Monday, 27 January 2014

भाव गंगा स्नान - यात्रा - note




वैसे तो इसको कम शब्दो में कह पाना कठिन है , फिर भी प्रयास करती हूँ ........ कोई तरंग आपको छू पाये तो मैं स्वयं को धन्य मानूगी ; 

" जब भी सद गुरु ये प्रयास करते है कि आप उनकी बात को समझने कि चेष्टा करो , तो उनका पूर्ण भाव होता है कि आप शब्दो में न अटक जाना , क्यूंकि उनका अनुभव कहता है कि लोग अक्सर शब्दो में ही अटक जाते है।" 

उनका ही उदाहरण लेती हु जो आज भी घनी आलोचना का शिकार है ,भूत कल के क्यूँ और कैसे इन शब्दो में न उलझ के ये जानने का प्रयास करते है कि आखिर आज भी वो उतनी ही बड़ी आलोचना का शिकार हो रहे है , उनके अपने संप्रदाय विभाजित होते चले गए एक से चार और भी बनते जा रहे है। ओशो ने जिनकी पूर्व बुध्ह लोगो की तारीफ की वो भी सिर्फ इसलिए आलोचना के शिकार हो रहे है क्यूँ कि ओशो ने उनकी तारीफ की , आश्चर्य है ! जो अध्यात्म की सीढ़ी चढ़ रहे है वो अभी भी पहली पायदान पे ही खड़े है अगर वो अपने गुरु कि तरंगो को नहीं छू पाये और उनको लग रहा है वो सबसे उत्तम मार्ग पे है और सबसे अलग भी क्यूंकि वो ओशो शिष्य है । ये कुछ ऐसा ही हो गया , किसी नामी विश्वविद्यालय में एडमिशन मात्र से बालक को ये अहसास हो जाये कि अब बस , हम तो विदवान है ही। 



( आंशिक_प्रभु , यात्रा पे उतरे हो तो चलना तो शुरू करो ! आंशिक_प्रभु ! स्वयं की पहचान स्वयं से ही हो पायेगी ... आपको कोई दूसरा आईना दिखाए और आपको अपना चेहरा दिख जाये ऐसा सिर्फ सांसारिक आईना में ही सम्भव है हो जाये , उस प्रभु का आईना जरा अलग है , जो पकड़ेगा अपने हाथो से उसको उसका ही चेहरा दिखायी देगा )



उदाहरण के लिए ओशो कि एक पुस्तक जिसमे उन्होंने उन किताबों का जिक्र किया है जो उनको बहुत प्रिय थी , अब यहाँ देखने वाली बात ये है कि ओशो स्वयं तो किताबे लिखते नहीं थे। वो धारा प्रवाह बोलते थे और किताबे शिष्य बना लिया करते थे। 



एक छोटा सा कार्य भाव का करके देंखे ; छोटी सी कविता स्वयं बनाये और बनाते वख्त उस भाव कि गहराई तक जाए , और बनाने के बाद भी उस गहराई कि तरंगो को छुएं , आप निश्चित छू पायंगे , क्यूंकि वो आपकी है , परन्तु आपकी उस कविता कि उन तरंगो को शायद ही कोई छू पायेगा , अधिकतर शब्द पे लोग अटक जायेंगे ! 



एक और भाव आपसे बाँट रही हूँ , किसी कि तरंगो को छूने का सबसे सरल उपाय है उसकी लिखी पुस्तक को बंद करके उसके ह्रदय में उतरना। बस यही एक महा मन्त्र है जो आपको देवत्व कि भी यात्रा करा सकता है। (आशा है आप यहाँ भी शब्दो में न उलझ तरंगो को छू सकेंगे ) 

एक आत्म प्रयोग : चलिए अपनी भावगंगा -यात्रा शुरू करते , चाहे तो गंगा सागर से शुरू कीजिये या के गोमुख से ये आपकी इक्षा और शक्ति पे निर्भर करता है , गंगा सागर यानि कि श्रध्धेय कि ( कही नहीं ), लिखी हुई पुस्तके पढ़िए भरपूर श्रद्धा से जब तक आपका ह्रदय कहे (वैसे अभी ह्रदय आंदोलित होगा ही नहीं जो कहेगा मस्तिष्क कहेगा ) फिर सारी पुस्तके बंद कर दीजिये कुछ दिनों के लिए या फिर सदैव के लिए। और कोशिश करे इस चढ़ाई को चढ़ने की जिन भावो के तहत उस गुरु के मुह से भाव शब्द बने …………………


शब्दो में न उलझे बल्कि उस गुरु (यदि कोई भी है ) उसकी तरंगो को छूने का प्रयास करे यही उस गुरु के प्रति आपकी सच्ची श्रध्धांजलि होगी और आपके शिष्य होने का ऋण भी चुकेगा। 

(आज के लिए बस इतना ही ) 

ॐ प्रणाम

No comments:

Post a Comment