Friday, 31 January 2014

जीवन के चार सत्य और एक बुध्ह का जनम हो गया - Note

एक ऐसे जगत की कल्पना  करें , जहाँ  साधुता का साम्राज्य हो , जहाँ उज्जवल  और नीली  तरंगे  तरंगित हों , जहाँ  पशु पक्षी निर्भीक  हों , जहाँ  उपवन  और वाटिका  में  मौसम अनुसार  पुष्प खिलते हों। 



ऐसा सुंदर दृश्य  जिसकी कल्पना  ध्यान में सम्भव है। कल्पना ही क्यूंकि आँखे खोलते ही  दृष्य हृदयविदारक  हो जायेंगे  , सुंदरता  लुप्त होने लगेगी , और आपके आस पास  घटने वाली घटनाये  आपको  रुला देंगी  ,  आपकी लाचारी पे जहा  आप स्वयं को असमर्थ पाएंगे , इस भीड़ के समक्ष।  आपके  जानकारी  के अंदर आपके चारो तरफ वो ही घट   रहा है , 




और हम   लाचार  असमर्थ से , रोज रोज ध्यान करके  प्रभु को धन्यवाद करते है  कि  आपके  इस  विलक्षण संसार में  जहाँ एक एक सांस  कृपा  से  आ रही है  , आज का दिन  बीता गया  ,  सकुशल , दो वख्त का भोजन  , और  वस्त्र , साफ़ सुथरी जगह मिली। मेरा  भरपूर   सुंदर परिवार  आज भी सकुशल  मेरी आँखों के आगे  है।   इस बात केलिये  उस परमात्मा को धन्यवाद  देते है।  उस के नाम का हवन करते है  और  रोज मंदिर जाके माथा टेकते है।  कि प्रभु ऐसी ही दया करते रहना।  




एक आम साधारण धार्मिक  इंसान का  पूजा अर्चना के पीछे यही एक मात्र भाव होता है  , कि " संसार के  अति विदारक  और अंतहीन कष्टो से  बचते हुए जीवन का समापन हो "।  वस्तुतः ये बात सभी जानते है एक अशिक्षित  भी  कि जीवन किसी भी क्षण समाप्त  हो सकता है।  





एक समाज की  धार्मिक संरचना  ऐसी ही है , एक से कहा  तुम ये करो , और दूसरे को कहा तुम ये करवाओ।  तुम्हारा कल्याण हो , और उसका भी कल्याण हो।   ॐ  का कोई लेना देना नहीं  इन सबसे। ॐ का यथार्थ   इनसबसे अलग है।   ये मात्र  प्रार्थना  और श्रध्धा समर्पण है , इस से ज्यादा और कुछ भी नहीं। वो भी किसी अन्य के द्वारा  तो आपको  ये   छू भी नहीं पाया , और आप को इस कि सुगंध का पता भी नहीं चला।  




इन सब अस्थिरताओं के बीच  किसी किसी  के ह्रदय में ये लहर भी जाग उठती है कि सबके लिए जीते हुए करते हुए  तमाम  उम्मीदों पे  खरे उतरने का प्रयास करते हुए , अब मैं थकने लगा हु।  एक दिन यूँ ही   असंतुष्टताओं के बीच " मेरा " अंत हो जायेगा।  ये असंतुष्टताएँ  मुझे  न जीने दे रही है न मरने।   यहाँ से   शुरू  होती है एक  बुध्ह कि यात्रा , अति, आंतरिक यात्रा।  जहा वो स्वयं को खोजता है।  




तब उसको पता चलता है कि जिस संसार में वो   रह रहा था , जिसके  नित्य  उठने वाली  लहरो को वो  जीवन समझ रहा था  वो तो मात्र भ्रम  है।   रिश्ते .... नाते , संवेग युक्त  भावनाओ से उत्पन्न  अस्थिरता और अधीरता ....  आहत होने के कारण उपजे भावनात्मक उथल पुथल  या फिर  सुख के कारण हुई उथल पुथल  ..... आये .....  प्रभाव डाला और चले गए  ,  बहुत ही सामायिक और क्षणिक......



बिलकुल महासागर में उठती  हुई लहरो के सामान .। 


अब मुझे वास्तविक सुख कि तलाश है , वास्तविक जीवन कि तलाश है  और  यही से  एक बुध्ह कि राह प्रशस्त होती है। 





संसार और असंसार में अंतर  करना  शुरू  कर देता है , ये संसार  अति काल्पनिक  भ्रामक सिध्ह होता सा लगता है।   इस संसार के हर कृत्य  छलावे  और  भावनाए  माया  से लिप्त ,  विषय चमकीले  पर धुंधले।  स्वाद ,  स्पर्श ,  दृशय   इन्द्रियजनित  भ्रम और  इन्द्रिओं के सुख  में लिप्त दीखते है। इनकी सत्यता  समझ में आने लगती है।   इनका क्षणिक होना  दिखायी पड़ने लगता है। 





 और  बस  एक चोट और  इस लोहे को सहनी पड़ती  है  , बिलकुल बुध्ह  जैसी , आँखों के आगे  धरती पे  पड़ा  अपनी अंतिम यात्रा कि और प्रस्थान करता  शव  निश्चेत , प्राणहीन। वो  दृश्य  और बुध्ध  का जनम हो गया । शरीर साधन , आत्मा _साक्षी  , मस्तिष्क  कलाकार और सम्पूर्ण संसार रंगमंच हो गया। 

