ओम् का आविर्भाव:-
हर शब्द का एक पैटर्न है...जब हम एक शब्द का प्रयोग करते हैं तो हमारे भीतर एक पैटर्न बनना शुरू होता है। तो जब यह ओम् की ध्वनि रह जाती है भीतर सिर्फ, तब अगर इस ध्वनि पर एकाग्र किया जाए चित्त, तो ध्वनि--अगर पूरी तरह से चित्त एकाग्र हो, जो कि चौथे पर हो जाना कठिन नहीं है, और जब यह ओम् सुनाई पड़ेगा तो हो ही जाएगा। उस चौथे शरीर में ओम् की ध्वनि गूंजती रहे, गूंजती रहे, गूंजती रहे, और अगर कोई एकाग्र इसको सुनता रहे, तो इसका चित्र भी उभरना शुरू हो जाता है।
इस तरह बीज मंत्र खोजे गए--सारे बीज मंत्र इसलिए खोजे गए। एक-एक चक्र पर जो ध्वनि होती है, उस ध्वनि पर जब एकाग्र चित्त से साधक बैठता है, तो उस चक्र का बीज शब्द उसकी पकड़ में आ जाता है। और वे बीज शब्द इस तरह निर्मित किए गए। ओम् जो है, वह परम बीज है; वह किसी एक चक्र का बीज नहीं है, वह परम बीज है; वह सातवें का प्रतीक है--या अनादि का प्रतीक है, या अनंत का प्रतीक है।
- ओशो
नासाग्र दृष्टि
जो व्यक्ति आंख बंद करके ध्यानावस्थित होने की चेष्टा करेगा, वह माया के किसी न किसी सिद्धांत के करीब पहुंच जाएगा। क्योंकि जब आंख बंद में उसे आत्म-अनुभव होगा तो जगत एकदम असत्य मालूम पड़ेगा, है ही नहीं।अगर कोई बाहर के जगत में पूरी आंख खुली करके जी रहा है तो वह कहता है, भीतर-वीतर कुछ भी नहीं है, आत्मा-वात्मा सब झूठी बातें हैं।
वह नासाग्र दृष्टि, वह आधी खुली आंख प्रतीकात्मक रूप से भी अर्थ रखती है और ध्यान के लिए सर्वोत्तम है। लेकिन थोड़ी कठिन है। क्योंकि दो अनुभव हमें बहुत सरल हैं: खुली आंख, बंद आंख। थोड़ी कठिन है, लेकिन सर्वोत्तम है। ऐसी स्थिति में जो ध्यान को उपलब्ध होगा, उस ध्यान में उसे ऐसा नहीं लगेगा, मैं ही सत्य हूं; ऐसा भी नहीं लगेगा कि बाहर असत्य है, या बाहर ही सत्य है--ऐसा लगेगा कि सत्य दोनों में है और दोनों को जोड़ रहा है।
महावीर कहते हैं: जगत भी सत्य है, आत्मा भी सत्य है; पदार्थ भी सत्य है, परमात्मा भी सत्य है। दोनों एक बड़े सत्य के हिस्से हैं। दोनों सत्य हैं।और वह प्रतीक है, वह नासाग्र दृष्टि। यानी महावीर कभी पूरी आंख बंद करके ध्यान नहीं करेंगे, पूरी खुली आंख रख कर भी ध्यान नहीं करेंगे; आधी आंख खुली, आधी बंद। और बाहर और भीतर एक संबंध बना रहे--जागे भी, न जागे भी। बाहर और भीतर एक प्रवाह होता रहे चेतना का.....- ओशो
यह संसार हमारा है
Osho Dhyan Ke Kamal – 09
एक और सवाल मित्र ने पूछा है कि कल रात मैंने कहा कि संकल्प की साधना, दक्षिणायन, नीचे के मार्ग पर ले जाती है और समर्पण की साधना, उत्तरायण, ऊपर के मार्ग पर ले जाती है। मित्र ने पूछा है कि हम जो प्रयोग कर रहे हैं सुबह, वह भी तो संकल्प का प्रयोग है। क्या उससे हम, दक्षिणायन, नीचे की तरफ जाएंगे? या संकल्पों में भी कुछ भेद है?
इसे थोड़ा सा समझ लेना जरूरी है। जब व्यक्ति को पहली बार समर्पण करना होता है, तब भी संकल्प का उपयोग करना पड़ता है। समर्पण के लिए भी संकल्प का उपयोग करना पड़ता है। यदि आप संकल्प के लिए ही संकल्प का उपयोग कर रहे हैं, तो यात्रा दक्षिणायन हो जाती है। और यदि आप संकल्प का उपयोग समर्पण के लिए कर रहे हैं, तो यात्रा उत्तरायण हो जाती है।
यह प्रयोग संकल्प से ही शुरू होता है। सभी ध्यान संकल्प से शुरू होते हैं, लेकिन सभी ध्यान समर्पण पर समाप्त नहीं होते। जो ध्यान संकल्प से शुरू होते हैं और संकल्प पर ही पूर्ण होते हैं, वे दक्षिणायन में ले जाते हैं। जो ध्यान की विधियां संकल्प से शुरू होती हैं और समर्पण पर पूर्ण होती हैं, वे उत्तरायण में ले जाती हैं।
संकल्प हमारी स्थिति है। अभी हम जहां खड़े हैं, वह संकल्प हमारी स्थिति है। हमें जहां भी जाना हो, ऊपर या नीचे, संकल्प से ही जाना पड़ेगा।अंतिम लक्ष्य समर्पण हो तो संकल्प की सीढ़ी का उपयोग भी किया जा सकता है। और अगर अंतिम लक्ष्य संकल्प हो तो आप समर्पण का भी उपयोग कर सकते हैं और नीचे उतर जाएंगे।संकल्प भी समर्पण के लिए मार्ग बन सकता है। समर्पण भी संकल्प के लिए मार्ग बन सकता है।
आप संकल्प से भी शुरू कर सकते हैं और समर्पण से भी। अगर आप संकल्प से शुरू करते हैं और अंतिम लक्ष्य आपका समर्पण है, तो आप उत्तरायण पर निकल जाएंगे। और अगर आप संकल्प से शुरू करते हैं और अंतिम लक्ष्य संकल्प ही है, तो आप दक्षिणायन पर निकल जाएंगे। अगर आप समर्पण से शुरू करते हैं और अंतिम लक्ष्य समर्पण ही है, तो भी आप उत्तरायण पर निकल जाएंगे। और अगर आप समर्पण से शुरू करते हैं और अंतिम लक्ष्य संकल्प ही है, तो भी आप...
