दोस्तों !
भाव न तो सकारात्मक होते है न ही नकारात्मक , ऐसा व्यवहारिक रूप से प्रथम ज्ञानी के साथ बैठक में ही ज्ञान मिलने लगता है , परन्तु जिनके ह्रदय में भाव आंदोलित हो रहे है , उनके लिए छटनी कर पाना संभव नहीं होता , बिलकुल वैसे ही जैसे अनंत गहराई रूप समुद्र में गोता लगा रहे डूब रहे इंसान को स्वयं से तैर कर बाहर आने में अथक प्रयास करने पड़ते है , कभी कभी प्रयास ही प्रयास में शरीर इतना थक जाते है की प्रयास भी करने की शक्ति शेष नहीं बचती ...
( ऐसे में अज्ञानतावश कुछ भी हो सकता है , सौभाग्यवश जीवन के लिए अनुकूल प्रयास भी और अज्ञानता की बहुलता में जीवन के विपरीत भी )
पर यदि थोड़े प्रयास से हम आंदोलित भाव को ठहर जाने दे , और साक्षी भाव जगा पाएं , तो सबसे पहले हम ये पाएंगे की पीड़ा का तूफान जो समुद्र रूप ह्रदय में लहरे उठा रहा है यहाँ वास्तव में मात्र सब माया है छलावा ही है वास्तविकता शुन्य है .... हम समुद्र में नहीं है ..... अभी जिसको हम समुद्र मान रहे थे अथाह न पार पाने वाला , अचानक दृशय पलटा और वहीँ रेगिस्तान बन गया
वास्तविक उद्भव , स्थति और मर्म समझने के लिए , शरीर के तत्व के माध्यम से उन्ही तात्विक संकेतों का उपयोग करते हुए आपको तरंगित जगत के सत्य तक ले जाना चाहती हूँ ,क्यूंकि तत्व जगत की अपनी रचना है और परिणाम है , परन्तु संकेत है जो आपस में गुथे हुए है और वहीँ से हमको वो इशारा भी मिलेगा , क्यूंकि प्रकृति में तरंग और तत्व के कार्य और परिणाम में भेद नहीं है
यहाँ आशय आपको तत्व रूप के समुद्र में उतारना नहीं है , वरन तरंगो की अनुभूति मात्र देनी है , आपको तो समुद्र के किनारे बैठ ठंडी ठंडी हवा का मज़ा लेना, और लहरो को देखते जाना है , आहिस्ता आहिस्ता , ये उठती लहरे तरंग का रूप ले आपके ह्रदय में उतरने लगती है , छोटी बड़ी असंख्य , अनवरत , अथक , प्रवाहशील , तरंगित होके आपके ह्रदय को आंदोलित करने लगती है , कुछ सुख का अहसास देती हुई तो कुछ दुःख का , कोई पीड़ा दे रही है तो कोई सुखद सुगंध , जो मध्य में ठहरा हुआ है वो देखपा रहा है की उत्प्पति का कारन जल का अत्यधिक संग्रह , और चन्द्रमा रुपी ग्रह अपने चुंबकीय गुण द्वारा इस ज्वार और भाटे मुख्य कारन है , ज्वार और भाटा को समझे तो यहाँ वेग से समझ सकते है ये सकारात्मक भी हो सकते है और नकारात्मक भी। ( जिस तरह चन्द्रमा जलीय तत्व यानि की भाव तत्व को आंदोलित करता है , उसी प्रकार आपके अंदर बैठा चन्द्रमा से आंदोलित मन आपके भाव चक्र की ऊर्जा को गति देता है , सकारात्मक नकारात्मक से इसका परिचय नहीं , लालसा और लोभ से पूर्ण परिचित है ) अब आप सोचेंगे की यदि गृह से सब संचालित है तो हम कर भी क्या सकते है ! , सच है ! आप और हम सब सौर मंडल से ही बंधे है , पर कर्म और प्रयास हमारे अपने खाते के है , परिणाम हमारे नहीं परन्तु संतुलन हमारे ही खाते में है। ..
