Tuesday 3 January 2017

क्यों है इतनी उथलपुथल , क्यों है इतनी भटकन / विचलन , कारन अभी और स्पष्ट हुआ , की हमारा जन्म स्रोत ही एक्टिविटी के कारन है , हम खुद में जीते जागते एक्टिविटी है , हमारा एक एक सेल जीवित है यानि एक्टिव है और जब तक एक्टिव है तब तक जीवित है। हमारा ब्रह्माण्ड एक्टिविटी का भण्डार है , जहाँ निरंतर ऊर्जा का नृत्य चल रहा है। जहाँ ठहराव का या शिथिलता का अर्थ समाप्ति की ओर इशारा है। ऐसे ब्रह्माण्ड हमारी धरती सतत क्रियाशील और उसके अणु लगातार चक्कर काट रहे है और हमारी उत्पत्ति के कारण भी यही है और क्रिया द्वारा परिवर्तनशीलता हमारे रोम रोम में है। वो ही व्यग्रता वो ही बेचैनी , कुछ करना है , कुछ करते ही रहना है , ठहरे तो म्रत्यु का आह्वाहन इसलिए मस्तिष्क भागो ! भावनाये भागो ! देह भागो ! कोई कहीं ठहरता ही नहीं। ठहरने की गुंजाइश भी नहीं।
तो जो ठहराव का गुण / देह का योगधर्म / चेतना का मौन अवलोकन , सिखाया जाता है वो गति को रोक नहीं सकता . हाँ ! क्षण भर को आराम जरूर दे सकता है , और इसी से पुनः शक्ति इकठा होती है , इस जीवन यात्रा को पूरा करने के लिए .
इसके आगे ' न तुम जानो न हम '।
कुछ समझे क्या ! मुझे तो इतनी सुंदर उपलब्धि हुई इसको अनुभव करके की अवर्णनीय है , आप भी इस सत्य को अनुभव कीजिये

स्वयं को जानना जरुरी है , स्वयं से जुड़ना जरुरी है ! कहा गया है " स्वयं " का ज्ञान उच्चतम ज्ञान , पर ये स्वयं क्या है ! According to Deepak Chopra -" The self is the awareness in which all element of knowing-experince happanes " अपने बारे में जान गए तो समस्त ब्रह्माण्ड के रहस्य उसी क्षण अनावृत हो गए। रहस्य के स्पष्ट होते ही न तो दुःख ना ही सुख , सिर्फ एक भाव बचता है वो है आनंद का। पर क्यूँ स्वयं को जानने की इतनी प्रबल आकांक्षा , क्यों दुःख का सैलाब और सुख का सागर हिचकोले ले रहा है और हमारी नईया लहरों के ऊपर डग्गमग डग्गमग चल रही है , क्यों योगी का दृढ व्यक्तिव सभी आदर्श मान के अनुसरण करना चाहते है , विरले हैं जो पाना ही नहीं , स्वयं होना चाहते है।

