Tuesday 8 December 2015

तल

यहाँ..... वहां 
बंटा.........बिखरा 
कितना  सच बाकी है आधेसच कहते सुनते 
थकते  नहीं ये भागते मनबुद्धि जिव्हा क्या 
 दो  विश्राम !
ठहरो  यहीं !
इसी दिन पल घडी में , आज अभी  से यहीं से
{written on 9 December 2014 at 09:39}
सीधी बात-सटीक बात 
कोई सच  यदि  एकस्वरुप  है और मात्र एकल सत्य  है  तो ये सच धरती के लिए भी उतना ही सच है जितना जीव के लिए ,  बिखराव / द्वैत की दृष्टि कहती है यात्रा जारी है और समग्रता / अद्वैत दृष्टि कहती है यात्रा पूर्णता की ओर है। मित्र ! शास्त्र सम्मत है की नहीं , पता नहीं ! कभी लौकिक धर्म-अधर्म नियम धरम , लिखे और इतिहास की धरोहर के सवाल और उलझाव पे कभी खुद को खोया नहीं  , हाँ अपनी साधना में धरोहर के मूल सूत्रधार ऋषि मुनियो से सीधा संपर्क साधने की चेष्टा की है निवेदन किया की वे ही स्पष्ट करें अपने लिखे को और निष्कर्ष यहाँ है। वो भी उपलब्ध  अधिकतम उदाहरण स्वरुप  सन्यास और सन्यासी भी अभी भी  अपने मूल स्वभाव से ही जुड़े आचरण करते  है फिर वो चाहे राजधर्म से जुड़े ज्ञानी  वसिष्ठ  हों या पुरुषार्थधर्म से जुड़े वीर  विश्वामित्र  अथवा  त्यागधर्म  से जुड़े दानी दधीचि हों। सभी के अपने मौलिक मूल स्वाभाव उनके साथ ही है , इन्हीं स्वभावगत उच्च कोटि के जीवों  को  सन्दर्भ के द्वारा समझते हुए  सामान्य जीवों की यात्रा के विभिन्न तल  और उससे सम्बंधित पड़ाव को भी  समझने का प्रयत्न करेंगे। यहाँ इसी भाव से आपसे विचार भाव बाँट रही हूँ-



क्यूंकि ये तल ही संसार जगत में  आत्मिक-  स्तर का निर्धारण करते है जो बताते  है की यात्री  कहाँ और किस पड़ाव पे खड़ा है , और इस यात्रा का अगला पड़ाव् कौन सा है और  कहाँ  है !  और  कितने पड़ाव के बाद आखिरी छलांग  लगनी है , ये सब स्वाभाविक ध्यान और संकल्प से स्वयं ही  होता चलता है  , किसी और को दिखाने के लिए नहीं ये पैमाना स्वयं अपने लिए  है।  

प्रारंभिक प्रथम  तल  प्रकृति के तत्वों के मूल में है जो प्राकतिक गुणों / दुर्गुण से भरा है जिसमे  दैहिक  तात्विक जरूरते  शामिल है  और जो  जन्म से  देह के साथ मृत्यु तक जुड़ के रहते  है  दूसरा मौलिक प्रारंभिक प्रथम  तल ऊर्जा से सम्बंधित है।  इन दोनों तत्व और प्राण के  मूल में संयोग होने से  जीव देह में रचा बसा जन्मता है तथा भाव बुद्धि कर्म की चक्की पे चलता है।  ऊर्जा तो निरपेक्ष भाव से यात्रा में है  जिसमे तत्व सहयोगी है। बाद में अज्ञानतावश ये ही तत्व बौद्धिक और भाव संयोग से ऊर्जा-यात्रा पे हावी होने की चेष्टा  करते है जो अधिकांश में सफल भी है।  समझने वाली  महीन बात ये है की जितने भी यात्री की यात्रा में सहायक या विपरीत  बाह्य उपलब्ध  तत्व है  वे सब  प्रकृति  के प्रथम मौलिक वर्गीकरण में ही उलझे है , कुछ स्वयं उलझे है अर्थात सहायता लेने को ही अंतिम उपलब्धि फल रूप  मन रहे है तो कुछ  इसी स्थान पे खड़े हो सहायता दे रहे है।  पर है सब यही पे  , और इसी प्रथम  तल पे खड़े  सारी  उठापटक  एक ही गोल घेरे की भागदौड़ और अलौकिक से प्रमाणित  करते जाते लौकिक  युद्ध को अंजाम दे रहे है ।  इस प्रथम तल - सयोगों से आगे की यात्रा में स्पष्टता अधिक है , सरलता अधिक है , सहजता अधिक है , स्वीकार अधिक है , संक्षेप में जागरण अधिक है।  

