Thursday, 6 November 2014

गुण सूत्र



ध्यान का योगदान :-

ध्यान  के  उद्देश्य से वार्ता शुरू करते है :- " खुद  को ध्यान के सहयोग  से  इतना ऊपर उठा लो  की माया नीचे नाचती दिखाई दे , यही आध्यात्मिकता  के मार्ग पे  वयस्कता है   " 

 इसी भाव के चलते  एक और कथन प्रचलित है " समस्या को बड़ा मत कहो , बच्चो की तरह मत चिल्लाओ की समस्या बड़ी है  अपना कद समस्या से बड़ा करो , समस्या  छोटी हो जाएगी " 

एक और उदाहरण देती हूँ : -  एक बालक  जब छोटा नन्हा  होता है , तो  उसे हर चीज़ बड़ी नजर आती है , किन्तु यही  बालक जब वयस्क हो जाता है , तो  वो ही वस्तु छोटी  दिखती है , ये सिद्धांत विज्ञानं का भी  है  और अनुपात  को सुनिश्चित करता है  ।  

संसार  में  मनुष्य या  अन्य चराचर प्राणी जगत का स्वभाव प्राकृतिक  है मौलिक है,गुण भी प्राकृतिक है , और हम सब इस बात को जानते है  चाहे  विज्ञानं से अथवा  स्वज्ञान से की  पृथ्वी  स्वयं में  ऊर्जा का पुंज से भरी पांच तत्वों को  के सहयोग से जीवन देती है , और जिसको  मृत्यु कहते है  वो इन तत्वों का  अपने अपने स्थान पे वापिस लौट जाना है ,इसका अर्थ ये हुआ  की जो भी प्राकृतिक है  वो स्थान  तो बदल सकता है  किंतु नष्ट नहीं हो सकता , इसकी दृष्टि  ही  ध्यान है इनकी स्वीकृति ही वयस्कता  है,और चूँकि आपका कुछ नहीं न ऊर्जा न तरंग  न ही तत्व  इसलिए जो अलौकिक उपहार मिला  है वो आभार  ही है।   

ठीक ऐसी ही , बालक से वयस्क  अथवा परिपक्व होते  एक अवयस्क से  वयस्क  होते  ध्यानी की दृष्टि  होती है, जो वस्तुतः अनुभव घेरा  पूर्ण होते ही  पुनः  बालक जैसा  हो जायेगा ।  यदि आप ध्यान दे  तो ध्यान की प्रथम सीढ़ी  में आपको जो  तरीका दिया जाता है अथवा आप स्वयं अपनाते है  वो  है कल्पना में उतरने का।  कल्पना कीजिये की ऐसा  अथवा वैसा  अथवा  अपने  रुचिकर  स्थान  पे जाइए  अथवा देश  स्थान और पृथ्वी से ऊपर को उठिए और केंद्र को छूने का प्रयास कीजिये।   वस्तुतः  प्रारम्भ में  सब काल्पनिक लगते है , और ध्यान में बैठना  दुष्कर कृत्य हो जाता है यहाँ तर्कि अपनी बुद्धि पे  भरोसा करके  वो प्रयास  व्यर्थ मान छोड़ देते  है।  परन्तु  ध्यान  दीजिये  यहाँ मात्र संकेत ही है भाषा के अपने संकेत  है और मौन के अपने , पूर्ण सक्षम  मात्र  आप स्वयं   है।   जब आप स्वयं को (चेतना ) आस्था पूर्वक ऊपर को उठाने  लग जाते है  तो  आहिस्ता आहिस्ता  धरती पे फैली  माया  वातावरण  को आच्छादित करती  स्पष्ट दिखती है।  उसी आच्छादन  को देखने में अनेक भ्रम दूर होते है। ये अलग बात है की अनेक पनपते भी है। पर  यही नेति नेति का सिद्धांत भी है, जो समस्त भ्रम को चीरता  ध्यानी का हाथ पकड़ अंततोगत्वा केंद्र -प्रकाश की ओर  ले जाता है।  

यदि  आप बुद्ध  का घेरा देखे  बड़ा प्रतीक रूप है  जो  शुन्य से  शुरू को के परपक्वता की ओर  बढ़ता है  सघन होता जाता है  और अंत तक पहुँचते पहुँचते  टूट जाता है  दोबारा उसी शुन्य को  नहीं छूता।