बुध्ह , वो  जो जीवन मरण के सत्य को  न सिर्फ जान गया  बल्कि  अति गहराई से जी भी गया।   अब उसके पास  भरम के लिए कुछ न बचा।   अब उसके पास खोने के लिए भी कुछ न बचा।  उतर गयी उसके सर की गठरी।  
अगला बस  एक  कदम  निर्वाण  की ओर।  




बुध्ध  के चार  सत्य  के संकेत  स्पष्ट होने लगते है।  





"जितना तुम स्वयं में प्रवेश करोगे, उतना ही तुम जगत के प्रति जिम्मेवारी महसूस करोगे। 
क्योंकि तुम इस जगत के टुकड़े हो। तुम इससे अलग नहीं हो।

 स्वयं जैसे होने का अर्थ है अत्यंत जिम्मेवारी का बोध, लेकिन वह बोझ नहीं है। 

यह एक आनंद है कि तुम कुछ अस्तित्व के प्रति कर सकते हो।" ओशो


ॐ प्रणाम 

Positivism : the Human_kindness is on work - Note

There are great Imbalance among positives and negatives , negatives have many source to spread , whenever positives has limited source .

Positivism have very good Impact but it has less strength , it need continues strong reminding support for seekers . unfortunately negativity is stronger due to mind forces of desires so that it need double force to remove impressions .

But still Human_kindness is on work .... loads of Positive vibes are on air and in wait to receive every time whenever One's Mind n heart is ready to receive.

To make balance perfect we need to spread as positivism as one can, its a continues Beautiful balancing dance of Human Kind for Human kind .

In any case , we are in all effort to make beautiful balance among all with Love Peace n Light of Wisdom . 






Amen !

Thursday, 30 January 2014

समझे तरंगो का चक्र - Note



सिर्फ एक दृष्टि से धारणा बदलती है ऐसा कैसे ? वो ही कहा गया कई बार , कई कई बार सुना गया , पर किस एक उचित समय और परिस्थिति में ह्रदय पे आघात कर जाता है और ह्रदय पे आघात के साथ दृष्टि बदलती है , संसार बदल जाता है । " यथा दृष्टितथा सृष्टि " तो सुना होगा आपने कई कई बार। एक वाक्य और एक शब्द अलग अलग प्रभाव डालता है, हर बार, कैसे ! आपकी अपनी दृष्टि और मनःस्थति के अनुसार ही शब्द और भाषा कार्य करते है।

मनःस्थति क्या है , ये अंतर_तरंग है , और दृष्टि क्या है , ये सिर्फ जरिया है या साधन है तरंगो को आंदोलित करने का।, जैसे अन्य चार (या फिर सात) इन्द्रियाँ साधन है आपकी अंतर संतुष्टि का , वैसे ही दृष्टि है।

महत्वपूर्ण इसलिए कि दृष्टि जिस तरंग को आंदोलित करती है वो सीधा मस्तिष्क तक जाती है , और मस्तिष्क तो आपके शरीर का प्रधान है वही से सारे कार्य कि प्रेरणा मिलती है। मस्तिष्क का ही छद्म एक नाम मन है , जो प्रेरित करता है , या कह ले ढकेलता है शरीर को , वांछित को पाने के लिए। और ह्रदय महत्वपूर्ण इसलिए क्यूंकि यहाँ से सारे शरीर में खून दौड़ता है। और ये अति महत्त्व पूर्ण इसलिए क्यूंकि आपके मस्तिष्क द्वारा पैदा कि गयी तरंगो का खामियाजा (नुक्सान ) और पुरस्कार ( फ़ायदा ) सबसे ज्यादा इसी को होता है। और भाव सीधा तरंगो से जुड़ता है।

ऊर्जा दो भागो में विभाजित है अपने अति किनारो के कारन वर्ना मध्य में ये सिर्फ ऊर्जा है नकारात्मक ऊर्जा और सकारात्मक ऊर्जा , पहली आपके ह्रदय को नुक्सान पहुंचती है जिसके कारन शरीर अस्वस्थ होने लगता है , और सकारात्मक ऊर्जा कि तरफ जब आपके प्रयास होने लगते है तो बेहतर परिणाम शरीर और मन (चंचल मस्तिष्क ) पर देखे गए है।

मनःस्थति क्या है , ये अंतर_तरंग है , और दृष्टि क्या है , ये सिर्फ जरिया है या साधन है तरंगो को आंदोलित करने का।, जैसे अन्य चार (या फिर सात) इन्द्रियाँ साधन है आपकी अंतर संतुष्टि का , वैसे ही दृष्टि है।
महत्वपूर्ण इसलिए कि दृष्टि जिस तरंग को आंदोलित करती है वो सीधा मस्तिष्क तक जाती है , और मस्तिष्क तो आपके शरीर का प्रधान है वही से सारे कार्य कि प्रेरणा मिलती है। मस्तिष्क का ही छद्म एक नाम मन है , जो प्रेरित करता है , या कह ले ढकेलता है शरीर को , वांछित को पाने के लिए। और ह्रदय महत्वपूर्ण इसलिए क्यूंकि यहाँ से सारे शरीर में खून दौड़ता है। और ये अति महत्त्व पूर्ण इसलिए क्यूंकि आपके मस्तिष्क द्वारा पैदा कि गयी तरंगो का खामियाजा (नुक्सान ) और पुरस्कार ( फ़ायदा ) सबसे ज्यादा इसी को होता है। और भाव सीधा तरंगो से जुड़ता है।
ऊर्जा दो भागो में विभाजित है अपने अति किनारो के कारन वर्ना मध्य में ये सिर्फ ऊर्जा है नकारात्मक ऊर्जा और सकारात्मक ऊर्जा , पहली आपके ह्रदय को नुक्सान पहुंचती है जिसके कारन शरीर अस्वस्थ होने लगता है , और सकारात्मक ऊर्जा कि तरफ जब आपके प्रयास होने लगते है तो बेहतर परिणाम शरीर और मन (चंचल मस्तिष्क ) पर देखे गए है।

