Monday 21 September 2015

चक्र ( एक व्यंग )


21 September 2015 at 09:33
आईये  आईये  श्रीमन ,

आप भी आईये ; विश्वरूप का मुह खुला है , कृपया पंक्तिबद्ध कतार  में लगे लगे अपनी अपनी कला  का प्रदर्शन  जारी रखें ( कला बोले तो हंसना हँसाना ,  गाना , खेलना , चित्र , नृत्य ,  चतुराई  पोंगा है तो पोंगा गिरी , पंडित है तो पण्डितगिरी  , उछलना कूदना  जो भी आता है करते रहिये ; न न ,  बढ़ते रहिये ,  रुकना नहीं है , रुक सकते भी नहीं , अरे अरे , कतार तोड़ने का प्रयास और चतुराई  वयर्थ है यहां , इस दरबार में आपका स्थान  आपकी गति काल अर्थात आने जाने और कालांतर तक सुनियोजित है   तो छोटे प्रभु जी  अपने सांसारिक मस्तिष्क और तर्क और  दैहिक श्रम संकल्प को तनिक  शांत ही रखे और इसी  लाईन  में लगे-लगे  एक के पीछे एक  लगे हुए एक-एक कदम बढ़ते रहिये , ( स्मित रेख के साथ ) आपको क्या लगता है ! वहाँ ( मुख्य दरबार में  उसके समक्ष ) जा के चैन मिलेगा ! रुक पाएंगे ! दो क्षण  के लिए भी हाँफते ढाँपते सांस ले पाएंगे !  उसके सामने तो  आप  सर भी ठीक से झुका नहीं पाएंगे , और आगे बढ़ने का इशारा करते हुए  धक्का  दे दिया जायेगा और आप ढपकढपक  के वहीं  फिर वहीँ टपक जायेंगे दोबारा दर्शनदीर्घा  की पंक्ति में लग जाएंगे  दोबारा दर्शन के इक्छुक  बनके, क्युंकि ये गोल गोल घूमता  पहिया है काल का  जहाँ  आप खड़े है और वो गतिमान है  इसके ऊपर निरंतर चल के भी  ना तो आप आगे ही निकल सकते है  और  ना ही आप इससे बाहर  जा सकते , ये  आपकी सामर्थ्य से भी बाहर  है  हाँ  गतिमान होने का भाव ले सकते है , वो तो आप  आप कुछ न भी करें प्रयास तो भी आपका रोम रोम गतिमान है आप उसे रोक नहीं सकते।

अच्छा  अच्छा  , तो आप कहते है ,' प्रयास  तो किया ही जा सकता है '  जरूर किया जा सकता है , यही तो अद्भुत मानव स्वाभाव और शक्ति है !  कालातीत होने का प्रयास उत्तम है  । पर आप ही  इस तीव्र गति से  गोल गोल  घूमते काल चक्र के  जैसे ही किनारे जाएंगे   स्वयं ही घबरा के फिर मध्य में  आ जायेंगे।  क्यू की  फिर तो अनादि और अनंत में छलांग हो जाती  है और उस छलांग के लिए  अत्यधिक साहस चाहिए , अनूठी छलांग है , जन्मो जन्मो  इसी छलांग  के लिए कठोर तपस्या के बाद भी   ऊर्जाएं  साहस नहीं कर पाती ,  और इसी काल चक्र में घूमना  स्वीकार करती है।  फिर भी प्रयास में  कोई परहेज नहीं।  किन्तु श्रीमान प्रयास के लिए भी अपने सामर्थ्य का घेरा  परख लेना उत्तम है।  उस घेरे के अंदर ही कर्म और प्रयास संभव है।  वैसे  बृहत् काल चक्र के अंदर का  ये बड़ा घेरा - जिसके कारण ही आपको ये स्थान  मिला है और जो सिर्फ आपका  ही अर्जित किये प्रकाश  से प्रकाशित है  , ये ही आपके  कर्म मति  और गति का संचालक भी है।  पहले इससे तो भेंट कीजिये , फिर काल चक्र से बाहर  छलांग की सोचियेगा !

