Wednesday 8 July 2015

मनन का प्रेमी, सत्य का खोजी - Osho

मनन का प्रेमी, सत्य का खोजी। उसे खबर मिली कि दूर किसी गांव में कोई बड़ा दार्शनिक है, बड़ा तार्किक है, बड़ा बुद्धिमान है। तो उसने अपना संदेशवाहक भेजा। अपने हाथों पत्र लिखा, मोहर लगाई, लिफाफा बंद किया।
संदेशवाहक सम्राट का पत्र लेकर उस दूर की यात्रा पर निकला। जाकर उस दार्शनिक के द्वार पर दस्तक दी, हाथ में पत्र दिया और कहा, सम्राट ने पत्र भेजा है। दार्शनिक ने पत्र को बिना देखे नीचे रख दिया और कहा, पहले तो यह सिद्ध होना जरूरी है, कि सम्राट ने ही पत्र भेजा है या किसी और ने? तुम्हारे पास क्या प्रमाण है कि तुम सम्राट के संदेशवाहक हो?
उस आदमी ने कहा, इसके भी प्रमाण की कोई जरूरत है? मेरे वस्त्र देखें। मैं संदेशवाहक हूं सम्राट का।
दार्शनिक ने कहा, वस्त्रों से क्या होगा? वस्त्र तो कोई भी पहन सकता है, धोखा दे सकता है। क्या सम्राट ने स्वयं ही तुम्हें अपने हाथों यह पत्र दिया है?
संदेशवाहक भी थोड़ा संदिग्ध हुआ। उसने कहा, यह तो नहीं संभव है क्योंकि मैं और सम्राट तो बहुत दूर हैं। प्रधान वजीर को पत्र दिया होगा सम्राट ने, वजीर से प्रधान अधिकारी के पास आया, फिर मुझे मिला। सीधा तो मुझे नहीं मिला है।
वह दार्शनिक हंसा। उसने कहा, कि तुमने कभी सम्राट को देखा है?
संदेशवाहक ने कहा, मैं बहुत छोटा नौकर हूं, सेवक हूं, सम्राट को देखने का अवसर मुझे नहीं आया।
उस दार्शनिक ने कहा, जिसे तुमने न देखा, जिसने तुम्हें न संदेश दिया, तुम उसके संबंध में कैसे अधिकार से कह सकते हो कि वह है?
इतनी चर्चा होते-होते तो संदेशवाहक भी संदिग्ध हो गया। पत्र की तो जैसे बात ही भूल गई। दोनों निकल पड़े कि जब तक यह प्रमाणित न हो जाए कि सम्राट है, तब तक पत्र को खोलने की जरूरत भी क्या है? दोनों खोजने लगे। अनेक लोगों से पूछा। रास्ते पर एक सिपाही मिला; पूछा, तुम कौन हो? उसने कहा, मैं सम्राट का सैनिक हूं। क्या मेरे वस्त्रों को देखकर तुम नहीं पहचानते? उस दार्शनिक ने कहा, वस्त्रों के धोखे में तो यह भी था, यह जो मेरे साथ खड़ा है। वस्त्रों से क्या होता है? तुमने सम्राट को अपनी आंखों से देखा?
वह सैनिक भी थोड़ा डगमगाया। उसने कहा कि नहीं मैंने तो नहीं देखा; लेकिन मेरे सेनापति ने देखा है। उस दार्शनिक ने पूछा कि तुमने सेनापति को अपनी आंख से देखा है?
उसने कहा, यह भी खूब! मैंने सेनापति को तो नहीं देखा, सुना है कि सेनापति सम्राट से मिलता है। मैं एक छोटा सैनिक हूं। उतनी पहुंच मेरी नहीं। महल के दरवाजे मेरे लिए बंद हैं। दोनों खिलखिलाकर हंसे–संदेशवाहक और दार्शनिक। और कहा, तुम भी हमारे साथ सम्मिलित हो जाओ। जब तक यह सिद्ध न हो जाए कि सम्राट है, तब तक यह सब झूठ का जाल फैला हुआ है।
यह कभी सिद्ध न हो सका, क्योंकि जो भी मिला, उसका प्रत्यक्ष कोई अनुभव न था। और बड़े आश्चर्य की बात तो यह थी, कि यह सिद्ध हो सकता था बड़ी आसानी से; क्योंकि सम्राट ने स्वयं निमंत्रण दिया था कि तुम आओ मेरे महल में, अतिथि बनो। और मैं तुम्हें राज्य का महागुरु बना देना चाहता हूं। लेकिन वह पत्र तो पढ़ा ही नहीं गया। किसी से पूछने की कोई जरूरत न थी। सीधा सम्राट का निमंत्रण था। महल के द्वार खुले थे, स्वागत था।
जिनके मन में संदेह है, बुद्ध के वचन उनके लिए संदेशवाहक की तरह हैं। ये वचन के पत्र बंद ही पड़े रह जाएंगे। वे उन्हें खोलेंगे ही नहीं। क्योंकि पहले तो यह सिद्ध होना चाहिए कि बुद्ध बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। और यह सिद्ध होना करीब-करीब असंभव है। कौन सिद्ध करेगा? कैसे यह सिद्ध होगा? शब्द बंद पड़े रह जाते हैं। कितना कहा गया है! लेकिन तुमने उसे सुना नहीं। कितना शब्दों में भरा गया है, लेकिन वे शब्द तुमने कभी खोले नहीं। उनकी कुंजियां भी साथ ही लटकी थीं, लेकिन तुम्हारा संदेह से भरा चित्त बुद्धत्व की कोई भी झलक को खोल नहीं पाता। तुम सूरज को उगा देखकर आंख बंद कर लेते हो और पूछते हो, सूरज कहां है?

बुद्ध रोज बोलते रहे। जो उन्होंने रोज बोला, वही उन्होंने इस सुबह के प्रवचन में भी बोला। आकर बैठे। सुननेवाले लोग आये थे। उस दिन भी एक पक्षी वातायन पर आकर बैठ गया। उसने पंख फड़फड़ाये। उसने गीत गुनगुनाया और उड़ गया। बुद्ध उस पक्षी को देखते रहे–बैठते, फड़फड़ाते, गीत गाते, उड़ जाते। और फिर उन्होंने कहा, ‘आज का प्रवचन पूरा हुआ।’ उस दिन वे कुछ भी न बोले। पर उन्होंने कहा कि ‘ आज का प्रवचन पूरा हुआ ।’

और यह उनके गहरे से गहरे प्रवचनों में से एक है। इतना ही तो बुद्ध कहते हैं कि संसार तुम्हारा वातायन है। उस पर तुम बैठो, पर उसे तुम घर मत बना लो। वहां तुम थोड़ी देर विश्राम कर लो, लेकिन वह मंजिल नहीं है। बैठकर कहीं पंखों का फड़फड़ाना मत भूल जाना, नहीं तो खुला आकाश सदा के लिये खो जाएगा। पक्षी भी बहुत देर बैठा रह जाए, तो पंखों की क्षमता खो जाती है। पक्षी भी बहुत देर बैठा रह जाए, तो शायद भूल ही जाए क उसके पास पंख भी हैं। क्योंकि क्षमताएं हमें वही याद रहती हैं, जिनका हम उपयोग करते हैं।

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