इस बात को स्वीकार करने मे कोइ भी हिचक नहीं कि मानव जीवन चुकता है अर्थात व्यतीत होता जाता है , और पुनः पुनः इसी देह के साथ यही जीवन मिले , ये भी संभावना नहीं , यदि कहीं ... किसी ने भी .. कोइ भी .. ऐसेविचार का सहारा लिया है तो कृपया भूल सुधार कर ले ...... पुनर्जन्म पे आस्था रखने वाले भी समझ ले , कि वो ही ऊर्जा वो ही देह बार बार नहीं मिल सकती , और नई देह मे ऊर्जा के नये कर्म बन्धन होते है नयी यात्रा होती है , बार बार एक ही पुराने स्टेशन पे पहुंचना और बार बार वंही से यात्रा करना प्रकृति का गुण नहीं है प्रकृति तो हर क्षण नयी है परिवर्तन शील है , ये मानव सोच है जो मानवीय सहेजने के गुण धर्म को तुष्ट मात्र करती है। ऊर्जा शक्तिरूप एक हो सकता है , तत्व के मौलिक स्वरुप एक हो सकते है , किन्तु इन के मिश्रण से जो देह मिलती है और इस देह मे जो जीवन मिलते है वो भी एक ही है। परम के यहाँ हर बात निराली है , अनोखी है , और एक ही है। इस जीवन के प्रयोजन को समझना ही जीव का उद्देश्य होता है , अज्ञानतावश माया के प्रभाव से प्रभावित जीव की बेचैनियां उसी की भटकन है , और ये भटकन इतनी गहन है कि हर तत्व मे हर गुन मे हर वस्तु मे उसी परम के गुण रूप दर्शन की लालसा जीव को भटकाती है।
दोस्त , वो परम चैतन्य है , वो परम ऊर्जा है , उसको सांसारिक अर्थों मे , सांसारिक पदार्थो मे पूर्ण रुप से पाया नहीं जा सकता , हां ! उसका संकेत हर सम्बन्ध हर भाव मे हर पदार्थ हर जीव मे दिखेगा । पर पूर्णता तो एक मे ही है , विश्राम तो एक मे ही है। मीठे खट्टे और सामान्य सांसारिक सम्बन्धो और अनुभवों से गुजरते हुए ये मानते हुए कि मेरा अनुभव इस वस्तु से इतने ही था , पडाव के समान उसको प्रभु इक्षा को समर्पित कर यात्रा मे आगे स्वेक्छा से बड़ जाना ही उत्तम है। क्यूंकि इसके आलावा अन्य सभी रास्ते मानसिक और शारीरिक अनावश्यक संघर्ष के है , अनावश्यक इसलिए क्यूंकि इसके दुष्प्रभाव आपके मन मंदिर को सहन करने पड़ते है , जिसका प्रभाव शरीर और मन की शक्ति का ह्रास रूप में होता है , और फ़िर भी होता वो ही है जो निश्चित है , जो प्रारब्ध है। शक्ति का ह्रास , अनमोल समय का चुक जाना , ये ऐसे हीरे है जिनकी भरपाई संभव ही नहीं , गये तो गये। इसलिए संभल संभल के कर्म करते हुए जीवन के प्रवाह को समझना और जीना ही जीवण के मर्म को प्राप्त करने मे सहायता करते है। और सम्भालना भी तब तक जब तक अज्ञानता का पर्दा पड़ा है , ज्ञान के प्रकट होते ही स्वयं सब स्पष्ट हो जाता है।
सांसारिक भाव सम्बन्ध वैचारिक वेग उद्वेग सब चुकने वाले है , कोइ भी स्थिर नहीं , आज है कल रुप बदलना ही है , और भविष्य मे क्या रूप होगा इसके तो विचार भी हास्यास्पद है ," सत्य केवल आज है " ये वाक्य कितनी ही बार हमारे कानोसे गुजरा कि अब इसकी आवाज भी सुन सुन के हम आदि हो चुके है। पर एक न एक दिन इस सत्य को अपने ह्रदय मे धारण करना ही है। जीवन आज में शाश्वत है। और भूत काल हमारे इकठा किये कंकड़_ पत्थर तथा भविष्य कल्पना लोक मे विचरण है। भूत भविष्य के विदा होते ही सिर्फ़ आज ही बचता है , ठीक वैसे ही जैसे एक प्रकाश की किरण के जलते ही अन्धकार दूर हो जाता है।
जो भी इस सत्य को जान लेते है सांसारिक प्रसन्नताएं और पीडा का उद्गम समझना कठिन नहीं होता और मूल समझते ही निदान स्वयम हो जाता है। परम ने आश्चर्यजनक शक्ति हर जीव को दी है , कि जब तक देह मे प्राण है , वो स्वयं को स्वस्थ करते ही रहते है , इसीलिए प्रकृति के स्वभावानुसार थोड़ा ध्यान रखने मात्र से ही हम शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रह सकते है। देह में प्राण का अर्थ ही यही है कि शरीर का हर सेल रोज रोज नया हो रहा है , पुराना समाप्त हो रहा है। ऐसी प्रकृति की संरचना है। पर हमारी मानसिक एक्छिक संरचना प्रकृति से विपरीत चलती है ,अपने आस पास हर वस्तु , हर भाव , हर सम्बन्ध , हर जीवन को पकड़ के ऐसा सहेजते है , जैसे न हमे इस संसार से कभी जाना है और ना ही हम अपने पिंजरे मे पकड हुए को जाने देंगे। जब अपने से नीचे की धारा के इंसानो को रोकना संभव नही हो पाता तो यही व्यवहार अन्य जीवों को पालतू बनाके उनके साथ करते है। मनोवैज्ञानिक शायद मानव की इस कमजोरी को समझते है इसीलिए कभी कभी वो स्वयं सलाह देते है कोइ मित्र जीव को पालतू बना के उसकी देखभाल करो !
