एक ऐसे जगत की कल्पना करें , जहाँ साधुता का साम्राज्य हो , जहाँ उज्जवल और नीली तरंगे तरंगित हों , जहाँ पशु पक्षी निर्भीक हों , जहाँ उपवन और वाटिका में मौसम अनुसार पुष्प खिलते हों।
ऐसा सुंदर दृश्य जिसकी कल्पना ध्यान में सम्भव है। कल्पना ही क्यूंकि आँखे खोलते ही दृष्य हृदयविदारक हो जायेंगे , सुंदरता लुप्त होने लगेगी , और आपके आस पास घटने वाली घटनाये आपको रुला देंगी , आपकी लाचारी पे जहा आप स्वयं को असमर्थ पाएंगे , इस भीड़ के समक्ष। आपके जानकारी के अंदर आपके चारो तरफ वो ही घट रहा है ,
और हम लाचार असमर्थ से , रोज रोज ध्यान करके प्रभु को धन्यवाद करते है कि आपके इस विलक्षण संसार में जहाँ एक एक सांस कृपा से आ रही है , आज का दिन बीता गया , सकुशल , दो वख्त का भोजन , और वस्त्र , साफ़ सुथरी जगह मिली। मेरा भरपूर सुंदर परिवार आज भी सकुशल मेरी आँखों के आगे है। इस बात केलिये उस परमात्मा को धन्यवाद देते है। उस के नाम का हवन करते है और रोज मंदिर जाके माथा टेकते है। कि प्रभु ऐसी ही दया करते रहना।
एक आम साधारण धार्मिक इंसान का पूजा अर्चना के पीछे यही एक मात्र भाव होता है , कि " संसार के अति विदारक और अंतहीन कष्टो से बचते हुए जीवन का समापन हो "। वस्तुतः ये बात सभी जानते है एक अशिक्षित भी कि जीवन किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है।
एक समाज की धार्मिक संरचना ऐसी ही है , एक से कहा तुम ये करो , और दूसरे को कहा तुम ये करवाओ। तुम्हारा कल्याण हो , और उसका भी कल्याण हो। ॐ का कोई लेना देना नहीं इन सबसे। ॐ का यथार्थ इनसबसे अलग है। ये मात्र प्रार्थना और श्रध्धा समर्पण है , इस से ज्यादा और कुछ भी नहीं। वो भी किसी अन्य के द्वारा तो आपको ये छू भी नहीं पाया , और आप को इस कि सुगंध का पता भी नहीं चला।
इन सब अस्थिरताओं के बीच किसी किसी के ह्रदय में ये लहर भी जाग उठती है कि सबके लिए जीते हुए करते हुए तमाम उम्मीदों पे खरे उतरने का प्रयास करते हुए , अब मैं थकने लगा हु। एक दिन यूँ ही असंतुष्टताओं के बीच " मेरा " अंत हो जायेगा। ये असंतुष्टताएँ मुझे न जीने दे रही है न मरने। यहाँ से शुरू होती है एक बुध्ह कि यात्रा , अति, आंतरिक यात्रा। जहा वो स्वयं को खोजता है।
तब उसको पता चलता है कि जिस संसार में वो रह रहा था , जिसके नित्य उठने वाली लहरो को वो जीवन समझ रहा था वो तो मात्र भ्रम है। रिश्ते .... नाते , संवेग युक्त भावनाओ से उत्पन्न अस्थिरता और अधीरता .... आहत होने के कारण उपजे भावनात्मक उथल पुथल या फिर सुख के कारण हुई उथल पुथल ..... आये ..... प्रभाव डाला और चले गए , बहुत ही सामायिक और क्षणिक......
अब मुझे वास्तविक सुख कि तलाश है , वास्तविक जीवन कि तलाश है और यही से एक बुध्ह कि राह प्रशस्त होती है।
संसार और असंसार में अंतर करना शुरू कर देता है , ये संसार अति काल्पनिक भ्रामक सिध्ह होता सा लगता है। इस संसार के हर कृत्य छलावे और भावनाए माया से लिप्त , विषय चमकीले पर धुंधले। स्वाद , स्पर्श , दृशय इन्द्रियजनित भ्रम और इन्द्रिओं के सुख में लिप्त दीखते है। इनकी सत्यता समझ में आने लगती है। इनका क्षणिक होना दिखायी पड़ने लगता है।
और बस एक चोट और इस लोहे को सहनी पड़ती है , बिलकुल बुध्ह जैसी , आँखों के आगे धरती पे पड़ा अपनी अंतिम यात्रा कि और प्रस्थान करता शव निश्चेत , प्राणहीन। वो दृश्य और बुध्ध का जनम हो गया । शरीर साधन , आत्मा _साक्षी , मस्तिष्क कलाकार और सम्पूर्ण संसार रंगमंच हो गया।
बुध्ह , वो जो जीवन मरण के सत्य को न सिर्फ जान गया बल्कि अति गहराई से जी भी गया। अब उसके पास भरम के लिए कुछ न बचा। अब उसके पास खोने के लिए भी कुछ न बचा। उतर गयी उसके सर की गठरी।
ॐ प्रणाम
