Friday, 7 November 2014

महाभारत के युद्ध की बुनियाद

प्रश्न:-   महारथी कर्ण को इस तरह मारना क्या बहुत जरुरी हो गया था  ? 
            'धर्म' हेतु कृपया अपनी राय दें।
            समाज पर उपकार होगा ? 
            आप सभी स्वागत के साथ आमंत्रित हैं। 

Note : स्मरण रहे : इस तस्वीर में दिख रहे तीनों महान पात्र कलियुग के वर्तमान काल खंड में भी मानव जन्म लेकर अपना जीवन जी रहे हैं।
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''Aghor S
hivputra''

उत्तर :- स्वभाववश  गिरती और उठती मचलती  मानवीय तरंगे है , जो हर काल में सात रंगो  की विविधता से भरी होती थी , होती है और आगे भी होती रहेंगी , इससे फर्क नहीं पड़ता की मानव नाम की प्रजाति किसी काल में दोष मुक्त थी या नहीं, 
कर्ण सही था या नहीं , उसका मारना सही था या नहीं ...इसकी उद्घोषणा द्वैत्व में जीते मानव से संभव ही नहीं , उत्तर  देते ही वो सही और गलत  दो पक्ष बना लेगा।  तमाम  शास्त्र  इतिहास  और धर्मलेख  व्याख्याए  इसी बात प्रमाण है।  द्वित्व  में  लिखे गए  और तर्क उतारे गए  सही और गलत  के मध्य झूला झूलते।  

सही और गलत , एक ही सिक्के के दो पहलु है , एक इंसान एक के लिए सही तो दूसरे के लिए गलत हो सकता है . तो नैतिकता और सिद्धांत दृष्टि पक्ष के अनुसार बदल जाते है . वस्तुतः कर्म में लिप्त मनुष्य सही गलत के असमंजस में ही रहते है और वस्तुस्थति  परिस्थति अनुसार यथासंभव सत्य का साथ देने की चेष्टा भी करते है ..... फिर भी सही गलत एक साथ एक ही जगह उपस्थ्ति ही रहते है . महा भारत की कड़ी मात्र इतनी नहीं की युद्ध कौरव पांडव के बीच हुआ और कारन द्रौपदी बनी , ये तो बहुत हल्का विचार होगा , सभी अपने अपने पक्ष में तार्किक थे सही थे , गुरु द्रोण , भीष्म पितामह , यहाँ तक की शकुनि भी , उसके भी अपने तर्क और पक्ष थे जो महाभारत के युद्ध की मुख्य बुनियाद बना ... पर मुझे तो मुख्य पात्र ऋषि  व्यास  भी दीखते है  जो एक नेत्रहीन  और  एक दुर्बल पुत्र के जन्मदाता थे , स्वयं वो रानी भी जिनके राज परिवार में उनको  पुत्र चाहिए ही चाहिए थे और  जो  इन जन्म से अधूरी संतानो की माता थी।  


कर्ण ही क्यों ,हिन्दू  धर्म में  पूज्यनीय  भगवन रूप में स्थापित कृष्ण समेत महाभारत का एक एक पात्र साहस के लिए प्रशंसा और कर्म के लिए आलोचना  दोनों का पात्र है , कृष्ण जिन्होंने अस्त्र न उठाने का संकल्प लिया  किन्तु अर्जुन की सहायता के लिए पांच अश्व घोड़े रथ के सारथि बने , धुरंदर वीर  न पराजित होने वाले कर्ण द्रोण  और भीष्म पितामह के लिए  छल सूझाने वाले  कृष्ण ही थे जिस कारण युधांत में  गंधारी से यदुकुलनाश का श्राप भी मिला , पाण्डु और धृतराष्ट्र जिन दो पुत्रो के जन्म का कारण ऋषि व्यास  जी थे , वे तो सब जानते थे भूत भविष्य , महाभारत की पृष्ठभूमि  से भी वो भलीभांति परिचित थे ,पुत्रो के गर्भ प्रवेश का समय और मां की स्थति देख के वे जान गए थे धृतराष्ट्र नेत्रहीन होंगे और पाण्डु निर्बल । राजकुमारी गांधारी का अपना सच था ,उनके भाई शकुनि का अपना ,ध्रतराष्ट्र का अपना , दुर्योधन का अपना , कुंती का अपना, पाण्डुपुत्रो का अपना , इसी श्रृंखला में द्रौपदी का अपना सच था और कृष्ण का अपना सभी के सच ने मिल के महाभारत को अंजाम दिया।  
कर्ण के इस व्यवहार के लिए जो उसने कौरव के प्रति अपनी मित्रता दिखाई ( जो कर्ण की दृष्टि में सर्वथा न्याय सँगत था ) और उनके इस वर्तमान के लिए  उनकी माता कुंती भी सहभागी है . सूर्यदेव उनके पिता भी उतने ही भागीदार  है . भले ही तत्कर्म का कारण श्राप या वरदान रहा हो .