ये शरीर (शब्द ) अपने आप में अनुभव है जो अनुभव से जन्मित है और इसके द्वारा अनुभव ही किया जा सकता है। ये अपने आप में क्रिया से उत्पन्न है और क्रिया ही इसके जड़ में है। ये जगत सांकेतिक है और संकेत ही प्रामाणिक भी वैज्ञानिक भी , पर फिर भी है संकेत-परिवार से ही , ऐसी ही भाषा समूह है , जिनमे वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए शब्द बनाये है। ये ही जो “संकेत” शब्द है सूक्ष्म-ग्राहिता से उनको पहचान के विचार और भावनाओ में बदलता है जो एक धारणा के समूह का जनक भी है जो निश्चित आकार और प्रकार को न सिर्फ जन्म देता है बल्कि व्याख्या भी देता है। इसको ज्ञान की देह कह सकते है। इस ज्ञान की देह के आधार पे हम स्वयं को खोजते है , और उससे उत्पन्न अनुभव को हम सत्य से जोड़ने की कोशिश करते है। और जैसे ही शब्दो और अनुभवो को मेल मिलता है एक चमक सी पैदा होती है। जो दिमाग - देह - और अंतरिक्ष में संबध देती है , ये सब बनाये गए है निर्मित है। कह सकते है सच्चाई / वास्तविकता निजी अनुभव से निर्मित धारणा है जो निजी अनुभव पे टिकी है , शब्दो और अनुभवों पे टिकी "वास्तविकता" वास्तव में स्वयं गहन बातचीत के , गहन स्पंदन के , गहन भावनाओं के धारणागत परिणाम है , ध्यान से इकठे अनुभव समूह भी देह - मस्तिष्क - और अंतरिक्ष का सम्बन्ध है , जो निश्चित शब्द के आते ही ज्ञान से जुड़ के अपना नया अनुभव बना लेता है जैसे चंद्रमा जैसे सूरज , जैसे और गृह और उनसे सम्बन्ध । इन्हें खवालिया के नाम से भी जाना जाता है , वास्तव में जितने भी शब्द भषा में है उतने ही आपके कॉन्सेप्ट्स है इनमे चिड़िया बिल्ली आदि शामिल है। यहाँ तक की समय भी कांसेप्ट है। स्पेस , स्पेस के अनुभव उनकी व्याख्या ये सब कांसेप्ट के ही भाग है जो शब्दो या भाषा से उत्पन्न है जिनको वैचारिक आदान प्रदान के लिए उपयोग किया जाता है। और जैसा की स्पेस और स्पेस से जुड़े अनुभव भी कांसेप्ट में ही है, जब हम रियलिटी की बात करते है तो कहते है की आकार-रहित गंध-रहित , शब्द-रहित , स्थान-रहित , अंतरिक्ष में या समय के आधार पे रहता समयातीत , वास्तव में यही मौलिक और मूल-वास्तविक्ता है। और ये वास्तविकता का दर्शन पिछले सारे सोचे , इकठे किये , अनुभव को समाप्त करता है। और जैसे ही अनुभव का ये भाग शुरू होता आप उस प्रकाश के मूल से जुड़ने लगते है।
अनुभवरहित, ज्ञानरहित, स्थानरहित, समयातीत, ये अवस्था निर्दोष भ्रूण की अवस्था से भी पूर्व की। और इस सत्य की आप धारणा नहीं बना सकते , देख नहीं सकते , छू नहीं सकते , सोच भी नहीं सकते , पर ये सब क्रिया से संभव है , इसीलिए अंतरिक्ष वस्तु नहीं क्रिया है, और वो ही क्रिया आपके अन्तस्तमः तक है , आप स्वयं क्रिया के जनक क्रिया से जन्मे है ,आपका शरीर भी , वस्तु नहीं क्रिया है क्रिया का परिणाम , जैसे जन्म एक कांसेप्ट है वैसे ही म्रत्यु भी एक कांसेप्ट है और जिसका विश्लेषण अनुभव बनता है , अनुभव लेना इन्द्रयिक संवेदनशीलता से जुड़ा है , वास्तव में जो वास्तविक है वो तो जन्मा ही नहीं , जिसे जाना ही नहीं जा सकता , हाँ , क्रियाओं में अनुभव किया जा सकता है उस अनुभव की विअख्या विश्लेषण भी किया जा सकता है तो वास्तव में रियल जो आप है वो आप अपना और अपने करीबी और विस्तृत आस-पास के अनुभव का समूह है , वास्तव में रियल आप / अंतस्तम .... डायमेंशन रहित है , पर आप अपने को राइज / उच्चावस्था दे सकते है अनुभव की क्रिया से , क्रिया जो आप में है , जो यत्र तत्र सर्वत्र है ,शृद्धा और आस्था भी इस सत्य को स्वीकार नहीं , यदि आप इनमे से कुछ भी ले या दे रहे है ये आपका सङ्केत भाव ही है , आप अपने को समझ सकते है , जान सकते है, जब आप ध्यान से अनुभव से निश्चित धारणा बनाते है , आप गहन चिंतन करते है, विचार करते है , कल्पना करते है , फिर आप कृति बनाते है यहाँ तक की निराकृति की भी। और फिर ये मस्तिष्क का उभरा हुआ सत्य बनता है वो मौलिक सत्य नहीं जिसे आप खोज रहे है। ये भी की जो भी धारणा बनती है और ध्यान का उपयोग किया जाता है , वास्तव में तब तक सच तक पहुंचना तो दूर , सोच भी नहीं सकते।
क्यों ! क्योंकि कल्पनाये आकार बनाती है या निराकार का भी आकार बना देती है , और सच का कोई आकार कोई प्रकार कोई निशानी कहीं कुछ नहीं , जो है वो कुछ विशेष है , कुछ विशेष पाना है की , दौड़ ही दौड़ है।
कुछ समझे क्या आप ! इस सत्य का रूप ....... स्वरुप रहित क्यों है ....! और क्यों जान के भी नहीं जाना जा सकता , पा के भी दूर हो जाता है। और अचानक उस एक पल में आप उस सत्य का हिस्सा बन जाते है जब आप हर धारणा और शब्दकोष व्याख्या आलोचना , आकार- प्रकार और जानकारियों से खाली हो जाते है
प्रणाम ॐ

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