आह !! अद्भुत !! ये विस्तार, दो दशमलव दो लाख वर्षो का मानव इतिहास ..
11 July 2013 at 12:26 PM
पहला कदम इस धरती पे , कल्पना से परे सौंदर्य , असमान , धरती , नदिया , फूल , पहाड़ , झरने , अन्य बंधू जीव .. और हम । अचानक अन्य जीव के आक्रमण से पहले डर का जनम हुआ , असुरक्षा ने घेरा डाला , वहा से बचे तो फिर भूख ओ प्यास लगी , मौसम बदला , गर्म हवाए बदली सर्द हवाओ में अब सब डराने वाले दृश्य थे सुन्दरता खो गयी , ऊँचे गिरते धसते पहाड़ , तेज गहरी विध्वंस मचाती नदिया , ऊपर से आग , नीचे पानी , और फिर तेज हवाए , आस्मां से आक्रमण करते जीव , धरती पे आक्रमणकारी जीव , और समंदर के भयानक जीव ,
" आश्रय " सुरक्षा का प्रथम ख्याल डर ही तो था , फलस्वरूप मिलते जुलते एक प्रजाति के कुछ लोग इकट्टा हुए , सोच समझ के साथ रहना शुरू हुआ (समाज का प्रथम सूत्रपात ) उनमे से कुछ ज्यादा फुर्तीले बलशाली लोगो ने सभाल ली जिम्मेदारी अन्य को सुरक्षा देने की (राजतन्त्र का सूत्रपात ), बाहरी ताकतों से सुरक्षा मिली , पर उपरी और ज़मीं की अंदरूनी पाताली ताकतों से कैसे सुरक्षा मिले , शुरू हुआ तंत्र मंत्र का सिलसिला (पूजा उपासना का सूत्रपात ), कबिलियाई अपने अपने रीती रिवाज़ के प्रति अति आस्थावान कट्टर हुए तो धर्म का सूत्रपात हो गया , अपने अपने काबिले के प्रति प्रेम आस्था बढ़ी तो , आपसी जंग शुरू हो गयी , कमजोर हारने लगे , ..
अब यहाँ प्रश्न मौलिक जरुरतो पूरा करना मात्र नहीं रह गया था . मामला धार्मिक सामाजिक और राजनैतिक हो गया था । भाई बंधू जन ने सुरक्षा और मजबूत करनी उचित समझी अपने ही लोगो की सुरक्षा के लिए , अपने ही जैसे लोगो से । कबीला धर्म का उदय हुआ , अपने काबिले के लिए मरने वाले विशेष सम्मान के अधिकारी बने , अपने काबिले के समाज में विशेष दर्जा मिला । और दूसरी तरफ आक्रमण करने वाले अपने काबिले में सम्मान का अधिकारी बने , उनको विशेष दर्जा मिला ।( प्रथम युध्ह और युध्ह के महत्त्व का सूत्रपात ). अब सिर्फ अन्य जीव और प्राक्रतिक सुरक्षा के डर का विषय नहीं रहगया था , अब विषय बदल चुका था .
वख्ति बदलाव , युद्धों के इतिहास के फलस्वरूप काबिले देशों में बदल गए .. पर डर वही का वही था , जिस डर पे विजय हासिल करने के लिए इतना सब किया , वो डर सिर्फ वस्त्र बदल के अब भी साथ था . बल्कि अबतो दृश्य ये था की जो डर से बचने का वादा किये थे वो ही डर बन गए . डर नहीं गया , रूप बदलता गया , डर नहीं गया .
डर का तो अलाम ये है की चूहे कुत्ते , बिल्ली मच्हर , काक्रोच , मकड़ी , छिपकली .. दिन रात , हवा पानी , ऊँचाई , गहराई ... अतीत - वर्तमान - भविष्य की तिगडी , प्राकर्तिक उपद्रव , अपक्रतिक उपद्रव , अपने ही समाज के उपद्रव , आस पास बने कबिलियाई समाज के उपद्रव ..