ऐसा सुंदर दृश्य जिसकी कल्पना ध्यान में सम्भव है। कल्पना ही क्यूंकि आँखे खोलते ही दृष्य हृदयविदारक हो जायेंगे , सुंदरता लुप्त होने लगेगी , और आपके आस पास घटने वाली घटनाये आपको रुला देंगी , आपकी लाचारी पे जहा आप स्वयं को असमर्थ पाएंगे , इस भीड़ के समक्ष। आपके जानकारी के अंदर आपके चारो तरफ वो ही घट रहा है ,
और हम लाचार असमर्थ से , रोज रोज ध्यान करके प्रभु को धन्यवाद करते है कि आपके इस विलक्षण संसार में जहाँ एक एक सांस कृपा से आ रही है , आज का दिन बीता गया , सकुशल , दो वख्त का भोजन , और वस्त्र , साफ़ सुथरी जगह मिली। मेरा भरपूर सुंदर परिवार आज भी सकुशल मेरी आँखों के आगे है। इस बात केलिये उस परमात्मा को धन्यवाद देते है। उस के नाम का हवन करते है और रोज मंदिर जाके माथा टेकते है। कि प्रभु ऐसी ही दया करते रहना।
एक आम साधारण धार्मिक इंसान का पूजा अर्चना के पीछे यही एक मात्र भाव होता है , कि " संसार के अति विदारक और अंतहीन कष्टो से बचते हुए जीवन का समापन हो "। वस्तुतः ये बात सभी जानते है एक अशिक्षित भी कि जीवन किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है।
एक समाज की धार्मिक संरचना ऐसी ही है , एक से कहा तुम ये करो , और दूसरे को कहा तुम ये करवाओ। तुम्हारा कल्याण हो , और उसका भी कल्याण हो। ॐ का कोई लेना देना नहीं इन सबसे। ॐ का यथार्थ इनसबसे अलग है। ये मात्र प्रार्थना और श्रध्धा समर्पण है , इस से ज्यादा और कुछ भी नहीं। वो भी किसी अन्य के द्वारा तो आपको ये छू भी नहीं पाया , और आप को इस कि सुगंध का पता भी नहीं चला।
इन सब अस्थिरताओं के बीच किसी किसी के ह्रदय में ये लहर भी जाग उठती है कि सबके लिए जीते हुए करते हुए तमाम उम्मीदों पे खरे उतरने का प्रयास करते हुए , अब मैं थकने लगा हु। एक दिन यूँ ही असंतुष्टताओं के बीच " मेरा " अंत हो जायेगा। ये असंतुष्टताएँ मुझे न जीने दे रही है न मरने। यहाँ से शुरू होती है एक बुध्ह कि यात्रा , अति, आंतरिक यात्रा। जहा वो स्वयं को खोजता है।
तब उसको पता चलता है कि जिस संसार में वो रह रहा था , जिसके नित्य उठने वाली लहरो को वो जीवन समझ रहा था वो तो मात्र भ्रम है। रिश्ते .... नाते , संवेग युक्त भावनाओ से उत्पन्न अस्थिरता और अधीरता .... आहत होने के कारण उपजे भावनात्मक उथल पुथल या फिर सुख के कारण हुई उथल पुथल ..... आये ..... प्रभाव डाला और चले गए , बहुत ही सामायिक और क्षणिक......
बिलकुल महासागर में उठती हुई लहरो के सामान .।
अब मुझे वास्तविक सुख कि तलाश है , वास्तविक जीवन कि तलाश है और यही से एक बुध्ह कि राह प्रशस्त होती है।
संसार और असंसार में अंतर करना शुरू कर देता है , ये संसार अति काल्पनिक भ्रामक सिध्ह होता सा लगता है। इस संसार के हर कृत्य छलावे और भावनाए माया से लिप्त , विषय चमकीले पर धुंधले। स्वाद , स्पर्श , दृशय इन्द्रियजनित भ्रम और इन्द्रिओं के सुख में लिप्त दीखते है। इनकी सत्यता समझ में आने लगती है। इनका क्षणिक होना दिखायी पड़ने लगता है।
और बस एक चोट और इस लोहे को सहनी पड़ती है , बिलकुल बुध्ह जैसी , आँखों के आगे धरती पे पड़ा अपनी अंतिम यात्रा कि और प्रस्थान करता शव निश्चेत , प्राणहीन। वो दृश्य और बुध्ध का जनम हो गया । शरीर साधन , आत्मा _साक्षी , मस्तिष्क कलाकार और सम्पूर्ण संसार रंगमंच हो गया।
बुध्ह , वो जो जीवन मरण के सत्य को न सिर्फ जान गया बल्कि अति गहराई से जी भी गया। अब उसके पास भरम के लिए कुछ न बचा। अब उसके पास खोने के लिए भी कुछ न बचा। उतर गयी उसके सर की गठरी।
अगला बस एक कदम निर्वाण की ओर।
"जितना तुम स्वयं में प्रवेश करोगे, उतना ही तुम जगत के प्रति जिम्मेवारी महसूस करोगे।
क्योंकि तुम इस जगत के टुकड़े हो। तुम इससे अलग नहीं हो।
स्वयं जैसे होने का अर्थ है अत्यंत जिम्मेवारी का बोध, लेकिन वह बोझ नहीं है।
यह एक आनंद है कि तुम कुछ अस्तित्व के प्रति कर सकते हो।" ओशो
ॐ प्रणाम
thanks saprem pranam didi
ReplyDeleteThanks Bhayi ji _()_
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