[[ और यहाँ   भाग्य / दुर्भाग्य  जैसे  विभाजन में अटके  हुए चीरफाड़  भाव और  बुद्धि से उपजे भाव बुद्धि की संतुष्टि  के ही लिए है , ये उसी  भाव बुद्धि  की चर्चा है जिस भावबुद्धि को विषय निर्धारण करने में महारथ है। विषय जो स्वयं भाव बुद्धि से ही विभाजित है। भाव बौद्धिक घोड़ों की कमान  अपने हाथ में  ले बुद्धि भाव से युक्त हो  देहरथ ले के इसी  देह के सहयोग से उम्र भर  दौड़ते रहते है  और अर्जुन की सुनते ही नहीं। कृष्ण के जागृत होने पे ही अर्जुन सक्षम हो पाता है अपनी यात्रा को अंजाम देने पे। ये जागृति  विषयपथ - व्यवस्था से ऊपर है, और इसी कारण किसी  भी लौकिक / अलौकिक विषय से अपनी साधना से ऊपर उठी  हुई जीवात्माओं के लिए अंत में विभाजन कठिन हो जाता है क्यूंकि अंत में वो एक ही है, दो नहीं।]]

तो समझने वाली  बात ये है कि  विभाजन  जैसे शब्द  यदि किसी के ज्ञान प्राप्ति में सहयोगी है  तो अभी  प्रथम तल से ही जुड़े है , सारे तर्क  योजना प्रमाण  स्पष्टीकरण  इसी तल पे है और इस तल पे भी वाणी और संकल्प के माध्यम से चक्र का उद्दोलन ( आघात ) है   इन भाव बुद्धि आंदोलन को बौद्धिक हथियार कहे तो भी सही है  । आगे  की यात्रा में जुड़ाव है , समग्रता है , और बिखराव  नहीं सिमटाव है। शायद इसीलिए " जीवात्मा की समग्र यात्रा द्वैत से अद्वैत की यात्रा है "  ऋषियों द्वारा  कही गयी है।

   
आइए, इसी को आगे समझे :-

ये जो प्रथम मौलिक मूलतत्व  प्रकृति से उत्पन्न है ; ये जुड़ा है अपने ही दूसरे तल से,  दूसरा तल  भाव और विचार  यानि बुद्धि का  इसको प्रेरक भी कह सकते है जो संकल्प बन के  जुड़ता है  तीसरे तल से  चूँकि इस तल में बुद्धि योग शामिल है  तो बुद्धि से  उत्पन्न  हर  भाव इसी में शामिल है  ह्रदय स्थल  सिर्फ परिणाम को सहता है  जनक इन सब तर्क और  भावों की बुद्धि ही है  अंतर्ज्ञान की धरा भी इसी से जुडी है।  ऐसा  तीसरा तल है अनुभव और संकेतो को पकड़ने का  जिसको अंतर्ज्ञान भी कहते है।  चौथा  तल मस्तिष्क के ऊपरी भाग में  है  जो  तीसरे तल से  जुड़ के  एक सुंदर  माला के समान पांचवे  तल से संपर्क कर पाता है ये पांचवा तल कोस्मोस से जुड़ता है । इन मे सभी में आपसी संपर्क है  कोई अलग नहीं।  
यदि  चक्रो  की भाषा  में समझे  तो  सात  चक्र -'  मूल , स्वाधिष्ठान , मणिपुर, अनाहत,विशुद्ध ,अज्ञान और सहस्त्रार ये भी  ध्यानी  या साधक की साधना से समझे जाते है और समझ के ही अनुशासित  हो पाते है।  

