Friday, 7 November 2014

धर्म सत्य / सत्य ही धर्म - Osho

उस भेद को बताने के लिए यह भेद महाभारत कर रहा है: 'जिसमें सत्य नहीं है वह धर्म नहीं है।'

मैं तुमसे कहना चाहता हूं: सत्य ही धर्म है। लेकिन सत्य शास्त्रों में नहीं है और न धर्म शास्त्रों में है। सत्य होता है ध्यानस्थ, समाधिस्थ व्यक्ति की चेतना में। और जिसने समाधि को पा लिया, उसी ने धर्म को पाया है। मगर यह हमेशा बगावत है, हमेशा विद्रोह है। यह हमेशा सड़ी-गली लाशों के बीच में जीवंत का अवतरण है। यह अंधेरी रात में, अमावस की रात में अचानक सूरज का ऊगना है।
'जिसमें छल मिला हुआ है वह सत्य नहीं है।'

क्या बकवास और फिजूल की बातें! इसको कहने की जरूरत है कि जिसमें छल मिला है वह सत्य नहीं है? मगर ये तरकीबें हैं। ये तरकीबें हैं यह बताने की कि हमारा सत्य ही सत्य है, औरों के सत्य में छल मिला हुआ है। यह दुकानदारी की भाषा है, यह व्यवसायिक भाषा है--कि असली घी यहीं बिकता है, बाकी सब घी नकली है।

जैन शास्त्र कहते हैं कि जैन शास्त्र ही सदशास्त्र हैं और बाकी सब शास्त्र असद; जैन गुरु ही सदगुरु हैं, बाकी सब गुरु कुगुरु; जैन धर्म ही सत्य धर्म है, बाकी सब धर्म कुधर्म हैं। और कुधर्म से बचना, क्योंकि उसमें छल है। जहां छल है वहां सत्य नहीं।
यही महाभारत भी कोशिश कर रहा है कि जिसमें छल मिला हो वहां सत्य नहीं है। हालांकि महाभारत पूरा का पूरा छल से भरा हुआ है। छल ही छल है। द्रोणाचार्य की इतनी प्रशंसा है महाभारत में, उनको महागुरु कहा है और इससे ज्यादा छल वाला आदमी खोजना कठिन है। इसने एकलव्य को इनकार कर दिया शिक्षा देने से, क्योंकि एकलव्य शूद्र है।

सत्य भी इसकी फिकर करता है कि कौन ब्राह्मण है, कौन शूद्र है? और द्रोण अगर इतने बड़े गुरु थे तो इनके पास इतनी भी आंखें नहीं थीं कि एकलव्य की संभावना को पहचान सकते? एकलव्य कहीं ज्यादा प्रामाणिक व्यक्ति सिद्ध हुआ। उसने दूर जंगल में जाकर एक प्रतिमा बना ली द्रोण की। मान लिया जिसको गुरु मान लिया। गुरु ने इनकार भी कर दिया तो भी उसने अपनी धारणा को नहीं तोड़ा। गुरु के इनकार ने भी उसके समर्पण को नहीं मिटाया। यह समर्पण है! गुरु ने ठुकराया तो भी उसने गुरु को नहीं ठुकराया। एक दफे जो कर दिया समर्पण तो कर दिया।

तो जंगल में मूर्ति बना कर ही धनुर्विद्या का अभ्यास शुरू कर दिया। और जल्दी ही खबरें आने लगीं कि उसकी धनुर्विद्या ऐसी प्रकीर्ण होती जा रही है कि द्रोणाचार्य जिन शिष्यों को तैयार कर रहे हैं--वे सब राजपुत्र थे--उन सबको मात कर देगा वह। अर्जुन पर बड़ी आशा थी, क्योंकि अर्जुन उनका श्रेष्ठतम धनुर्धर था। और जब यह भी खबर आई कि अर्जुन भी एकलव्य के सामने कुछ नहीं है, तो यह तथाकथित महान गुरु, यह महान ब्राह्मण, यह राजपुत्रों को धनुर्विद्या सिखाने वाला, महाभारत में जिसकी प्रशंसा ही प्रशंसा भरी है, यह दक्षिणा लेने पहुंच गया--उस शिष्य के पास, जिसको कभी इसने दीक्षा दी ही नहीं थी!

अब बेईमानी की भी कोई सीमा होती है! छल और पाखंड का भी कोई अंत है! जिसको दीक्षा नहीं दी उससे दक्षिणा लेने जाना, शर्म भी न आई!

मुझे एकलव्य मिल गया होता तो कहता, 'थूक इस आदमी के मुंह पर! जी भर कर थूक! इसको पीकदानी समझ! यही इसकी दक्षिणा है। यह शूद्र है, तू ब्राह्मण है। इसकी छाया भी पड़ जाए तो स्नान कर!'