जब आप अपने अथक ध्यान प्रयास द्वारा जब आप " वेग " को देखने में सक्षम हो जाते है , तो दूसरा स्तर आता है जब आपको सकारात्मक और नकारात्मक के उद्भव स्थल को देखने की इक्षा जागती है।
ऊर्जा का मूल स्वरुप एक ही है वहां खंड नहीं ... वहां मात्र और सिर्फ अखंड है , खंड हमारे है , क्यूंकि क्षणिक और लौकिक स्वार्थ वश हमने अपने भावो को अपनी इक्षा अनुसार बाँध रखा है। और कल्पना में भी हम कुछ भी खोना नहीं चाहते , सिर्फ पाना चाहते है। ( यहाँ अति महत्वपूर्ण धारा है जिस वस्तु को आप पूर्ण जी लेते है उसको स्वयं आप अपने घर से बाहर कर देते है ताकि घर में नयापन बना रहे पुराने बिगड़े सामान तकलीफ ही देते है ) वास्तव में , जीवन में भी , जिस पल को हम जी लेते है बस वो ही जीवन का उपयोग है , संजोना पकड़ना हमारी फितरत है पर बहाव में बहना और जीवन को हरपल महसूस करना एक विधा है जो हम सबके अंदर है। यहाँ भी थोड़ी भटकन आती है व्यवहार में क्युकी , हम तरंगो और तत्वों में मेल नहीं कर पाते , तर्क दे सकते है की सम्बन्ध कोई सामान नहीं। पर इस अवस्था को समझने के लिए आपको तरंगो को समझना ही पड़ेगा की मौलिक रूप से प्रकृति गुणधर्म एक से दिए है चाहे वो तरंग हो या तत्व। सब परिवर्तनशील है , बदल रहे है। तत्व आप छू सकते है तरंग आप महसूस कर सकते है , पर ठहराव कही भी नहीं , दोनों ही स्थूल और सूक्ष्म में एक गति , एक प्रवाह है।
अब इसी तात्विक और तरंगित ऊर्जा को जनन स्थल जानने के लिए सम्पूर्ण रूप से समझते है , तात्विक रूप से आप स्वयं देख पाते है की तत्व हजारो लाखों की संख्या में रोज जनम ले रहे है तथा नष्ट भी हो रहे है , तत्व के जन्म में तत्व ही माध्यम होते है , ऊर्जा का प्रवेश होता है और जनम होता है।
तरंगित जगत में भी ऐसे ही जन्म और मृत्यु हो रही है , पर वो सहज दिखाई नहीं देती , उनकी दुनिया इस दुनिया से अलग है , अपितु कार्य तत्व के माधयम से ही ऊर्जा करती है , जैसे इन्द्रियों के सहयोग से !
यहाँ पे जनम से पूर्व ऊर्जा पूर्ण है ! तरंगो का बंटवारा भी जन्म लिए हुए दो बच्चो के समान होता है तो कभी एक साथ ही दो का जनम हो जाता है , तो यहाँ तरंगित जगत में भी जोड़े से जुड़वाँ पैदा होते है तो कभी जुड़े हुए तरंगित शरीर। शायद जो जन्म से जुड़े हुए है उनको अलग करना सही नहीं होता , सिर्फ परिस्थति का स्वीकार ही एक उपाय है , और पैतृक धर्म का निर्वाह तरंगो में शरीर के सामान ही करना पड़ता है। जुड़वाँ है पर भाव के छोर विपरीत है ऐसे तरंगो में सतुलन करते रहना मात्र सहारा या उपाय है। और जन्म अलग अलग लेकर भी ऊर्जा का तो बटवारा हुआ ही है। इस बंटी हुई ऊर्जा में तालमेल बिठाते ही रहना है।
अब जरा और करीब से देखिये ! अलग अलग भाव समेटे हुए चित्र है , किसी में सहयोगिता है तो किसी में विरोध तो कहीं बस एक साथ रह रहे है की और कोई चारा भी नहीं। कोई जन्म से जुड़े है तो कोई कर्म से तो कोई भाव से .........बिलकुल ऐसे ही तरंगित जगत आपमें भी वास करता है।
