इस पार प्रिये तुम हो मधु है , उस पार न जाने क्या होगा
पार का शाब्दिक अर्थ सिक्के का दूसरा सिरा , अर्थात ठीक उसका उल्टा पक्ष जहाँ हम है , जैसे नदी के इस पार हम खड़े उस पार हमें जाना पर उस पार का कुछ दीखता नहीं। पर मानव मस्तिष्क जिज्ञासु है , खासकर वहां जहाँ उसे चलने दौड़ने की जरा भी गुंजाइश दिखती हो , बिना पूर्व आभास दिए अपना काम शुरू कर देता है, वो भी जिज्ञासा के सहयोग से , कहता है , धुंधलके के बीच में कोहरा भी है ब्रह्मपुत्र सदृश सागर सामान विशाल चौड़ी और लम्बी ब्रह्म--नदी के बीच नाव उतार के अकेले ही उस पार चलना है , इस नाव में दो की जगह ही नहीं। पर इस पार का सच यही है , की मैं हु और तुम हो। अहो !! क्या कवि ने अपनी तरंग को भाषा के शब्द दिए।
इस पार व्यवहार है , मानव के ही आधे अंग का निमंत्रण है , इस पार ऊर्जा कर्म के लिए प्रकट है , हम यानि चैतन्य यानि ऊर्जा ; तात्विक शक्ति से संपन्न है , प्रकृति माता का का दुलार स्नेह है , परम पिता का ज्ञान परिचय है और आकर्षण है , पल पल वो अनुभव और ज्ञान देके अपनी ही तरफ अपनी ही ( कारणवश ) बिखरी ऊर्जा को खींच रहे है।
परम पिता के प्रकटीकरण में सबसे ज्यादा जुझारू , महत्वकांशी , बुद्धिसम्पन्न , किन्तु असंतुष्ट जीव जगत में मानव ही है , ये छुपा सत्य नहीं , ना ही अज्ञानता में है। सभी अपने इन गुणों से दो चार है। असंतुष्ट मानव अपनी तुष्टि के लिए आजीवन भटकता ही रहता है। और समझता है की असंतुष्ट होकर सांसारिक उपलब्धियों को हासिल करने का एकमात्र मार्ग है , यानी की कर्म का मार्ग है। यद्यपि शुरूआती गुण एक ही है असंतुष्ट और जिज्ञासा का थोड़ा फर्क है , किन्त यात्रा में परिणाम सर्वथा भिन्न है। इसलिए इनको भी ध्यान स्वयं स्पष्ट करता है। जिज्ञासा प्राकृतिक गुन है समान रूप से , सभी सचल , जीव में पाया जाता है किन्तु असन्तुष्टता का गुण मात्र मानव जाती में है। जिज्ञासा से प्रेरित मन बुद्धि अनुभव या ज्ञान की तरफ चलते है , असंतुष्ट व्यक्ति का न अनुभव साथ देता है न ही बुद्धि। इस कारण कब वो विनाश की तरफ बढ़ गया वो स्वयं भी नहीं समझ पाता। तो असन्तुष्टता को विष के अर्थ में ही जाना जाता है और ठीक उलट संतुष्टि इसी सिक्के का दूसरा पक्ष है। जो कर्म करना नहीं रोकती वरन कर्म के संग प्रसन्नता का प्रसाद देती है।
इस पार के अर्थ में अब जो कही जा रही है ये बात अत्यंत महत्वपूर्ण है , और सूत्र रूप में समझनी चाहिए ; "संसार बुलबुले के समान है इसलिए नहीं की बुलबुले की तरह फूटने वाला है बल्कि ऐसे समझे की हर जीव के अंदर का बुलबुला फूटता है तो जीव अपनी देह बदलता है , इससे भी ऊपर , हर जीव का रहना भी एक बुलबुले के की अंदर है। उसी बुलबुले के अंदर उसका रहना खाना पीना सोना सोचना , कर्म और कर्म फल, भाग्य फल , कैद है सिर्फ एक को छोड़ के वो है प्रारब्ध क्यूंकि प्रारब्ध व्यक्ति के जन्म से पहले का साथी है और मृत्यु पर्यन्त साथ ही रहता है ।" और ये मात्र कल्पना नहीं , थोड़ा सा ध्यान लगा के यदि आप समस्त जीवजगत का व्यवहार समझेंगे तो आपको पहला संकेत जो प्रकति से मिलेगा वो यही। क्यूंकि आपका ध्यान जब सफल हो के पहले प्रकति से जूड़ता है , और उसकी सफलता के बाद ही अनंत यात्रा पे चलता है। और अनंत से जुड़ता है।