मगर एकलव्य की भी प्रशंसा करता है महाभारत। प्रशंसा का कारण यह है कि उसने दक्षिणा देने की तैयारी दिखलाई। और दक्षिणा में क्या मांगा द्रोणाचार्य ने? उसके दाएं हाथ का अंगूठा मांग लिया! और क्या छल होगा? यह अंगूठा इसलिए मांग लिया कि न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। यह अंगूठा कट गया तो धनुर्विद्या खतम। फिर यह अर्जुन का प्रतियोगी न रह जाएगा। यह राजपुत्र को बचाने के लिए गरीब के बेटे की हत्या। जिससे धन मिल रहा है उसको बचाने के लिए, उसकी हत्या जिसके पास कुछ भी नहीं है और जिसने अपना सब देने की तैयारी दिखलाई। उसने तत्क्षण, देर की न अबेर की, सोच किया न विचार किया और अंगूठा काट कर दे दिया।

यह द्रोणाचार्य की प्रशंसा इसलिए कि उन्होंने शूद्र को इनकार किया। और एकलव्य की प्रशंसा इसलिए कि उसने इस पाखंडी और छली आदमी को अपना अंगूठा काट कर दे दिया। उपदेश यह है कि गुरु सदा ऐसा करेंगे और शिष्यों को सदा ऐसा करना चाहिए। ऐसे गुरुओं को भी अंगूठे काट कर दे देना चाहिए, गर्दन मांगें तो गर्दन दे देनी चाहिए, जो तुम्हें जूते से ठुकराने योग्य भी नहीं मानते। जूते से भी ठुकराएंगे तो उनका जूता भी गंदा हो जाएगा।

और फिर वक्त पर यही द्रोणाचार्य अर्जुन को भी धोखा दे गया। यह आदमी ही धोखेबाज था। यह खड़ा हुआ कौरवों के साथ, क्योंकि इसको दिखाई पड़ा कि पांडवों के जीतने की कोई संभावना नहीं। अरे जहां जीत, वहां समझदार आदमी होता है! तब यह भूल गया अर्जुन को भी। तब यह भूल गया पांडवों को भी। इनकी संभावना जीत की नहीं थी। ये तो दर-दर के भिखारी हो गए थे। इसकी प्रशंसा की गई है।

और भीष्म की प्रशंसा की गई है। भीष्म, जब कौरव और पांडव दोनों जुआ खेल रहे थे, भलीभांति परिचित थे कि शकुनी ने, कौरवों के मामा ने, झूठे पांसे बनाए हैं--चालबाजी से भरे हुए पांसे हैं। उनको किसी भी तरह फेंको, जीत निश्चित है। फिर भी चुप रहे। छल किसको कहते हैं और? सब हार गए पांडव। द्रौपदी को दांव पर लगाया, तब भी चुप रहे। तब भी इतना मुंह न खुल सका इस महा ज्ञानी का, महा वृद्ध का! यह परम ब्रह्मचारी का तब भी मुंह न खुला कि यह क्या अन्याय हो रहा है! और सारा षडयंत्र पता है कि अब यह द्रौपदी भी जाएगी, क्योंकि वे पांसे तैयार किए हुए पांसे हैं। और द्रौपदी भी गई। और जब दुर्योधन उसके वस्त्र उतार कर नग्न करने लगा, तब भी भीष्म चुप रहे।

ये कमजोर, ये नपुंसक, इनकी प्रशंसाएं! ये कायर, इनकी इतनी प्रशंसा कि अंत में खुद कृष्ण अर्जुन को कहते हैं और युधिष्ठिर को कहते हैं कि मरते हुए भीष्म से ज्ञान ले लो, धर्म का थोड़ा संदेश ले लो, इनसे कुछ उपदेश ग्रहण कर लो। जैसे कि कोई ये बुद्ध हों! इनसे क्या उपदेश लेना है? और यह आदमी फिर भी कौरवों की तरफ से लड़ा।

ये जालसाजी से भरी हुई किताबें, ये षडयंत्रों से भरे हुए शास्त्र, इनमें सत्य खोजने कहां जाते हो? इनसे बचो, सहजानंद। इसमें अगर कुछ बचाने योग्य सूत्र में है तो इतना कि वृद्ध का अर्थ प्रौढ़ करना, बुद्ध करना। और धर्म को बतलाने का अर्थ धर्म को जीना करना, क्योंकि वही उसके बतलाने का अर्थ है। धर्म और सत्य एक हैं, ऐसा जानना। और स्वभावतः, यह कुछ कहने की बात ही नहीं कि जहां छल है वहां सत्य नहीं है

तुम तसल्ली न दो सिर्फ बैठे रहो
वक्त कुछ मेरे मरने का टल जाएगा।
क्या ये कम है मसीहा के होने ही से
मौत का भी इरादा बदल जाएगा।
तुम तसल्ली न दो सिर्फ बैठे रहो
वक्त कुछ मेरे मरने का टल जाएगा।