ध्यान दीजियेगा ये भाव जगत की चर्चा हो रही है , जहां के मालिक या सेवक आप है
तात्व्कि और तरंगित परिस्थति की समानता के उदाहरण के लिए , यहाँ हम पाते है की दो जुड़वाँ बच्चो का जन्म यानि कि दो भावो सकारात्मक और नकारात्मक का एकसाथ जन्म ( एक धागे के दो छोरों के सामान जिनके सिरे अलग है पर ये स्वयं को प्रयास द्वारा भी अलग नहीं कर सकते ) , जो बालक दुर्घटनावश जन्म से ही जुड़े होते है , ये प्रतीक बनते उन भावो का जिनमे असहायता छलकती है की सकारातमक और नकारात्मक एक साथ ही प्रवेश करेंगे जुडी हुई परिस्थति में , जिसका अंदाजा भी पहले से नहीं लग पाता। पर संतान जन्म के साथ ही लालन पालन का उत्तरदायित्व बोध और प्रेम स्वीकार भी करता है और निर्वाह भी। इन दोनों उदाहरणों में दूसरे के प्रति सिर्फ प्रेम और समर्पण है। प्रथम के प्रति संतुलन का प्रयास। तीसरा भाव अति सामान्य है जहा रोज ही भाव स्वस्थ पूर्ण है यानि की इनमे दोनों ऊर्जा की सम्भावना समायी है सकारात्मक भी और नकारात्मक भी। इनमे स्वयं में भी ( आंतरिक दुनिया ) वो ही गुण दोनों रूपं में दिखेंगे और भाई बहन ( बाहरी दुनिया ) में भी संतुलन होते और करते मिलेंगे। भाव रूप में इनको आप समझ सकते है की स्वयं से आंतरिक संतुलन के अनवरत प्रयास , और बाह्य जगत से संतुलन के अनवरत प्रयास।
इतना समझने के बाद अब जरा अपनी तरफ लौटते है , अपनी ऊर्जा को देखते है , एक बार अपनी ऊर्जा को जान लिया तो बाह्य ऊर्जा भी वैसी ही प्रतिबिंबित है। उसको समझना कठिन नहीं होगा। वैसे भी बाहर की दुनिया को समझने में तो महारथ हासिल है , एक पल नहीं लगता और झट से धारणाये बनती है। अंतर्दृष्टि का खुलना ही कठिन हो जाता है , ये यात्रा अंदर की है , ऊर्जा के आंतरिक और एक स्वरुप को समझने की है।
अब तक इतना स्पष्ट तो हो गया की मौलिक रूप से ऊर्जा एक है , सकारात्मक या नकारात्मक नहीं। जब ऊर्जा के महत्त्व और उतपत्ति को जान लिया तो सिर्फ एक कार्य बचता है स्वीकारोक्ति , सजगता के साथ और सहजता के साथ। और ये भी की ऊर्जा अपना कार्य इन्द्रियों के द्वारा ही कर पाती है। अब समस्या न हो तो कोई बात भी क्यों करे ? यहाँ भी इन्द्रियों के राजा , शरीर के चौकीदार यदि जागरूक न हो तो हर तरंग प्रवेश कर जाती है। अच्छी तरंग अच्छा प्रभाव डालती है और बुरी तरंग बुरा और शरीर जब रोगी होने लगते है तो चेतना को पता चलता है , की असंतुलन ज्यादा हो चूका है। तब आप ऊर्जा के स्वक्छंद आवागमन के प्रवाह पे योग द्वारा काबू करते है।
अब जो चित्र है वो सजह आपको कहता है की ऊर्जा का ताल मेल और परिस्थति को जैसी है वैसी ही स्थति में स्वीकार करना ही बुद्धिमानी का की प्रथम सीढ़ी है
