भाव का जुड़ना नितांत आवश्यक है। परम तक की सारी यात्रा ही भाव की है , तरंगो की है। मन के तार का जुड़ना आवश्यक है। और वो किस प्रकार से जुड़ेंगे ये आपसे बेहतर कोइ नहीं जानता। पर इतना निश्चित है , जब भी ये तार जुड़ेंगे एक तारा झनझनायेगा , गीत फूटेगा , संगीत गूंजेगा , या तो अचानक आप घनी भीड़ मे अकेले हो जायंगे , या नितांत एकांत की अवस्था में वो परम उतरेगा , जब आपके ह्रदय की जमीन तैयार हो जाएगी , प्रभु के स्वागत के लिये , तब अवतरण होगा। निष्कर्ष ये की किसी भी हाल मे अकेलापन नहीं , एकांत आवश्यक है , और इसके लिये मौन का सधना नितांत आवश्यक है। और ये भी की ये कोइ अन्य नहीं आप स्वयम करेंगे अपने लिये।
इतनी धाराएँ इसी कारण प्रचलित है, क्यूंकि इतनी तरह से सोचने वाले मौजूद है ! किसी को जीवित गुरु का साथ भाता है ..आश्रम वास भाता है .. आश्रम की व्यवस्था मे व्यस्त रहते हुए उनको लगता है कि वे संतुष्ट है और जो उनको चाहिए वो उन्हे मिल रहा है , कोइ जो आश्रम को अपना निवास बना लेते है तो क़ोई थोड़ा वक्त गुजार के घर को वापिस आ जाते है। कोई कला पे न्योछावर हो जाते है , योगी अपने योग मे स्थित हो के उसके दर्शन पाते है , तो समाज सेवी मनुष्यो कि सेवा से , कुछ अन्य जीवो के लिये अपना जीवन समर्पित करदेते है। तो कोइ एकांत मे मौन मे मिलन की अनुभूति कर पाते है। तो कोइ दर्शन तो कोइ विज्ञानं आदि विषय पे अपना जीवन न्योछावर कर देते है , भक्ति के कितने रूप हो सकती है वर्णनतीत है मूर्तिपूजन या परमात्मा भक्ति ही सिर्फ़ भक्ति नहीं। कर्म और आस्था कहीं भी जुड जाये तो भक्ति बन जाती है। किसान की खेती , व्यवसायी का व्यवसाय के प्रति , पुरुष की निष्ठां और समर्पण परिवार के प्रति कर्म के प्रति आस्था के प्रति प्रेम के प्रति , स्त्री का परिवार के प्रति समर्पण। गृहस्थ सन्यस्थ सभी मार्ग है आस्था के प्रेम के , विश्वास के , भक्ति के अनेक रूप हैं। जितनी व्याख्या करो कम है , जितने मस्तिष्क उतनी धाराएं , उतने ही विश्वास। उतने ही परमात्मा तक पहुँचने के रास्ते। ये समस्त उच्च कोटि की भक्ति है , ईश्वर कि प्राप्ति कहीं से भी , कैसे भी ! पर एकतारे का वो तार झनझना चहिये ....
दोस्तो , वो कोइ दूसरा नहीं कर सकता , आपका वाद्य आपको ही बजाना है। कही भाग के नहीं हो सकता , जंगल मे भी आपकी अपनी इक्षाए और वासनाएं पीछा करेंगी। उनको जीना ही पड़ेगा , समझना ही पड़ेगा की " का चुपि साधि रह्यो बलवाना , पवन तनय बल पवन समाना " ,
आपमें अन्तर्निहित शक्तिया है और ये परम ने आपको आपकी यात्रा के लिये ही सौंपी है , कुछ तो विचार किया होगा , उसने जो आपमें अपना वास बनाया। और आप भटक रहे है इधर उधर। अंततोगत्वा ; कोइ भी राह हो , आत्ममंथन हर राह पे अनिवार्य है , मौन अनिवार्य है , स्वास्थ्य अनिवार्य है , वैचारिक स्पष्टता अनिवार्य है , और एक बात और अनिवार्य है कि यात्रा आपकी अकेले की ही है , इसमे किसी भी तरीके की दुविधा नहीं है। दुविधा तो जाने दीजिये। कोई तर्क ही नहीं है ,वास्तविक गुरु भी आपको कुछ दूर ध्यान की ऊँगली पकड़ा के अपनी ऊँगली छोड़ने की सलाह देगा , यही कहेगा ,' अब यहाँ से आगे तुम्हारा रास्ते अकेले का है , तुमको स्वयं ही उस परम तक जाना है . , आश्रम मे हजारो के बीच भी एक वृक्ष तले बैठ के स्वयं ही चिन्तन करना है , कोइ सहायता नहीं कर सकता। कोई भी सफलता का एक फार्मूला नहीं बता सकता। सब आपको करना है अपना मार्ग स्वयम आपको बनाना है। एक एक कील गाड़ते हुए ( अपने उपर विजय पाते हुए ) आपको ये चढ़ाई स्वयं पूरी करनी है। चाहे आप घर त्याग कीजिये या आश्रम त्याग कीजिये। सारे त्याग निष्फल है। अगर आपका ह्रदय आपकी नहीं सुनता , अगर मस्तिष्क आपके उपर बार बार काबू पा लेता है यदि चंचल मन अतृप्त भावनाओं मे भटकता ही रहना चाहता है , तो कहीं भी चले जाए कोइ लाभ नहीं मिलने वाला , अरे ! लोग तो कैलाश जाके भी शिव से नहीं मिल पाते , और उससे उलट घर मे ध्यान मे शिव स्वयं आलिंगन करते है।
क्यों इधर उधर भटकने की छटपटाहट आप झेल रहे है ?