अध्यात्म का पूरा प्रयास है कि आपका ह्रदय सकारात्मक ऊर्जा से भर जाये , धर्म का भी यही प्रयास है कुछ अलग तरीके से , कुछ को समझ आता है कुछ को नहीं ,
जिस को जो रास्ता या के धारा समझ आता है, उसको अपनाये , पर निष्कर्ष यही है कि वस्तुतः संतुलन हर परिस्थिति में करना ही चाहिए , मध्य बिंदु सर्वोत्तम है। ह्रदय और भाव को स्थिरता यही से मिलती है। 



अध्यात्मिक यात्रा में अंतर तरंग का स्थिर होना और ऊपर को आंदोलित होना आवश्यक है। , ऊर्जा चक्र भी यही भाव तरंग को स्थिर करके उभयमान बनाने का कार्य करते है। सब तरफ से आपके लिए उभयमान परिस्थतियां ही कार्य करती दिखायी दे रही है।

संतुलन , मध्य में स्थिरता , सस्त्रधार का खिलाना और निर्वाण। और वास्तव में कुछ बचता ही नहीं। जो बोझ हो , जो संताप दे सके। जो ह्रदय पे आघात कर सके , और जो मस्तिष्क को आंदोलित कर सके। दृष्टि सम हो जाती है , तो मन कि चंचलता भी थम जाती है।

मित्रो बहुत सारी शुभकामनाओ के साथ।

ॐ प्रणाम

अपने अकेलेपन में आनंद लेना ही ध्यान है। - Osho vichar

अपने अकेलेपन में आनंद लेना ही ध्यान है।

ध्यानी वह है जो अपने अकेले होने में गहरा उतरता है, यह जानते हुए कि हम अकेले पैदा होते हैं, हम अकेले मरेंगे, और गहरे में हम अकेले जी रहे हैं।

तो क्यों नहीं इसे अनुभव करें कि यह अकेलापन है क्या? यह हमारा आत्यंतिक स्वभाव है, हमारा अपना होना।

हम अकेले पैदा होते हैं, हम अकेले मरते हैं। इन दो वास्तविकताओं के बीच हम साथ होने के हजारों भ्रम पैदा करते हैं--सभी तरह के रिश्ते, दोस्त और दुश्मन, प्रेम और नफरत, देश, वर्ग, धर्म।

एक तथ्य कि हम अकेले हैं को टालने के लिए हम सभी तरह की कल्पनाएं पैदा करते हैं।

लेकिन जो कुछ भी हम करते हैं, सत्य बदल नहीं सकता। वह ऐसा ही है, और उससे भागने की जगह, श्रेष्ठ ढंग यह है कि इसका आनंद लें।

- Osho~










शुभेक्क्षा , असीम शुभकामनाये 

ॐ प्रणाम

Follow your Heart .. Note

Nothing is wright absolutely or nothing is 

wrong fully , any thought when arises...some 


where it get support , it is destiny of 


thoughts and this is world .... Mysterious 


world and  this  Journey is towards Mystic . 


when you starts your process many thoughts 


will come and cross you (your believes ) . 


some will convey love and affection , and 


some will give you confusion and negativity . 


this is your mind who will give you logic and 


heart will serve you Intuitions . 



\

just go with your heart ! 


its your's very special Journey only for you .

No one will be with you in the End " Mind it "

Follow your Heart ...

Wednesday, 29 January 2014

एक ही धागे के दो छोर :आध्यात्मिकता और धार्मिकता - Note






 से शुरुआत करते है प्रयास की  ,
से आशीर्वाद के बाद  अपनी तरंगो कि यात्रा की शुरुआत करते है 



अध्यात्म  अध्यात्मिक  आध्यात्मिकता ... धर्म के सन्दर्भ में  या के  धर्म धार्मिक और धार्मिकता ..  अध्यात्म के सन्दर्भ में , एक ही धागे के दो छोर , जितना दूर छोर यानि की  विपरीत दिशा में किनारों की  तरफ खींचे होते , उतने विपरीत से लगते  और जितने  मध्य में आ जाते  एक से लगने लगते।  

किसी यदि समझाना हो  तो  शब्दो में समेटना  अति कठिन है  इस विषय को , तर्क करे तो अभी भी जारी है  जन समुदाय में,

पर ह्रदय से यात्रा करे  तो बस एक तरंग जिसने आपको जैसे ही   छुआ  और आप  तरंगित हो गए , एक भीनी सी खुशबु  जैसे ही आपके पास से गुजरी आपका रोम रोम सुगंध से भर गया बस या के मय का सिर्फ एक घूँट  और सुरूर ऐसा कि  जिसको बयां करना  असम्भव है , ये तो  रूमी  खयाम  ग़ालिब  ही बता सकते  है  या फिर वो जिन्होंने वो हद देख ली।  । 