जो भी है ऊर्जा के दोनों स्वरुप , अंदर या भय जगत के मुझे पूर्ण स्वीकार है , उत्तरदायित्व है मेरा इनके प्रति
इस योग दवरा ही जब आप साक्षी भाव को जगा पाते है , तो आपको सारी गुत्थियां सुलझती नज़र आ जाती है। क्यूंकि एक और रहस्य का पता चलता है , की ऊर्जा का अस्तित्व प्राकृतिक है प्रवाह निर्बाध है इन ऊर्जा को प्रवाहित होने के लिए जो साधन है , जो प्रेरक है वो लौकिक मन है , कारणवश या कमजोरी वश निर्भीक हुआ मन आपको धक्का दे रहा है लगातार , पूरे नियोजन और स्वतंत्रता के साथ आपके अपने शरीर का स्वेक्छा और स्वतंत्रता से उपयोग कर रहा है। और दूसरा मस्तिष्क जो आपका अपना जिसको आपने चौकीदार बनाया है , वो मालिक बन सभी विभाग को आज्ञापूर्वक मन के अनुरूप कार्य करवा रहा है , यानी की पूरा तंत्र ही दूषित है। बाकि समस्त इन्द्रिया आपके नियंत्रण के आभाव में इनकी सहयोगी है और इनकी गुलाम है।
पूरे अध्याय को साक्षी भाव द्वारा वैसे ही देखना है जैसे ध्यान मग्न दो नेत्र सम्पूर्ण जगत को महसूस करते है , प्रयास के साथ पूर्ण स्वीकारोक्ति का भाव । और वो अनुभव का क्षण आपके लिए परम शांति की तरफ अग्रसर कष्टरहित यात्रा का होगा।
आप कौन ? इस समस्त तंत्र के लिए आप निश्चित अवधि के लिए नियुक्त हुए है। आपकी कुछ नैतिक उत्तरदायित्व है अपने इस तंत्र के लिए। " आप " अति सूक्ष्म रूप में उस परम ऊर्जा से जुड़े हुए है। आप उसका अंश है।
जब भी ध्यान में बैठे , सकारात्मक ऊर्जा के संचार के लिए , ईश्वर को धन्यवाद और आभार प्रकट करना न भूलने , हर उस उपहार के लिए जो उसने आपको दिया है , तत्व रूप में तरंग रूप में , जिनकी अनुपस्थ्ति के लिए आप कुछ नहीं कर सकते थे , ये जीवन आपको तब भी जीना ही पड़ता। जिनके साथ रहते हुए आपको उनके सहयोग का प्रेम का आभास भी नहीं। फिर वो उपहार तरंग रूप में हो तत्व रूप में , आपके अंदर हो या आपके आस पास , वे सभी आपके आभार के हक़दार है।
आहिस्ता आहिस्ता जैसे इस यात्रा में आप मेरे साथ गहरे उतरे थे , उसी प्रकार आप वापिस दोबारा उसी बिंदु को छूने का प्रयास कीजिये , अपने बंधन दोष और फेरो का सहज और स्वयं पता चलेगा। अब आप स्वयं के फेरों को गिन सकते है , किस कदर आप माया जाल में उलझे थे , समझ सकते है। और इस जागरूकता के साथ ही समस्त फेरे स्वयं नष्ट हो जाते है , बिलकुल वैसे ही जैसे सूर्योदय के साथ ही जगत में फैला अंधकार।
भाव न तो सकारात्मक होते है न ही नकारात्मक , ऐसा व्यवहारिक रूप से प्रथम ज्ञानी के साथ बैठक में ही ज्ञान मिलने लगता है , परन्तु जिनके ह्रदय में भाव आंदोलित हो रहे है , उनके लिए छटनी कर पाना संभव नहीं होता , बिलकुल वैसे ही जैसे अनंत गहराई रूप समुद्र में गोता लगा रहे डूब रहे इंसान को स्वयं से तैर कर बाहर आने में अथक प्रयास करने पड़ते है , कभी कभी प्रयास ही प्रयास में शरीर इतना थक जाते है की प्रयास भी करने की शक्ति शेष नहीं बचती ...