तो इस प्रथम अनुभव प्रकाश में ये बुलबुला आवरण की तरह एक जीव के चारों तरफ जन्म से घेरा डालता है , जो संभवतः जन्म के समय अत्यंत सुक्षम होता है , कर्म गुण संकलन के साथ भाग्य और कर्म को समेटे जीव घेरा भी बढ़ता है। और सांसारिक नेत्रों से ये अदृश्य है नहीं दिखेगा। हाँ अनुभव से जाना जा सकता है। ऐसे की ही उतने ही घेरे है जितने संभव जीव है जगत में। क्यूंकि ये घेरा जन्म जैसा ही प्राकृतिक है , तो असंख्य है। दूसरा संकेत हमें मिलता है प्रकर्ति से ही मिलता है की वो त्रिगुनात्मक है , तीन गुणों को अपने आँचल में समेटे है , तो यदि प्रकर्ति अपने अंदर इन गुणों को समाये है तो मोटी बुद्धि से भी ये समझने योग्य है की कण कण तथा स_देह समस्त जीव जगत इन्ही गुणों से रंगा व्यवहार में लिप्त है। अब अज्ञानता में जो संभवतः अलौकिक अर्थ में है क्यूंकि लौकिक तो सभी संज्ञानी है , सब कुछ जानते समझते है और अनुभव भी संचय करते चलते है। (अलौकिक अर्थ में यात्री तो सभी है , एक विशाल चुम्बक के खिंचाव में सभी है , सभी एक ही राह पे भी है , परन्तु संज्ञानी और वास्तविक जिज्ञासु बहुत कम है , क्यूंकि जो संज्ञानी है , वो भी उसी राह पे है , किन्तु उनको अपनी यात्रा का संज्ञान बृहत् अर्थ में है , मात्र सुचना नहीं है , अनुभव है। जन्म के समय के सरल अनुभव से वो पुनः जुड़ गए है , ईश्वरतत्व से उनका सम्बन्ध बन गया है।) तो इस घेरे को ही अन्य अर्थ में समझने की चेष्टा जो की गयी है उसे ही औरा का नाम दिया गया है। ये औरा स्वयं के अंदर तत्काल कर्म भाग्य इत्यादि संचित करता है , प्रारब्ध इस घेरे से बाहर है। इसीलिए कर्म की गुणवत्ता से इसकी भी गुणवत्ता में वृद्धि या हानि होती चलती है। एक और बुलबुला है , जहाँ सूक्ष्म चेतना का वास है वो भी अदृश्य बुलबुले से घिरी है , लौकिक सन्दर्भ में इसको हृदय जाना गया है (जाना शब्द विशेष रू से उल्लेखित है क्यूंकि मानना स्वअनुभव है और जानना सुचना , जब तक आप स्वयं अनुभव नहीं करते ये पढ़ना भी जानने के ही अंदर है ) तो आपकी अपनी विशेष चेतना इसी बुलबुले में है। जिस प्रकार कण कण ब्रह्माण्डीय गुणों से भरा है। ठीक उसी प्रकार ये बुलबुले भी छोटे या बड़े हो समस्त गुणों को समेटे है। जो आपको मिली देह का आवरण बुलबुला है जब इसमें गुणात्मक विकास होता है तो ये स्वयं आपके चेतना के साथ सहयोगी होता जाता है। ये भी प्रकर्ति का ही स्वभाव है , आप जो भी कर्म रूप में कदम उठाएंगे ( वैचारिक भी क्यूंकि प्रकर्ति के समक्ष आपके विचार भी पूर्ण नग्न है छुपे नहीं आवरण सारे आपके है ) प्रकर्ति तिगुना परिणाम के रूप में आपको ही भाग्य रूप में वापिस कर देगी। और वो सब आपकी अपनी औरा के अंदर ही है। दोबारा स्पष्ट कर दूँ , औरा कोई जादू नहीं , प्राकृतिक क्रिया है , जो सामान्य है सरल है नियमित है प्रकर्ति के ही समान। ये भी एक सत्य की राह का ही