मसीहा की मौजूदगी काफी है। न तो कहने की कुछ बात है, न बतलाने की कोई बात है। जो बताने में और कहने में आ जाता है, वह बात कुछ बड़ी बात नहीं। जो बताने और कहने के पार छूट जाता है, वही बड़ी बात है। लेकिन वह मसीहा की मौजूदगी, वह किसी सदगुरु की मौजूदगी में ही हो सकता है।

शास्त्र तो मरे हुए हैं, मुर्दा हैं, कागज हैं, कागज पर फैली स्याही है। अर्थ तुम जो बिठाना चाहो, बिठा लेना। अर्थ तुम्हारे हैं। शास्त्र तुम्हारे हाथ में हैं, तुम्हारे गुलाम हैं। जैसी व्याख्या चाहो, कर लेना। लेकिन सदगुरु जब जिंदा होता है तब तुम्हारा गुलाम नहीं होता। तब तुम उसके शब्दों को बिगाड़ नहीं सकते। तब उसके साथ होना खड्ग की धार पर चलने जैसा है।

तुम तसल्ली न दो सिर्फ बैठे रहो
वक्त कुछ मेरे मरने का टल जाएगा।
क्या ये कम है मसीहा के होने ही से
मौत का भी इरादा बदल जाएगा।
रुख से पर्दा उठा दे जरा साकिया
बस अभी रंगे-महफिल बदल जाएगा।
जो कि बेहोश हैं आएंगे होश में
गिरने वाला जो है वो सम्हल जाएगा।

साकी सूफी प्रतीक है सदगुरु का--जिसके पास दिव्य आनंद की शराब लुटाई जाती है; जो भरता ही जाता है अपनी सुराही से तुम्हारे मदिरा-पात्र को।

रुख से पर्दा उठा दे जरा साकिया
बस अभी रंगे-महफिल बदल जाएगा।

और जब जरूरत होती है, जब भी देखता है कि कोई शिष्य तैयार है, तो रुख से पर्दा उठाता है। लेकिन यह तैयारी के क्षण में ही हो सकता है। क्योंकि जब साकी रुख से पर्दा उठाएगा तो तुम सिवाय शून्य के और कुछ भी न पाओगे। और शून्य को झेलने की सामर्थ्य होनी चाहिए। अन्यथा घबड़ा जाओगे, भयभीत हो जाओगे, भाग खड़े होओगे।

रुख से पर्दा उठा दे जरा साकिया
बस अभी रंगे-महफिल बदल जाएगा।
जो कि बेहोश हैं आएंगे होश में
गिरने वाला जो है वो सम्हल जाएगा।
मेरी फरियाद से वो तड़प जाएंगे
मेरे दिल को मलाल तो होगा मगर।
क्या ये कम है कि वो बेनकाब आएंगे
मरने वाले का अरमां निकल जाएगा।
अपने पर्दे का रखना है गर कुछ भरम
सामने आना-जाना मुनासिब नहीं।
एक वहशी से ये छेड़ अच्छी नहीं
क्या करोगे अगर ये मचल जाएगा।
फूल कुछ इस तरह तोड़ ऐ बागवां
शाख हिलने न पाए न आवाज हो।
वरना गुलशन में फिर न बहार आएगी
दिल अगर हर कली का दहल जाएगा।

इसलिए सदगुरु को बहुत सम्हल-सम्हल कर कदम लेने पड़ते हैं शिष्य के साथ।

फूल कुछ इस तरह से तोड़ ऐ बागवां
शाख हिलने न पाए न आवाज हो।
वरना गुलशन में फिर न बहार आएगी।
दिल हर कली का दहल जाएगा।
तीर को यूं न खींचो कहा मान लो
तीर पैवस्त दिल में है सच जान लो।
तीर निकला तो दिल साथ में आएगा
दिल जो निकला तो दम भी निकल जाएगा।
तुम तसल्ली न दो सिर्फ बैठे रहो
वक्त कुछ मेरे मरने का टल जाएगा।
क्या ये कम है मसीहा के होने ही से
मौत का भी इरादा बदल जाएगा।

सदगुरु वृद्ध है, उसकी उम्र कुछ भी हो। और सदगुरु वह है जिसने शून्य को पहचाना है। यद्यपि अपना पर्दा वह केवल उसी के लिए उठा सकता है, जो शून्य को झेलने में समर्थ हो। वह उसी कली के सामने अपने को पूरा-पूरा प्रकट कर सकता है, जो कली टूटने को, फूटने को, फूल बनने को राजी हो। फूल बनने के पहले कली को कली की तरह तो मिटना ही होगा।
इसलिए सदगुरु मौत भी है और एक नये जीवन का प्रारंभ भी। वह सूली भी है और सिंहासन भी।
Bahutere Hain Ghat - 04

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