 इस प्रतीक का मात्र  इतना  ही अर्थ है अब दोबारा  उसी घेरे में जीव नहीं घूम रहा,उस घेरे को पार कर चूका है। एक ध्यानी की यात्रा भी ऐसी ही है अनुभव के साथ  परिपक्वता  आत्मसात होती जाती है , दृष्टि  के साथ दृश्य भी विस्तृत  होते जाते है  और अंत में  अज्ञानता का घेरा टूट जाता है।और ध्यानी शब्दातीत , मायातीत ,  कालातीत ,  जन्म मृत्यु के घेरे  के काल से परे  हो के  परम के प्रदेश  के लिए उपयुक्त हो जाता है।  यहाँ भाव  शिव प्रदेश  के उपयुक्त  होने का है  शिव  अथवा  शिव सदृश होने का नहीं।  यह भाव  इसलिए आवश्यक है की अहंकार  शिव अथवा शिव के सामान  होने पे कब कैसे प्रवेश कर जाये पता नहीं।  किन्तु  एक सत्य ये भी  है की  यथापि गुण  रूप में ऊर्जा ऊर्जा का ही अंश है  फिर भी जिस प्रकार  एक बूँद  समुन्द्र  में मिल समुद्ररूप तो हो  सकती है  किन्तु ऊर्जा खंडित  हो सिमित हो अशक्त हो  स्वयं में समुद्र बना नहीं सकती। इसलिए ध्यानी को शिव प्रदेश के योग्य  बनना ही है , इसको स्वस्मरण भी कह सकते है।  आप शिव की सत्ता  में   समां सकते है।  यही खंडित ऊर्जा का सत्य है , जिसका प्रयास ध्यानी करता है।  

गुण - सूत्र :-

गुण का स्वभाव है आकर्षित करना और होना  ये भी प्राकृतिक है।  समस्त ब्रह्माण्ड इसका  विस्तार एक गुण-केंद्र से  सामान रूप से फ़ैल रहा है , समस्त  व्योम  इसी गुण से आच्छादित  है।  धरती तो मात्र  एक टुकड़ा है , जो इसी गुण से  सराबोर है।  धरती पे भी  चराचर  जीव  इसी का पालन करते दीखते है।  गुणस्वभाव  और चुम्बक  के स्वभाव में कोई अंतर नहीं , दोनों में ही  मौलिकगुण  है खिंचाव  का , एक प्रयोग कर के देंखें शक्तिशाली  चुम्बक  मेज के नीचे  और ऊपर  महीन लौह कण  और फिर  धीरे  धीरे  इस चुम्बक को वैसे ही घुमाए  जैसे धरती घूम रही है और समस्त   ब्रह्माण्ड घूम रहा है ,  फिर देखिये  ये मस्तिष्क  विहीन लगते  लौह कण  कैसे  झुण्ड बनाने में  क्रियारत  होते है. जब की ये तो सोच भी नहीं सकते  आपके  समान   या अन्य जीव  जो  चल या अचल है।   फिर भी झुण्ड बना रहे है , उनके भी परिवार है  उनके भी प्राकृतिक कर्त्तव्य है , ध्यान दीजियेगा , साधारण रूप से आप वो ही कर रहे है  जो अति  प्राकृतिक  है , बुद्धि न होने की दशा में भी आप ऐसे ही होते ।  