कहने का अर्थ मात्र इतना है  जब भी हम  यानि मनुष्य आलोचना करते है  किसी भी जीवित या मृत  चरित्र  की तो उसी पल को पकड़ के  सही गलत के विचार  को वातावरण में  बहा देते है ,  किन्तु  यदि  पूर्ण  देखे कथा  को   विदुर दृष्टि से  देखे  तो शायद आलोचना की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।  क्यूंकि  सभी   कथा  और कथा पात्र  आपस में गुथमगुथा है , और पात्र तो मात्र चरित्र  है वो भी मनुष्य  जिनकी स्वयं की सोच द्वैत के कारण  दो भागों  में  बंटी  है।  जिनकी आलोचन हम कर रहे है , हम द्वित्व में बँटे  है।  ईश्वर के तेज को समेटे हुए है  कृष्ण , किन्तु  अधिक अंश के साथ ऊर्जा ने तत्व में जन्म  लिया है प्रकर्ति माया गुण दोष का  अंश प्रभाव तो है।   महाभारत के सब पात्र  शक्तिशाली विद्वान और अहंकारी है , कृष्ण सबको राह दिखाते है , पर स्वयं भी कर्म की चक्की में  पिस रहे है।  कर्म फल के भोक्ता  स्वयं कृष्ण  भी है।  कर्म फल के भोक्ता  सतयुग के चरित्र  राम में स्थापित भगवतांश  भी रहे है। क्यूंकि  मनुष्यों द्वारा  ईश्वर  रूप में स्थापित  की गयी  तत्व में जन्मी  उन्नत ऊर्जा  के अपने  फल भोग है  और उनका ( स्थापित पूज्यनीय भगवानो का ) अपना इतिहास है यद्यपि  गुणवत्ता  ने उनके जन्म का अंतराल बढ़ा दिया।  

यहाँ एक बात और भी है , द्वैत जब भी देखेगा कथा को या कर्म को दो हिस्सों ( सही गलत ) में बाँट के देखेगा , जबकि  शिव की दृष्टि और फल भोग  त्रिकाल दर्शी है , मित्र शिवा  की सत्ता अद्वैत की है , जो दृष्टि शिव के पास है उसके समक्ष कोई तर्क नहीं . जन्मो का न्याय तो उसी से संभव है और एक बात मनुष्य बुद्धि तो स्पष्ट द्वैत में जीवित  है , इसीलिए सभी के अपने अपने सच है आप जितना भी मत रखेंगे हमेशा पक्ष और विपक्ष दोनों ही पाएंगे .... पर उस शिवा का सच एक ही है उसका न्याय और कारण  भी बेशर्त निर्विचार स्वीकार है .

" तो जब परमात्मा स्वयं उपस्थित है तो प्रश्न अब यहाँ एक जन्म के या एक घटना के दंड का रहा ही नहीं . तो अब जन्मो का लेख जोखा है ."
 

( किन्तु  आश्चर्य  कर्म-चक्की  रूकती नहीं , धरती घूमती ही रहती है सूर्य तारामंडल और समस्त ब्रह्माण्ड  नृत्य करता ही जाता है , जीव जन्म लेते ही जाते है  , एक  कर्म खाता बंद होता तो दूजा खुलता ही जाता है  अनवरत , तो कौन सा मोक्ष  और कैसा  मोक्ष , मोक्ष का आधार क्या मात्र जन्म का अंतराल बढ़ाना है " उच्च उन्नत ईश्वरांश आत्माओ के सामान ? नहीं नहीं  , मात्र  अपना पथ  देखना  और चलना  बालक जैसे एक एक  सधे संभालते हुए स्थिर कदमो के साथ , वो ही एक  ऐसा कर्म पथ है  जिसपे चलना है , बाकी आगे ..........  ) 

और  मुझे  तो मानव  रचित  सुलभ  इतिहास  के हर काल में  मात्र पांच घोड़े  ही  हर रूप में जीवित  नजर आते है , बाकी पात्र कर्मानुसार आते जाते रहते  है। सब कुछ  अंतहीन है , अनंत  है।  जो माया को समझ गया  वो समस्त  उपद्रव से पार होगया। 

"ओम "


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