आप पंक्ति में लगे रहे मित्र  , और आपसे चर्चा  जारी  रहेगी , ये  जो चक्र  शब्द है इसको समझते है इसका  अर्थ ही  गोल घेरा  है , इस  शब्द  का अर्थ समझे तो मिली उम्र भी कम पड़ जाएगी , ये तरंगित घेरे  कर्म के और  भाव के है , शरीर के अपने घेरे  जो  सूक्ष्म्तम  कोशिका से लेकर मुख्यदेह में स्थित   ऊर्जा चक्रो  को पनाह देती है मनुष्य के शरीर  घेरे  में ऊर्जा चक्रो का स्वस्थ्य और कर्म की दृष्टि से बड़ा महत्त्व है , अद्भुत नाम है ऊर्जा चक्र , इस चक्र पे बार बार  गौर फरमाइयेगा , इस नन्हे शब्द के  गहन प्रभाव से बार बार आपका सामना होगा , ये  छोटे छोटे असंख्य घेरे यानि चक्र और ये असंख्य घेरे  अपना स्वयं का चक्र बनाते है  तरंगित भी और स्थूल भी  तथा  ये सभी किसी एक घेरे  अंदर रहते है फिर ये एक एक घेरे  मिलके  एक बड़े घेरे  में  विश्राम करते  है  और फिर ये एक बड़ा घेरा जैसे अनेक घेरे  किसी  एक घेरे  के अंदर निवासित है। इन्ही घेरो को समझते और तपस्या द्वारा पार करते करते आपका अपना कर्मघेरा  इस बृहत्  कालचक्र घेरे के ऊपर  इसी की गति से घूम रहा है। जैसे  तारामंडल  का गहन गहरा विस्तृत  समाज है   जो  कई आकाशगंगाओं  का निर्माण करती है ठीक वैसे ही तरंगित ऊर्जाओं का भी गहन और गहरा समाज घेरा  है  जो स्वयं के एक कण में भी पूर्ण है  तथा गुणात्मक चुंबकीय  घेरों में गोल गोल घूमते हुए अपने ही  गुरुत्वाकर्षण से बंधी है।  और आपको जान के महान आश्चर्य भी होगा की मुख्य रूप से  दो शब्दों  को लीजिये  समस्त   स्थूल  मिलके अपना चक्र बनाते है और समस्त तरंगित तरंगे  अपना चक्र बनाती है , और गुणातमक तल पे एक दूसरे से  जुड़े भी है आकर्षित भी है  और सहयोगी भी  है।  इनको कुछ निर्देश नहीं देना पड़ता ,  काल चक्र के ऊपर ये आपस में एक दूसरे से निरंतर संपर्क में है।  फिर भी  स्थूल के साथ मिल के  ये तरंगे निश्चित अवधि के लिए  कर्म करने  के लिए प्रकट होती है  ये कर्म  का पहिया  भी एक चक्र ही है  जिसमे ये तरंगे डोलती रहती है  और विभिन्न संबंधों में बंधी  निरंतर डोलना भी चाहती है।  और सभी मुक्ति का मार्ग जानते हुए भी   बंधन मुक्त नहीं होना चाहती  , ये ही इनका कर्म घेरा है। यानी हर ऊर्जा का अपना अपना चक्र।

क्या कहा !

जरा जोर से स्पष्ट बोलिए , यहाँ फ़ुसफ़ुसाना ठीक नहीं , अर्थ का अनर्थ हो जायेगा  कहना  कुछ  चाहते  थे , इन खड़े गणो की समझ में  कुछ आएगा , क्यूंकि  प्रथम तो आप संसार से आएं  है आपका मस्तिष्क और ह्रदय  अभी भी  गुरुत्वाकर्षण से  प्रभावित है  फिर जो भी आपने अपने प्रयास से सीखी  है  ये बेचारे आपकी उस  भाषा  और आपकी उस  कार्यप्रणाली  भी नहीं समझते  न ही  आप इनकी  तरंगित  कार्यशैली  और भाषा  से दोचार हुए है ,  और दूसरे इस तल  पे ऊर्जाओं की  भीड़ भारी है , असहनशीलता अधैर्य और शोर भी बहुत है    .......