तो मेरा यहाँ   प्रयास है तरंग को  उचित  वातावरण में तरंगित करने का , आखिर  सब कायनात और इसका कोई भी सूत्र एक धागे से से जुड़े से है .... जो भी है ; उसकी ही झलक दिखता है ब कि धर्म और धार्मिकता  (समस्त  सम्प्रदाय ) , अध्यात्म और आध्यात्मिकता (समस्त  धाराएं ) कटरवादी और  निहायत ही विरोधी  दिखायी देते है   एक दूसरे के।    

वो ही परम  का लक्ष्य  अपने मस्तिष्क  और ह्रदय कमान पे निशाना साधे दोनों  प्रयास रत।  हठ,  भक्ति और साधना  दोनों के पास है (इनके  सांत्वना के लिए हम योग साथ में जोड़ देते है यानीकि  हठ योग  भक्ति योग और  साधना योग )  यहाँ  हम प्रेम भाव  की कमी पाते है उस प्रेम कि जो तरंगित होता है  और सीधा  परम से जुड़ता है , हाँ  यदि  अस्तित्व है तो प्रेम योग का   वो दोनों के पास होता है।  पर  परम का ह्रदय तो भाव से भरा है ,  योग के साथ वो भी परम योगी  है।   दोनों ही चाहे कितने  ही विदवता के तर्क दे, पर  दोनों ही द्वैत्व भाव से बंधे  होते है  .  

साधारण सी बात है , जो आत्माएं  शरीर के सहयोग से  किसी की  भी  साधना में रत है  अवश्य ही  किसी उद्देश्य के लिए है !  अपने लिए तो फिर साधना गिर गयी , योग महत्वहीन हो गया।  यदि स्व  के लिए है उस  परम के लिए है तो उद्देश्य सांसारिक न रह गया , पाना खोने का गणित समाप्त हुआ , पूर्ण सपर्पण हुआ , बात समाप्त हो गयी , क्रिया  ख़त्म  .. अब भाव का कार्य  भाव करेगा।  मस्तिष्क  लुप्त हुआ  तर्क गिर गए।  

कल ही  जग्गी वासुदेव कि  कुछ महत्वपूर्ण पंक्तिया पढ़ी " “There is something called ‘love’, and there is something called ‘attachment.’ What people call ‘love’ is just a way of binding themselves to somebody, getting identified with somebody, but this is not love—this is attachment.” सद्गुरु  जग्गी  वासुदेव।  

अति साधारण सरल  अर्थ में  , प्रेम और जुड़ाव के बीच का भेद  है इन पंक्तियों में , जो आपको बांध ले   वो प्रेम  होता नहीं दिखता सा लगता है , चाहे फिर वो ईश्वर  अल्लाह या फिर  गॉड क्यूँ न हो  .  सीमाये  बीच में आयी और प्रेम छू  हो  गया। आप जान भी नहीं पाएंगे।   

यहाँ यदि  गौर से देखें (बारीक़ काम है जरा भी ध्यान भटका तो अंतर पाना आसान न होगा )  असली रहस्य  ये कि प्रेम जो उत्पन्न हुआ है वो  भाव से है कि योग से , योग से उत्पन्न है तो शिव  (परम ) सदृश योगी कोई नहीं , और यदि भाव है तो उस जैसा प्रेमी कोई नहीं ( उसने अपना कृष्ण रूप अति प्रेमियों को दिया  और राम रूप  कर्तव्यनिष्ठा को) ये तो समझने समझने कि बात हो गयी , नाम से क्या काम   हमको  किस ब्रांड की है  कितने  दाम की है  इस चक्कर में तो  दिमाग वाले पड़ते है इस मधुशाला में  नाम और दाम नहीं , सिर्फ भाव मिलेगा।  भाव से भर के  आओ और पाओ और भरपूर पाओ।   और फिर ज्यादा पियो  और थोड़ी पिलाओ।  

दास  भाव भी एक यदि योग है यानि कि  क्रिया है  तो  हाथ के रूप में  लक्षित  होती है , वैसे भी  दास कि भक्ति भी हाथ में बदलते देखी गयी है।  यहाँ सिर्फ  ये कहना  है  कि " मान  लेते है कि  दासत्व  एक योग नहीं   भाव है  किसी किसी  का; ऐसे अपवाद समाज में मिलते  है।   किन्तु यह  बात ध्यान देने की है , दास के लिए  स्वामी  के   ह्रदय की यात्रा    अति दुर्गम है , क्यूंकि न तो उसकी दृष्टि है  और न ही भाव  जो स्वामी के ह्रदय तक जासके , जा ही नहीं सकता  कोई मार्ग नहीं।  



ह्रदय का रास्ता सिर्फ  मित्र  के लिए  खुलता है  सीधा ..... प्रेमी के लिए खुलता है  सीधा।  ये हाथ जोड़ के आँखे बंद करके सिर्फ स्वामी का आदेश नहीं मानते  , मित्र बनके  स्वामी को सलाह भी देते है  और प्रेमी बन के   प्रेमी के एक एक कदम का साहचर्य सुख भी पाते है।  



