सबसे प्रथम विचार कि भाव सृजन सहज , सरल , तुलना , हानिरहित और बोधगम्य हो। इस विचार के साथ ही भाव का प्रकटीकरण हो आवश्यकता की सामने वाला भी इन्ही गुणों से परिचित हो , द्वित्य की ये परिस्थिति कोइ एक है जो सरल है सहज है और दूसरा निर्णयात्मक बुद्धि का है , तीसरा है कि दोनो ही निर्णयात्मका और लौकिक चातुर्य से भरे है , लबालब। ये प्रकार सामान्य मनुष्य की परिस्थिति का नहीं , राजनेताओं का है, अति विषम है स्व के ज्ञान भाव और अहंकार से भरे लौकिक बौद्धिक लोगो का है ।
सामान्यतः प्रथम श्रेणी उत्तम है पर दुर्गम है सत्संग मे भी दुर्लभ है। , दूसरी मे संसार समाया है , यानी कि मतभेद कहने और सुनने के बीच उपस्थित है।
९५ % लोग इसी हादसे का शिकार है , क्यूंकि संरचना मे ग्राह्यता और प्रेषण के बीच चार द्वार है , भाव की उत्पत्ति , भाव का प्रेषण यानि कि दिया जाना , फ़िर इसी परम्परा से जब ग्रहणता आती है तो शब्द तरंगो से पहले टकराते है , फ़िर सामने वाले के भाव को छूते है , यही प्रक्रिया बार बार दोहराये जाने पे क्लिष्ट और कठोर हो जाती है , यहाँ पे ही इस मानसिक उद्वगिन्नता की अवस्था मे व्यक्ति चूक जाते है.... जब वो अपने अपने सही विचार को सही सही रुप से बार बार दूसरे तक पहुँचाने की निरर्थक अंतहीन चेष्टा मे फ़ँस जाते है और परिणाम भी अनुकूल नहीं निकलते। परिणाम स्वरुप उद्विग्नता , क्लेश , मतभेद और बेचैनियाँ हिस्से मे आती है।
अन्य एक उपाय है कि आपका मौन वार्तालाप कारगर हो , परन्तु यदि मौन-भाव-प्रेषण इतना ही कारगर होता तो इतने भटकाव ही क्यूँ होता फिर तो शब्दों का काम खतम ही हुआ ! यानि कि परिस्थति उतनी उत्तम नहीं , दो के बीच वार्तालाप गुणात्मक नहीं। परन्तु निराशा से कही अच्छा उपाय है और सर्वप्रथम इसको सँभालने के लिये स्वयं को ही सम्भालना होगा। यही समय है जब थोडी देर के लिये ही सही ; स्वयं से वार्तालाप करना चाहिए , उचित और अनुचित का विचार करना चाहिए , मन और बुद्धि को विश्राम चाहिए पर ध्यान रहे स्वयं से किया वार्तालाप किसी एक तरफ झुका नही होना चाहिए , पक्ष का निष्पक्ष होना आवश्यक है। आपके स्वयं के भाव का सकारात्मक और मध्य मे ह्रदय का स्थिर होना आवश्यक है।
यहाँ पे जब कभी भी यदि चेतावनी की परिस्थिति बनती है , तो सिर्फ़ स्वयं के लिये। बुध्हजन कभी बाह्य परिस्थिति को सँभालने की कोशिश नहीं करते , क्यूंकि सम्भालना और संवरना सिर्फ़ स्वयं के लिये। और बाहर के लिए सुझाव ही कार्य करते है।
आपके अपने बालक ( मन बुद्धि ) बाहर से थक के लौटेंगे , तो अपने मूल स्थान मे ही विश्राम पाएंगे। घर के मालिक को , घर इस हालत मे रखना ही है कि बाहर के मैल को बालक घर आ के धो डाले और शरीर को स्वक्ष कर सकें। हालाँकि बालक ही है फ़िर जायेंगे , फ़िर खेलेंगे , फ़िर मैल लगेगा। आपका अपने मन मस्तिष्क के साथ वो हि रिश्ता है जो एक माँ का और पिता का अपनी संतान के प्रति। बालक कितना भी उपद्रव करे , संरक्षक अपना धैर्य और प्रेम नहीं खोते। समझाते है , प्रेम करते है , भोजन , वस्त्र , विश्राम का स्थान और बालक को आगे आने वाले कठोर वख्त के लिये तैयार भी करते है।
और क्या ?
