Sunday 4 October 2015

मूल-सहस्त्रधार एक संयुक्त प्रकाशस्तंभ

here is nothing to choose accept self axis and nothing to do more than love

अस्तित्व की अस्तित्वगत स्वीकृति आध्यात्मिकता का प्रथम और अंतिम चरण 

दुनियां में कितना कुछ घट रहा है जो दो अर्थों में  सही  गलत सुख दुखः  लेन देन अर्थात सांसारिक व्यापार  स्वस्थ्य  रोग , और सब कुछ मिश्रित होके  सही और गलत नामके  के तराजू पे ही गिर रहा है  जिसकी डोरियाँ  लकड़ी की छड़ अर्थात आपसे जुडी है  जिसके मध्य पे  तुला नामक  खूंटी  है  , जब भी सही या गलत  किसी भी पलड़े पे गिरता है  मध्य भाग आंदोलित हो उठता है  और शुरू हो जाता है संतुलित  करने। . जो अज्ञानी के अनुसार असंभव ही है।   समुद्र की लहरें दोबारा समुद्र में फेंकने  जैसा कार्य है।  ज्ञान की  छाया में यही कार्य बाह्य आलम्बन  वैसे ही है  कुछ नहीं बदला  किन्तु आंतरिक  सौष्ठव से ये सहज संतुलित हो जाता है , इसमें कोई दुविधा नहीं।  किन्तु भ्रामक ज्ञान अधिक दुखदायी  और  सांसारिक द्वित्वता  से भरा होता है , अब अज्ञानी   अन्धकार से नहीं  बल्कि  अज्ञान के प्रकाश  से जूझ रहा होता है , ये अवस्था  विलक्षण है  जिसमे रहने वाले को ही अपनी वास्तविक स्थति का आभास नहीं होता। अज्ञानी  प्रयास कर सकता है  अन्धकार कम करने का किन्तु अज्ञानी  प्रकाश को  काम करने की सोच भी नहीं सकता  विपरीत  इसके वो सारे  प्रयास करेगा अपने इस लौकिक प्रकाश को बचा सके , जलाये रख सके।  

पहले इन्ही सही और गलत , सुख दुखः , लेन देन अर्थात सांसारिक व्यापार , स्वस्थ्य  रोग पे मन व्याख्या करता था, तुलना करता था , उलझता था , सुखी और दुखी होता था , और सामान्य रूप से व्यथित  भी होता था  ये प्रश्न भी अज्ञानता से भरा आज लगता है  किन्तु उस समय सहज और विद्वता भरा लगता था कि 'आखिर मेरे साथ ही ऐसा क्यों '

किन्तु जब केंद्र से केंद्र जुड़ा तो जाना यही जुड़ाव एक सच है जैसे जन्म के अर्थ ही बदल गए बाकी सब भ्रम है ये विचार कितना स्पष्ट हो गया  । अपार ज्ञान के साथ कुछ बदल देने का भाव ही गलत साबित होता है क्यूंकि कुछ बदलता है ही नहीं , " प्रकृति की स्वीकृति "  जो जैसी  है वैसी है , प्रवृत्तियाँ तो सात रंगो जैसी है ऐसे ही चलेंगी और सभी प्रवृत्तियाँ अपने अस्तित्व के साथ जिन्दा भी रहेंगी जब तक मानव का अस्तित्व है , अपरा ज्ञान खुद से खुद को जोड़ने की अंतिम बात करता है और बस इस जुड़ाव के साथ ही सब मन और मस्तिष्क की दौड़ खत्म। फिर नदी का बहाव है और रास्ता जिसपर जलधार बहती है , ऎसे जल का रास्ता ही खुद मंजिल है । 

इस राह में जो महत्वपूर्ण है  वो  मानसरोवर के हंस  की तरह  मोती-मोती अलग करते जाना और कंकड़-पंक अर्थात  कीचड और रेत  को  छोड़ते  जाना। और स्पष्ट बोलू तो  मस्तिष्क  के अर्जन और विस्तार को क्रमबद्ध समझते हुए  प्रकर्ति के विस्तार को स्वीकार करना। और यहीं सांसारिकता से अलग आपका अपना स्वस्थ ध्यान सहायक होता है , यही  मस्तिष्क  से  तर्क और भाव को अलग करता है , वाणी को  सुदृढ़  और संकल्प को तेजवान। लेकिन ध्यान देने वाली बात है की  संसार से संसार ही मिलेगा , किसी और की उम्मीद भी गलत है , तत्व  से तत्व ही मिलेगा। क्यूंकि  ये सांसारिक  सुनार  की दूकान नहीं  जहाँ  कौड़ी दे के  बहुमूल्य  सोना और हीरा खरीदते है  यहाँ  तो कौड़ी दी तो बेमोल कौड़ी मिलेगी  अनमोल  भाव दिए तो बेशकीमती  भाव मिलेंगे  अत्तव की राह में  अत्तव को साधना है। इस  केंद्र  से  उस केंद्र  को साधेंगे तो "केंद्र" से मिलन होगा ।  गलती  हमारी नहीं हमारी समाज  व्यवस्था  ही ऐसी है  की पैसे से सब कुछ मिलता है , पर  भाव कैसे मिलेगा ?  यही मिथ का टूटना आरम्भ होता है  की माया से माया  और परम से परम  का  मिलान  ही संभव है। 

और इस भाव का साक्षी कभी खुद से कोई गलत भाव में लिप्त नहीं हो सकता। गलत से मेरा तात्पर्य जो मानवीय संवेदना के अनुकूल न हो। गलत से तात्पर्य सामाजिक प्रपंच नहीं जिनका मस्तिष्क जनक है । मूलभूत संवेदना से है जिसका केंद्र मनुष्य का मध्यस्थान है।  

विचारिये ! मनुष्य का मध्यस्थल क्या है ? जो स्वयं में उसका अपना केंद्र भी है।

धार्मिक-साहित्यिक सन्दर्भ में मध्य स्थल आप नाभि का नाम पाएंगे। पर आध्यात्मिक स्तर पे तात्विक शरीर मात्र सात चक्रो के मध्य ही है , जिसमे हाथ और पैर मात्र शरीर को लम्बाई देने का कार्य करते है। हलांकि सात शरीरों की भी अनुभूति की गयी है उनके आधार अलग है उनके सन्दर्भ अलग है पर ये सभी शरीर इन सातों चक्रों में ही समग्रता के साथ अनुशासित रूप से वास करते है । इन सभी को जानते हुए अनुभव करते हुए अंत में उर्जापुंज के रूप में अंतिम सूक्ष्तम् शरीर को जाना गया।

इन सात चक्रो का मध्य हृदयस्थान ही है। जिसपे सर्वाधिक भावनाओं का प्रभाव देखा गया है। और नाभि भय का स्थल है। जहाँ सर्वाधिक प्रभाव अपने भय का पड़ता है। वाणी जो भय और भाव से जुडी है संकल्प की ओर बढ़ती है और संकल्प पवित्रता की ओर। 





यही मूल-सहस्त्रधार-प्रकाशस्तंभ सही राह का प्रतीक और ज्ञानी की अपरा स्वतंत्रता स्थिती का उद्घोषक भी है।

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