प्रकृति की दी हुई रज-शक्ति जिसका समानार्थी अर्थ पराग और वीर्य से है , सामन्य रूप मे इस को शक्ति के रूप मे समझा गया जिसमे शरीर और आत्मा की चेतना समेत अन्य कई चमत्कारिक ओज पूर्ण शक्तियां निहित है। प्रजनन भी एक ऐसी हि शक्ति है। पराग के कण जब फूल की स्त्रैण शक्ति से मिलते है तो बीज का निर्माण होता है , और एक फलदार वृक्ष का वीर्य फल के केन्द्र में स्थित बीज रूप मे उपस्थित हो जाता है।
सम्पूर्ण सृष्टि मे सिर्फ़ वृक्ष के पास ही स्त्रैण और पौरुष की समग्र संतुलित शक्ति है , इसीलिए वृक्ष अति शक्तिशाली और सम्पूर्ण है ,पालन पोषण के गुन से भरे ,नैसर्गिक सौन्दर्य , छायादार फल दार , पुष्प युक्त , निःस्वार्थ सेवा , परम मौन , योग मुद्रा आदि जो भी दिव्य गुणों का बखान सम्भव है वे सारे दैवीय गुन पूर्ण रूप से वृक्ष मे ही दृष्टिगत होते है , सम्पूर्ण है वृक्ष। इससे अन्यथा सृष्टि मे हर जीव को प्रजनन के लिये शक्ति का संगर्हण स्त्रैण ऊर्जा और पौरुष ऊर्जा को द्वैत्व में सहयोग करना पड़ता है। हालाँकि ये अद्भुत है कि द्वुत्व मे भी असंतुलित अर्थ मे दोनो मे ही दोनो ऊर्जाएं की उपस्थ्ति होती है , किन्तु प्रस्फुटन सह्योग से ही सम्भव है। इस प्रस्फुटन को सम्भोग के नाम से भी जाना गया है , सँभोग अपने द्वैत्व स्वरुप मे दो तत्वों के मध्य सम्भव है , दो आत्माओं के बीच सम्भव है , अपने अदैतव स्वरुप मे ये शक्ति अंतर्मुखी होके परमात्मा के साथ सयुंक्त समभोग मे लीन होती है। योगी इसी ऊर्जा को योगशक्ति से अंतर्मुखी करके ऊर्जावान होते है।
ओशो ने इसी भाव को " सम्भोग से समाधि तक " भाव दवरा समझाने कि चेष्टा की थीं। सम्भोग का अर्थ गुणात्मक ऊर्जा के मिलन से है जो अनभिज्ञता वश ऊसी अर्थ में नहीं लिया जा सका । एक योगी समाधी में स्थित परमात्मा से सम्भोग मे तल्लीन होता है। सृष्टि में एक सामान्य प्राणीजीव सम्भोग के क्षणों मे काम ऊर्जा का मेल प्राकृतिक रूप से प्रदत्त प्रजनन के उपयोग के लिये करते है। अज्ञानता ये की अपनी इस शक्ति का पता उनकों स्वयम नही होता , और बस नैसर्गिक सरलता से एक कृत्य की तरह समाप्त होता है। मनुष्य संज्ञानी है , प्रचुर दिमाग का स्वामी है , इस कारण सोंचता तो है , परन्तु जन्म के साथ ही पर्यावरण धर्म सम्प्रदाय परिवार आदि के कारण , अज्ञानतावश इस ऊर्जा केन्द्र को न समझ के अपराध कर बैठते है , प्रकृति की एक भी शक्ति निरर्थक नहीं , त्याज्य नहीं , प्रयोजन युक्त है , पाप युक्त नहीं , उसको सही प्रकार से न समझना हमारी अज्ञानता है। और इसी अज्ञानता वश अपराध भी होते है , अपराध सिर्फ़ अज्ञानतावश ही होते है , ज्ञानी के तो कृत्य होते है। सम्पूर्ण मानवीय समाज कुछ ऐसे ही विकसित हुआ है , कि दो परम ऊर्जा के स्रोत , सहस्रधार और मूलाधार (काम केन्द्र) सबसे कठिन असाध्य योग्य बताये गए है। तिस पर साधारण वार्ता मे भी परहेज माना गया है। जिसके परिणाम स्वरूप , अज्ञानता को ही बढ़ावा मिला। अपराध को बढ़ावा मिला। यहीं पे एक आध्यत्मिक साधक जिसने चक्र केन्द्रो के रहस्य से साक्षात्कार किया है , वो इस उर्जा के प्रति अपराध कर ही नहीं सकते , संज्ञानी जानते है ,' वीर्यशक्ति जब बहिर्मुखी होती है लौकिक कृत्यों मे काम_रूप है जब यही शक्ति अंतर्मुखी होके योगी कि नसों मे प्रवाहित होती है तो काम_देव का रूप धर परमात्मा से एकाकार होती है।