जबकि करना सिर्फ़ इतना है शांत वातावरण मे , अपने अंदर उतरना है, और वो प्रकाश , वो इक्षित , चिरप्रतीक्षित , वहीँ बैठा मिलेगा। इतना विश्वास सकते है।
ऋषि कुल से लेकर आजतक संज्ञान को प्राप्त हर तरंगित गुरुमित्रों ने तरंग से जुड़ कर यही कहा , और मैं भी यही कहती हूँ। वो तो आशीष दे रहे है प्रोत्साहन दे रहे है , सहयोग भी दे रहे है , चल पड़िये जीवन यात्रा पे। एकलयता , एकात्मकता , एकभाव हो जाना कोइ दुरूह नहीं वो तो स्वभाव है बस विस्मृत हुआ है , वो रहता तो आपके अपने ही दिल मे है धड़कता है , आँखों मे छुप कर सब देखता है , कानो से सुनता है , भोजन से स्वाद लेता है आप जब अपना ध्यान रखते है तो वो प्रसन्न होता है और कष्टो से कष्ट होता है उसको। जब प्रसन्न होते है स्वस्थ होते है तो वो जीवन शक्ति के रुप मे आपकी नसों मे बहता है।
दोस्त ! जो भी पढ़े इसको , निवेदन है कि अपनी अवस्था पे बेचैनियों पे और कश्मकश पे पुनर विचार करे , पुनर निरीक्षण करें ! अपनी क्षमता और योग्यता को कम न समझे , आपमें सम्पूर्ण संभावना है।
आपको सफलता अवश्य मिलेगी !
असीम शुभकामनायें
इतनी धाराएँ इसी कारण प्रचलित है, क्यूंकि इतनी तरह से सोचने वाले मौजूद है ! किसी को जीवित गुरु का साथ भाता है ..आश्रम वास भाता है .. आश्रम की व्यवस्था मे व्यस्त रहते हुए उनको लगता है कि वे संतुष्ट है और जो उनको चाहिए वो उन्हे मिल रहा है , कोइ जो आश्रम को अपना निवास बना लेते है तो क़ोई थोड़ा वक्त गुजार के घर को वापिस आ जाते है। कोई कला पे न्योछावर हो जाते है , योगी अपने योग मे स्थित हो के उसके दर्शन पाते है , तो समाज सेवी मनुष्यो कि सेवा से , कुछ अन्य जीवो के लिये अपना जीवन समर्पित करदेते है। तो कोइ एकांत मे मौन मे मिलन की अनुभूति कर पाते है। तो कोइ दर्शन तो कोइ विज्ञानं आदि विषय पे अपना जीवन न्योछावर कर देते है , भक्ति के कितने रूप हो सकती है वर्णनतीत है मूर्तिपूजन या परमात्मा भक्ति ही सिर्फ़ भक्ति नहीं। कर्म और आस्था कहीं भी जुड जाये तो भक्ति बन जाती है। किसान की खेती , व्यवसायी का व्यवसाय के प्रति , पुरुष की निष्ठां और समर्पण परिवार के प्रति कर्म के प्रति आस्था के प्रति प्रेम के प्रति , स्त्री का परिवार के प्रति समर्पण। गृहस्थ सन्यस्थ सभी मार्ग है आस्था के प्रेम के , विश्वास के , भक्ति के अनेक रूप हैं। जितनी व्याख्या करो कम है , जितने मस्तिष्क उतनी धाराएं , उतने ही विश्वास। उतने ही परमात्मा तक पहुँचने के रास्ते। ये समस्त उच्च कोटि की भक्ति है , ईश्वर कि प्राप्ति कहीं से भी , कैसे भी ! पर एकतारे का वो तार झनझना चहिये ....