सूक्ष्म सा सत्य है की हर घेरा सत्य है छोटा हो या बड़ा , हर औरा का अपना ही सत्य है। ये सिद्धांत भी सत्य है की इस दिव्य राह पे असत्य कुछ है ही नहीं , जो असत्य सा भासता है वो बौद्धिक है और नितांत लौकिक उपलब्धि है। ( इसी कारन आप स्वानुभव से ये पाएंगे की हर जीव अपने घेरे में अपनी इस सत्य ऊर्जा को समेटे असंतुष्ट किन्तु संतुष्ट सा दीखता स्वयं के बौद्धिक विचारों को तर्कपूर्ण प्रयास से सही सिद्ध करने में सफल स्वयं में और असफल संसार में है ) जब आप की दृष्टि का विकास होगा तो जो लक्षण आपको भासित होगा वो आपको विशालता देगा समग्रता देगा , दृष्टिगत विकास होगा , तब आप तर्कों की व्यर्थता को समझेंगे। तब आप जानेंगे की मनुष्य की भाषा की अर्थ व्यक्त करने की अपनी सीमा है। तब आप भाषा से ऊपर में जाने की स्वतः चेष्टा करेंगे। उस उपलब्ध मौन में आपको ये घेरा स्पष्ट भासित होगा , किन्तु किसी मस्तिष्क रचित चित्र में इसे बाँधने की चेष्टा न करें , मात्र दिव्य गुणात्मक आभास है। इसी घेरे को और समझते है, स्वध्यान में कल्पना कीजिये की आप ( चैतन्य स्वरुप ) इस घेरे से बाहर है , और समस्त पृथ्वी के समस्त बुलबुलों को देख पा रहे है , तो आप जानेंगे की इन बुलबुलों की संख्या अनगिनत है , आप इस क्षण में गिन तो नहीं सकते पर अनुभव कर सकते है। और इनके भिन्न भिन्न आकार भी स्पष्ट है। ये भिन्नता कैसे है ये भी स्पष्ट है। जब आप इन बुलबुलों को देख रहे है तो किसी भी एक बुलबुले के करीब जाइए , तो आपको उसकी गुणात्मकता का आभास होने लगेगा। कित्नु समग्रता में दूसरा पक्ष भी ध्यान में रखना है की जो जीव बुलबुले के अंदर है उसको अपने ही बुलबुले की सच्चाई का भास् है उसकी सत्यता में वो सीमित है। और यही कारन है की असत्य मात्र दूसरेपक्ष का आभास है। सत्य समग्रता के साथ अटल है। अब आप ये भी जानेंगे की तर्क कितने ज्ञान से भरे है जो मात्र अपना ही पक्ष न सिर्फ प्रभावी ढंग से रखते है अपितु उसके न माने जाने पे मनोभाव से चोटिल भी होते है , और ये भी कर्म और बुद्धि कही एक मेल है , अपितु सर्वथा अज्ञान और अन्धकार में भी है।
यहाँ ध्यान दीजियेगा यदि भाषा की अशक्तता का और मौन की प्रबलता का आभास हो रहा है आपको और आपको तर्क की व्यर्थता का भी आभास होने लगा है , इसके साथ ही आपको प्रकृति से सहयोग भी मिल रहा है जो निरंतर आपको मुखर हो के अपना स्वरुप स्पष्ट कर रही है। तो आपको सहज आभास होगा की मानवीय भाषा चिड़ीयों के मचते शोर जैसी ही है , अर्थहीन , और झुंडों में चहचते हुए। संज्ञान मौन को मुखर करता है।
इस पार के अनुभव के अंदर ही एक और भाव अव्यक्त है जो स्वभावतः अपने को व्यक्त करने की अथक चेष्टा करता रहता है , वो है प्रेम का। वैसे इस भाव पे अलग अलग बहुत कुछ लिखा मिल जायेगा पर स्वाभ्यास् से हुए अनुभव की बात ही कुछ और है। द्वित्त्व में मिल के ये अपने प्रेम के अर्थ को सम्पूर्ण करता है , ये भी प्रकर्ति जन्य ही है , ये समझने योग्य है की प्राकर्तिक और दिव्य गुण साथ ही साथ है इन्द्रधनुष के रंगों से मिले जुले है आत्मध्यान और