प्रश्न: आपके कल के प्रवचन में एक बात विशेष नई थी, वह यह कि तीर्थंकर पहले जन्म में ही कृतकृत्य हो चुके होते हैं और करुणावश संसार में दुबारा आते हैं। अगर ऐसा है तो महावीर को इस जन्म में जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं, इसके बाद अगले जन्म में भी करुणावश आने से क्या चीज रोक पाई? यूं तो फिर आते ही रहना चाहिए था। और जो वापस करुणावश आते हैं तो क्या वे अपनी मर्जी से आते हैं कि यह भी आटोमैटिक होता है?
यह बात बहत महत्वपूर्ण है। मेरी दृष्टि में, जिसके जीवन का कार्य पूरा हो चुका है, वह ज्यादा से ज्यादा एक ही बार वापस लौट सकता है। और वापस लौटने का कारण है। जैसे कोई आदमी साइकिल चलाता हो, पैडल चलाना बंद कर दे, तो पिछले मोमेंटम से साइकिल थोड़ी देर बिना पैडल चलाए आगे जा सकती है, लेकिन बहुत देर तक नहीं। तो जैसे एक व्यक्ति के जीवन-कार्य पूरे हो चुके तो उसके अनंत जीवन की वासनाओं ने जो मोमेंटम दिया है, जो गति दी है, वह ज्यादा से ज्यादा सौ वर्षों तक, ज्यादा से ज्यादा, उसे एक बार और लौटने का अवसर दे सकती है, उससे ज्यादा नहीं। जैसे पैडल बंद कर दिए हैं तो भी साइकिल थोड़ी दूर तक चलती जा सकती है, लेकिन बहुत दूर तक नहीं।
और यह भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के साथ भिन्न-भिन्न समय की अवधि होगी। क्योंकि पिछले जीवन की कितनी गति और कितनी शक्ति चलने की शेष रह गई है, वह प्रत्येक की अलग-अलग होगी। इसलिए बहुत बार ऐसा भी हो सकता है कि कोई करुणा से लौटना चाहे और न लौट सके।
तो इसलिए महीपाल जी जो दूसरा प्रश्न पूछते हैं वह भी विचारणीय है, "क्या वे अपनी मर्जी से लौटते हैं?'
लौटते तो वे अपनी मर्जी से हैं। लेकिन ऐसा जरूरी नहीं है कि सिर्फ मर्जी से ही लौट आएं। अगर थोड़ी शक्ति शेष रह गई है तो मर्जी सार्थक हो जाएगी। और अगर शक्ति शेष नहीं रह गई है तो मर्जी निरर्थक हो जाएगी। उस स्थिति में करुणा दूसरे रूप ले सकती है, लेकिन लौट नहीं सकते हैं वे।
और यह भी समझ लेना उचित है, जैसे मैंने कहा कि साइकिल चलाते वक्त पैडल बंद हो जाएं, जिस दिन वासना क्षीण हो गई, उस दिन पैडल चलने बंद हो गए। लेकिन चाक थोड़ी दूर और चल जाएंगे--अपनी ही मर्जी से। अगर वह व्यक्ति साइकिल से नीचे उतर जाना चाहे तो उसे कोई रोकने वाला नहीं है, वह अपनी ही मर्जी से अब भी बैठा हुआ है, पैडल चलाने बंद कर दिए हैं, वासना क्षीण हो गई है। लेकिन अब भी देह के वाहन का वह उपयोग करता है। तो थोड़ी दूर तक। लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि अब देह के वाहन को चलाने की कोई शक्ति शेष ही न बची हो।
तो अक्सर इसीलिए ऐसा हो जाता है कि इस तरह की आत्माओं के दूसरे जन्मों का जीवन अति क्षीण होता है। शंकराचार्य जैसे व्यक्ति, जो कि तीस-पैंतीस साल ही जी पाते हैं, उसका और कोई कारण नहीं है, मोमेंटम बहुत कम है। अक्सर ऐसा होता है कि इस तरह की आत्माओं का जीवन अत्यल्प होता है, जैसे जीसस क्राइस्ट, अत्यल्प जीवन मालूम होता है। यह जो अत्यल्प जीवन है, वह इसी कारण है, और कोई कारण नहीं है। मोमेंटम ही इतना है।