ये सभी तल / चक्र आपस में संपर्क मे  है  देह में रीढ़ के माध्यम से  इन चक्रों की माला बनती है  और  तलों के स्तर पे  अंतर्ज्ञान के धागे से पांचो तलों की एक माला बनती है।  फिर भी यदि कोई  प्रथम तल से सीधा  मध्य स्थान को  या  अंतिम स्थान को जिज्ञासावष  छूना और जादू को महसूस करना चाहे तो इनमें काफी अंतराल है जो सीधा  संपर्क से संभव नहीं , हाँ ! यदि कोई कह रहा हो तो सुन सकते है  , बिना अनुभव के कहे अनुसार इस अनुभव को चमत्कार रूप में मान भी सकते है ( जैसा अक्सर लोग मानते भी है, सही गलत से अलग  कई तो दैविक पूजा कर्मकांड मंदिर आदि का निर्माण भी इसी चमत्कार - और  वंचित परिणाम भाव से करते है  ) और यदि  कहने वाले के प्रति  अपार श्रद्धा हो और ईश्वरतुल्य विश्वास हो  की ये मुझे  अपने सच्चे  अनुभव ही  बता रहे है , और सच्चे शिष्य रूप में  कितना भी  ग्रहण  करना चाहें पर फिर भी  तब भी साधक  या ध्यानी अज्ञात को  जान नहीं सकते  वो रहस्य ही बन के दिखेगा। अपना अनुभव अपना ही है ।  एक एक करके या फिर एक साथ  भी  इनको समझ के ही वो अद्भुत छलांग संभव है।  छलांग के बाद भी अनंत  यात्रा अपने विकास के साथ जारी रहती है क्यूंकि ये उस तल की यात्रा का शुभारंभ है।  

प्रथम तल महत्त्व पूर्ण इसीलिए है  क्यूंकि ये प्रकृति से सीधा मिल के  जीव से जुड़ता  है और  जीव और प्रकृति के बीच प्रथम संपर्क दरवाजा भी है।  और प्रकृति  से मिले सभी इसके सात दरवाजे  उसी जीव-ऊर्जा  की उपस्थ्ति की  उद्घोषणा  मात्र करते है। जो अपने ही स्वरुप से अज्ञान व्यक्ति की जिज्ञासा  का कारन  या पहेली समान भी है।  क्यों  क्या कैसे  कब  जैसे प्रश्न  यही से उपजते है।  

क्या ये कल्पना है , शायद नहीं क्यूंकि देह के , ऊर्जा के , प्रकृति के  तथा आकाश के सब के संपर्क सूत्र  है , और जहाँ तक संपर्क सूत्र है  वो कल्पना   नहीं होती।  बस इस तत्व को  देखने की दृष्टि  चौथे तल से शुरू होती है। तत्व शब्द भी  अभी  है  क्यूंकि संपर्क सूत्र  से अभी भी जुड़ा है जीव तत्व।  इसके बाद  तो जीव ऊर्जा रूप में स्वयं अपनी परमऊर्जा से  जुड़ा  है।  

पर ये "तल" शब्द  हलके में लेने वाले नहीं है , क्यूंकि एक एक तल उसकी इक्छा से ही  सहज होता है।  और ये साधने वाले की संकल्प शक्ति  से भी जुड़ा है।   जो कोरी कल्पना और  रेडीमेड  ध्यान विधियों  से कही गहरा है और वास्तविक है।  वैसे तो परमात्मा  कण कण में  है सच है  पर परख और गहरायी से  अनुभव  इन तलों से गुजर के ही संभव है।  जिसको कोई गुरु / शास्त्र  उपहार में  या भाषा से  दे नहीं सकता।  मात्र संकेत कर सकता है।

आईये  समझे  गुरु क्या संकेत देते है - 

संक्षेप में  ही क्यूंकि विस्तार  का अंत नहीं ,  गुरु ने कहा -'ध्यान लगाओ !  यही रास्ता है जो अन्य सभी तिस्लिम दरवाजे खोल सकता है , सच है !  " और आहिस्ता आहिस्ता जैसे जैसे धरती से  परिचय बढ़ता है और आकाश से परिचय मिलता है फलस्वरूप  सरलता  बढ़ती जाती है  सहजता प्रवेश पाती जाती है।  और गुन दोष सभी छुटते जाते है जीव परमात्मा के लिए सुपात्र  होते जाते है।  परमात्मा की और बढ़ता एक एक कदम  एक एक  मायावी धरती के गुरुत्वाकर्षण के  जाल को काटता  जाता है।  और  जीव जो अपने ही बोझ से बोझिल था अब  हल्का और निर्मल होता जाता है।   बार बार  एक ही बात दोहरानी है की सब अपने लिए है  कुछ  भी दिखाने के लिए नहीं।  यात्रा अपनी है।  न किसी को प्रमाण देना है  न ही किसी को आकर्षित करके अपनी बात समझानी है , इतना विश्वास है  की जैसी मेरी यात्रा है  वैसे ही सम्पूर्ण जीवजगत की अपनी यात्रा है वृक्ष जंतु  जीव समेत धरती भी  अपनी विशाल देह के साथ  इसी यात्रा में शामिल है । सभी से प्रेम सभी में करुणा।  

