स्थूल सामर्थ्य से तात्पर्य जीवेक्षा से है उलझे और इस जन्म से अर्जित कर्म बंधन से है , यही कर्म बंधन जन्मांतर के भी हो सकते है। बड़ा ही गूढ़ विषय है , और ताना बाना आपस में उलझा हुआ। कही प्रमाण मिलते है तो कहीं तरंगे जोड़ती है। कई बार बाहर से विषय देखने पे कल्पना की उड़ान भी लग सकती है, स्थूल सामर्थ्य कैसे ! स्वयं ही अपने जन्म का कारन बन जाता है जब की जीव स्वयं देह में अशक्त हो माया की कठपुतली की तरह डोलता फिरता है ? कई बार जीवन में ये अनुभव होते है जैसे अब हमरे सामर्थ्य में कुछ भी नहीं , जो करना हो वो परमात्मा ही करे। और परमात्मा का दिया जैसे भी हो स्वीकार करना होता है , सामान्य बुद्धि यही कहती है। किंतु ध्यान में स्वयं समाधान मिलते है प्रश्न जब गिरते है तो गिरते ही नहीं सुलझते भी है। ताना बाना स्पष्ट होने लगता है। मुझे पूरा विश्वास है की ये पड़ते समय भी कई लोग कई कई बार असहमत भी होंगे। हो सकता है सारी बातें समझ से बाहर हो ! पर परम की प्रेरणा से जो भी ताना बाना बना है वो विश्वास योग्य है। क्यूंकि यहाँ कई ऊर्जाओं ने मिलके जीव के जन्म प्रारब्ध और पुनर्जन्म चक्र का आधार दिया है। फिर भी पढ़ने वाले की अपनी स्वतंत्रता है।
अक्सर लोग इसको ज्यादा न सुलझा पाने के असामर्थ्य में चमत्कारी परिणाम या उपलब्धि अथवा ईश्वर के वरदान से स्वयं की जिज्ञासा शांत करते है। जैसा आप सभी जानते है , महान ऋषि भृगु ने सात जन्मो का वृत्तांत अपनी भृगुसंहिता नाम शास्त्र में उद्धृत किया है।
ये तो विज्ञानं में भी कहा गया है यानि प्रमाण सहित की तारामंडल जैसी हमारी पृथ्वी भी सूर्य से अलग हुई है और पृथ्वी से चन्द्र और सौरमंडल , इसी कारन ये सौरमंडल एक दूसरे से आकर्षित है और स्वयं की परिक्रमा परिधि बनाते हुए सूर्य की परिक्रमा भी करते जाते है। और यही कारन है की धरती पे जन्मे जीव में इन ग्रहो का प्रति कार्मिक खिंचाव गुण और तत्व भी उसी अनुपात में मिलते है। इस अपनी परिधि के चक्कर और सूर्य के इर्दगिर्द चक्कर में ही जीव के कर्मो का भोग का और मृत्यु तक का जन्म जन्मो का लेखा जोखा है। जन्म ग्र्ह गुण को आधार बना खाका खींच ग्रहों की स्थति अनुसार अन्य गृहों की चाल और एक दूसरे पे प्रभाव को आधार बना भविष्यवाणी की जाती है। यदि वास्तव में किसी को ज्ञान है इस विद्या का तो फल और परिणाम ९९. ९ प्रतिशत सही होते है (यहाँ किसी अन्धविश्वास को बढ़ावा न देते हुए ये कहना उचित होगा की ज्योतिष भी जोड़भाग का शास्त्र है बहुत तरीके के योग संयोग की समझ और सामर्थ्य के बाद ही कुछ कहा सही हो सकता है और संभवतः हर बार वो भी नहीं क्यूंकि परमज्ञानी श्री गणेश से बढ़ा ज्ञान मनुष्य में नहीं फिर भी प्रयास तो है ही, और ये विद्या अनुचित हांथो में पड के दूषित भी है ) । परन्तु यहाँ विषय दूसरा है , पुनर जन्म और स्थूल सामर्थ्य का , इसका चक्र बना के समझना आसान होगा , पहला घेरा जन्म से मृत्यु का यानी जीवन काल का और दूसरा घेरा जीव का सुप्त काल है यानी मृत्यु से शुरू हो के पुनर्जीवन का। सारे कर्म कर्त्तव्य पालन गुण