समान  गुण-स्वभाव  का मात्र  इतना ही अर्थ है  जीव स्वभाव का एक प्राकृतिक आकर्षण है   फिर वो किसी का भी हो  , वो  बिना सोचे भी उसी परिणाम तक पहुंचेगा जहाँ  बुद्धियुक्त सोच के  पहुँचता है ,  बुद्धियुक्त मानव नाम का जीव  साथ ही साथ  रास्तो की व्याख्या और विवेचना भी करता जाता है , साथ ही साथ  मार्ग  अथवा पदचिन्ह भी अपने पीछे बनाता चलता है , ये अद्भुत मानवीय गुण  है और यही गुण  इंसान  को अन्य जीवो से अलग करता है , यही गुण  विरासत धरोहर  और संगठन बनता है , धर्म  अथवा संघ  संस्था  की स्थापना के पीछे भी यही गुण  है वैज्ञानिक  कलाकार , धर्म  सभी अपने अपने पदचिन्ह  छोड़ते जाते है  जो कई अन्य मनुष्य  को  उन्ही पे  पैर रख चलने का  कारन  बनते  है और परंपरा  बन जाती है , परन्तु इसका ध्यान रखे ये भी गुण  प्राकृतिक है संगठन का गुण  मनुष्य को जन्म से  मिला प्राकृतिक उपहार है  । वस्तुतः एक गुण समुदाय या  समूह का इकठा होना  अथवा  खोज में रहना ये  चक्र  स्वभाविक है प्रकति से प्रेरित है।  यदि आपके बुद्धि नामकी चीज़ नहीं भी होती  तो भी आप यही कर रहे होते।  क्यूंकि  अन्य जीवों के भी अपने  संगठन होते है। उनमे भी सामान गुण -आकर्षण के कारन  होते है।  प्रेम  क्रोध  ख़ुशी जैसे गुण  चराचर जगत मे भी होते है।  गुण  अपने मौलिक स्वरुप में  यानि की अविभाज्य /  अद्वैत  रूप में एक है जो द्वैत  के संपर्क में आते ही  खंड खंड  होने लगते है  और दौड़ पड़ते है  अपने अपने स्वभाव  की ओर  मौलिकता के साथ और इस तरह से  एक  युग्म ( जोड़ा )  या समूह  अथवा  संगठन बनता  है  , जो नितांत  प्राकतिक है ।  यहाँ  फिर वो ही सिद्धांत नेति नेति  का उपयोग में लाईये।  और स्वयं जानिये , आपकी बुद्धि का वास्तविक उपयोग क्या है ? आपका उद्देष्य  क्या है , जो  आपके बुद्धियुक्त  होने का प्रमाण हो । चूँकि प्रकृति  और  परम  अर्थात शिवा और शक्ति  आपको व्यर्थ कोई उपहार नहीं देते यदि आपको प्रचुर बुद्धि की शक्ति मिली है तो वो भी व्यर्थ नहीं हो सकती। तो जो भी प्राकृतिक  है उसमे समस्त पृथ्वी सामान रूप से  कार्यरत है भागीदार है , मनुष्य होने की विशेषता  क्या है ? कई बार  संगठन  में बंध के चलने पे  मानव अपनी बुद्धि की स्वतंत्रता  खो देता है ,इस कारण  जो  सीमारहित  दिव्य उपलब्धिया है उससे वंचित रह जाता है  और पदचिन्ह को ही पकड़ के पूजा करने लगता नहीं।  वो स्वनिर्मित राह पे चलना भूल जाता है , और पहले से बानी राह पे बने  पदचिन्ह में ही अपना  अद्वितीय अस्तित्व विलीन कर लेता है।  शायद  यहीं भूल है। इशारा  करती ऊँगली को ही मंजिल मान बैठता है। 

गुण धर्म  को  वृहत  रूप से देखने पे  दिखाई देता है ,  की  धरती पे भी सात खंड चक्र  है हमारे  सात चक्र के समान।  और जीवन  इनमे खंड खंड फैला है।  गुण धर्म मिले जुले है पर विभाजित है द्वैत में  है , इसलिए  अच्छा बुरे , प्रेम घृणा , समानार्थी  और पर्यायवाची  जैसे भाव  स्पष्ट दीखते है , मनुष्यों में भी  और अन्य जीवों में भी।  यहाँ  सभी जीव  जो इन भावों को जी रहे है , मात्र प्रकृति के अनुसार  चल  रहे है माया से ढंके हुए।  कोई जीवन दे रहा है  कोई ले रहा है  सब प्राकतिक कृत्य है  उसी एक गुणधर्म के।  यदि प्रेम पकड़ा  तो घृणा   भी साथ  मिलेगी   धागा और उसके दो छोर  साथ ही है  अलग नहीं।  अगर सही का साथ  पकड़ा  तो गलत भी  साथ आ ही जायेगा।   क्यूंकि  एक ही भाव  किसी के लिए सही तो दूसरे मस्तिष्क के लिए  आलोचना का शिकार  और त्याज्य।  यही संसार है द्वैत्व में  विभाजित  और माया से  भरा हुआ।  आपके नजदीकी मित्र बंधू बांधव   इसका सटीक  उदाहरण है। समूह  समुदाय  इसी के अंदर है।  कुछ  समूह जन्म से बने है  वो आत्मिक  खिंचाव का परिणाम है। जन्म कारन और जन्म चक्र  एक अलग विषय है।  किन्तु सूक्ष्म शरीर  के  गुण स्वभाव  उसके जन्म देश  परिवार  और स्थान सुनिश्चित करते है।  आकर्षण और चुंबकत्व मौलिक  है प्रतीक है , और परम केंद्र में अद्वैत है।   अब इसी चुंबकत्व गुण   को  थोड़ा और  विस्तार से देखे तो अलग अलग धरती के कोने पे  जन्मे  जीव अपने अपने मौलिक  स्वभाव से  इकठे होके  एक जगह  एक से कृत्य  करते देखे जा सकते है , एक मति का एक स्थान  पे  इकठे होना भी एक बड़ी प्राकृतिक घटना है , वस्तुतः किसी  कारणवश  ये इकठे न भी हो सके  तो ये गुण जहाँ भी रहते है अपने स्वभाव  से  कार्य करते है  , कोई सृजन कर रहा है  तो कोई नाश , कोई  सौंदर्य  में मग्न है तो कोई उसी सौंदर्य को नष्ट कर रहा है। ऐसे ही गुणों  से भरे तत्व और  ऊर्जा से धरती पे जीवन  फूटते है।  

