Wednesday, 5 November 2014

अनंत इतिहास बेतुके मानवीय उद्वेगों का

धर्म के गठन का मूल , प्रभाव  और सम्मोहित  जीवत्म और सम्मोहन मुक्ति के आत्मप्रयास कितने सफल, कितने विफल  और क्यों ! 


नदी  का जल  नहीं  बदलता जलतत्व वो ही  स्रोत  से समुद्र  तक , घाट  बदलते  है , 
घाट  कितने भी होसकते है , बड़े भी छोटे भी , महत्त्व वाले प्रसिध्द  भी  और अन्जान  भी , 
बुद्धिमान जीव प्यासा  घाट  से नहीं बंधता।अपनी क्षुधा  के प्रति सतर्क और जागरूक रहता है  
अफ़सोस ऐसा समझने वाले  गुरु के शिष्य भी संस्था रूप खूंटे से बंधे ही पाये गए , विक्षिप्त की सीमा तक।  
और अपने शिष्यों की  इसी विक्षिप्तता  से घाट  रुपी गुरु भी  प्यासा ही रह जाता है।  

धर्मसूत्र :-

तत्कालीन  अर्थात  जिस वख्त की जो भी जीवित प्रभावशाली उन्नत आत्माए  जीवरूप में जन्मी  थी  उनके विचारों  प्रभावित  समुदाय बन गए उदाहरण के लिए  किसी भी धार्मिक सामाजिक  इतिहास को टटोला जा  सकता है।   मुस्लिम  का  तो  मोहम्मद   से सम्बन्ध   , क्रिश्चियन्स का  जीसस से  और हिन्दुओं का  राम और कृष्ण  से। सिद्धार्थ  के नाम पे बौद्ध धर्म  का सामूहिक प्रभाव, महावीर आदि पहले ये प्रभाव निश्चित रूप से सिमित  क्षेत्र में  रहा होगा ,  समयाकालोपरांत  देश ( विस्तृत सिमित क्षेत्र ) में व्याप्त  हुआ  और धर्म आस्था का रूप बन  गहरे  मानव समाज में बैठ गया।   उदाहरण के लिए  ज्वलंत  उदाहरण निकट  भूत काल में ओशो रजनीश का लिया जा सकता  , चूकि अभी ये सिमित प्रदेश  तक है देश तक अभी नहीं फैला  इस कारन  इस के सामूहिक जादुई  सम्मोहन के  प्रभाव को समझना  कठिन नहीं होगा ,  विक्षिप्तता की सीमा तक लोग  ओशो से  जुड़े है , सम्भावना है यही विक्षिप्तता पुनः ओशो-धर्म का रूप लेले , यदि आपको  ओशो का ही कथन याद हो वो संसार  भर के  धार्मिक  और राजनैतिक  व्यक्तियों को  वो  विक्षिप्त की श्रेणी में रखते थे।  इसी  प्रकार सभी मानव मिल के व्यक्ति विशेष के व्यक्तित्व से प्रभावित हो के  शुरूआती  रूप में  छोटा समूह ही बनाते है।  जो कालांतर में  विस्तृत  धर्म सम्प्रदाय  का रूप बन जाता है। और  यदि  आज के जीवन में देखे  तो  सभी जीवित सद्गुरुओं  के अपने अपने समूह है , शिष्य है  श्रद्धा है , और काफी हद  तक  अपने  समूह के प्रति  आस्था पागलपन की हद  तक है।   अपने अपने गुरुओं को  ईश्वरतुल्य  मनके पूजा करते है।   इन्ही में से एक गुरु और  स्मरण आते  है,श्री साईं  बाबा (दक्षिण भारत के ) , और श्री  साईं  बाबा  (शिर्डी  के )  महर्षि  रमन्ना  आदि आदि ,  इनमे से ओशो के समान सम्पदा में जीवन  जीने वाले साईं  बाबा दक्षिण भारत के  थे  और आज के   श्री श्री रविशंकर जी  भी  इसी उदाहरण के अंतर्गत आते है।  उदाहरण की कमी नहीं है असंख्य है ,ज्ञानी भी  और उनके पदचिन्हो पे चलने वाले  विक्षिप्त  धर्मांध भी , एक धर्म को तोड़ने का यदि किसी ने साहस किया  तो उसी को धर्म की गद्दी पे बिठा दिया  और पूजने लगे !!  परन्तु  कुछ सन्यासी  साधु  वास्तव में साधु थे , जिन्होंने  सदेह  जीवनकाल  में भरकस प्रयास किया आपको जगाने का , अनेक प्रकार से  शब्दों के जोड़ तोड़ से   अपनी भरपुर शक्ति और क्षमता  से आपको दिव्य ज्ञान दिखने की देने की चेष्टा की ,किन्तु आप तक स्याही ही   पहुँची, स्याही के पीछे के  भाव से भरे कोरे पन्ने नहीं दिखे जिनको उनके ही  अनुगामियों और अनुसरणकर्ताओं ने उनके देहावसान के उपरान्त धनसम्पन्न  महिमामय  सोने चांदी के बीच  बिठा दिया।