स्वसंज्ञान ही इनको समझने में मदत करता है, तात्विक और आत्मिक ज्ञान इनको स्पष्ट करता है। यद्यत्पि प्रेम बृहत् है समस्त भावो और अमृत या विष का मूल स्रोत है। एक ही प्रेम भाव की अज्ञानता में विष है और संज्ञानता में अमृत है । मानव बुद्धियुक्त है इस लिए हर बात को तर्क से समझना चाहते है वस्तु प्रमाण हो तो ज्यादा सही , अपने द्वित्व स्वरुप को भी , इसी प्रेम भाव को संज्ञानता में दिव्य स्वीकृति के साथ अपने ही दूसरे अलग से दीखते अपने ही दूसरे टुकड़े प्रेमी के साथ संपूर्णता के साथ उपर्युक्त भाव आता है, लौकिक दृष्टि से स्पष्ट दिखता है ,' प्रिये तुम हो और संसार का गहरा नशा है , इस अज्ञानता के कोहरे में नदी के उस पार का और कुछ दिख नहीं रहा पर हम तुम और नशा तो है ही । संज्ञानता द्वित्व में व्यक्ति को सचेत रखती है और अज्ञानता में व्यक्ति अचेत सा व्यव्हार लिप्त रहता है , तो उसे व्यवहारिक रूप से लगता है की वो जागा हुआ सा कर्म कर्तव्य कर रहा है धर्म भी कर रहा है , किन्तु उसकी चेतना कहीं गहरे कोहरे में हो रही है उसका अंदर का जो बुलबुला है उसके भी अंदर वो चेतना का दीपक जल रहा है। जो संभवतः ज्ञान की अवस्था में आभासित तो होता है परन्तु संज्ञान नहीं है , नशा है बेहोशी है नींद है अपने अपने स्तर के अनुसार , संभवतः यही ज्ञान कर्म और कर्मफल से बंधा भी है , जिसको सामन्य भाषा में भाग्यफल कह के फिर गहरी नींद में मनुष्य चला जाता है । संभवतः गहरी नींद में ही , भाव भी द्वित्व में बँट जाते है , और अच्छे बुरे फलदायी होने लगते है। भाषा का विस्तार भाव की महीन काट छांट , तर्क कुतर्क सुतर्क , संक्षेप में यही भाषा और भाव का संगम शास्त्रो को जन्म देता है ( जैसे यहाँ मेरा भाव लेख लिखने का माध्यम बना रहा है ) समस्त शास्त्रो का जन्म हुआ। जिनके पीछे मनुष्य बुद्धि ही सक्रिय है। ये जानना अति आवश्यक है की लेख की स्याही तो सिमित है , किन्त इसके पीछे का भाव , लिखे से भी अधिक गहरा है और लिखा गया जाने गए से अधिक गहरा है । जिसको अक्सर मनोवैज्ञानिकों दवरा कहा भी जाता है की दिए गए १०० प्रतिशत विचार में ७० प्रतिशत ही प्रयास पूर्वक कहा जा पता है , उसमे भी ५० प्रतिशत पढ़ा जाता है जो ३० प्रतिशत बन के दिमाग तक जाता है और १५ प्रतिशत बन के गए दिमाग से बाहर निकलता है। ऐसे ही समस्त शास्त्र का भाव है , अभ्यासी अपने धायण अभ्यास से लिखे गए के पीछे के भाव तक जाने का प्रयास करते है। आपको आश्चर्य होगा , की इस पवित्र प्रयास में वो दिव्य आत्माएं प्रसन्न होती है और उस भाव का स्पष्ट संकेत देती है , ऐसा लगता है जैसे अपने उस भाव को स्पष्ट करते समय वे संतुष्ट भी होती है , सार्थक्ता का और प्रसन्नता का मिला जुला भाव जागता है। ध्यानी और पवित्र आत्माओं में , दोनों में ही, क्यूंकि इस समय वे भी द्वित्व में ही है,एक कह रहा है और एक सुन रहा है । जो इस धय्नावस्था में सुना गया वो लिखे से बिलकुल अलग है , कोई मिथ्या नहीं है , कोई भ्रम नहीं सब स्पष्ट है। इस माध्यम से परम का दर्शन सहज सरल है।