आपका  गुरु  आपको संकेत  भी देता चलता है की सावधानी कहाँ कहाँ , भटकाव कहाँ  कहाँ  और फिसलन कहाँ कितनी !   बड़े ही  सुन्दर तरीके से  आपका  गुरु  कहता - मौन को साधना  है ! वाणी  मौन नहीं (व्यर्थ  चर्चा की फिसलन) है  जब वाणी मौन हो गई  तो  मन बोलेगा ( भाव की फिसलन )  मन भी मौन हो गया  तो बुद्धि बोलेगी ( तर्क की फिसलन )  बुद्धि भी मौन हो गयी तो ही आत्मा की भाषा  सुनाई देगी  ( यहाँ भी अहंकार की फिसलन तैयार है ) और यदि आत्मा की भाषा  सुन ली  तो परमात्मा से मिलन  हो ही गया।  


जिन स्तर  का जिक्र ऊपर  किया है उनमे भी  जो प्रथम है  दैहिक  ये सब   वाणी  मन  बुद्धि उसी की उद्घोषणा करते है।   इतना साधने के बाद अब आपका गुरु  बाहरी नहीं  वरन आपका अपना है , अब सहारे  आपके अपने अंदर से  आ रहे है  वो अंदर का  गुरु  कहता है , मनन चिंतन  विषय से ऊपर उठ के ध्यान  और नेति नेति  से माया जाल काटने का समय आगे  है।   

दृश्य  एक ही  है  जो  विकसित दृष्टि के साथ  खुद ब खुद  सिमटती जाएगी  और  दूसरे अर्थों में  अनंत  में मिलती जाएगी। यही तल है  और इन्ही के बीच में फिसलन भी है , जो कही से भी कितनी भी जोर से पटक सकती। सिर्फ पटक ही नहीं सकती है  खिंच के पीछे शरुआत की पहली सीढ़ी पे भी फेंक सकती है। और कभी कभी लहूलुहान तो इतना  कर सकती है की दोबारा जीव हिम्मत ही न कर सके इस पथ पे आने की , और अब आप सोचेंगे की  इतनी कुशलता से  इतना काम  किसलिए ! शायद ये परीक्षा है संकल्प की  और सम्पूर्ण यात्रा है जीव जगत की। आप इन तलों के कार्यकलाप  देख के अचरज से भर जायेंगे। पर अंत में ये सब भी भ्रम ही है और जीव की अपनी यात्रा से ही जुड़े कर्म और फल है जिनके  मूल में  है जागृति। कोई विभाजन नहीं  सिर्फ संयोजन है।  मात्र  जन्म से मिली अधूरी माला के मनको को इकठा कर बीन-चुन के दोबारा सुन्दर एक माला बनाने जैसा है।  

यदि   कोई   सच   मिला  है 
तो  , निश्चित  वो   सच  है 
पर   जरा  ये तो  देख लेना 
दलदल है या के है चट्टान
या  फिर फूलों  की  बाड़ी है  
लहरों के  थपेड़ों पे खड़े  हो 
या  बहते   ज्वालामुखी  पे 
किस  तल  पे  खड़े  हो तुम
जरा  सच  कहने  से पहले 
जान  लेना  पहचान  लेना 
न  जाने  तल  बदलते  ही 
रंग ओ स्वभाव सच बदले 
written  9-12-2015 12:15 pm 

कबीर का अनुभव  बार बार  विचार करने जैसा है ,' माया  महा ठगनी हम जानी।'  चलते रहिये , सोचते रहिये , वैसे  भी इस यात्रा में एक  पल  को भी  रुकना भी कहाँ हो पता है।  तो अपनी ही इस यात्रा में अपना  बोझ भी उतारते रहिये, ध्यान करते रहिये।  

शुभेक्छा 
प्रणाम 

5 comments:

  1. By Jaggi Vsudev :- from Isha foundation .
    काल यानि समय का चक्र निर्ममता से चलता रहता है। या तो आप इस काल पर सवार होकर एक खूबसूरत जिंदगी जीते हैं, या समय के निर्दयी पहिये के नीचे कुचल दिए जाते हैं। समय की प्रक्रिया से हम या तो नष्ट हो जाते हैं या उसका लाभ उठा कर मुक्त हो जाते हैं। कोई इसकी प्रक्रिया के फंदे में फंस जाता है तो कोई इसका इस्तेमाल करके खुद को परे ले जाता है और मुक्त हो जाता है।