अपनी ही मर्जी से लौट सकते हैं, न लौटना चाहें तो कोई लौटाने वाला नहीं है। लेकिन लौटना चाहें तो अगर शक्ति शेष है तो ही लौट सकते हैं।
फिर मैंने कहा कि लेकिन करुणा से कोई नहीं रोक सकता है। शरीर नहीं उपलब्ध होगा, तब दोहरी बातें हो सकती हैं। या तो वैसा व्यक्ति किसी दूसरे के शरीर का उपयोग करे, जैसा कि मक्खली गोशाल ने किया।
यह भी संदर्भ में महावीर के है, इसलिए समझ लेना उचित है। कहानियां कहती हैं कि मक्खली गोशाल बहुत वर्षों तक महावीर के साथ रहा, फिर उसने साथ छोड़ दिया। फिर वह महावीर के विरोध में स्वतंत्र विचारक की हैसियत से खड़ा हुआ। लेकिन जब महावीर ने शिष्यों को कहा कि मक्खली गोशाल तो मेरा शिष्य रह चुका है, मेरे साथ रहा है, तो उसने स्पष्ट इनकार किया। उसने कहा: वह मक्खली गोशाल जो आपके साथ था, मर चुका है। यह तो मैं बिलकुल ही एक दूसरी आत्मा उसके शरीर का उपयोग कर रही हूं। मैं वह व्यक्ति नहीं हूं।
यह बात साधारणतया महावीर के अनुयायी समझते रहे हैं कि झूठ है, लेकिन यह झूठ नहीं है। यह बात बिलकुल ही सच है। मक्खली गोशाल नाम का जो आदमी महावीर के साथ रहा था, वह अति साधारण व्यक्ति था। किन्हीं कारणों से असमय में उसकी मृत्यु हुई और उसकी देह का उपयोग एक दूसरी स्वतंत्र चेतना ने किया, जो तीर्थंकर की ही हैसियत की थी। लेकिन अपना शरीर उपलब्ध करने में असमर्थ थी, तो उसने मक्खली गोशाल के शरीर का उपयोग किया। और इसीलिए इस व्यक्ति का, जो अब यह नया व्यक्ति बना पुराने शरीर में, मक्खली गोशाल, इसका महावीर से कोई मेल नहीं हो सका। यह एक बिलकुल स्वतंत्र चेतना थी, जिसका अलग अपना काम था और वह अपना काम किया उसने। और इसलिए मक्खली गोशाल भी तीर्थंकर होने का एक दावेदार था।
उस युग में अकेले महावीर या बुद्ध ही नहीं थे, मक्खली गोशाल था, अजित केशकंबल था, संजय वेलट्ठीपुत्त था, प्रबुद्ध कात्यायन था, पूर्ण काश्यप था--ये सबके सब तीर्थंकर की हैसियत के लोग थे। लेकिन सब अलग-अलग परंपराओं के तीर्थंकर थे। उसमें से सिर्फ दो की परंपराएं पीछे शेष रह गईं--एक महावीर की और एक बुद्ध की। बाकी सब परंपराएं खो गईं।
तो एक रास्ता तो यह है कि वैसा व्यक्ति प्रतीक्षा करे असमय में किसी के शरीर के छूट जाने की और उसमें प्रवेश कर जाए। अब उसकी शरीर ग्रहण करने की कोई उसमें शक्ति नहीं है। तो एक तो उपाय यह है। यह भी कई बार प्रयोग किया गया है। दूसरा उपाय यह है कि वह व्यक्ति अशरीरी रह कर थोड़े से संबंध स्थापित करे और अपनी करुणा का उपयोग करे। उसका भी उपयोग किया गया है, कि कुछ चेतनाओं ने अशरीरी हालत से संदेश भेजे हैं, संबंध स्थापित किए हैं।
और जो कल-परसों बात छूट गई थी थोड़ी, जो मैंने कहा कि मूर्तियों का सबसे पहले प्रयोग पूजा के लिए नहीं किया गया है। उसकी तो पूरी साइंस है। मूर्ति का सबसे पहले प्रयोग अशरीरी आत्माओं से संपर्क स्थापित करने के लिए किया गया है।
जैसे महावीर की मूर्ति है। इस मूर्ति पर अगर कोई बहुत देर तक चित्त एकाग्र करे और फिर आंख बंद कर ले तो मूर्ति का निगेटिव आंख में रह जाएगा। जैसे कि हम दरवाजे पर बहुत देर तक देखते रहें, फिर आंख बंद कर लें, तो दरवाजे का एक निगेटिव, जैसा कि कैमरे की फिल्म पर रह जाता है, वैसा दरवाजे का निगेटिव आंख पर रह जाएगा। और उस निगेटिव पर भी ध्यान अगर केंद्रित किया जाए तो उसके बड़े गहरे परिणाम हैं।