शक्ति से एकाकार होना यानि शक्ति से संभोगरत होना। ऋषि मुनियों के द्वरा प्रतिपादित , शिव वाणी के रूप मे जाना गया शास्त्र " विज्ञानं भैरव तंत्र " में १०१ योगिक उपायों द्वारा योगिक शक्तयों को जीवीत करते हुए प्रकृति से एकाकार होते हुए परमात्मा से मिलन का रास्ता बताया ग़या है।
इसी आध्यात्मिक धार्मिक आधार पे मोंटे तौर पे समाज हर वर्ग को अनुशासित करने के लिये ऋषि मुनियों ने एक ऐसी व्यवस्था दी थी जिसमे अलग अलग शक्ति के स्वामी बनाऐ गये देवी देवताओ को भी नाम और पूजन इसी आधार पे खंड खंड करके अधिकृत किये गये थे।
पाप और पुण्य के मध्य भी एक महीन सी मात्र अज्ञानता की लकीर है, एक छोटी सी परिभाषा पाप और पुण्य कि सम्पूर्ण है ," वो समस्त कृत्य पाप कीं श्रेणी में आते है जो सृष्टि के प्रति अपकार से जुड़े हो , जहाँ भी सृष्टि की शक्ति का सृष्टि की कृति का रंच मात्र भी अपमान का भाव शामिल है वो कृत्य (मनसा , वाचा , कर्मणा ) तीनो के ही अन्तर्गत पाप कहे गए , और जहाँ सृष्टि का सम्मान , श्रद्धा है प्रेम है ऐसे कृत्य पुण्य कीं श्रेणी मे माने गये। " और इसी आधार पे सच्चा आध्यात्मिक साधक अपनी साधन मे सबसे पहला पाठ आभार , कृतज्ञता और प्रेम और करुणा का ही सीखता है , एक आध्यत्मिक आलोकित आत्मा सिर्फ़ प्रकर्ति से एकाकार होकर परमात्मा से मिलने चल पड़ती है। फिर तो मिलने के लिये चलना भी नहि यहीं का यहीं परमात्मा से मिलन हुआ हीं है।
जिस समाज मे भी अध्यत्मिक सज्ञान और उत्थान बढ़ेगा वहां ऐसे काम प्रेरित तथा अन्य जो सृष्टि के प्रति अपकार दिखाएँ , अकृतज्ञता दिखाएँ ऐसे लौकिक अपराध स्वयम ही समाप्त हो जायेंगे।
स्वस्थ्य तथा उन्नतशील समाज की शुभेक्षा , शुभकामनाये !!
Addition from fb friend Ajay Gajaria 's view :
सम्पूर्ण सृष्टि मे सिर्फ़ वृक्ष के पास ही स्त्रैण और पौरुष की समग्र संतुलित शक्ति है , इसीलिए वृक्ष अति शक्तिशाली और सम्पूर्ण है ,पालन पोषण के गुन से भरे ,नैसर्गिक सौन्दर्य , छायादार फल दार , पुष्प युक्त , निःस्वार्थ सेवा , परम मौन , योग मुद्रा आदि जो भी दिव्य गुणों का बखान सम्भव है वे सारे दैवीय गुन पूर्ण रूप से वृक्ष मे ही दृष्टिगत होते है , सम्पूर्ण है वृक्ष। इससे अन्यथा सृष्टि मे हर जीव को प्रजनन के लिये शक्ति का संगर्हण स्त्रैण ऊर्जा और पौरुष ऊर्जा को द्वैत्व में सहयोग करना पड़ता है। हालाँकि ये अद्भुत है कि द्वुत्व मे भी असंतुलित अर्थ मे दोनो मे ही दोनो ऊर्जाएं की उपस्थ्ति होती है , किन्तु प्रस्फुटन सह्योग से ही सम्भव है। इस प्रस्फुटन को सम्भोग के नाम से भी जाना गया है , सँभोग अपने द्वैत्व स्वरुप मे दो तत्वों के मध्य सम्भव है , दो आत्माओं के बीच सम्भव है , अपने अदैतव स्वरुप मे ये शक्ति अंतर्मुखी होके परमात्मा के साथ सयुंक्त समभोग मे लीन होती है। योगी इसी ऊर्जा को योगशक्ति से अंतर्मुखी करके ऊर्जावान होते है।