अच्छा , अच्छा !  आजीवन योग  और तपस्या करी है , अच्छा कर्म से आप साधु है और  और बाल्यावस्था में ही आपने सन्यास भी धारण किया है तरंगो को  जानने का  आजीवन प्रयास किया है ,  आप जान चुके है  तरंगे  चक्रों में वास करती है  और आपके तात्विक शरीर का सञ्चालन करती है , आप बहुत बड़े और  पहुंचे हुए प्रसिद्द ज्ञानी है  !  हम्म्म ,  तो ठीक इस वी-आई-पी  वाली लाईन  में लग जाइए , दर्शन जल्दी मिलेगा,यहाँ धक्का तो नहीं पर  रुकने को भी नहीं मिलेगा   ……

क्या  कहा     ओहो  अच्छा  अच्छा

आपको  ऐसा वैसा  समझने का कार्य न किया जाये  आप तो बड़े वाले  वी-वी-आई-पी  है , ओहो ! तो आपने तपस्या  और योग के साथ व्यापार भी किया है  और देश में ही नहीं संसार में  नाम भी कमाया  है ! हम्म्म,गंभीर मसला है , अब तो आपके लिए  ये वाली एकदम विशिष्ट वर्ग की यही लाईन सही है ,  ये व्यापारियों की लाईन है , इसमें खड़े होने के लिए और अपना स्थान सुनिश्चित करने के लिए  अधिक  दान  देना पड़ता है और  भीड़ का धक्का भी नहीं लगेगा,  किन्तु ; सावधान !!  यहाँ इस पंक्ति में  सभी चतुर सूजान है ,खेले हुए मंझे खिलाडी है  पता नहीं कौन आपसे अधिक  मस्तिष्क वाला हो  या प्रभाशाली हो तो आपको आउट  कर ,  नहीं तो सर पे चढ़ कर , आपसे आगे निकल जाने की फ़िराक में हो  , यहाँ पहले से ही दानी ध्यानी ज्ञानी  सभी  प्रभावशाली  धार्मिक आध्यात्मिक  और राजनीति पारंगत  नेता  लगे हुए है।   कृपया इसी लाईन में लगे रहे और धीरे धीरे आगे अवश्य  बढ़ते रहे।

महानुभाव   फिर कुछ शायद कहा  आपने , क्या कहा  , जरा दोहराइये !

सदियों से तेज आंधी जैसी  धुल भरी हवाएँ यहाँ  चल रही है , और आप यही धुल चाटते  चाटते  थक चुके है  , और इस लाईन से भी बाहर  आना चाहते है , अच्छा अच्छा , अब तो  सभी लाईनो से ही बाहर आना है , ये लीजिये ; कहते कहते  स्वयं ही बाहर आ गए , क्यूंकि आप अब तक  सब समझ चुके है। ओहो, अच्छा अच्छा   न लाईन  और न भीड़ , सब छोड़ छाड़ दिया और फैसला लिया है की अब तो दर्शन ही नहीं करना ,  ! चलिए ये अवस्था भी अच्छी है , ( एक ओर इशारा करके )  वो देखिए गिनती के  लोग वही खड़े है आप जैसे ही सोचते है , आप भी वहीँ खड़े हो जाएँ , वे भी समस्त कर्म की व्यर्थता जान चुके है , अब  दो चार की लाईन नहीं लगती , इसलिए आप  स्वयं बनाये।  पर झुण्ड में ही रहिएगा वर्ना , हजारो की भीड़ में  खो सकते है ,  नहीं तो खुद ही भटक सकते है।  अपने धरती वाले रेडीमेड- सांसारिक-धनसंपदा से ख़रीदे संघ को नहीं स्व- अर्थात  आत्म-संघ को कस के  पकड़ के रखियेगा।

क्या कहा !!!

वापिस जा  रहे है !

कहाँ जायेंगे  लौट के ?

इस  राह के  आखिरी में  वो जो  जहाँ शुरुआत  है वो  अंतिम नुक्कड़  है,  वही ; पहली वाली  कतार  , वो सामान्य भीड़ वाली शुरू होती है ,  वो ही मिलेगी आपको !  पूर्व में ही कहा था न की आप काल चक्र   के ऊपर ही  अपने कर्म अर्जित प्रकाश घेरे के चक्र के अंदर  है  जो आपके ही अंदरुनी चक्रो को सहायता देते   है   और ये सभी चक्र स्वयं ही निरंतर  संपर्क में है इनको आपके मस्तिष्क की आवश्यकता भी नहीं  . तो यहाँ खड़े होने के लिए  अपने मस्तिष्क और हृयदाय की व्यर्थता को मान लीजिये।  जिसके दम पे आप संसार में फुदकते थे  यहाँ   भाव की  और तर्क की समस्त चालाकियां  व्यर्थ है।