अपने द्वैत्व भाव में  ये शरीर और ये आत्मा , अपने परम से  समागित होती है , अध्यात्म में  भी और  धर्म में भी।   रास्ते कई है  … पर भाव एक ही है,' परम  समागम का '। यहाँ  हम भाव रूप  देखेंगे   यदि  दासत्व है  . परम का स्वामी रूप है , यदि  मित्र  रूप है  तो  परम जैसा मित्र  कोई नहीं , और यदि प्रेमी भाव है  तो उस जैसा प्रेमी दूजा नहीं। 



आप उसको जिस रूप में चाहेंगे पाएंगे।  साकार  या के  निराकार  कोई भी नाम कोई भी शब्द  वह काम नहीं आता , क्युंकि वह  ये भाषा काम नहीं करती , फिर  चाहे वो  अरबी  हो या अंग्रेजी  या फिर संस्कृत  (देववाणी ) ही क्यूँ न हो।  किसी भरम में मत पड़ना , वो किसी शब्द का मोहताज नहीं , किसी भाषा में बंधा नहीं , या किसी क्षेत्र तक सीमित नहीं ।




यही पे  अध्यात्म और धर्म  द्वैतव है ,यानिकि  एक कट्टर  धार्मिक  तो प्रचलित द्वैतवाद में है क्यूंकि मूर्ति को माध्यम बनाया  है।   एक कट्टर  अध्यात्मिक भी द्वैतवाद में ही है क्यूंकि उसने भी ह्रदय को माध्यम बनाया ।  जरा और महीन बुनावट तक जाए , तो आप पायंगे  कि  इन दोनों में प्रेम योग तो है प्रेम भाव का संतुलन नहीं है।  यानि कि हठी दोनों है , इस प्रेमहठ-योग का प्रतिफल प्रेमहठ-योग के रूप में मिले  तो समझ लेना  तुमको तुम्हारे अपने ह्रदय  के भाव-तार  ही  सन्देश देंगे।  



एक और  अध्यात्म का पुष्प  है  वो है कमल  का  जो सस्त्राधार  में खिलता है और जिसका प्रकाश आपके  ह्रदय तक जाता है।  सरल भाषा में  आपके मस्तिष्क से तरंगित हो के  आपके  ह्रदय को यानि की भाव को  प्रकाशित करता है।  वो है  समर्पण मित्रवत  प्रेमी सदृश , ध्यान रहे दासवत नहीं ।  


ये पुष्प सिर्फ उस भाव से खिलता है  जब आपकी और उसकी  तरंगो से मेल होता है , अति सरल  अति कोमल  अति शुध्हतम (इसके आगे शब्द  नहीं है ) भाव से भाव का।  

निष्कर्ष ये कि  जो जरा भी ... अंश मात्र  भी  निचले तल है ,  वो कट्टरवाद में उलझे है  , कर्मकांड में उलझे है  या फिर  ध्यान से योग मुद्रा  से  युध्ह  कर रहे है  , इनके भी ऊपर  परम का  केंद्र  है  जिसका नाम  योगियों ने  सस्त्राधार दिया है  , जहाँ पे कमल के ऊपर  स्वयं शिव अपने सम्पूर्ण स्वरुप में  विराजमान है।



(ये भी शब्दो में बांधने जैसा है पर  मजबूरी है , और कोई उपाय नहीं , क्यूंकि जब भाव से भाव मिलते है तो  शारीर  या द्वित्व  कि उपस्थिति होती ही नहीं)  आपको जादू जैसा लगेगा  कल्पनातीत भी लग सकता है।  

पर दुष्कर नहीं  प्रेम  समर्पण से  कठिन नहीं  एक पल में  आप ये  रास्ता तै कर लेते है। आप शिव कि जगह अपने प्रिय को स्वयं कोई भी नाम दे सकते है , आप जो भी नाम देंगे ,  आश्चर्य  होगा कि सस्त्राधार  में वो ही विराजमान होगा।  

पर कट्टरवाद  से नहीं  यहाँ भी आपको  इस  धर्म और अध्यात्म के मध्यबिंदु तक आना ही होगा।




जिज्ञासा  होगी आखिर  ये   मध्यबिन्दु क्या है ? आप स्वयं जानेगे आहिस्ता आहिस्ता  जब आप नेति-नेति  का रास्ता अपनाएंगे।   अपने को साफ़ और शुध्ह  बनाते चलिए ,  किसी भी अत्ति  से परहेज  करिये , प्रेम भी आएगा , करुणा भी आएगी और   प्रकृति  से एकाकार भी होगा , आपको उनकी निशानिया भी मिलेंगी  जो इस राह पे चल चुके , पर ध्यान रहे उन निशानियों को  अपनी गठरी में मत समेटलेने , नहीं तो आपका ही नुकसान होगा , गठरी फिर से भरी हो जायेगी।  और आपकी चाल सुस्त या फिर चल ही न सको।  कुछ भी हो सकता है।  



निशानिया देखो  प्रभु को धन्यवाद दो   और उन आत्माओ के प्रति  करुणा और मित्रता  से भर जाओ  जो आपका स्वागत कर रही है। 





और वो  निशानियाँ  जगमगा रही है प्रकाश दे रही है  आपके रास्ते को मुलायम और सुगम बना रही है।  




सुगंध  आनी शुरू हो जायेगी , तो  जान जाना कि उपवन पास ही है  




और उपवन में प्रवेश करते ही  वो कमल भी दिखेगा और कमल पे विराजमान आपका मित्र और प्रेमी भी।  