कितने ही डर बन गए गए है , उस एक डर ( जो जंगली जानवरों से शुरू हुआ था ) पे विजय पाने के लिए ..
आज भी हम डरे हुए है वो सभी डर जो पहले थे आज भी है , वक्ती प्रगति के साथ डर की संख्या बदती ही जा रही है , पुरुष डरे है स्त्री डरी है , बच्चे डरे है , जीव जंतु डरे है , इंसान जीवो से डरे है जीव इंसानों से डरे है , और आगे चले तो घर डरे है समुदाय डरे है , प्रदेश डरे है , देश डरे है , कमजोर डरे है , बलशाली डरे है , धर्म डरे है , पुजारी , मौलवी , पादरी सभी डरे है । डर से सुरक्षा देने के नाम पर क्या क्या नहो हुआ सैन्य बल बन गए हर देश (काबिले ) में , जो मर रहे है देश के लिए और जो मार रहे है देश के नाम पे , सभी अपने अपने कबीलों में सम्मानित किये जा रहे है । विशेष हथियार भी बनगए है जो पलक झपकते ही हमको दो लाख वर्ष पूर्व पहुंचा सकते है । ये विकास और ये विकास की यात्रा या फिर हमारी उपलब्धि |
तीन हज़ार वर्षो में पंद्रह हज़ार युद्धों का लेख जोखा इतिहास में कैद है .. उसके पहले की लक्खो वर्षो की छोटी बड़ी लड़ाईयों का कोई आंकड़ा नहीं , पर अंदाज़ा तो लगाया ही जा सकता है ।
मुझे तो लगता है , ये डर ही सबसे बड़ा छलावा है , जो इस मानव रुपी जीव की राह में आया वो भस्म हो गया , ये सब कुछ नष्ट कर देगा अपने ही डर से , और तो और खुद स्वयं ये मानव भी अपनी ही आग में भस्म हो रहे है , शहीद और जेहाद के नाम पे , धर्म और मजहब के नाम पे .. सुलगता , झुलसता , सिसकता !! आधुनिक समाज ( कबीला )
ये है हमारा आज !!
इन सब में ये विचार करना तो रह ही गया - क्या आप अपने डर पे विजय हासिल कर सके ? क्या उस शुरूआती बलिष्ठ व्यक्ति ने आपको वांछित आपकी सुरक्षा दी ? क्या अन्य उस शुरूआती बलिष्ठ व्यक्ति ने आपकी धर्म की स्थापना के उध्हेय्श्य से अवगत कराया , या इन सभी ने सिर्फ कई और नए डर थाली में परोसे । और अब आप अपने ही लाखों वर्ष बनाये नीतियों में उलझ गए है ,
और अपने साथ ही आपने अन्य जीव ओ प्रक्रति को भी नहीं बक्शा ।
( घर की स्त्री की तरह गाय को देवी / गौ माता का दर्जा दे डाला , भैंस , बकरी , सभी का दोहन किया , बैल घोड़े , गधे कुत्ते , आदि , " मनुष्यों के मित्र " मनुष्यों द्वरा कहे गए , परिणाम है मनुष्यों की मित्रता की कीमत जो वो चूका रहे है , शायद वे ही जानते होंगे । जंगली जानवर अजायब घरो में कैद लोगो का मनोरंजन कर रहे है । और हम व्यवसाय कर रहे है ... उनसे (द्वारा ) और उनपे (जरिये ). बहुत बड़े व्यवसायी है हम , मित्र कहना तो छलावा है , जिस दिन उनकी जरुरत नहीं रही , उनकी जगह मशीन ने ले ली , फिर ? हम कितने धूर्त है कितना छल कर सकते है , इसका हमे शायद खुद भी अंदाजा नहीं . )
रामायण की एक चौपाई है – सुर नर मुनि सब की यह रीती, स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती। ... यह संसार की रीति है। चौपाई लिखते समय तुलसी जी ने कुछ तो महसूस जरुर किया होगा ।
क्या आप अपने ही विचारो पे पुनर विचार जरुरी नहीं समझते ?
Om Pranam !!
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