जीवन का एक द्वंद्वात्मक नियम है: विपरीत आकर्षित करते हैं। स्त्रैण चित्त, समर्पण से वह शुरू करता है और संकल्प पर पूरा होता है। और जिस दिन आपने स्त्री का समर्पण स्वीकार कर लिया, उसी दिन आप उसके गुलाम हो गए। पुरुष का चित्त उलटा है। वह संकल्प से शुरू करता है और समर्पण पर पूरा होता है। इसीलिए स्त्री और पुरुषों में मेल बन जाता है। नहीं तो मेल बनना मुश्किल हो जाए। अपोजिट, विरोध में उनमें मेल बन जाता है।
अक्सर ऐसा हुआ कि उस जलते हुए बिंदु से जिस आदमी ने निरीक्षण किया, दुबारा उस वृत्ति में गिरना असंभव हो गया। Osho
साक्षी
साक्षी तो किसी भी क्रिया का हुआ जा सकता है, चाहे वह अंतर्गामी हो चाहे बहिर्गामी। अगर चेतना साक्षी हो सके तो बात समाप्त हो गई। तब नदी से गुजर सकते हो और ऐसे कि पांव न भीगें। पांव तो भीग ही जाएंगे। नदी से गुजरोगे तो पांव तो भीगेंगे। लेकिन बिलकुल ऐसे जैसे पांव न भीगें। अगर पीछे कोई साक्षी रह गया है तो बात खतम हो गई। Osho
ओम् शब्द अनुभव
ओम् शब्द तो प्रतीक है सातवीं अवस्था का, सातवें शरीर का, लेकिन ओम् शब्द को पकड़ा गया है चौथे शरीर में। चौथे शरीर की, मनस शरीर की शून्यता में--शून्यता में जो ध्वनि होती है, शून्य की जो ध्वनि है, वहां ओम् पकड़ा गया है, चौथे शरीर की दो संभावनाएं हैं, सभी सातों शरीरों की दो संभावनाएं हैं। तो चौथे मनस शरीर की जो पहली प्राकृतिक स्थिति है--कल्पना, स्वप्न। अगर ओम् का इस भांति प्रयोग किया जाए कि उससे तंद्रा आ जाए तो आप एक स्वप्न में खो जाएंगे। वह स्वप्न सम्मोहन तंद्रा जैसा होगा, हिप्नोटिक स्लीप जैसा होगा। उस स्वप्न में जो भी आप देखना चाहें, देख सकेंगे। भगवान के दर्शन कर सकते हैं, स्वर्ग-नरकों की यात्रा कर सकते हैं। लेकिन होगा वह सब स्वप्न; सत्य उसमें कुछ भी नहीं होगा। आनंद का अनुभव कर सकते हैं, शांति का अनुभव कर सकते हैं। लेकिन होगी सब कल्पना; यथार्थ कुछ भी नहीं होगा। तो एक तो ओम् का इस तरह का प्रयोग है जो अधिकतर चलता है। यह सरल बात है; इसमें बहुत कठिनाई नहीं है। ओम् की ध्वनि को जोर से पैदा करके उसमें लीन हो जाना बहुत ही सरल है; उसकी लीनता बड़ी रसपूर्ण है। जैसे सुखद स्वप्न होता है, ऐसी रसपूर्ण है; मनचाहा स्वप्न, ऐसी रसपूर्ण है। और मनस शरीर के दो ही रूप हैं--कल्पना का, स्वप्न का; और दूसरा रूप है संकल्प का और दिव्य-दृष्टि का, विज़न का।
अगर ओम् का सिर्फ पुनरुक्ति से व्यवहार किया जाए मन के ऊपर, तो उसके संघात से तंद्रा पैदा होती है। जिसे योगत्तंद्रा कहते हैं, वह ओम् के संघात से पैदा हो जाती है। लेकिन यदि ओम् का उच्चारण किया जाए, और पीछे साक्षी को भी कायम रखा जाए--दोहरे काम किए जाएं: ओम् की ध्वनि पैदा की जाए और पीछे जागकर इस ध्वनि को सुना भी जाए--इसमें लीन न हुआ जाए, इसमें डूबा न जाए--यह ध्वनि एक तल पर चलती रहे और हम दूसरे तल पर खड़े होकर इसको सुननेवाले, साक्षी, द्रष्टा, श्रोता हो जाएं; लीन न हों, बल्कि जाग जाएं इस ध्वनि में; तो चौथे शरीर की दूसरी संभावना पर काम शुरू हो जाता है। तब स्वप्न में नहीं जाएंगे आप, योगत्तंद्रा में नहीं जाएंगे, योग-जागृति में चले जाएंगे। - ओशो
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