( ऐसे में अज्ञानतावश कुछ भी हो सकता है , सौभाग्यवश जीवन के लिए अनुकूल प्रयास भी और अज्ञानता की बहुलता में जीवन के विपरीत भी )
पर यदि थोड़े प्रयास से हम आंदोलित भाव को ठहर जाने दे , और साक्षी भाव जगा पाएं , तो सबसे पहले हम ये पाएंगे की पीड़ा का तूफान जो समुद्र रूप ह्रदय में लहरे उठा रहा है यहाँ वास्तव में मात्र सब माया है छलावा ही है वास्तविकता शुन्य है .... हम समुद्र में नहीं है ..... अभी जिसको हम समुद्र मान रहे थे अथाह न पार पाने वाला , अचानक दृशय पलटा और वहीँ रेगिस्तान बन गया
वास्तविक उद्भव , स्थति और मर्म समझने के लिए , शरीर के तत्व के माध्यम से उन्ही तात्विक संकेतों का उपयोग करते हुए आपको तरंगित जगत के सत्य तक ले जाना चाहती हूँ ,क्यूंकि तत्व जगत की अपनी रचना है और परिणाम है , परन्तु संकेत है जो आपस में गुथे हुए है और वहीँ से हमको वो इशारा भी मिलेगा , क्यूंकि प्रकृति में तरंग और तत्व के कार्य और परिणाम में भेद नहीं है
यहाँ आशय आपको तत्व रूप के समुद्र में उतारना नहीं है , वरन तरंगो की अनुभूति मात्र देनी है , आपको तो समुद्र के किनारे बैठ ठंडी ठंडी हवा का मज़ा लेना, और लहरो को देखते जाना है , आहिस्ता आहिस्ता , ये उठती लहरे तरंग का रूप ले आपके ह्रदय में उतरने लगती है , छोटी बड़ी असंख्य , अनवरत , अथक , प्रवाहशील , तरंगित होके आपके ह्रदय को आंदोलित करने लगती है , कुछ सुख का अहसास देती हुई तो कुछ दुःख का , कोई पीड़ा दे रही है तो कोई सुखद सुगंध , जो मध्य में ठहरा हुआ है वो देखपा रहा है की उत्प्पति का कारन जल का अत्यधिक संग्रह , और चन्द्रमा रुपी ग्रह अपने चुंबकीय गुण द्वारा इस ज्वार और भाटे मुख्य कारन है , ज्वार और भाटा को समझे तो यहाँ वेग से समझ सकते है ये सकारात्मक भी हो सकते है और नकारात्मक भी। ( जिस तरह चन्द्रमा जलीय तत्व यानि की भाव तत्व को आंदोलित करता है , उसी प्रकार आपके अंदर बैठा चन्द्रमा से आंदोलित मन आपके भाव चक्र की ऊर्जा को गति देता है , सकारात्मक नकारात्मक से इसका परिचय नहीं , लालसा और लोभ से पूर्ण परिचित है ) अब आप सोचेंगे की यदि गृह से सब संचालित है तो हम कर भी क्या सकते है ! , सच है ! आप और हम सब सौर मंडल से ही बंधे है , पर कर्म और प्रयास हमारे अपने खाते के है , परिणाम हमारे नहीं परन्तु संतुलन हमारे ही खाते में है। ..
