो गयी। ओशो जिनको मानते थे वो भी बुधः महावीर कबीर आदि और स्वयं आप के गुरु ओशो भी इसी से लड़ लड़ के चले गए।
हम सभी मानते है रूमी को कबीर को बुध्ह को और इसी परिपाटी के और गुरुजनो को और इनके कथन व्यक्तिगत विशेषताओ को बढ़ाने के लिए उपयोग में भी लाये जाते है। . पर क्या इनको मानने वाले भी किसी न किसी धर्म से जुड़े नहीं ? जो अक्सर विशिष्ट मुसीबत के क्षणो में शब्दो के रूप में निकलता है , जैसे ; हे ईश्वर ! जीसस ! या फिर या ख़ुदा ! अदि अदि। ये कुछ ऐसा ही है जैसे अति कष्ट में बच्चे माँ को याद करते है
क्या आप कारन जानना चाहेंगे ? वैसे तो मानवीय मानसिकता को अधिक ओशो समझते थे , उनका ही विचार था कि व्यक्ति डरा हुआ है , और शरण में रहना पसंद करता है। जब कि अध्यात्म तो उसके सर कि छत भी उखाड़ लेता है।
चलिए जरा ज्ञान का दिया जला के देखते है कि इतना अँधेरा क्यूँ है ?
सत्य के स्वीकार होते ही , संसार गायब हो जाता है , रिश्ते नाते दृश्य नाटक बन जाते है , करुणा सीमित न होके विश्वरूप होने लगती है , अपनी बनायीं दुनिया मायाजाल जैसी लुप्त हो जाती है। जो भी दिख रहा... सुनायी दे रहा , जो भी अहसास दे रहा भाव , इस शरीर से महसूस होने वाले समस्त अनुभव सब विलुप्त होने लगते है।
फिर सामान्य प्राणी ऐसा दुःसाहस क्यूँ करेगा ?
जिसको भी इस जीवन का भोग करना है वो तो धर्म की शरण से ही होगा। जिसको रस लेना है धर्म देगा । ६४ कलाओ का रस आध्यात्म में नहीं। इसीलिए धर्म है।
(६४ कलाये यानि कि (1) गायन, (2) वादन, (3) नर्तन, (4) नाटय, (5) आलेख्य (चित्र लिखना), (6) विशेषक (मुखादि पर पत्रलेखन), (7) चौक पूरना, अल्पना, (8) पुष्पशय्या बनाना, (9) अंगरागादिलेपन, (10) पच्चीकारी, (11) शयन रचना, (12) जलतंरग बजाना (उदक वाद्य), (13) जलक्रीड़ा, जलाघात, (14) रूप बनाना (मेकअप), (15) माला गूँथना, (16) मुकुट बनाना, (17) वेश बदलना, (18) कर्णाभूषण बनाना, (19) इत्र यादि सुगंधद्रव्य बनाना, (20) आभूषणधारण, (21) जादूगरी, इंद्रजाल, (22) असुंदर को सुंदर बनाना, (23) हाथ की सफाई (हस्तलाघव), (24) रसोई कार्य, पाक कला, (25) आपानक (शर्बत बनाना), (26) सूचीकर्म, सिलाई, (27) कलाबत्, (28) पहेली बुझाना, (29) अंत्याक्षरी, (30) बुझौवल, (31) पुस्तकवाचन, (32) काव्य-समस्या करना, नाटकाख्यायिका-दर्शन, (33) काव्य-समस्या-पूर्ति, (34) बेंत की बुनाई, (35) सूत बनाना, तुर्क कर्म, (36) बढ़ईगरी, (37) वास्तुकला, (38) रत्नपरीक्षा, (39) धातुकर्म, (40) रत्नों की रंगपरीक्षा, (41) आकर ज्ञान, (42) बागवानी, उपवनविनोद, (43) मेढ़ा, पक्षी आदि लड़वाना, (44) पक्षियों को बोली सिखाना, (45) मालिश करना, (46) केश-मार्जन-कौशल, (47) गुप्त-भाषा-ज्ञान, (48) विदेशी कलाओं का ज्ञान, (49) देशी भाषाओं का ज्ञान, (50) भविष्यकथन, (51) कठपुतली नर्तन, (52) कठपुतली के खेल, (53) सुनकर दोहरा देना, (54) आशुकाव्य क्रिया, (55) भाव को उलटा कर कहना, (56) धोखा धड़ी, छलिक योग, छलिक नृत्य, (57) अभिधान, कोशज्ञान, (58) नकाब लगाना (वस्त्रगोपन), (59) द्यूतविद्या, (60) रस्साकशी, आकर्षण क्रीड़ा, (61) बालक्रीड़ा कर्म, (62) शिष्टाचार, (63) मन जीतना (वशीकरण) और (64) व्यायाम। )
ये सब साधारण से असाधारण मनुष्य के लिए धर्म में स्थित है और कहा गया है कि ईश्वर इन कलाओ से भी ऊपर है। धर्म कि व्यवस्था साधारण से अति साधारण के लिए है , जबकि अध्यात्म का फूल कहीं_कहीं खिलता है।
वजह यही है ; सत्य को स्वीकार करना आसान नहीं , जब कि धर्म पनाह देता है, डराता है , और डर दूर करने का उपाय भी धर्म ही देता है।
तो .. ऐसे धर्म को जड़ से कैसे उखाड़ेंगे ?
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