तो महावीर की मूर्ति या बुद्ध की मूर्ति का जो पहला प्रयोग है, वह उन लोगों ने किया है, जो अशरीरी आत्माओं से संबंध स्थापित करना चाहते हैं। तो महावीर की मूर्ति पर अगर ध्यान एकाग्र किया और फिर आंख बंद कर ली और निरंतर के अभ्यास से निगेटिव स्पष्ट बनने लगा तो वह जो निगेटिव है, महावीर की अशरीरी आत्मा से संबंधित होने का मार्ग बन जाता है। और उस द्वार से अशरीरी आत्माएं भी संपर्क स्थापित कर सकती हैं। यह अनंत काल तक हो सकता है। इसमें कोई बाधा नहीं है।
तो मूर्ति पूजा के लिए नहीं है, एक डिवाइस है। और बड़ी गहरी डिवाइस है, जिसके माध्यम से जिनके शरीर खो गए हैं और जो शरीर ग्रहण नहीं कर सकते हैं, उनमें एक खिड़की खोली जा सकती है, उनसे संबंध स्थापित किया जा सकता है। तो फिर रास्ता यह है कि अशरीरी आत्माओं से कोई संबंध खोजा जा सके। अशरीरी आत्माएं भी संबंध खोजने की कोशिश करती हैं।
तो करुणा फिर यह मार्ग ले सकती है। और आज भी जगत में ऐसी चेतनाएं हैं, जो इन मार्गों का उपयोग कर रही हैं। थियोसाफी का सारा का सारा जो विकास हुआ, वह अशरीरी आत्माओं के द्वारा भेजे गए संदेशों पर निर्भर है। थियोसाफी का पूरा केंद्र इस जगत में पहली दफा बहुत व्यवस्थित रूप से--ब्लावट्स्की, अल्काट, एनीबीसेंट, लीडबीटर--इन चार लोगों ने पहली दफे अशरीरी आत्माओं से संदेश उपलब्ध करने की अदभुत चेष्टा की है। और जो संदेश उपलब्ध हुए हैं, वे बहुत हैरानी के हैं।
संदेश तो कभी भी उपलब्ध हो सकते हैं, क्योंकि अशरीरी चेतना कभी भी नहीं खोती। लेकिन तब तक आसानी है उस अशरीरी चेतना से संबंध स्थापित करने की, जब तक करुणावश वह भी संबंध स्थापित करने को उत्सुक है। धीरे-धीरे करुणा भी क्षीण हो जाती है। करुणा अंतिम वासना है। है वासना ही। सब वासनाएं जब क्षीण हो जाती हैं तो करुणा ही शेष रह जाती है। लेकिन अंततः करुणा भी क्षीण हो जाती है।
इसलिए पुराने शिक्षक, पुराने मास्टर्स, धीरे-धीरे खो जाते हैं। करुणा भी जब क्षीण हो जाती है, तब उनसे संबंध स्थापित करना अति कठिन हो जाता है। उनकी करुणा शेष रहे तब तक संबंध स्थापित करना सरल है, क्योंकि वे भी आतुर हैं। लेकिन जब उनकी करुणा क्षीण हो गई, अंतिम वासना गिर गई, तब फिर संबंध स्थापित करना निरंतर मुश्किल होता चला जाता है। जैसे कुछ शिक्षकों से अब संबंध स्थापित करना करीब-करीब मुश्किल हो गया है।
महावीर से संबंध स्थापित करना अब भी संभव है। लेकिन उसके पहले के तेईस तीर्थंकरों से किसी से भी संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता। और इसीलिए महावीर कीमती हो गए और तेईस एकदम से गैर-कीमती हो गए। उसका बहुत बुनियादी जो कारण है, वह यह है कि अब उन तेईस से कोई संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता है--किसी तरह का भी।
कृपया ध्यान दें :- All questions are mind questions -- no question comes out of no-mind -- and all answers are no-mind answers.