दोष फल भोग जागृत सुप्तावस्था ( जीव का जीवन ) में और इस जीवन से साथ लिए गए धन का दोबारा उपयोग की सामर्थ्य सुप्त जागृत अवस्था (मृत्यु से नव जन्म तक ) में, धरती की माया ही ऐसी है , जो सीधा दीखता है वो वास्तव में उल्टा और जो उल्टा है वो ही सीधा नजर आता है। हमारी लौकिक समझ और इन्द्रियां भी ऐसी ही है। जो वास्तविक दृश्य है उसका उलट बुद्धि को समझ आता है। रंग भी ऐसे ही है , सातों रंग हर वख्त हर जगह मौजूद है , किन्तु दिखाई वो ही देता है जिसपे आँख केंद्रित होती है और जो प्रकर्ति दिखाना चाहती है। है न मजेदार ! कई संयोगो का मिश्रण है , दृष्टि और घटना क्रम ।
तो जीवन मृत्यु के इस क्रम में पहले तो ये भाव की ऊर्जा तत्व से अलग है ,जीवाणु के सयोंग और प्रकर्ति के सहयोग से , जन्म की घटना घटती है। और मृत्यु वो ही है की तत्व तत्व में मिलता है और ऊर्जा पुनः अलग हो जाती है। कोई नष्ट नहीं होता , कुछ समाप्त नहीं होता। मात्र वो संयोग समाप्त होता है। मूल ऊर्जा के ऊपर वासनाओ का आवरण रहता है अवश्य ही अति तरल अदृश्य और तरंगित है जो हमारी लौकिक दृष्टि की पकड़ में नहीं आता। मृत्यु का समय साक्षी होता है की किन वासनाओ के साथ आत्मा ने प्रस्थान किया है। और उन वासनाओ की तीव्रता क्या है ? जन्म का अंतराल और गर्भ यहाँ जीव अपनी जाग्रत सुप्तवासतः में तय कर सकता है , यहाँ बेईमानी नहीं हो सकती मक्कारी नहीं हो सकती , झूठ नहीं पलता , क्यूंकि ऊर्जा स्वयं में पवित्र है बाधित है वासनाओ से , जिनकी पूर्ति हेतु उसका पुनः प्रयास होता है शरीर के माध्यम से उन अधूरी इक्छाओ का पूरा करने का। तो चयन गर्भ और क्षेत्र चयन प्रक्रिया स्वाभाविक है और पवित्र है।
प्रकृति सुनियोजित है प्रकृति क्या सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड सुनियोजित है , यहाँ कुछ भी खर्च नहीं होता मात्र रूप बदलता है , अचानक और यूँ ही कुछ नहीं घटता, घटती घटनाएँ औचित्यपूर्ण है , जो कभी समझ आता है और कभी नहीं भी। जो समझ आया उसको समझ लिया जो नहीं समझ आया उसको चमत्कार कह के समझा लिया।
निष्कर्ष रूप में निचे लिखी कुछ बातें जानते है और स्वीकार करने का प्रयास करते है -
प्रथम - हम सब नक्षत्रो के अंश है
द्वित्य - पृथिवी पे हम ऊर्जा और तत्व और भाव रूप से एक है
तीसरा - नक्षत्रो की चाल का समस्त पृथ्वी समेत हमारे जीवन पे भी प्रभाव पड़ता है
चौथा - पृथ्वी पे जन्म कल भोग काल है
पांचवा - मृत्यु से पुनर्जन्म तक सुप्तजागरण काल है।
छठा - पूर्व अच्छे बुरे कर्म तथा उनसे सम्बंधित फल का निचोड़ तथा अधूरी इक्षाए वंसनाये मृत्यु के बाद सूक्ष्म शरीर बन मूल ऊर्जा के साथ जाती है। यह इक्षित नहीं आवश्यक है। यहाँ चालाकी कार्य नहीं करती। क्यूंकि प्रकृति के नियम ऐसे ही है।
यह जो छठा बिंदु है यही पुनरजन्म का कारन बनता है और परिवार तथा गर्भ का निर्धारण भी यही करता है , सम्बन्ध प्रेम सुख दुःख परिचय मित्र लोगो का मिलना सब प्रकर्ति के गर्भ में पूर्व सुनिश्चित होता है। कुछ भी निराधार नहीं।