अंत में  कोई दुविधा न हो  तो मैं  स्पष्ट कर दू , ये सारे प्रयास  आत्मा  के है  , शरीर सिर्फ माध्यम है , तो  यहाँ जो भी घटना होगी  वो आत्मा  के साथ ही होगी , शरीर  सिर्फ और सिर्फ माध्यम है  और रहेगा  , आप हठयोग करे  प्रेम योग  या के  प्रेम भाव पुष्प  समर्पण ।   

 ये तरंगो कि दुनिया है  तरंगे ही प्रवेश कर सकेंगी। 




चित्रों के बहकावे में मत आना , सब सांकेतिक  है इशारा मात्र है।  असल भाव तो चित्र  में  अंतर्निहित  तरंग में है  तो सांसारिक दृष्टि से नहीं दिख सकेगी....  किसी धार्मिक अध्यात्मिक  प्रसंग या  कथा के  किसी भुलावे में मन को मत आने देना।  समस्त  कथाएँ भी एक माध्यम है भाव को  प्रसारित करने का।  सत्यता  का प्रमाण नहीं है। धर्म राज  युधिष्ठिर  सशरीर  गए स्वर्ग , प्रासंगिक ही है  और  भाव को  प्रेषित करने कि  अति प्रयास।  उस तार को  तरंगित करने का प्रयास जहा से आपकी तरंगे  उस सूत्र को पकड़ सके  जो आपकी यात्रा में सहायक  हो।   धर्म  और अध्यात्म का पूरा उद्देश्य यही है।  

बस  इतना ही।  

ॐ प्रणाम 

Tuesday, 28 January 2014

ओशो द्वारा वर्णित चक्र रहस्य : हर चक्र की अपनी नींद—ओशो

ओशो द्वारा वर्णित चक्र रहस्य : 
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हर चक्र की अपनी नींद—ओशो

इसीलिए कृष्‍ण गीता में कहते है कि योगी सोता नहीं। ‘योगी’ का अर्थ है जो अपने अंतिम केंद्र पर पहुंच गया। अपनी परम खिलावट पर जो कमल की भांति खिल गया। वह कभी नहीं सोता। उसका शरीर सोता है। मन सोता है। वह कभी नहीं सोता। बुद्ध जब सो भी रहे होते है तो अंतस में कहीं गहरे में प्रकाश आलोकित रहता है। सातवें चक्र में निद्रा का कोई स्‍थान नहीं होता। बाकी छ: चक्रों में यिन और यैंग, शिव और शक्‍ति, दोनों है। कभी वे जाग्रत होते है और कभी सुषुप्‍ति में—उनके दोनों पहलू है।
जब तुम्‍हें भूख लगती है तो भूख का चक्र जाग्रत हो जाता है। यदि आपने कभी उपवास किया तो आप चकित हुए होंगे। शुरू में पहले दो या तीन दिन भूख लगती है। और फिर अचानक भूख


खो जाती है। यह फिर लगेगी और फिर समाप्‍त हो जाएगी। फिर लगेगी……ओर तुम कुछ भी नहीं खा रहे हो। इसलिए तुम यह भी नहीं कह सकते हो कि ‘भूख मिट गई। क्‍योंकि मैंने कुछ खा लिया है।’ तुम उपवास किए हो, कभी-कभी तो भूख जोरों से लगती है। तुम तड़पा जाते हो। लेकिन यदि तुम बेचैन नहीं होते हो तो यह समाप्‍त हो जायेगी। चक्र सो गया है। दिन में फिर एक समय आएगा जब यह जगेगा। और फिर सो जायेगा।

काम केंद्र में भी ऐसा ही होता है। काम-वासना जगती है, तुम उसमें उतरते हो और संपूर्ण वासना तिरोहित हो जाती है। चक्र सो गया है। यदि तुम बिना दमन किए ब्रह्मचर्य का पालन करो तो तुम हैरान रह जाओगे। यदि तुम काम वासना का दमन न करो और केवल साक्षी रहो….तीन महीने के लिए यह प्रयोग करो—बस साक्षी रहो। जब काम वासना उठे, शांत बैठ जाओ। इसे उठने दो। इसे द्वार खटखटाने दो, आवाज सुनो, ध्‍यान में सुनो लेकिन इसके साथ बह मत जाओ। इसे उठने दो इसे दबाओ मत। इसमें लिप्‍त मत होओ। साक्षी बने रहो। और तुम जान कर चकित रह जाओगे। कभी-कभी वासना इतनी तीव्रता से उठती है कि लगता है पागल हो जाओगे। और फिर स्‍वय: ही तिरोहित हो जाएगी। जैसे कभी थी ही नहीं। वह फिर लौटेगी, फिर चली जाएगी।

चक्र चलता रहता है। कभी-कभी दिन में वासना जगेगी। और फिर रात में सो जाएगी। और सातवें चक्र के नीचे सब छ: चक्रों में ऐसा ही होता है।