प्रिय मित्र ,
यहाँ मेरा यह कहना उचित है की कई बार गुरु अपने वाक्चातुर्य से असमंजस में डूबे मस्तिष्क का शंका निवारण ज्यादा उचित समझते है , और मस्तिष्क के अनगिनत सवालो को नष्टकरने के प्रयास में वो आपको सारा चक्र समझाते है। बिना शंका पूरी हुए श्रद्धा बढ़ेगी नही , श्रद्धा नहीं बढ़ी तो यात्रा अधूरी रह जाएगी , ये सारे घटना क्रम में और शंका निवारण में सच झूठ से भी ज्यादा यात्रा पे बढ़ना महत्वपूर्ण है कृपया इनको अंतिम सत्य न माने और अपनी यात्रा जारी रखें, क्यूंकि जन्म मृत्यु और पुनः जन्म की श्रंखला को जानने का गुप्त गूढ़ स्थान आपका अपना सहत्रधार है , अन्य भाषा समर्थ नहीं।
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यहाँ मेरा सुझाव है , अपनी अंतिम आस्था उस केंद्र को सौंपे , इस मार्ग के हर व्यक्ति को मात्र सीढ़ी जाने जो प्रकृति आपके लिए सहयोग कर रही है , क्यूंकि प्रकृति में कुछ भी अकारण और व्यर्थ नहीं , इस महान सत्य को स्वीकार करके अपनी आध्यात्मिक यात्रा जारी रखें।
मूर्ति पूजा का जो उत्तर है , मैं सहमत हूँ , क्यूंकि जब किसी विशेष ऊर्जा का आह्वाहन किसी विशेष पदार्थ के द्वारा करते है , तो स्वयं की शक्ति तपस्या भाव कई गुना बढ़ता है, और ये भाव ही पूजा की पूंजी है , यही भाव जब मूर्ति से निकल व्योम में केंद्र पे स्थित होता है तो आप स्वयं उसके तेज को महसूस कर सकते है , क्यूंकि नेति नेति की शृंखला में सभी पड़ाव पे पहुंचना भी है और उन्हें छोड़ आगे बढ़ना है।
शुभकामनाये तथा आभार प्रणाम
यह बात बहत महत्वपूर्ण है। मेरी दृष्टि में, जिसके जीवन का कार्य पूरा हो चुका है, वह ज्यादा से ज्यादा एक ही बार वापस लौट सकता है। और वापस लौटने का कारण है। जैसे कोई आदमी साइकिल चलाता हो, पैडल चलाना बंद कर दे, तो पिछले मोमेंटम से साइकिल थोड़ी देर बिना पैडल चलाए आगे जा सकती है, लेकिन बहुत देर तक नहीं। तो जैसे एक व्यक्ति के जीवन-कार्य पूरे हो चुके तो उसके अनंत जीवन की वासनाओं ने जो मोमेंटम दिया है, जो गति दी है, वह ज्यादा से ज्यादा सौ वर्षों तक, ज्यादा से ज्यादा, उसे एक बार और लौटने का अवसर दे सकती है, उससे ज्यादा नहीं। जैसे पैडल बंद कर दिए हैं तो भी साइकिल थोड़ी दूर तक चलती जा सकती है, लेकिन बहुत दूर तक नहीं।
और यह भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के साथ भिन्न-भिन्न समय की अवधि होगी। क्योंकि पिछले जीवन की कितनी गति और कितनी शक्ति चलने की शेष रह गई है, वह प्रत्येक की अलग-अलग होगी। इसलिए बहुत बार ऐसा भी हो सकता है कि कोई करुणा से लौटना चाहे और न लौट सके।
तो इसलिए महीपाल जी जो दूसरा प्रश्न पूछते हैं वह भी विचारणीय है, "क्या वे अपनी मर्जी से लौटते हैं?'