अध्यात्म सूत्र :- 

अब आप स्वयं  आत्ममंथन  से सोचिये  विचारिये ! जो मात्र  भावयोग  से पिघलते हो  उनको धन किस काम  का  और मर्त्यपरान्त तो  उपभोग भी नहीं है , धन का उपभोग भी  सशरीर जीवित के लिए है  ( पुजारी  पादरी मौलवी ) , ध्यान से  ह्रदय मंथन कीजियेगा  ऐसा धन से सजा  धर्म स्थान  क्या  देवआत्मा  के दिल में जगह बना पायेगा  ?  और ऐसा समूह  जिसमे  अनुसरण कर्ता  विक्षिप्त हो  धर्मांध  हो  ! जिनमे सोचने समझने की शक्ति की समाप्त हो चली हो।   परन्तु मानव दुर्भाग्य  या माया का खेल  कुछ भी कह लीजिये , मानवीय स्वभाव ऐसा ही है। धर्म आस्था रूप में फैलता जाता है  और एक दिन भय  का रूप धर लेता , एक ऐसा भय  जो मानव-मुक्ति से जुड़ा है , जो मानव की लौकिक इक्षाओं की पूर्ति पे ठहर जाता है। "इस जीवन में भी सुख भोगे और परलोक में भी  "   " जो मेरा स्मरण करेगा  स्मरण मात्र से  उसके क्लेश दूर होंगे " अथवा  लिखे गए उन्नत आत्माओं के नाम पे लिखे गए  ११  वाक्यो  के प्रति  चमत्कार जैसी  भावनाओ से जुड़ा  है।  उनके जीवन चरित  से तो हम क्या ही  कुछ सीखते है  उनका उपयोग भी वासनाओ की तृप्ति के लिए  पाठ रूप में करते है।

वास्तव में जब हम वस्तु स्थति  की जड़ तक जाते है  तो पाते  है की उनका कहना  सही है , किंतु  हमारा समझना ही गलत  है ,

कैसे !  जब तक हम अपनी बाह्य उन्मुख   यात्रा को  अंतर उन्मुख  नहीं करते , हमारे अपने विचार  और भाव ही हमको  सही देखने नहीं देते। और इस अज्ञान  की छाया के नीचे  जो भी  वाक्य  का अर्थ समझ आता है अथवा  धर्म गुरु द्वारा  समझाया जाता है  , भय से घिरा मनुष्य  वो ही करता चला जाता है , और आहिस्ता  आहिस्ता भय बढ़ता ही जाता है , भय से मुक्ति  यानि धर्म से मुक्ति ,  परम्पराओं से मुक्ति  और विचार  की स्वतंत्रता  सहज प्रवेश करती है , इस ज्ञान की  अवस्था  में  सुना गया  या जाना गया  वो ही शब्द  और वाक्य  अपने अर्थ बदल देता है।

जब ध्यानावस्था  में धर्म निर्माण का वास्तविक खनन  आप स्वयं करेंगे , तो कई भ्रान्तिया  मात्र  पागलपन नजर आएँगी।  और कई  ऐसी  की चूँकि सब कररहे है  इसलिए सामाजिक  विरोध से अच्छा  की हम भी  भीड़ का हिस्सा  बन जाते है।

नेति नेति , यानि  मान्यताओ  के मूल तक पहुँचते  और एक एक को समझते हुए  ज्ञान  द्वारा  काटते  हुए , जब  आप  ध्यानावस्था में ही  मूल तक जायेंगे , तो आप पाएंगे , मूल  व्यक्ति  जो  किसी  धर्म का मुखिया बन चूका है  और  उस मूल व्यक्ति की उपस्थ्ति तो  जीव रूप में सिमित है  परन्तु उसकी विचारधारा को बढाने वाले  कुछ कुछ अपनी व्याख्या  भी शामिल कर चुके है।   शास्त्र  बन चुके है धार्मिक साहित्य  गीत  भजन बन चुके है।  और इतने गहरे है  की यदि  उनको आप  जगाना  भी  चाहो  तो आप ही समाप्त।   किन्तु  वो  अपनी अंधमान्यता नहीं  छोड़ सकते।  ऐसे ही  संसार  को  और संसार  वासियों का दूसरा नाम जोम्बी-वर्ल्ड  है , जिनमे बहुत अधिक उत्साह है की आपको भी अपनी मृत संस्था में परम्पराओं का हिस्सा बना मिला ले , अर्थात  आपको भी ज़ॉम्बी  बना दे।  कुछ तो स्वयं जन्म से बन जाते है  और रहा सहा  बुद्धि से।