यहाँ जीवन प्रारब्ध सहयोग सभी के साथ यदि जागरण होने लगता है तो जीव की कर्म गठरी हलकी होने लगती है जिसका आभास स्वयं जीव कर सकता है , आनंद रूप में। कर्म गठरी खली हो जाये तो आत्मा मिक्ष की अधिकारी हो जाती है , फिर जन्म और पुनर्जन्म की वासनाएं धक्का नहीं देती।
इसको मानना या न मानना शत प्रतिशत पाठक उपर है , क्यूंकि जन्म और पुनर जन्म भाव है जिनका विश्वास भी भाव प्रधान है, एक अघोरी बाबा का कहना है की स्वयं कृष्ण की माता और कृष्ण के समक्ष मरे कौरव तथा कुंती आदि भी अपनी संचित अधूरी वासनाओ से बार बार जन्म लेते रहे है आज भी उनके जन्म का सिलसिला जारी है किन्तु तृष्णा शांत नहीं होती , हर जन्म में वासनाओ की तृप्ति मुख्य आधार बनती है और अतृप्त हो के उन्हें फिर फिर जाना पड़ता है , सिर्फ अतृप्ति ही नहीं उनके कर्म में भी वो ही भाव प्रधान रहता है जिस कारण उनको जन्म लेना पड़ता है , सिर्फ पांच पांडव को जन्म नहीं लेना पड़ा क्युकी उनकी स्थूल सामर्थ्य समाप्त हो गयी थी। भोग उपभोग का चक्र तोड़ चुके थे। अन्य समस्त जीव अपनी वासनाओ की पूर्ति हेतु बार बार जन्म लेते है और फिर वोही अधूरी कामना के साथ मरते जाते है पुनः जन्म लेने के लिए। ये सिलसिला चला ही आरहा है , अपितु आत्माए जो भी है जिस स्तर (आध्यात्मिक ) पे
है वो वही से यात्रा आरम्भ करती है , इस प्रकार हर आत्मा उन्नति को अग्रसर है , किन्तु इसी मानव शरीर में ऐसी भी आत्माए है जो सचेत न है न ही होना चाहती है , और सिर्फ विषय को मनना और जानना ही नहीं , अपितु अपने ही कर्म भाव और स्वाभाव सहित प्रारब्ध के संयोग से अधोपतन की और अग्रसर है। यहाँ ऐसे जीवो में दो श्रेणियाँ है एक देवतत्व की और अग्रसर तो दूजी राक्षस तत्व की और बढ़ती हुई ये सभी में है , सिर्फ मनुष्यों में नहीं प्राणी मात्र इस गति से प्रभावित है। यहाँ तक की तपस्वी वृक्ष कहे जाने वाले वृक्षों में भी ऐसे वृक्ष है जो जड़ों से प्राकृतिक भोजन लेते ही है वासनाओ में अंधे हो अपनी शाखाओं से लपेट के हत्या करते है। अजीबोगरीब धरती पे प्राणी जगत है। मात्र संज्ञान ही मुक्ति दिलाता है। संज्ञान का प्रवेश होते ही , स्वयं देवत्व की और परवर्ती अग्रसर होने लगती है , बंधन कटने लगते है , मुक्ति तो सुनिश्चित हो ही जाती है।
किन्तु यहाँ ध्यान देने योग्य यह बात है ज्ञान का प्रवेश द्वार क्या है , वैसे तो अंततोगत्वा सभी रास्ते परम को ही जा रहे है , संज्ञान का सीधा रास्ता है , धर्म भी उलझाता है , कई बारी परम्पराओं में उलझ लोग मूल उद्देश्य से ही भटक जाते है। किन्तु अहंकार के धर्म पालन तो हो रहा है। ये अहंकार भाव सबसे बड़ी मार्ग की बाधा , सत्य तक पहुंचना तो तनिक दूर देखने भी नहीं देता और यह स्थूल इतना सूक्ष्म है की कहींसे भी व्यक्ति के मस्तिष्क में घुस जाता है , अक्सर अहंकारी को भी अपने इस अंतिम अहंकार का पता नहीं होता। , अपना स्वभाव अपना कर्मकांड ही वास्तविक और प्रामाणिक नजर आता है , यहाँ वास्तविक आध्यात्मिक अपने स्वभाव से बालक समान सहज सीधा सुलभ है । क्यूंकि ज्ञान प्राप्ति में सबसे बड़े बाधक हम स्वयं है
No comments:
Post a Comment