फिलहाल  ; आगे की सुचना / दिशानिर्देश / उद्घोषणा का  इन्तजार कीजिये , तपस्या की  है  तो अर्जित  गुणों  का उपयोग स्वयं के ही संतुलन पे स्वयं की आंतरिक व्यवस्था के संतुलन पे कीजिये।

तनिक  धैर्य  धरिये ,
जरा चुप रहिये
चुप के साथ शांति भी आवश्यक है

शांति  और मौन का  अद्भुत सम्बन्ध है , जीवन यात्रा में बड़ा महत्त्व है , इसके अलावा आप कुछ कर भी नहीं सकते , अरे  नहीं नहीं  आपने ही तो कहा था ,' प्रयास' वाली बात।

अच्छा !

आप  बलशाली व्यक्तित्व के मालिक भी है संसार में  आपका कद हुआ करता था  लोग आपकी  कृपा पाने के लिए आपके आगे पीछे घूमते थे और तो और  जैसे आप यहाँ लाईन में लगे है  वहां लोग घंटो कतार में लगे रहते थे , ओहो  आपको सदगुरु  या  बुद्ध कहते थे  , फिर तो  आप अपनी असाधारण संकल्प शक्ति से  जरूर कुछ प्रयास कर भी सकते होंगे , ठीक है  तो पहले अपना पौरुष  और कर्ता  भाव भी पूर्ण  जी लीजिये , और जब  कुछ न कर सकने का लाचारी  नहीं वरन पराविद्वान-भाव गहरा जाये  फिर  सोचियेगा " जो जैसा है वैसा है उत्तम है और योग्य है  " सुख के साथ , पूर्ण स्वीकृति  के सहयोग से अंतरात्मा तक प्रसन्न  प्रसन्न रहिये  और खुश रहिये , और अपनी कर्म कतार  में लगे लगे काल चक्र में चलते रहिये , यही आशीर्वाद है  इस परम केंद्र के तीर्थस्थल का।  इसी आशीर्वाद के लिए ही आप  आये थे न  अनुष्ठान और संकल्प ले के !

क्या कहा !!

अब आप खुद को तमाशे का  हिस्सा  नहीं मान रहे है , हम्म्म  अच्छा है !  ठीक है सुंदर भाव है।  तमाशे में रहते हुए  आप तमाशे से ऊपर है , ऊपर के  चार चक्र केंद्र   ऊपर को उठ रहे है  अर्थात  ह्रदय  ( भाव ) वाणी  (अज्न )  संकल्प (अग्यान ) और सहस्त्रधार अर्थात  अंतिम ज्ञान  के अनुसार  आप तमाशे से बाहर  है , और मणिपुर (क्षुधा )  स्वाधिष्ठान ( भय ) और  मूल ( नैसर्गिक आवश्यकताओ की जड़ें ) से आप  धरती  से जुड़े है , यानी  जिसके पैर  जमीं पे  और हाथ  छूते  हो तभी  तो  आप बन गए  है  जोरबा  द  बुद्धा / सद्गुरु 

क्या कहा !!!

आपने सभी चक्रों  को कुशलता से साधा है , अब चक्रो से उत्पन्न विष आपको  सताते  नहीं और अमृत आपको सुख पहुंचते है , अर्थात आप ने प्रकृति  और   प्राकृतिक शक्तियों पे विजय  / फ़तेह  हासिल की है , शरीर  में रहते हुए  अब आप साक्षी भाव से  अपने चक्रो के बीच सामंजस्य और उनके द्वारा उत्पन्न  विष और अमृत का अवलोकन मात्र  करते है , पर ये अवलोकन भी तो बहाव ही है , नीचे  के चक्रो का ऊर्जा-बहाव नीचे जड़ों को और ऊपर के चक्रों का ऊर्जा- बहाव  ऊपर आस्मां को  ., यही है आपकी पूंजी  आपका चक्रीय बहाव त्रिशंकु सा  बुद्धत्व  को बह रहा है और आप जोरबा द बुद्धा  / त्रिशंकु  ,  पर प्रकति का एक नियम और भी है  वो है गति का , प्रवाह का और परिवर्तन का , तत्व तो इसमें है ही विशुद्ध  ऊर्जा इसमें विशेष सक्रिय है , किसी भी एक तल  पे आप रुक नहीं पाएंगे  , अपितु  हर तल पर तपस्या के साथ  आपके अनुष्ठान और  आपके संकल्प  में  गरुता आती जाएगी इसको आप गरिमा भी कह सकते है  ,  आपके द्वारा  उपलब्ध शक्तियों के अनुसार आपको  कार्य संकल्प  और जिम्मेदारी  दोनों का  वहन करना ही होगा , शक्तियों से  लालच को प्रवेश मत होने दीजिये , ये शक्तियां आपकी अपनी है  निजी है, और संसार की सम्पदा से इनका परिचय भी नहीं , इनको संसार के आचरण से मिलाने की भूल कभी मत कीजियेगा ,  ध्यान रखियेगा !  आपकी इक्षा शक्ति  और तपस्या शक्ति के अनुसार  ही आदि देव  और आदि देवी  आपके घूमते कालचक्र की गति का निर्धारण कर रहे है। उसी अनुसार  आपको जन्म और कर्म की प्रेरणा तथा  नैसर्गिक सहयोग  मिलता  रहेगा।  जिनपे आपको गर्व नहीं करना  मात्र  कृतार्थ होना है।