ये सांसारिक धर्म अर्थ भी  ध्यान  की प्रथम  पायदान में  खड़े हो  एक एक कदम आगे बढ़ने  से सुलभ है।  आपकी चेतना जैसे जैसे  मुखर होती है,स्वयं उस स्तर घेरे  की चेतनाएं आपसे सहयोग करती है , आपके संशय दूर करती है।  प्रकृति स्वयं सहयोग करती है , इस पराज्ञान के लिए आपको किसी मानवीय संस्था में जाने की आवश्यकता नहीं , स्वयं को खंगालना है ,  समस्त ज्ञान दीप  आपके ह्रदय में प्रज्वलित है समस्त उत्तर आपके पास ही है।

और ऐसा  सिर्फ मैं नहीं , उपर्लिखित  जितने भी प्रतिष्ठित  गुरु चेतनाएं है  वो भी यही कहती है  और सत्य अगर  बार बार  सामने आ रहा हो तो एक बार विचार तो  बनता  है।  कृष्ण भी यही सन्देश देते है , पार्थ ! ह्रदय को ज्ञान केंद्र बना ,  पांचतत्व इन्द्रिओं  के  भागते घोड़ो को  कुशल सारथि जैसा  काबू में रख , मैं सारथि  इस युद्ध  में तेरे साथ हूँ "  ,  जीव की चेतना ही उसकी  वास्तविक मित्र है ,  संसार के सारे सम्बद्ध परिवर्तन शील है , तत्व से भी और भाव से भी , अचेतन का ज्ञान वास्तविक है।   बुद्ध का अंतिम  सन्देश " आपो गुरु आपो भव " इसके बाद समस्त  उन्नत साधु  आत्माओ का यही कहना था," वैतरणी / भवसागर   गाय  की पूँछ पकड़  पार होता है " (गरुड़ पुराण ) ये जो गाय की पूँछ है प्रतीक है आपके स्वयं के  जाग्रत  ज्ञान  का।   और भवसागर  प्रतीक है  माया निर्मित  जगत  के पार  जाने का।   पर ये मात्र  मृतकों के लिए और पुरखों के तरन के लिए  ही नहीं  जीवित जागृत जीव के लिए  भी सत्यज्ञान  है।  चूँकि  अधिकांश  अज्ञानता  में माया में घिरे हुए  अंतिम श्वांस लेते है , तो मृत्यु पश्चात उनका  स्थूल  यही रह जाता  है किन्तु सूक्ष्म  शरीर  जो  तरंग निर्मित  है  वो समस्त महत्वाकांक्षाओं  और गुन द्वेष से  भरा  होता है ,  उनके लिए ऐसे  अज्ञानी जीव की आत्मा की शांति  के लिए  ये पंक्ति  कही गयी।   ताकि  शायद सामूहिक  सहयोग से उस जीव के  संकट  अथवा भोग के प्रभाव  न्यून हो सके।   किन्तु स्थूल शरीर में  बाह्य की ओर उठता  जाता ज्ञान समझ भी  बाहर की तत्व जगत की ही देता है।  इस कारन  ऋषि मुनि जिस भाव से भी  लिख गए हो , समझ हमें अपनी ही बुद्धि से आता है।   ओशो  के भाव थे  :- यदि तुम किताब में उभरी  स्याही  पढ़ते हो  तो तुम ज्ञान से वंचित रह जाओगे , पढ़ना ही है  तो  सफ़ेद  पेज पढ़ो , स्याही  के भीतर  जो भाव  है वो शायद तुम तक पहुँच सकें।

एक स्थान पे  स्वयं ओशो ने कहा :-  मैं तुम्हे चाँद की ओर  देखने का इशारा करता हूँ  हाथ उठता हूँ ऊँगली दिखता हूँ तो तुम मेरा ऊँगली  पकड़ लेते हो।  मेरे हाथ मेरी ऊँगली मात्र संकेत  है  मेरी ऊँगली कहती है चाँद को देखो  समझो  तुम ऊँगली को पकड़ के अटक जाते हो , वस्तुतः चाँद  मेरा भाव  है, उठी हुई ऊँगली  इशारा , संकेत ।  