जब आप अपने अथक ध्यान प्रयास द्वारा जब आप " वेग " को देखने में सक्षम हो जाते है , तो दूसरा स्तर आता है जब आपको सकारात्मक और नकारात्मक के उद्भव स्थल को देखने की इक्षा जागती है।
ऊर्जा का मूल स्वरुप एक ही है वहां खंड नहीं ... वहां मात्र और सिर्फ अखंड है , खंड हमारे है , क्यूंकि क्षणिक और लौकिक स्वार्थ वश हमने अपने भावो को अपनी इक्षा अनुसार बाँध रखा है। और कल्पना में भी हम कुछ भी खोना नहीं चाहते , सिर्फ पाना चाहते है। ( यहाँ अति महत्वपूर्ण धारा है जिस वस्तु को आप पूर्ण जी लेते है उसको स्वयं आप अपने घर से बाहर कर देते है ताकि घर में नयापन बना रहे पुराने बिगड़े सामान तकलीफ ही देते है ) वास्तव में , जीवन में भी , जिस पल को हम जी लेते है बस वो ही जीवन का उपयोग है , संजोना पकड़ना हमारी फितरत है पर बहाव में बहना और जीवन को हरपल महसूस करना एक विधा है जो हम सबके अंदर है। यहाँ भी थोड़ी भटकन आती है व्यवहार में क्युकी , हम तरंगो और तत्वों में मेल नहीं कर पाते , तर्क दे सकते है की सम्बन्ध कोई सामान नहीं। पर इस अवस्था को समझने के लिए आपको तरंगो को समझना ही पड़ेगा की मौलिक रूप से प्रकृति गुणधर्म एक से दिए है चाहे वो तरंग हो या तत्व। सब परिवर्तनशील है , बदल रहे है। तत्व आप छू सकते है तरंग आप महसूस कर सकते है , पर ठहराव कही भी नहीं , दोनों ही स्थूल और सूक्ष्म में एक गति , एक प्रवाह है।
अब इसी तात्विक और तरंगित ऊर्जा को जनन स्थल जानने के लिए सम्पूर्ण रूप से समझते है , तात्विक रूप से आप स्वयं देख पाते है की तत्व हजारो लाखों की संख्या में रोज जनम ले रहे है तथा नष्ट भी हो रहे है , तत्व के जन्म में तत्व ही माध्यम होते है , ऊर्जा का प्रवेश होता है और जनम होता है।
तरंगित जगत में भी ऐसे ही जन्म और मृत्यु हो रही है , पर वो सहज दिखाई नहीं देती , उनकी दुनिया इस दुनिया से अलग है , अपितु कार्य तत्व के माधयम से ही ऊर्जा करती है , जैसे इन्द्रियों के सहयोग से !
यहाँ पे जनम से पूर्व ऊर्जा पूर्ण है ! तरंगो का बंटवारा भी जन्म लिए हुए दो बच्चो के समान होता है तो कभी एक साथ ही दो का जनम हो जाता है , तो यहाँ तरंगित जगत में भी जोड़े से जुड़वाँ पैदा होते है तो कभी जुड़े हुए तरंगित शरीर। शायद जो जन्म से जुड़े हुए है उनको अलग करना सही नहीं होता , सिर्फ परिस्थति का स्वीकार ही एक उपाय है , और पैतृक धर्म का निर्वाह तरंगो में शरीर के सामान ही करना पड़ता है। जुड़वाँ है पर भाव के छोर विपरीत है ऐसे तरंगो में सतुलन करते रहना मात्र सहारा या उपाय है। और जन्म अलग अलग लेकर भी ऊर्जा का तो बटवारा हुआ ही है। इस बंटी हुई ऊर्जा में तालमेल बिठाते ही रहना है।
अब जरा और करीब से देखिये ! अलग अलग भाव समेटे हुए चित्र है , किसी में सहयोगिता है तो किसी में विरोध तो कहीं बस एक साथ रह रहे है की और कोई चारा भी नहीं। कोई जन्म से जुड़े है तो कोई कर्म से तो कोई भाव से .........बिलकुल ऐसे ही तरंगित जगत आपमें भी वास करता है।
ऊपर का चित्र दिखा रहा है ऊर्जा का एक संगठित स्वरुप जिसमे दोनों ही छोर सामूहिक रूप से वास कर रहे है , और नीचे एक ही ऊर्जा का विघटन दो पक्ष में हुआ है
कर्म बंधन में बंधे दो ऊर्जा केन्द्रो को बेबस करती हुई वेदना पर पूर्ण स्वीकार्य
अद्भुत पूर्ण सहमति और सहयोग का प्रतिनिधित्व करती हुई तस्वीर
स्वयं से ही प्रेम करती हुई
कभी स्वयं को ही ज्ञान देते हुए
तो कभी दोनी सुसुप्तावस्था में , एक दूसरे की उपस्थ्ति से भी अनजान
कभी एक पक्ष की उदासी और नासमझी की स्थति तो अपने ही अंदर दूसरा पक्ष सपूर्ण संतुष्ट
कभी यूँ ही खोये खोये से
कभी कभी दोनों अनुभूतियाँ एक दूसरे को बराबर की टक्कर देती है कोई हारने को तैयार नहीं , ये आपके अपने अंदर के युद्ध को दर्शाते है ,
कभी दोनों ही पक्षों का सभी गलतियां सामने वाले में देखना
तो कभी गजब का भाई चारा और स्वयं के ही दोनों पक्षों का मित्रवत राजनैतिक व्यवहार , जरूर लौकिक स्वार्थ या किसी कमजोरी के कारण
तो स्वयं के स्वयं से अंतरद्वंद्व और असहमति
और ये सभी आपके अंदर की भिन्न भिन्न अन्तर्दशा को ही दिखा रहे है , ऐसा ही एक सम्पूर्ण जगत का वास है हमारे अंदर जिसको अंतर्जगत कहते है , और इसी को देखने के लिए जिस दृष्टि की आवश्यकता है उसको अंतर्दृष्टि कहा जाता है ...........