लौटते तो वे अपनी मर्जी से हैं। लेकिन ऐसा जरूरी नहीं है कि सिर्फ मर्जी से ही लौट आएं। अगर थोड़ी शक्ति शेष रह गई है तो मर्जी सार्थक हो जाएगी। और अगर शक्ति शेष नहीं रह गई है तो मर्जी निरर्थक हो जाएगी। उस स्थिति में करुणा दूसरे रूप ले सकती है, लेकिन लौट नहीं सकते हैं वे।
और यह भी समझ लेना उचित है, जैसे मैंने कहा कि साइकिल चलाते वक्त पैडल बंद हो जाएं, जिस दिन वासना क्षीण हो गई, उस दिन पैडल चलने बंद हो गए। लेकिन चाक थोड़ी दूर और चल जाएंगे--अपनी ही मर्जी से। अगर वह व्यक्ति साइकिल से नीचे उतर जाना चाहे तो उसे कोई रोकने वाला नहीं है, वह अपनी ही मर्जी से अब भी बैठा हुआ है, पैडल चलाने बंद कर दिए हैं, वासना क्षीण हो गई है। लेकिन अब भी देह के वाहन का वह उपयोग करता है। तो थोड़ी दूर तक। लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि अब देह के वाहन को चलाने की कोई शक्ति शेष ही न बची हो।
तो अक्सर इसीलिए ऐसा हो जाता है कि इस तरह की आत्माओं के दूसरे जन्मों का जीवन अति क्षीण होता है। शंकराचार्य जैसे व्यक्ति, जो कि तीस-पैंतीस साल ही जी पाते हैं, उसका और कोई कारण नहीं है, मोमेंटम बहुत कम है। अक्सर ऐसा होता है कि इस तरह की आत्माओं का जीवन अत्यल्प होता है, जैसे जीसस क्राइस्ट, अत्यल्प जीवन मालूम होता है। यह जो अत्यल्प जीवन है, वह इसी कारण है, और कोई कारण नहीं है। मोमेंटम ही इतना है।
अपनी ही मर्जी से लौट सकते हैं, न लौटना चाहें तो कोई लौटाने वाला नहीं है। लेकिन लौटना चाहें तो अगर शक्ति शेष है तो ही लौट सकते हैं।
फिर मैंने कहा कि लेकिन करुणा से कोई नहीं रोक सकता है। शरीर नहीं उपलब्ध होगा, तब दोहरी बातें हो सकती हैं। या तो वैसा व्यक्ति किसी दूसरे के शरीर का उपयोग करे, जैसा कि मक्खली गोशाल ने किया।
यह भी संदर्भ में महावीर के है, इसलिए समझ लेना उचित है। कहानियां कहती हैं कि मक्खली गोशाल बहुत वर्षों तक महावीर के साथ रहा, फिर उसने साथ छोड़ दिया। फिर वह महावीर के विरोध में स्वतंत्र विचारक की हैसियत से खड़ा हुआ। लेकिन जब महावीर ने शिष्यों को कहा कि मक्खली गोशाल तो मेरा शिष्य रह चुका है, मेरे साथ रहा है, तो उसने स्पष्ट इनकार किया। उसने कहा: वह मक्खली गोशाल जो आपके साथ था, मर चुका है। यह तो मैं बिलकुल ही एक दूसरी आत्मा उसके शरीर का उपयोग कर रही हूं। मैं वह व्यक्ति नहीं हूं।
यह बात साधारणतया महावीर के अनुयायी समझते रहे हैं कि झूठ है, लेकिन यह झूठ नहीं है। यह बात बिलकुल ही सच है। मक्खली गोशाल नाम का जो आदमी महावीर के साथ रहा था, वह अति साधारण व्यक्ति था। किन्हीं कारणों से असमय में उसकी मृत्यु हुई और उसकी देह का उपयोग एक दूसरी स्वतंत्र चेतना ने किया, जो तीर्थंकर की ही हैसियत की थी। लेकिन अपना शरीर उपलब्ध करने में असमर्थ थी, तो उसने मक्खली गोशाल के शरीर का उपयोग किया। और इसीलिए इस व्यक्ति का, जो अब यह नया व्यक्ति बना पुराने शरीर में, मक्खली गोशाल, इसका महावीर से कोई मेल नहीं हो सका। यह एक बिलकुल स्वतंत्र चेतना थी, जिसका अलग अपना काम था और वह अपना काम किया उसने। और इसलिए मक्खली गोशाल भी तीर्थंकर होने का एक दावेदार था।
उस युग में अकेले महावीर या बुद्ध ही नहीं थे, मक्खली गोशाल था, अजित केशकंबल था, संजय वेलट्ठीपुत्त था, प्रबुद्ध कात्यायन था, पूर्ण काश्यप था--ये सबके सब तीर्थंकर की हैसियत के लोग थे। लेकिन सब अलग-अलग परंपराओं के तीर्थंकर थे। उसमें से सिर्फ दो की परंपराएं पीछे शेष रह गईं--एक महावीर की और एक बुद्ध की। बाकी सब परंपराएं खो गईं।
