द्वैत और अद्वैत एक ही धागे के दो सिरे है , भाव का प्रकटीकरण द्वैत
में होता है और अद्वैत में भाव बीज रूप में रहता है , अति विपरीत
परिस्थितियों में जब भाव का प्रकटीकरण होता है तो द्वैत बन जाता है
इस भाव को कोई दूसरा अस्तित्व चाहिए जिसे वो समर्पित कर सके।
फिर भले ही कोई पत्थर हो या फिर " परम " नाम का विश्वास। यहाँ
प्रश्न सही और गलत का नहीं। यहाँ भाव स्थिति का है , जो कहती है मैं
हर रूप में सिर्फ सत्य हूँ , मेरा कोई रूप अवास्तविक नहीं। मेरा हर रूप
विश्वास के योग्य है। अब सवाल मेरी सचाई का नहीं क्यूंकि मैं हर रूप
में सत्य हूँ। यहाँ ये भाव है कि व्यक्ति की बुद्धिगत आस्था शरण कहाँ
पाती है , किसी की द्वैत में तो किसी की अद्वैत में। किसी कि अजान
में तो किस की कर्मकांड में। जो अद्वैत में डूब गया वो सूफी का
कलाम बन गया , मीरा का गीत बन गया।
समझने योग्य ये है कि आश्चर्यजनक रूप से ये भी आंशिक अद्वैत
भाव है , जैसे ही भाव का तार जुड़ा परम से परन्तु भाव को सहारा
चाहिए और सहारा लेते ही अद्वैत गायब हो जाता है और द्वैत का
प्रकटीकरण हो जाता है। मीरा ने कृष्णा से प्रेम करके द्वैत भाव बना
दिया तो कबीर ने उस परम मअपनी लौ लगा के द्वैत में प्रवेश कर
लिया , यानि की पूर्ण अद्वैत का अर्थ है दो का स्थान ही न रहना; पूर्ण
ऊर्जा बन जाना। उस की ऊर्जा मेंमिलकर एकाकार हो जाना।
इस अर्थ में गहन से गहन अभ्यासी भी द्वैत में ही जी रहा है। ५ तत्व
से निर्मित शरीर की सीमाओ में अद्वैत सम्भव ही नहीं। बस फर्क सिर्फ
आस्था का है विश्वास का है और माध्यम का है ,अपने एक अर्थ द्वैत
में व्यक्ति आस्था के माध्यमो में घिरे दीखते है जिसमे मूर्तियां मंदिर
मस्जिद चर्च आदि शामिल है और दूजे अर्थ में बिना माध्यम के इस
अभिव्यक्ति रुपी गंगा को बहने का रास्ता मिल जाता है जिनको सूफी ,
संत , बाउल आदि आदि नामो से जाना जाता है।
अभिव्यक्ति रुपी गंगा के विषय में ओशो का ये कथन कहना चाहूंगी "
नदी तब तक नदी है जब तक दो किनारो से बंधी चल रही है , जैसे ही
दो किनारो कि सीमाए समाप्त हुई वो सागर बन गयी। "
यानि कि पूर्ण हो गयी अद्वैत को उपलब्ध हो गयी।
Om Pranam
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