ध्यान दीजियेगा ये भाव जगत की चर्चा हो रही है , जहां के मालिक या सेवक आप है
तात्व्कि और तरंगित परिस्थति की समानता के उदाहरण के लिए , यहाँ हम पाते है की दो जुड़वाँ बच्चो का जन्म यानि कि दो भावो सकारात्मक और नकारात्मक का एकसाथ जन्म ( एक धागे के दो छोरों के सामान जिनके सिरे अलग है पर ये स्वयं को प्रयास द्वारा भी अलग नहीं कर सकते ) , जो बालक दुर्घटनावश जन्म से ही जुड़े होते है , ये प्रतीक बनते उन भावो का जिनमे असहायता छलकती है की सकारातमक और नकारात्मक एक साथ ही प्रवेश करेंगे जुडी हुई परिस्थति में , जिसका अंदाजा भी पहले से नहीं लग पाता। पर संतान जन्म के साथ ही लालन पालन का उत्तरदायित्व बोध और प्रेम स्वीकार भी करता है और निर्वाह भी। इन दोनों उदाहरणों में दूसरे के प्रति सिर्फ प्रेम और समर्पण है। प्रथम के प्रति संतुलन का प्रयास। तीसरा भाव अति सामान्य है जहा रोज ही भाव स्वस्थ पूर्ण है यानि की इनमे दोनों ऊर्जा की सम्भावना समायी है सकारात्मक भी और नकारात्मक भी। इनमे स्वयं में भी ( आंतरिक दुनिया ) वो ही गुण दोनों रूपं में दिखेंगे और भाई बहन ( बाहरी दुनिया ) में भी संतुलन होते और करते मिलेंगे। भाव रूप में इनको आप समझ सकते है की स्वयं से आंतरिक संतुलन के अनवरत प्रयास , और बाह्य जगत से संतुलन के अनवरत प्रयास।
इतना समझने के बाद अब जरा अपनी तरफ लौटते है , अपनी ऊर्जा को देखते है , एक बार अपनी ऊर्जा को जान लिया तो बाह्य ऊर्जा भी वैसी ही प्रतिबिंबित है। उसको समझना कठिन नहीं होगा। वैसे भी बाहर की दुनिया को समझने में तो महारथ हासिल है , एक पल नहीं लगता और झट से धारणाये बनती है। अंतर्दृष्टि का खुलना ही कठिन हो जाता है , ये यात्रा अंदर की है , ऊर्जा के आंतरिक और एक स्वरुप को समझने की है।
अब तक इतना स्पष्ट तो हो गया की मौलिक रूप से ऊर्जा एक है , सकारात्मक या नकारात्मक नहीं। जब ऊर्जा के महत्त्व और उतपत्ति को जान लिया तो सिर्फ एक कार्य बचता है स्वीकारोक्ति , सजगता के साथ और सहजता के साथ। और ये भी की ऊर्जा अपना कार्य इन्द्रियों के द्वारा ही कर पाती है। अब समस्या न हो तो कोई बात भी क्यों करे ? यहाँ भी इन्द्रियों के राजा , शरीर के चौकीदार यदि जागरूक न हो तो हर तरंग प्रवेश कर जाती है। अच्छी तरंग अच्छा प्रभाव डालती है और बुरी तरंग बुरा और शरीर जब रोगी होने लगते है तो चेतना को पता चलता है , की असंतुलन ज्यादा हो चूका है। तब आप ऊर्जा के स्वक्छंद आवागमन के प्रवाह पे योग द्वारा काबू करते है।
अब जो चित्र है वो सजह आपको कहता है की ऊर्जा का ताल मेल और परिस्थति को जैसी है वैसी ही स्थति में स्वीकार करना ही बुद्धिमानी का की प्रथम सीढ़ी है