सुवासित तरंगे सुवास ही बहायेंगी , संभवतः वायु की दिशा के अनुरूप सुगंध फैलेगी ..... पुष्प अपना कार्य प्राकृतिक रुप से बिना प्रयास करेगा।
ॐ ॐ ॐ
सामान्यतः प्रथम श्रेणी उत्तम है पर दुर्गम है सत्संग मे भी दुर्लभ है। , दूसरी मे संसार समाया है , यानी कि मतभेद कहने और सुनने के बीच उपस्थित है।
९५ % लोग इसी हादसे का शिकार है , क्यूंकि संरचना मे ग्राह्यता और प्रेषण के बीच चार द्वार है , भाव की उत्पत्ति , भाव का प्रेषण यानि कि दिया जाना , फ़िर इसी परम्परा से जब ग्रहणता आती है तो शब्द तरंगो से पहले टकराते है , फ़िर सामने वाले के भाव को छूते है , यही प्रक्रिया बार बार दोहराये जाने पे क्लिष्ट और कठोर हो जाती है , यहाँ पे ही इस मानसिक उद्वगिन्नता की अवस्था मे व्यक्ति चूक जाते है.... जब वो अपने अपने सही विचार को सही सही रुप से बार बार दूसरे तक पहुँचाने की निरर्थक अंतहीन चेष्टा मे फ़ँस जाते है और परिणाम भी अनुकूल नहीं निकलते। परिणाम स्वरुप उद्विग्नता , क्लेश , मतभेद और बेचैनियाँ हिस्से मे आती है।
अन्य एक उपाय है कि आपका मौन वार्तालाप कारगर हो , परन्तु यदि मौन-भाव-प्रेषण इतना ही कारगर होता तो इतने भटकाव ही क्यूँ होता फिर तो शब्दों का काम खतम ही हुआ ! यानि कि परिस्थति उतनी उत्तम नहीं , दो के बीच वार्तालाप गुणात्मक नहीं। परन्तु निराशा से कही अच्छा उपाय है और सर्वप्रथम इसको सँभालने के लिये स्वयं को ही सम्भालना होगा। यही समय है जब थोडी देर के लिये ही सही ; स्वयं से वार्तालाप करना चाहिए , उचित और अनुचित का विचार करना चाहिए , मन और बुद्धि को विश्राम चाहिए पर ध्यान रहे स्वयं से किया वार्तालाप किसी एक तरफ झुका नही होना चाहिए , पक्ष का निष्पक्ष होना आवश्यक है। आपके स्वयं के भाव का सकारात्मक और मध्य मे ह्रदय का स्थिर होना आवश्यक है।
यहाँ पे जब कभी भी यदि चेतावनी की परिस्थिति बनती है , तो सिर्फ़ स्वयं के लिये। बुध्हजन कभी बाह्य परिस्थिति को सँभालने की कोशिश नहीं करते , क्यूंकि सम्भालना और संवरना सिर्फ़ स्वयं के लिये। और बाहर के लिए सुझाव ही कार्य करते है।
आपके अपने बालक ( मन बुद्धि ) बाहर से थक के लौटेंगे , तो अपने मूल स्थान मे ही विश्राम पाएंगे। घर के मालिक को , घर इस हालत मे रखना ही है कि बाहर के मैल को बालक घर आ के धो डाले और शरीर को स्वक्ष कर सकें। हालाँकि बालक ही है फ़िर जायेंगे , फ़िर खेलेंगे , फ़िर मैल लगेगा। आपका अपने मन मस्तिष्क के साथ वो हि रिश्ता है जो एक माँ का और पिता का अपनी संतान के प्रति। बालक कितना भी उपद्रव करे , संरक्षक अपना धैर्य और प्रेम नहीं खोते। समझाते है , प्रेम करते है , भोजन , वस्त्र , विश्राम का स्थान और बालक को आगे आने वाले कठोर वख्त के लिये तैयार भी करते है।
और क्या ?
सुवासित तरंगे सुवास ही बहायेंगी , संभवतः वायु की दिशा के अनुरूप सुगंध फैलेगी ..... पुष्प अपना कार्य प्राकृतिक रुप से बिना प्रयास करेगा।
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