जो उसके प्रेम को समझ जाते है , वो इस पल में यकीं करने लगते है , भूत भविष्य जैसे शब्द बेमानी हो जाते है। रूमी मधुशाला लिखने वाले जैसे कवि अथवा मीरा हो या कबीर उसी सुरुर में डूबे है , यदि उनकी दृष्टि से देखे तो समस्त मानवीय संसार समेत समस्त पृथ्वी संसार इस अज्ञानता के नशे में है , जिसको माया की चाल भी कहते है जो प्रकर्ति को चलाने में सहयोगी होती है, जो माया / छलावे का सच है । जिसका आभास एक बार होता सबको है पर उस वख्त समझने का समय ही नहीं होता , बस विदा का समय और एक इक्षा की काश मुझे एक जन्म और मिले तो इस बार मैं माया को जान के ही जियूँ। फिर जन्म और पिछला भुला हुआ सारा जन्म यूँ ही बिता देता है। न जाने कितनी बार यही एक ही जीवन बार बार स्वयं को दोहरा रहा है। पर ये भी सच है की चेतना अपने विकास क्रम पे ही है। जितना विकास हो गया वही से विकास को और आगे की गति मिलती चलती है। जैसा प्रकर्ति में भी स्पष्ट दीखता है। इसी का दूसरा नाम विकास क्रम है , जो भी लौकिक आँखों और बुद्धि से देखा गया सोचा गया समझा गया , प्रकति का ही सूक्ष्म प्रभाव है , यही प्रभाव बृहत् रूप में अलौकिक चेतना के साथ है , यही क्रम। और ये अनवरत भी है। अनंत है। पर जैसे जैसे विकासक्रम में चेतना दिव्यता को अंगीकार करती चलती है , उतना ही ये प्रकट और अप्रकट जीवन सहज और सरल होता जाता है। ऐसी चेतना विष न तो दे सकती है न ही विष फ़ैलाने में सहयोगी हो सकती है , संसार में द्वित्व में विष और अमृत भी अलग अलग है जबकि अद्वैत में ये प्रभावहीन होके एक ही है । कैसे ! जरा सोचिये , सांसारिक बुद्धि से भी आपको उत्तर मिलेगा , यदि अग्नि और पानी एक साथ हो तो क्या होगा ! अग्नि बुझ जाएगी और पानी भाप बन जायेगा। मिला न उत्तर !
उस पार का दर्शन जरा अलग है , दर्शन वो नहीं जिसे फिलोसोफी कहा जाता है जो विषयबद्ध है , दर्शन का अर्थ यहाँ दृश्य से है आत्मिक ज्ञान से है , आत्मिक दिव्य नेत्र के खुलने से है , जो उस पार के दृश्य स्पष्ट करता है। उस पार इस संसार के सारे द्वित्व उस पार जा के अद्वित्व में बदल जाते है , विष अमृत एक साथ होके शांत हो जाते है । वो है परम सत्ता जिसके चारो तरफ गैलक्सी चक्कर काट रही है वो शिवलिंग मध्य केंद्र में स्थापित है। जिसमे प्रस्फुटन के वो ही सारे गुन बीज रूप में है जो इन्ही गैलेक्सियों में एक गैलेक्सी में चक्कर काटते लाखों तारामंडल के बीच सूर्य नाम के गृह से अलग हुई उपग्रह पृथ्वी पे भी पर्यावरण के कारन संभव सूक्ष्म रूप से कण कण में व्याप्त है , उसमे भी चर और द्वित्व में बंटे हर जीव में ज्यादा स्पष्ट है , जो किसी भी एक जीव में अज्ञानता में " मेरे " के अर्थ जाने जाते है और इन्ही प्रस्फुटन की माया है जिसको मनुष्यों में प्रकट कहा माना और जाना तथा अन्य जीवों में अनकहा "परिवार" भी कहा जाता है , अन्य जगत अचर में भी बीज रूप में जाने जाते है , सम्पूर्णता से प्रकर्ति में समान फैलाव के साथ दीखते है ।
उस पार का सत्य। . बहुत सरल है अद्वैत है और स्पष्ट है।
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