तो एक रास्ता तो यह है कि वैसा व्यक्ति प्रतीक्षा करे असमय में किसी के शरीर के छूट जाने की और उसमें प्रवेश कर जाए। अब उसकी शरीर ग्रहण करने की कोई उसमें शक्ति नहीं है। तो एक तो उपाय यह है। यह भी कई बार प्रयोग किया गया है। दूसरा उपाय यह है कि वह व्यक्ति अशरीरी रह कर थोड़े से संबंध स्थापित करे और अपनी करुणा का उपयोग करे। उसका भी उपयोग किया गया है, कि कुछ चेतनाओं ने अशरीरी हालत से संदेश भेजे हैं, संबंध स्थापित किए हैं।
और जो कल-परसों बात छूट गई थी थोड़ी, जो मैंने कहा कि मूर्तियों का सबसे पहले प्रयोग पूजा के लिए नहीं किया गया है। उसकी तो पूरी साइंस है। मूर्ति का सबसे पहले प्रयोग अशरीरी आत्माओं से संपर्क स्थापित करने के लिए किया गया है।
जैसे महावीर की मूर्ति है। इस मूर्ति पर अगर कोई बहुत देर तक चित्त एकाग्र करे और फिर आंख बंद कर ले तो मूर्ति का निगेटिव आंख में रह जाएगा। जैसे कि हम दरवाजे पर बहुत देर तक देखते रहें, फिर आंख बंद कर लें, तो दरवाजे का एक निगेटिव, जैसा कि कैमरे की फिल्म पर रह जाता है, वैसा दरवाजे का निगेटिव आंख पर रह जाएगा। और उस निगेटिव पर भी ध्यान अगर केंद्रित किया जाए तो उसके बड़े गहरे परिणाम हैं।
तो महावीर की मूर्ति या बुद्ध की मूर्ति का जो पहला प्रयोग है, वह उन लोगों ने किया है, जो अशरीरी आत्माओं से संबंध स्थापित करना चाहते हैं। तो महावीर की मूर्ति पर अगर ध्यान एकाग्र किया और फिर आंख बंद कर ली और निरंतर के अभ्यास से निगेटिव स्पष्ट बनने लगा तो वह जो निगेटिव है, महावीर की अशरीरी आत्मा से संबंधित होने का मार्ग बन जाता है। और उस द्वार से अशरीरी आत्माएं भी संपर्क स्थापित कर सकती हैं। यह अनंत काल तक हो सकता है। इसमें कोई बाधा नहीं है।
तो मूर्ति पूजा के लिए नहीं है, एक डिवाइस है। और बड़ी गहरी डिवाइस है, जिसके माध्यम से जिनके शरीर खो गए हैं और जो शरीर ग्रहण नहीं कर सकते हैं, उनमें एक खिड़की खोली जा सकती है, उनसे संबंध स्थापित किया जा सकता है। तो फिर रास्ता यह है कि अशरीरी आत्माओं से कोई संबंध खोजा जा सके। अशरीरी आत्माएं भी संबंध खोजने की कोशिश करती हैं।
तो करुणा फिर यह मार्ग ले सकती है। और आज भी जगत में ऐसी चेतनाएं हैं, जो इन मार्गों का उपयोग कर रही हैं। थियोसाफी का सारा का सारा जो विकास हुआ, वह अशरीरी आत्माओं के द्वारा भेजे गए संदेशों पर निर्भर है। थियोसाफी का पूरा केंद्र इस जगत में पहली दफा बहुत व्यवस्थित रूप से--ब्लावट्स्की, अल्काट, एनीबीसेंट, लीडबीटर--इन चार लोगों ने पहली दफे अशरीरी आत्माओं से संदेश उपलब्ध करने की अदभुत चेष्टा की है। और जो संदेश उपलब्ध हुए हैं, वे बहुत हैरानी के हैं।
संदेश तो कभी भी उपलब्ध हो सकते हैं, क्योंकि अशरीरी चेतना कभी भी नहीं खोती। लेकिन तब तक आसानी है उस अशरीरी चेतना से संबंध स्थापित करने की, जब तक करुणावश वह भी संबंध स्थापित करने को उत्सुक है। धीरे-धीरे करुणा भी क्षीण हो जाती है। करुणा अंतिम वासना है। है वासना ही। सब वासनाएं जब क्षीण हो जाती हैं तो करुणा ही शेष रह जाती है। लेकिन अंततः करुणा भी क्षीण हो जाती है।