निद्रा का अपना अगल चक्र नहीं है। लेकिन सहस्‍त्रार के अतिरिक्‍त प्रत्‍येक चक्र में इसका अपना स्‍थान है। तो एक बात और समझ लेने जैसी है—जैसे-जैसे तुम ऊपर के चक्रों में प्रवेश करते जाओेगे तुम्‍हारी नींद की गुणवता बेहतर होती जाएगी क्‍योंकि प्रत्‍येक चक्र में गहरी विश्रांति का गुण है। जो व्‍यक्‍ति मूलाधार चक्र पर केंद्रित है उसकी नींद गहरी न होगी। उसकी नींद उथली होगी क्‍योंकि यह दैहिक तल पर जीता है। भौतिक स्‍तर पर जीता है। मैं इन चक्रों कि व्‍याख्‍या इस प्रकार भी कर सकता हूं।

प्रथम, भौतिक—मूलाधार।

दूसरा, प्राणाधार—स्‍वाधिष्‍ठान।

तीसरा, काम या विद्युत केंद्र—मणिपूर।

चौथा, नैतिक अथवा सौंदयपरक—अनाहत।

पांचवां, धार्मिक—विशुद्ध।

छठा, आध्‍यात्‍मिक—आज्ञा।

सातवां, दिव्‍य—सहस्‍त्रार।

जैसे-जैसे ऊपर जाओगे तुम्‍हारी नींद गहरी हो जाएगी। और इसका गुणवता बदल जायेगी। जो व्‍यक्‍ति भोजन ग्रसित है और केवल खाने के लिए जीता है। उसकी नींद बेचैन रहेगी। उसकी नींद शांत न होगी। उसमें संगीत न होगा। उसकी नींद एक दु:ख स्वप्न होगी। जिस व्‍यक्‍ति का रस भोजन में कम होगा और जो वस्‍तुओं की बजाएं व्‍यक्‍तियों में अधिक उत्‍सुक होगा, लोगों के साथ जुड़ना चाहता है। उसकी नींद गहरी होगी। लेकिन बहुत गहरी नहीं। निम्‍नतर क्षेत्र में कामुक व्‍यक्‍ति की नींद सर्वाधिक गहरी होगी। यही कारण है कि सेक्‍स का लगभग ट्रैक्‍युलाइजर, नशे की तरह उपयोग किया जाता है। यदि तुम सो नहीं पार रहे हो तो और तुम संभोग में उतरते हो तो शीध्र ही तुम्‍हें नींद आ जायेगी। संभोग तुम्‍हें तनाव मुक्‍त करता है। पश्‍चिम में चिकित्‍सक उन सबको सेक्‍स की सलाह देते है जिन्‍हें नींद नहीं आ रहा है। अब तो वे उन्‍हें भी सेक्‍स की सलाह देते है जिन्‍हें दिल का दौरा पड़ने का खतरा है। क्‍योंकि सेक्‍स तुम्‍हें विश्रांत करता है। तुम्‍हें गहरी नींद प्रदान करता है। निम्‍न तल पर सेक्‍स तुम्‍हें सर्वाधिक गहरी नींद देता है।

जब तुम और ऊपर की और जाते हो, चौथे अनाहत चक्र पर तो नींद अत्‍यंत निष्‍कंप, शांत, पावन व परिष्‍कृत हो जाती है। जब तुम किसी से प्रेम करते हो तो तुम अत्‍यंत अनूठी विश्रांति का अनुभव करते हो। मात्र विचार कि कोई तुम्‍हें प्रेम करता है। और तुम किसी से प्रेम करते हो। तुम्‍हें विश्रांत कर देता है। सब तनाव मिट जाते है। एक प्रेमी व्‍यक्‍ति गहरी निद्रा जानता है। धृणा करो तो तुम सो न पाओगे। क्रोध करो तो तुम सो न पाओगे। तुम नीचे गिर जाओगे। प्रेम करो, करूणा करो। और तुम गहरी नींद आएगी।

पांचवें चक्र के साथ नींद लगभग प्रार्थना पूर्ण बन जाती है। इसी लिए सब धर्म लगभग आग्रह करते है कि सोने से पहले तुम प्रार्थना करो। प्रार्थना को निद्रा के साथ जोड़ दो। प्रार्थना के बिना कभी मत सोओ। ताकि निद्रा में भी तुम्‍हें उसके संगीत का स्‍पंदन हो। प्रार्थना की प्रतिध्‍वनि तुम्‍हारी नींद को रूपांतरित कर देती है।

पांचवां चक्र प्रार्थना है—और यदि तुम प्रार्थना कर सकते हो तो और अगली सुबह तुम चकित होओगे। तुम उठोगे ही प्रार्थना करते हुए। तुम्‍हारा जागना ही एक तरह की प्रार्थना होगी। पांचवें चक्र में नींद प्रार्थना बन जाती है। यह साधारण नींद नहीं रहती।

तुम निद्रा में नहीं जा रहे। बल्‍कि एक सूक्ष्‍म रूप से परमात्‍मा में प्रवेश कर रहे हो। निद्रा एक द्वार है जहां तुम अपना अहंकार भूल जाते हो। और परमात्‍मा में खो जाना आसान होता है। जो कि जाग्रत अवस्‍था में नहीं हो पाता। क्‍योंकि जब तुम जागे हुए होते हो तो अहंकार बहुत शक्‍तिशाली होता है।