    जब आप समय की सवारी करते हैं, उसका लाभ उठाते हैं, तो आप एक असाधारण जीवन जी सकते हैं, इंसान और इंसानी दिमाग को असाधारण जीवन के लिए ही तैयार किया गया है।

    मैं तमाम शानदार संख्याएं बता सकता हूं, मगर सबसे महत्वपूर्ण चीज है, समय और इंसानी शरीर की रचना में गहरा संबंध। आप जानते हैं कि पृथ्वी लगभग गोल है और उसका कक्ष यानी ऑर्बिट थोड़ा सा झुका हुआ है। चलते हुए और घूमते हुए, वह एक वृत्त बनाती है। आज हम जानते हैं कि इस चक्र को पूरा करने में 25,920 साल लगते हैं। यह झुकाव मुख्य रूप से धरती की ओर चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण खिंचाव के कारण होता है। इतने सालों का एक युग-चक्र होता है। हर चक्र में आठ युग होते हैं।

    इसका मतलब है कि पृथ्वी समय पर घूम रही है और आप सही सलामत हैं। अगर पृथ्वी समय पर नहीं घूमती, तो यह हम सब के लिए अच्छा नहीं होता। अगर आप उसके साथ तालमेल में नहीं हैं, तो यह भी आपके लिए अच्छा नहीं है।
    इसका लक्ष्य आपको यह बताना है कि समय कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसका हमने आविष्कार किया है – समय की जड़ें प्रणाली से, हमारी रचना से गहराई से जुड़ी हैं। महाभारत काल में, ‘युग’ की काफी चर्चा की गई है और यह भी बताया गया है कि उसकी गणना कैसे करते हैं और वे कैसे काम करते हैं। मैं चाहता हूं कि आप एक अलग संदर्भ में मानव जीवन पर समय के प्रभाव को देखें। यह कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे किसी ने सोच कर बनाया है। यह एक अद्भुत और गहन विज्ञान है। योग का हमेशा से इसके साथ गहरा नाता रहा है। बस हम इसके सिद्धांतों की व्याख्या में यकीन नहीं रखते। हम इसके अभ्यास से शरीर को सृष्टि के समय और स्थान के अनुकूल बनाने की कोशिश करते हैं, क्योंकि उनके अनुकूल हुए बिना आप ज्यादा दूर तक नहीं जा पाएंगे।

    अगर आप समय पर सवार नहीं हैं, तो आप एक औसत जीवन, शायद एक दुखदायी जीवन जिएंगे। जब आप समय की सवारी करते हैं, उसका लाभ उठाते हैं, तो आप एक असाधारण जीवन जी सकते हैं।

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  2. 108 का महत्व :-

    एक प्राचीन भारतीय खगोलग्रंथ, सूर्य सिद्धांत के अनुसार, सूर्य की रोशनी 0.5 निमिष में 2,202 योजन की दूरी तय करती है। एक योजन नौ मील के बराबर होता है। 2,202 योजन का मतलब है, 19,818 मील। एक निमिष एक सेकेंड के 16/75 के बराबर होता है। आधा निमिष एक सेकेंड का 8/75 वां हिस्सा है, जिसका अर्थ है 0.106666 सेकेंड। 0.106666 सेकेंड में 19,818 मील की गति का मतलब है, 185,793 मील प्रति सेकेंड। यह आधुनिक गणना के आस-पास ही है, जिसके मुताबिक प्रकाश की गति 186,282 मील प्रति सेकेंड है। आधुनिक विज्ञान बहुत मुश्किल से और तमाम तरह के उपकरणों की मदद से इस संख्या पर पहुंचा है। जबकि कुछ हजार साल पहले, लोगों ने बस यह देखकर इस संख्या का पता लगा लिया था कि इंसानी प्रणाली और सौर प्रणाली एक साथ कैसे काम करते हैं।
    सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी, चंद्रमा और पृथ्वी के बीच की दूरी, यह ग्रह जिस तरह घूमता है और उसका जो असर पड़ता है, इन सभी चीजों पर बहुत ध्यान दिया गया था।