इसलिए पुराने शिक्षक, पुराने मास्टर्स, धीरे-धीरे खो जाते हैं। करुणा भी जब क्षीण हो जाती है, तब उनसे संबंध स्थापित करना अति कठिन हो जाता है। उनकी करुणा शेष रहे तब तक संबंध स्थापित करना सरल है, क्योंकि वे भी आतुर हैं। लेकिन जब उनकी करुणा क्षीण हो गई, अंतिम वासना गिर गई, तब फिर संबंध स्थापित करना निरंतर मुश्किल होता चला जाता है। जैसे कुछ शिक्षकों से अब संबंध स्थापित करना करीब-करीब मुश्किल हो गया है।
महावीर से संबंध स्थापित करना अब भी संभव है। लेकिन उसके पहले के तेईस तीर्थंकरों से किसी से भी संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता। और इसीलिए महावीर कीमती हो गए और तेईस एकदम से गैर-कीमती हो गए। उसका बहुत बुनियादी जो कारण है, वह यह है कि अब उन तेईस से कोई संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता है--किसी तरह का भी।
कृपया ध्यान दें :- All questions are mind questions -- no question comes out of no-mind -- and all answers are no-mind answers.
So questions and answers never meet. You ask a question and I give you an answer. They never meet, they cannot meet, because your question runs on the track of the mind and my answer runs on the track of no-mind. They may run parallel but they never meet.
Either I should drop my no-mind -- then there can be a meeting -- or you should drop the mind. Then there can be a meeting. And remember, I am not going to drop my no-mind. It cannot be dropped, because how can you drop a no-thing? You can drop a thing, but you cannot drop a no-thing. So you have to drop the mind. Then the answer will be heard, understood. Then it will penetrate you. Osho
A Bird on the Wing
Chapter #9
Chapter title: Save the Cat
18 June 1974 am in Buddha Hall
Chapter #9
Chapter title: Save the Cat
18 June 1974 am in Buddha Hall
आपके नाम मेरा पत्र
प्रिय मित्र ,
यहाँ मेरा यह कहना उचित है की कई बार गुरु अपने वाक्चातुर्य से असमंजस में डूबे मस्तिष्क का शंका निवारण ज्यादा उचित समझते है , और मस्तिष्क के अनगिनत सवालो को नष्टकरने के प्रयास में वो आपको सारा चक्र समझाते है। बिना शंका पूरी हुए श्रद्धा बढ़ेगी नही , श्रद्धा नहीं बढ़ी तो यात्रा अधूरी रह जाएगी , ये सारे घटना क्रम में और शंका निवारण में सच झूठ से भी ज्यादा यात्रा पे बढ़ना महत्वपूर्ण है कृपया इनको अंतिम सत्य न माने और अपनी यात्रा जारी रखें, क्यूंकि जन्म मृत्यु और पुनः जन्म की श्रंखला को जानने का गुप्त गूढ़ स्थान आपका अपना सहत्रधार है , अन्य भाषा समर्थ नहीं।
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यहाँ मेरा सुझाव है , अपनी अंतिम आस्था उस केंद्र को सौंपे , इस मार्ग के हर व्यक्ति को मात्र सीढ़ी जाने जो प्रकृति आपके लिए सहयोग कर रही है , क्यूंकि प्रकृति में कुछ भी अकारण और व्यर्थ नहीं , इस महान सत्य को स्वीकार करके अपनी आध्यात्मिक यात्रा जारी रखें।
मूर्ति पूजा का जो उत्तर है , मैं सहमत हूँ , क्यूंकि जब किसी विशेष ऊर्जा का आह्वाहन किसी विशेष पदार्थ के द्वारा करते है , तो स्वयं की शक्ति तपस्या भाव कई गुना बढ़ता है, और ये भाव ही पूजा की पूंजी है , यही भाव जब मूर्ति से निकल व्योम में केंद्र पे स्थित होता है तो आप स्वयं उसके तेज को महसूस कर सकते है , क्यूंकि नेति नेति की शृंखला में सभी पड़ाव पे पहुंचना भी है और उन्हें छोड़ आगे बढ़ना है।
शुभकामनाये तथा आभार प्रणाम
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