जिस दिन भाव घटना घट गयी , उस दिन  , आपको  इसका  मुहावरे अर्थ भी बिलकुल नए रूप में समझ आएगा " सार सार को गहि रहे  थोथा देहि उड़ाय "  और " मानसरोवर में  हंस  सिर्फ मोती / माणिक ही  चुगता है " फिर  वो माणिक  संज्ञा  नहीं सर्वनाम  है , माणिक  गुण है  जो व्यक्ति या संस्था से नहीं जुड़ा ,  फिर वो राम से बहता हो , कृष्ण से निकलता  , बुद्धा ने कहा हो , साईं  के मुह से निकला हो , ओशो ने परिचय दिया हो , अथवा  रविशंकर  ने समझाया हो ,  संस्था  के नियमों से नहीं  परम केंद्र के  भाव से बंधते   है , बाकी सभी  आपके लिए माध्यम है , सहयोग है।  माणिक  मोती  हंसा के समान  चुगना  है  , सार सार को लेना है।  आपका उद्देश्य  सांसारिक बंधन नहीं , फिर वो गुरु ही क्यों न हो।  अगर आपने स्वयं को संस्था  या व्यक्ति से बाँध लिया तो आप वास्तविक केंद्र के ज्ञानअनुभव से वंचित  रह जायेंगे।  अंत में आपको गुरु की ऊँगली भी छोड़नी है ! 

ज्ञानी कहते है ऐसा अनुभव एक पल  में हो सकता  या फिर कुछ दिन कुछ बर्ष  या जन्म  जन्मान्तर  भी , आपको ग्राह्यता पे निर्भर करता है। ऐसा  इसीलिए कहा गया ,  मिटने और खोने की  शृङ्खला में जैसे आप संसार का एक एक भाव खोते है  वैसे वैसे आपका  परम केंद्र से संपर्क सघन होता है।  अंत में ऊर्जा  तत्व को  सहज छोड़ने को तैयार हो जाती है।  किन्तु  इसका अर्थ  सांसारिक मृत्यु नहीं , जिसमे दुःख शोक भरे है , यह जीवित   सहज ज्ञान की स्वीकृति है।  जिसमे  वास्तविकता  से आपका बार बार सामना होता है।  और धीरे धीरे  आप योग्य हो जाते है।  इस राह की सबसे बड़ी समस्या है , चुनौती  है  की  इस भाव को पाया कैसे जाए !  माया में  बुद्धि  मन  इन्द्रियां   सुख / दुःख  स्नान कर रही है। दुःख की चोट  सबसे बड़ी चोट है , वो ही  प्रेरणा का काम करती है  सुख तो और जीव को सुला देता है।  और जिस दिन  वो समय वो घडी  की दुःख रुपी हथोड़े की  चोट  ह्रदय पे पड़ी  और आपका जागरण काल शुरू हुआ उस दिन परमात्मा को धन्यवाद देना ,  कई लोग चूक जाते है और उनकी वेदना के  उछाल  का शिकार  कोई बाह्य तत्व  जीव या पदार्थ  हो जाता है कारन बन जाता है और सारा विष उसपे  डाल ह्रदय हल्का हो जाता है , नहीं नहीं , यही पे चेतना  आपको अंदर को करनी है , जो   बाहर  की और उन्मुख है उसी को अंदर मोड़ना है।

ध्यान दीजियेगा !!  वास्तविक अध्यात्म   का उद्देश्य  आपकी रूढ़िगत  मान्यताओं को तोडना है आपको  सभी पारम्परिक आस्थाओं को उलट स्वक्छ  दर्पण दिखता  है , आपके उद्वेग जो आपको पीड़ित  कर रहे थे  ,  दूषित  विषाक्त गुण  को  धो निर्मल  बनता है , आपके अंदर प्रकृतिमात्र  के लिए  सहजता...सरलता .... करुणा ... और स्वीकृति  जैसे  गुणकमल  खिलते है। और आपका चित्त  आनद से भर जाता है।  यदि ये गुण  न  न उभर रहे हो  तो सावधानी की  आवश्यकता है। संभवतः रास्ता ही सही न हो !  रास्ता सही है  तो सुगंध उठेगी ही , प्रकाश भी मिलेगा।  

बेतुके मानवीय उद्वेगों से पार पाने का  सरल और कारगर तरीका  ध्यान ही है , "प्रथम भी यही और अंतिम भी यही"।  क्यूंकि आखिरी छलांग में ध्यान भी छोड़ देना है।   उस व्योम में  पूर्ण पवित्रता के साथ  पूर्ण  रिक्तता  के साथ  व्योम सदृश शून्यता के साथ  आपका स्वागत होगा।



Real spirituality not serve you bondage any type ; it hold your hands like parent and take you out from all bondage cause of pain . its path of Salvation if you continue walk on path . this walks towards Infinity ONLY can stop your own fear.
Om

इस भाव के साथ ही असीम शुभकामनाये
प्रणाम 

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