अब  आप सोचेंगे की  आदिदेव  और अदिदेवी दो क्यों है !  भई , आपने ही तो उनको  एक से दो किया है , बिलकुल अपने  जैसा आँख नाक मुह हाथ  पैर वाला  हंसने  रोने वाला परिवार वाला और एक नहीं  ऐसे अनेकानेक  अराध्य निर्मित कर दिए स्वयं  आपने अपने अराध्य को भी अपनी  श्रद्धा  और कमाया सांसारिक धन देने  के लिए  अपने  जैसा ही बना डाला  जैसा अपना घर बनाया  वैसा अराध्य  का भी  कीमती आलीशान घर बना दिया । क्षमा कीजियेगा , ये सब तो आपने ही किया है अपनी सुविधा के लिए , और भूल देखिये की भाव और कौड़ी  का संयोग भी  आपने ही करा दिया , आपका अराध्य तो आपसे जो चाहता था  आपने आज तक उसे दिया ही नहीं  आपका आराध्य तो अभी भूखा है नग्न है और अतृप्त  है  जबकि आप कहते है की आजीवन   उसके घर में  मौसम के अनुसार  उसे खाना और  कपडे और धन ; भावपूर्वक  देते ही रहे ।   निर्मित उनका देव और अदेव समाज, परिवार बच्चे कथा कहानिया  समस्याएं  समाधान, अच्छे सच्चे बच्चे, बुरे और अनैतिक मानव  समाज सब आपकी ही  तो सूक्ष्म बौद्धिक कारीगरी है , आप जितना देखते है  उसको कथा रूप में वर्णित कर पाते है  फिर उसी को सत्य मान लेते है ।  पूजा उपाय  आदि सब आपके ही तो है , आप भावों के अलावा और दे भी क्या सकते है  कुछ भी नहीं , फिर भी देने का स्वांग इत्ता बड़ा।  और तो और उसपे घमंड उससे भी बड़ा। वर्ना वो परम तो अभी भी एक ही शक्ति है।  

उफ़ !  अब ज्यादा मत सोचिये , आप जहाँ जैसे भी है , चलते रहिये ! कतार में लगे रहिये।  और कतार में लगे लगे नकारात्मक नहीं सकारात्मक इक्छा शक्ति  से जीवन व्यतीत कीजिये , हाँ ! अपने अंदर के प्रदुषण को अवश्य साफ़ करते रहिये  ताकि  साँसों के आवागमन के लिए  स्थान बना रहे वर्ना हृदयाघात का संक्रमण हो सकता है।

लेखक का  नोट :-

आपकी  ताजा जानकारी के लिए : अभी तो हम   सब  सफाई कर ही नहीं रहे , कचरा  फैला के  नन्हे बालक सदृश  इधर उधर देख रहे है और भरपूर  प्रयास कर रहे है  की कोई यथोचित पैसे लेके हमारे अंदर और  बाहर  की जमी  गन्दगी को साफ़ करने  की जिम्मेदारी ले ले।

हैं न  ! यही  सच है न !

