गुण रूप धागे के एक छोर पकड़ने की कोशिश तो दूसरा हाथ में रह जायेगा , इन दोनों के मध्य जो ठहर गया वो ही ज्ञानी बुद्ध कहलायेगा ... सुख को पकड़ा तो दुःख हाथ आएगा , दुःख को पकड़ा तो सुख रह जायेगा और सुख और दुःख को छोड़ने पकड़ने के चक्कर में अगर सुख थोड़ा सा भी बच गया तो इस चक्र में दुःख का भाव फिर घूम के आएगा , इन दोनों की पकड़ से परे जो मिला वो ही सच्चा ज्ञानवान का जीवन कहलायेगा।
सम्पूर्ण कथा सार को जानने के लिए , पात्र के चक्रव्यूह से निकलना ही पड़ता है , और दर्शक दीर्घा में बैठ कर ही ज्ञात होता की आखिर ये भी चलचित्र है उस चलचित्र की तरह। जब तक घूमते घेरे से बाहर नहीं निकले तब तक जान ही नहीं पाएंगे , की दो छोरो के दौड़ में फंसे जीव की दशा और इस पात्र की कहानी आखिर है क्या।
सपने को समझने के लिए कितनी भी सुखकारी नींद हो , तोड़नी ही पड़ती है। क्यूंकि यदि आज का सपना अच्छा है तो कल का बुरा होसकता है , इस अच्छे और बुरे से भी ऊपर ये ज्ञात हो जाना की अच्छा हो या बुरा दोनों ही मात्र सपने ही है।
भूख के लिए निर्णयात्मक विचार और कथन से पूर्व , व्यक्ति का भूखा रह के स्वयं भूख की गुणवत्ता को जान लेना उचित है , स्वयँ की भरपेट अवस्था में भूख से व्याकुल के लिए निर्णयात्मक विचार रखना अनुचित है। कर्मो के भोग के दुःख और पीड़ा को समझने के लिए साक्षी का साधना आवश्यक है।
आपने कहावत सुनी ही होगी ," जाके पाँव न फाटे बिवाई वो का जाने पीर परायी "
किसी भी अवस्था को जानने के लिए उसका अनुभव होना अत्यंत आवश्यक है , वर्ना बाकि सारा ज्ञान किताबी ज्ञान ही बनके रह जाता है। जो मात्र समूह में दो चार के बीच , गप्प करने और समय बिताने जैसा साबित होता है। मित्रों ! दोनों अवस्थाओं में गुणात्मक भेद है !
यदि कोई अपनी आँखों से देखने की बात कर रहा है , अवश्य अनुभव होगा , अनुभव से बड़ा कोई ज्ञान नहीं। यही अवस्था दिव्य चक्षु की है , दिव्य जागृत चक्षु से अनुभव किया गया ज्ञान अतुलनीय है ।
अब ये आपके चतुर्ये और इक्षा शक्ति पे निर्भर करता है जो आपकी जीवन यात्रा और आपके प्रारब्ध से जुड़ा है , की आपको अंतस प्रेरणा कैसी मिल रही है ! अनुभव की या फिर गप्प की।
मनुष्य की यादास्त इतनी कमजोर है की हमारे हर भाव क्षणिक है , सुख दुःख , पीड़ा प्रसन्नता सब लहरो जैसे आते जाते रहते है , प्रकृति की अति कठोर घटना मृत्यु तक को घटित होते देखा और स्वयं पे भी यदि बीती , प्रियजन चला गया , ऐसा प्रिय जिसके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं तो भी क्षणिक वैराग्य ने घेरा भी , परन्तु माया तृष्णा , जीवन की प्यास , उपलब्धि अनुपलभ्धि के खाते के तले , वो क्षणिक वैराग्य धूमिल हो जाता है। और फिर जीवन पूर्ववत चलने लगता है , माया में चक्कर लगाना प्रीतिकर लगता है। और जीवन फेरे में कैद हो के जीव प्रपंच में जीवन शुरू कर देते है, ऐसे झटके एक बार नहीं बार बार लगते है। परन्तु जीव नहीं चेत पाता और इन्ही झटको के अनुभव के कारण ये माया जनित अनुभूति होने लगती है की मुझे सब पहले से ही ज्ञात है , परन्तु ज्ञात का विस्मरण हुआ पड़ा है उसका क्या ? अधूरा अनुभव झूठा आत्मसंतोष देता है ! जब प्रकृति इस बार अवसर दे तो चूकना नहीं , पूरा अनुभव से गुजर जाने के बाद ही असली और नकली का भेद समझ आता है।
मित्रों !! सिर्फ और सिर्फ ... आपका साक्षी भाव ही आपका परम मित्र है। वो ही आपको इस भवसागर से पार जाने की दृष्टि देता है। वर्ना तो ध्रतराष्ट्र और गांधारी के चरित्र के समान आखों पे पट्टी बांधे ... असहाय से ... कर्म की भट्टी में जलते हुए .... समस्त पीड़ाओं में जीते हुए छटपटाते ही रहते है। संजय ( दूसरे ) की आँखों से सब सुनते हुए मानते हुए वस्तुस्थति को जीते जाते है और स्वयं लाचारी का लबादा ओढ़े रहते है। सम्पूर्ण महाभारत आज भी जीवित है सिर्फ जीवित ही नहीं सफलता पूर्वक कर्मरत भी है , जो प्रतीक रूप में एक ध्रतराष्ट्र और एक गंधारी और सो पुत्रो का वर्णन है , वो आज भी लोगो के चरित्र में बस रहा है। आँखों पे पट्टी बाँधे समझ ही नहीं पाते की .... इस स्थिति परिस्थिति में करें तो आखिर करें क्या ? और विलाप करते है या फिर भाग्य को कोसतें है ।
भागवद पुराण , गीता आदि ये बड़े महत्वपूर्ण व्यवहारिक पवित्र प्रतीक ग्रन्थ है , व्यर्थ नहीं है , अज्ञानतावश हीरे को पत्थर मत समझ लेना । इनके शब्द जंगल के विस्तार_जाल से बचते हुए "सार सार को ही ग्रहण करना है " दिव्या नेत्रों से ये कुछ और कहते दिखाई देंगे , सांसारिक आँखों से कुछ और ही बयाँ हो जायेगा। अपनी चेतना को जागरूक रखना है। आपकी माया पट्टी ..... आपका अपना साक्षी .... आपकी आँखों से उतरेगा , वो ही आपको आपके वास्तविक चक्षु का ज्ञान दर्शन करा सकता है।
और जिस दिन वो पट्टी खुली की तत्काल एक सेकंड भी नहीं लगता ; सम्पूर्ण माया नगरी ध्वस्त हो जाएगी। मात्र सत्य का सूरज आकाश में चमकेगा।
शुभकामनाये !
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