ओशो ने इसी भाव को " सम्भोग से समाधि तक " भाव दवरा समझाने कि चेष्टा की थीं। सम्भोग का अर्थ गुणात्मक ऊर्जा के मिलन से है जो अनभिज्ञता वश ऊसी अर्थ में नहीं लिया जा सका । एक योगी समाधी में स्थित परमात्मा से सम्भोग मे तल्लीन होता है। सृष्टि में एक सामान्य प्राणीजीव सम्भोग के क्षणों मे काम ऊर्जा का मेल प्राकृतिक रूप से प्रदत्त प्रजनन के उपयोग के लिये करते है। अज्ञानता ये की अपनी इस शक्ति का पता उनकों स्वयम नही होता , और बस नैसर्गिक सरलता से एक कृत्य की तरह समाप्त होता है। मनुष्य संज्ञानी है , प्रचुर दिमाग का स्वामी है , इस कारण सोंचता तो है , परन्तु जन्म के साथ ही पर्यावरण धर्म सम्प्रदाय परिवार आदि के कारण , अज्ञानतावश इस ऊर्जा केन्द्र को न समझ के अपराध कर बैठते है , प्रकृति की एक भी शक्ति निरर्थक नहीं , त्याज्य नहीं , प्रयोजन युक्त है , पाप युक्त नहीं , उसको सही प्रकार से न समझना हमारी अज्ञानता है। और इसी अज्ञानता वश अपराध भी होते है , अपराध सिर्फ़ अज्ञानतावश ही होते है , ज्ञानी के तो कृत्य होते है। सम्पूर्ण मानवीय समाज कुछ ऐसे ही विकसित हुआ है , कि दो परम ऊर्जा के स्रोत , सहस्रधार और मूलाधार (काम केन्द्र) सबसे कठिन असाध्य योग्य बताये गए है। तिस पर साधारण वार्ता मे भी परहेज माना गया है। जिसके परिणाम स्वरूप , अज्ञानता को ही बढ़ावा मिला। अपराध को बढ़ावा मिला। यहीं पे एक आध्यत्मिक साधक जिसने चक्र केन्द्रो के रहस्य से साक्षात्कार किया है , वो इस उर्जा के प्रति अपराध कर ही नहीं सकते , संज्ञानी जानते है ,' वीर्यशक्ति जब बहिर्मुखी होती है लौकिक कृत्यों मे काम_रूप है जब यही शक्ति अंतर्मुखी होके योगी कि नसों मे प्रवाहित होती है तो काम_देव का रूप धर परमात्मा से एकाकार होती है।
शक्ति से एकाकार होना यानि शक्ति से संभोगरत होना। ऋषि मुनियों के द्वरा प्रतिपादित , शिव वाणी के रूप मे जाना गया शास्त्र " विज्ञानं भैरव तंत्र " में १०१ योगिक उपायों द्वारा योगिक शक्तयों को जीवीत करते हुए प्रकृति से एकाकार होते हुए परमात्मा से मिलन का रास्ता बताया ग़या है।
इसी आध्यात्मिक धार्मिक आधार पे मोंटे तौर पे समाज हर वर्ग को अनुशासित करने के लिये ऋषि मुनियों ने एक ऐसी व्यवस्था दी थी जिसमे अलग अलग शक्ति के स्वामी बनाऐ गये देवी देवताओ को भी नाम और पूजन इसी आधार पे खंड खंड करके अधिकृत किये गये थे।
पाप और पुण्य के मध्य भी एक महीन सी मात्र अज्ञानता की लकीर है, एक छोटी सी परिभाषा पाप और पुण्य कि सम्पूर्ण है ," वो समस्त कृत्य पाप कीं श्रेणी में आते है जो सृष्टि के प्रति अपकार से जुड़े हो , जहाँ भी सृष्टि की शक्ति का सृष्टि की कृति का रंच मात्र भी अपमान का भाव शामिल है वो कृत्य (मनसा , वाचा , कर्मणा ) तीनो के ही अन्तर्गत पाप कहे गए , और जहाँ सृष्टि का सम्मान , श्रद्धा है प्रेम है ऐसे कृत्य पुण्य कीं श्रेणी मे माने गये। " और इसी आधार पे सच्चा आध्यात्मिक साधक अपनी साधन मे सबसे पहला पाठ आभार , कृतज्ञता और प्रेम और करुणा का ही सीखता है , एक आध्यत्मिक आलोकित आत्मा सिर्फ़ प्रकर्ति से एकाकार होकर परमात्मा से मिलने चल पड़ती है। फिर तो मिलने के लिये चलना भी नहि यहीं का यहीं परमात्मा से मिलन हुआ हीं है।
जिस समाज मे भी अध्यत्मिक सज्ञान और उत्थान बढ़ेगा वहां ऐसे काम प्रेरित तथा अन्य जो सृष्टि के प्रति अपकार दिखाएँ , अकृतज्ञता दिखाएँ ऐसे लौकिक अपराध स्वयम ही समाप्त हो जायेंगे।
स्वस्थ्य तथा उन्नतशील समाज की शुभेक्षा , शुभकामनाये !!
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