जी हाँ ! हम सफाई का प्रथम पाठ अभी सीख रहे है ट्यूशन  ले के  भरपूर श्री युक्त श्रद्धा के साथ ; क्यूंकि  " बाहर  की सफाई का भी  वो ही विधान है  जो अंदर की सफाई है  वो ही नियम है " अनुशासन " , सफाई से रहना भी एक कला है , Art of Living  है जो  एक  ध्यान जैसा ही गहरा भाव  है। और  ये कला हमें  शरीर आयु से प्रौढ़  हो के भी बालक समान ही सीखनी है  उसी  के लिए  हम जगह जगह खूब पैसा दे रहे है , पर सफाई फिर भी  न बाहर है ना ही अंदर।  क्यों !  क्यूंकि ये भी चक्र हो गया है , आप दे रहे है वो ले रहे है , आप अपनी जिम्मेदारी दूसरों पे डाल  रहे है  और दूसरे संस्था  का खर्च और व्यवस्था  का बोझ आपके लिए आपके  ही पैसों  से  उठा रहे है , और आप वहीँ के वहींं  बिलकुल  कोल्हू के बैल की तरह गोल गोल  एक ही धुरी के चक्कर काट रहे है  जन्मों से , जन्मो से कैसे  वो ऐसे की  वर्ना ज्ञान की एक लहर तो आती , अगर एक भी लहर नहीं आ रही मतलब की  ऊर्जा के द्वार खुलना बाकी है ।   अब देखिये ; सुव्यवस्थति और  संतुलित  साफ़ जीवन सीखने  आप आश्रम जाते है  वह दान देते है  संस्था  के जीवन के लिए  , संस्था  के सञ्चालन  के लिए भी  संचालन करता  होंगे  जो आपके लिए काम कर रहे है दिन रात , दूरी तरफ उनके सारे प्रयास की  आप जैसे ही बेचैन लोग अधिक से अधिक आये दान दें और संस्था   चलत्ती रहे। ये सम्बन्ध भी  अस्पताल डॉक्टर और मरीज जैसा ही है।  बन गया न गोल गोल घूमता चक्र।   और जैसे ही गोल घेरा पूरा हुआ जान लो माया  देवी का नृत्य  चल रहा है , दानी धार्मिक  आध्यात्मिक राजनैतिक सभी माया के प्रभाव में है , कितने भी बड़े अनुभवी , तपस्वी हो  , योगी हो  पर  गोल घेरा पूरा होते ही माया चक्र के अंदर लट्टू की तरह घूम रहे   है , चक्र से बाहर  नहीं।  अभी  तो  वैचारिक स्तर पे ही हम ज्ञान और अज्ञान  के चक्र में डोल  रहे है  …यहाँ तक की भावनाओ को समझ उनसे  भी पार हो जाना है तो और उच्च स्थति  है ,   किसी भी चक्र को पूर्ण होने से पहले तोड़ देना ही माया के पार हो जाना है , फिर द्वित्व का अर्थ ही समाप्त हो जाता है , स्वयं से ,स्वयं को ही सीखना  और सिखाना भी  स्वतः  सहज और सरल है ।

 महाज्ञानी  महापराक्रमी  राजा  विक्रम  और बेताल   से सभी परिचित है ,  आईये दोहराते है बेताल विक्रम से क्या कहता था ,'  इस कथा (जन्म समाज  व्यापर परिवार )  की समस्या  का हल  यदि जान बुझ के नहीं बताओगे  , तो तुम्हारे सर के टुकड़े   हो जायेंगे  और यदि  तुम बोले  तो मैं चला "  यही है  सभी ज्ञानियों की स्थति है।  हा हा हा !

और फिर अभी तो इन माया चक्र में फंसे दुष्कर गंभीर  हालातों में  गुरु और शिष्य  दोनों को चक्र तोड़ बाहर  आना है , जरा सोचिये उस साक्षित्व का स्तर  क्या होगा , क्या आप अंदाजा लगा सकते है !   कितना सहज और कितना सुवासित /

कल्पना कर पा  रहे  है न ! जिसकी  कल्पना  ही इतनी सुन्दर  हो  उसका  आचरण , नहीं नहीं सदाचरण  और  व्यवहार  , नहीं नहीं सद्व्यवहार सुन्दर होना ही है , और इस आचरण को उपलब्ध जैसे आप है  वैसा ही संसार का कण कण  हो जाये तो अध्यात्म का कार्य   पूरा हो जाये।

मित्र प्रणाम 

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