दोस्तो , वो कोइ दूसरा नहीं कर सकता , आपका वाद्य आपको ही बजाना है। कही भाग के नहीं हो सकता , जंगल मे भी आपकी अपनी इक्षाए और वासनाएं पीछा करेंगी। उनको जीना ही पड़ेगा , समझना ही पड़ेगा की " का चुपि साधि रह्यो बलवाना , पवन तनय बल पवन समाना " ,
आपमें अन्तर्निहित शक्तिया है और ये परम ने आपको आपकी यात्रा के लिये ही सौंपी है , कुछ तो विचार किया होगा , उसने जो आपमें अपना वास बनाया। और आप भटक रहे है इधर उधर। अंततोगत्वा ; कोइ भी राह हो , आत्ममंथन हर राह पे अनिवार्य है , मौन अनिवार्य है , स्वास्थ्य अनिवार्य है , वैचारिक स्पष्टता अनिवार्य है , और एक बात और अनिवार्य है कि यात्रा आपकी अकेले की ही है , इसमे किसी भी तरीके की दुविधा नहीं है। दुविधा तो जाने दीजिये। कोई तर्क ही नहीं है ,वास्तविक गुरु भी आपको कुछ दूर ध्यान की ऊँगली पकड़ा के अपनी ऊँगली छोड़ने की सलाह देगा , यही कहेगा ,' अब यहाँ से आगे तुम्हारा रास्ते अकेले का है , तुमको स्वयं ही उस परम तक जाना है . , आश्रम मे हजारो के बीच भी एक वृक्ष तले बैठ के स्वयं ही चिन्तन करना है , कोइ सहायता नहीं कर सकता। कोई भी सफलता का एक फार्मूला नहीं बता सकता। सब आपको करना है अपना मार्ग स्वयम आपको बनाना है। एक एक कील गाड़ते हुए ( अपने उपर विजय पाते हुए ) आपको ये चढ़ाई स्वयं पूरी करनी है। चाहे आप घर त्याग कीजिये या आश्रम त्याग कीजिये। सारे त्याग निष्फल है। अगर आपका ह्रदय आपकी नहीं सुनता , अगर मस्तिष्क आपके उपर बार बार काबू पा लेता है यदि चंचल मन अतृप्त भावनाओं मे भटकता ही रहना चाहता है , तो कहीं भी चले जाए कोइ लाभ नहीं मिलने वाला , अरे ! लोग तो कैलाश जाके भी शिव से नहीं मिल पाते , और उससे उलट घर मे ध्यान मे शिव स्वयं आलिंगन करते है।
क्यों इधर उधर भटकने की छटपटाहट आप झेल रहे है ?
जबकि करना सिर्फ़ इतना है शांत वातावरण मे , अपने अंदर उतरना है, और वो प्रकाश , वो इक्षित , चिरप्रतीक्षित , वहीँ बैठा मिलेगा। इतना विश्वास सकते है।
ऋषि कुल से लेकर आजतक संज्ञान को प्राप्त हर तरंगित गुरुमित्रों ने तरंग से जुड़ कर यही कहा , और मैं भी यही कहती हूँ। वो तो आशीष दे रहे है प्रोत्साहन दे रहे है , सहयोग भी दे रहे है , चल पड़िये जीवन यात्रा पे। एकलयता , एकात्मकता , एकभाव हो जाना कोइ दुरूह नहीं वो तो स्वभाव है बस विस्मृत हुआ है , वो रहता तो आपके अपने ही दिल मे है धड़कता है , आँखों मे छुप कर सब देखता है , कानो से सुनता है , भोजन से स्वाद लेता है आप जब अपना ध्यान रखते है तो वो प्रसन्न होता है और कष्टो से कष्ट होता है उसको। जब प्रसन्न होते है स्वस्थ होते है तो वो जीवन शक्ति के रुप मे आपकी नसों मे बहता है।
दोस्त ! जो भी पढ़े इसको , निवेदन है कि अपनी अवस्था पे बेचैनियों पे और कश्मकश पे पुनर विचार करे , पुनर निरीक्षण करें ! अपनी क्षमता और योग्यता को कम न समझे , आपमें सम्पूर्ण संभावना है।
आपको सफलता अवश्य मिलेगी !
असीम शुभकामनायें
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