    सूर्य के व्यास (डायमीटर) का 108 गुना, सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी के बराबर है। पृथ्वी और चंद्रमा के बीच की दूरी चंद्रमा के व्यास का 108 गुना है। सूर्य का व्यास पृथ्वी के व्यास का 108 गुना है। इसी वजह से माला में 108 मनके होते हैं।
    मैं तमाम शानदार संख्याएं बता सकता हूं, मगर सबसे महत्वपूर्ण चीज है, समय और इंसानी शरीर की रचना में गहरा संबंध। आप जानते हैं कि पृथ्वी लगभग गोल है और उसका कक्ष यानी ऑर्बिट थोड़ा सा झुका हुआ है। चलते हुए और घूमते हुए, वह एक वृत्त बनाती है। आज हम जानते हैं कि इस चक्र को पूरा करने में 25,920 साल लगते हैं। यह झुकाव मुख्य रूप से धरती की ओर चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण खिंचाव के कारण होता है। इतने सालों का एक युग-चक्र होता है। हर चक्र में आठ युग होते हैं।

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  3. पृथ्वी और मनुष्य का संबंध :-

    अक्षीय गति के एक चक्र पर वापस जाएं तो 25,920 को 60 (जो एक स्वस्थ व्यक्ति की प्रति मिनट हृदय गति भी है) से भाग करने पर 432 आता है। चार सौ बत्तीस संख्या बहुत सी संस्कृतियों में अहम है – प्राचीन यहूदी संस्कृति, मिस्र की संस्कृति, मेसोपोटामिया की संस्कृति और भारतीय संस्कृति में भी। 432 क्यों? अगर आपकी सेहत और अवस्था अच्छी है, तो आपका हृदय प्रति मिनट 60 बार धड़कता है, जिसका मतलब है, एक घंटे में 3600 बार। इसे 24 से गुना करने पर एक दिन में आपका दिल 86,400 बार धड़कता है। 864 को 2 से भाग करने पर, फिर से 432 आता है। अगर आप स्वस्थ हैं, तो आप प्रति मिनट लगभग 15 बार सांस लेते हैं। अगर आपने खूब साधना की है, तो यह संख्या 12 हो सकती है। प्रति मिनट 15 सांस का मतलब है, 900 सांस प्रति घंटा और 21,600 प्रति दिन।216 को 2 से गुना करने पर फिर से 432 आता है। अगर आप पृथ्वी का घेरा लें – तो एक इकाई होती है – समुद्री मील- असल अर्थ में मील यही है क्योंकि यह पृथ्वी पर असर डालती है। माप की दूसरी इकाइयां गणना की आसानी के लिए बनाई गई थीं।

    आपको पता है कि एक वृत्त में 360 डिग्री होते हैं। इसी तरह, पृथ्वी के ऊपर 360 डिग्री हैं और हर डिग्री को 60 मिनट में बांटा गया है। इनमें से एक मिनट एक समुद्री मील के बराबर है। इसका मतलब है कि विषुवत रेखा पर पृथ्वी का घेरा 21,600 समुद्री मील है, इतनी ही सांसें आप दिन भर में लेते हैं। इसका मतलब है कि पृथ्वी समय पर घूम रही है और आप सही सलामत हैं। अगर पृथ्वी समय पर नहीं घूमती, तो यह हम सब के लिए अच्छा नहीं होता। अगर आप उसके साथ तालमेल में नहीं हैं, तो यह भी आपके लिए अच्छा नहीं है।

    इसका लक्ष्य आपको यह बताना है कि समय कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसका हमने आविष्कार किया है – समय की जड़ें प्रणाली से, हमारी रचना से गहराई से जुड़ी हैं।

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  4. सूर्य-सिद्धांत से प्राप्त रौशनी की गति से जुड़ी संख्याएं:
    0.5 निमिष में 2202 योजन तय करती है सूरज की रौशनी हैं।
    1 योजन = 9 मील
    1 निमिष = 16/75 सेकेंड
    0.5 निमिष में 2202 योजन = 0.5 x (16/75) सेकेंड में 2202 x 9 मील
    = 0.10666 सेकेंड में 19,818 मील
    = 185,793 मील/सेकेंड (जो कि आधुनिक विज्ञान के अनुसार खोजी गई रौशनी की गति के काफी करीब है)

    PS : these all above calculations and description in comments received from Sadguru jaggi Vasudev from Isha foundation

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  5. इसका लक्ष्य आपको यह बताना है कि समय की जड़ें प्रणाली से, हमारी रचना से गहराई से जुड़ी हैं। और हम अस्तित्व से जुड़े है , छितरे और अलग थलग नहीं है।

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