जब तुम गहरी निद्रावस्‍था में प्रवेश कर जाते हो तुम्‍हारी आरोग्‍यता प्रदान करने वाली शक्‍तियों की क्षमता सर्वाधिक होती है। इसीलिए चिकित्‍सक का कहना है कि यदि कोई व्‍यक्‍ति बीमार है और सो नहीं पाता तो उसके ठीक होने की संभावना कम हो जाती है। क्‍योंकि आरोग्‍यता भीतर से आती है। आरोग्‍यता तब आती है। जब अहंकार का आस्‍तित्‍व बिलकुल नहीं बचता। जो व्‍यक्‍ति पांचवें चक्र—प्रार्थना के चक्र तक पहुंच गया है। उसका जीवन एक प्रसाद बन जाता है। जब वह चलता है तो उसकी भाव भंगिमाओं में आप एक विश्रांति का गुण पाओगे।

आज्ञा चक्र, अंतिम चक्र है जहां नींद श्रेष्‍ठतम हो जाती है। इसके पार नींद की आवश्‍यकता नहीं रहती, कार्य समाप्‍त हुआ। छटे चक्र तक निद्रा की आवश्‍यकता है। छठे चक्र में निद्रा ध्‍यान में रूपांतरित हो जाती है। प्रार्थना पूर्ण ही नहीं,ध्‍यानपूर्ण।

क्‍योंकि प्रार्थना में द्वैत है। मैं और तुम, भक्‍त और भगवान। छठवें में द्वैत समाप्‍त हो जाता है। निद्रा गहन हो जाती है। इतनी जितनी की मृत्‍यु। वास्‍तव में मृत्‍यु और कुछ नहीं बल्‍कि एक गहरी नींद है और कुछ नहीं बल्‍कि एक छोटी-सी मृत्‍यु है। छठे चक्र के साथ नींद अंतस की गहराई तक प्रवेश हो जाती है। और कार्य समाप्‍त हो जाता है।

जब तुम छठे से सातवें तक पहुंचते हो तो निद्रा की आवश्‍यकता नहीं रहती।

तुम द्वैत के पार चले गए हो। तब तुम कभी थकते ही नहीं। इसलिए निद्रा की आवश्‍यकता नहीं रहती है।




यह सातवीं अवस्‍था विशुद्ध जागरण की अवस्‍था है।
सहस्‍त्रार को छोड़ कर प्रत्‍येक चक्र की अपनी नींद है।
सातवें चक्र में बोध समग्र होता है।
यह विशुद्ध जागरण की अवस्‍था है।



Om 

द्वैत और अद्वैत - note




द्वैत और अद्वैत एक ही धागे के दो सिरे है , भाव का प्रकटीकरण द्वैत

 में होता है और अद्वैत में भाव बीज रूप में रहता है , अति विपरीत 

परिस्थितियों में जब भाव का प्रकटीकरण होता है तो द्वैत बन जाता है

इस भाव को कोई दूसरा अस्तित्व चाहिए जिसे वो समर्पित कर सके। 

फिर भले ही कोई पत्थर हो या फिर " परम " नाम का विश्वास। यहाँ 


प्रश्न सही और गलत का नहीं। यहाँ भाव स्थिति का है , जो कहती है मैं

हर रूप में सिर्फ  सत्य हूँ , मेरा कोई रूप अवास्तविक नहीं। मेरा हर रूप

विश्वास के योग्य है। अब सवाल मेरी सचाई का नहीं क्यूंकि मैं हर रूप 

में सत्य हूँ। यहाँ ये भाव है कि व्यक्ति की बुद्धिगत आस्था शरण कहाँ

पाती है , किसी की द्वैत में तो किसी की अद्वैत में। किसी कि अजान 

में तो किस की कर्मकांड में। जो अद्वैत में डूब गया वो सूफी का 

कलाम बन गया , मीरा का  गीत बन गया। 

समझने योग्य ये है कि आश्चर्यजनक रूप से ये भी आंशिक अद्वैत

भाव है , जैसे ही भाव का तार जुड़ा परम से परन्तु भाव को सहारा 

चाहिए और सहारा लेते ही अद्वैत गायब हो जाता है और द्वैत का 

प्रकटीकरण हो जाता है। मीरा ने कृष्णा से प्रेम करके द्वैत भाव बना 

दिया तो कबीर ने उस परम मअपनी लौ लगा के द्वैत में प्रवेश कर 

लिया , यानि की पूर्ण अद्वैत का अर्थ है दो का स्थान ही न रहना; पूर्ण 

ऊर्जा बन जाना। उस की ऊर्जा मेंमिलकर एकाकार हो जाना। 




इस अर्थ में गहन से गहन अभ्यासी भी द्वैत में ही जी रहा है। ५ तत्व 


से निर्मित शरीर की सीमाओ में अद्वैत सम्भव ही नहीं। बस फर्क सिर्फ

आस्था का है विश्वास का है और माध्यम का है ,अपने एक अर्थ द्वैत 

में व्यक्ति आस्था के माध्यमो में घिरे दीखते है जिसमे मूर्तियां मंदिर

मस्जिद चर्च आदि शामिल है और दूजे अर्थ में बिना माध्यम के इस 

अभिव्यक्ति रुपी गंगा को बहने का रास्ता मिल जाता है जिनको सूफी ,

संत , बाउल आदि आदि नामो से जाना जाता है। 



अभिव्यक्ति रुपी गंगा के विषय में ओशो का ये कथन कहना चाहूंगी "



नदी तब तक नदी है जब तक दो किनारो से बंधी चल रही है , जैसे ही 


दो किनारो कि सीमाए समाप्त हुई वो सागर बन गयी। "


 यानि कि पूर्ण हो गयी अद्वैत को उपलब्ध हो गयी। 








Om Pranam