अपने कर्म और कर्म_फल से यदि आप स्वयं को पृथक कर सकें तो आपके पास निश्चित रूप से सिर्फ समर्पण और उत्तरदायित्व रहेंगे।
जो भी उस परमात्मा से मिला वो उपहार कम नहीं बल्कि जरुरत से ज्यादा है , बस स्वीकार और आभार का भाव जगाना है।
इस योग दवरा ही जब आप साक्षी भाव को जगा पाते है , तो आपको सारी गुत्थियां सुलझती नज़र आ जाती है। क्यूंकि एक और रहस्य का पता चलता है , की ऊर्जा का अस्तित्व प्राकृतिक है प्रवाह निर्बाध है इन ऊर्जा को प्रवाहित होने के लिए जो साधन है , जो प्रेरक है वो लौकिक मन है , कारणवश या कमजोरी वश निर्भीक हुआ मन आपको धक्का दे रहा है लगातार , पूरे नियोजन और स्वतंत्रता के साथ आपके अपने शरीर का स्वेक्छा और स्वतंत्रता से उपयोग कर रहा है। और दूसरा मस्तिष्क जो आपका अपना जिसको आपने चौकीदार बनाया है , वो मालिक बन सभी विभाग को आज्ञापूर्वक मन के अनुरूप कार्य करवा रहा है , यानी की पूरा तंत्र ही दूषित है। बाकि समस्त इन्द्रिया आपके नियंत्रण के आभाव में इनकी सहयोगी है और इनकी गुलाम है।
पूरे अध्याय को साक्षी भाव द्वारा वैसे ही देखना है जैसे ध्यान मग्न दो नेत्र सम्पूर्ण जगत को महसूस करते है , प्रयास के साथ पूर्ण स्वीकारोक्ति का भाव । और वो अनुभव का क्षण आपके लिए परम शांति की तरफ अग्रसर कष्टरहित यात्रा का होगा।
आप कौन ? इस समस्त तंत्र के लिए आप निश्चित अवधि के लिए नियुक्त हुए है। आपकी कुछ नैतिक उत्तरदायित्व है अपने इस तंत्र के लिए। " आप " अति सूक्ष्म रूप में उस परम ऊर्जा से जुड़े हुए है। आप उसका अंश है।
जब भी ध्यान में बैठे , सकारात्मक ऊर्जा के संचार के लिए , ईश्वर को धन्यवाद और आभार प्रकट करना न भूलने , हर उस उपहार के लिए जो उसने आपको दिया है , तत्व रूप में तरंग रूप में , जिनकी अनुपस्थ्ति के लिए आप कुछ नहीं कर सकते थे , ये जीवन आपको तब भी जीना ही पड़ता। जिनके साथ रहते हुए आपको उनके सहयोग का प्रेम का आभास भी नहीं। फिर वो उपहार तरंग रूप में हो तत्व रूप में , आपके अंदर हो या आपके आस पास , वे सभी आपके आभार के हक़दार है।
आहिस्ता आहिस्ता जैसे इस यात्रा में आप मेरे साथ गहरे उतरे थे , उसी प्रकार आप वापिस दोबारा उसी बिंदु को छूने का प्रयास कीजिये , अपने बंधन दोष और फेरो का सहज और स्वयं पता चलेगा। अब आप स्वयं के फेरों को गिन सकते है , किस कदर आप माया जाल में उलझे थे , समझ सकते है। और इस जागरूकता के साथ ही समस्त फेरे स्वयं नष्ट हो जाते है , बिलकुल वैसे ही जैसे सूर्योदय के साथ ही जगत में फैला अंधकार।
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