मनोविज्ञान भी बहुत विस्तृत है , किन्तु सांसारिक विषय है उसका आधार सिर्फ़ मनोविकारों को समझना और दूर करने तक सीमित है , जब कि अध्यात्म उस मूल स्रोत को छूने का नाम है जहाँ समस्त गुण दोषो को जन्म मिलता है . और सिर्फ़ छूने तक ही नहीं , ये तो यात्रा का आरम्भ है , मूल चेतना मे स्थिरता ही एक मात्र अध्यात्म मार्ग द्वारा जीव का प्रश्रय है , जो वास्तविक यात्रा क़ा उद्देश्य भी है। और यही उद्देश्य इन्सान को भटकाता भी है विभिन्न धाराएँ भिन्न भिन्न ज्ञान देते गुरु ( वस्तुतः शायद वो उतने गलत नहीं जितनी हमारी समझ गलत होती है उनके हमारे विचार और जरूरते मेल नहीं खाते , हम उनके योग्य नहीं या फ़िर वो हमारे योग्य नहीं , इसको कैसे भी जान के और मान के नया रास्ता अपनाना हीं चाहिए ) , सही दिशा मे उपलब्धि न मिल पाने से निराशा भी मिलती है। वास्तव में अनुपलब्धियॉ सिर्फ़ इशारा है कि आपको अपने मार्ग पे पुनर्विचार करना चाहिए। ये निराशाजनक नहीं वरन संकेत है पुनर्विचार का , नये मार्ग निर्धारण का और जीवन की यात्रा के बहाव मे संघर्षरहित बहने का। मित्रो ! कर्म रहित की बात नहीं , कर्म हीनता का शिक्षण नहीं है ) शिक्षण है कि सपूर्ण शारीरिक और मानसिक व्यवस्था कर्म प्रधान हो पर फल मे आसक्ती न हो। यही तो गीता का मूल ज्ञान भी है !
मित्रों ! यहाँ एक बात और बाटना है......मूल शास्त्र ऋषियों के अनुभव का निचोड़ है और इतरेतर शास्त्रो की विवेचनाये प्रयास है .. भांति भांति के बुद्धि से सम्पन्न लोगो के लिए जीवन की रीति दर्शन के ... जिन कीं व्याख्या में भटकाव हो सकता है। अपनी अपनी वृत्ति अनुसार उन आत्मन के द्वारा की गयी विवेचना किसी को समझ आ सकता है किसी को नहीं संभव है की वो भाषा वो व्याख्या न समझ आये , और दिया हुआ समय व्यर्थ लगे ! तो कोइ बात नहीं ! मूल मे भटकाव नहीं है , वहां एक दम सीधी और स्पष्ट बात है , आप सीधा भी मौलिक रूप से उन दिव्य आत्माओं से जुड़ सकते है। निष्कर्ष रूप में भिन्न रूपोंसे कहीं और भिन्न भिन्न लोगो द्वारा कही बात मूलतः एक ही है। उसमे दो राय नहीं। हमारे लिए बात सिर्फ इतनी सी है कि किसने क्या कहा से ज्यादा ज़रूरी है क्या समझा ग़या ! वास्तव मे हमारी शक्तियां सीमित है , हमारे पास समय भी सीमित है , तो हजारों वर्षों के विस्तार मे ना जा के , अपनी वृत्ति अनुसार इत्र की मौलिक बूंदे अति महत्वपूर्ण है। और प्रत्यक्ष बोध तो अतुलनीय है , सभी शास्त्र और ज्ञान से श्रेष्ठ है .....
अन्त मे, चूँकि परम का जुड़ाव ह्रदय से है वो ही रास्ता सही जिसमे हृदय राजी हो , जिस पथ पे श्रद्धा विकसित हो , एकलयता जागृत हो एक रूपता का प्रवेश हो , दिव्य का अनहद सुनाई दे !
ॐ ॐ ॐ
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