चुम्बक खिंचाव सिर्फ ऊर्जा का ही नहीं  तत्व का  का भी होता  है ,  मनुष्य  इस खिंचाव को  साक्षात  अनुभव भी करता है।  ऊर्जा निरंतर केंद्र  को उठती है ,  पांच तत्त्व  अलग अलग  अपने अपने तत्व  को खींचते है।  और  यदि चेतना का विकास नहीं हुआ तो इस रस्साकसी में ही जीवन समाप्त होता है।  ब इस गुण  चुम्बक के नर्तन को आप स्वयं मात्र थोड़े से ध्यान से जान सकते है , हम और आप तो  समस्त ब्रह्माण्ड में लौह कण से  भी ज्यादा सूक्ष्म है।   फिर भी  जो बुद्धि मिली है उसके  उद्देश्य  को जान  पुनः संतुलन में सहयोग ही  परम के कार्य में सहयोग है। जो मानव को मानव बनाता है। 



संक्षेप में ;  जब  संतुलन बिगड़ता है  तो मूल  केंद्र  आंदोलित  होने लगता है , हलके फुल्के में तो  कोई फर्क नहीं पड़ता , किन्तु यही  संतुलन जब अधिक  बिगड़ता है  तो  इस  केंद्र के आंदोलन से , केंद्र को स्वयं का पुनः संतुलन  करना ही पड़ता है इसी को  दूसरा  धार्मिक आस्था से  दिया गया नाम  है महायोगी  " असंतुलन  से  शिव का ध्यान योग  टूटता है  और शिव का तीसरा नेत्र  खुलता है , जो  प्रलय का प्रतीक है।  समस्त ऊर्जाओं को  समस्त अखंड गुण समेत सम्पूर्ण रूप से शिव दोबारा अपने में विलय कर लेते है और समय के साथ फिर से सम्पूर्ण संतुलन के साथ धरती पे  पुनः  जीवन के अंकुर फूटते है , इस धरती  के जीवन को और सौंदर्य को संतुलित  करने में  मानव का सहयोग  अद्वित्य  है।  

(  इस  संतुलन शब्द  से कोई भ्रम न पाले जो शिव का संतुलन  है वो  हत्यापराध  अथवा  रोजमर्रा के मानवीय संकट  और उद्वेगों , प्रार्थनाओं से नहीं , ना हीं ये समस्त धरती के  मानवीय भाव्नात्मक संतुलन से  सम्बंधित है, क्यूंकि सृजन विनाश  प्रकति का ही अंग है इस श्रृंखला में  जो भाव  मनुष्य के लिए   विशेष महत्त्व रखते है , परम की सत्ता में  उनकी उपस्थ्ति नगण्य है। पर ये भी सत्य है की ईश्वर या अल्लाह अथवा परमात्मा मूलतः अति सरल  है उसके स्वभाव से  युक्त होके  उसको छूना अथवा जानना आसान हो जाता है, और जीने को शक्ति और समस्त व्यवस्था  स्वयं ही जन्म से आती है ये भी प्राकृतिक है , शारीरिक  कष्ट  अंत की पीड़ा  स्वाभाविक है , कुछ प्रारभ्ध तो कुछ कर्म और उस कर्म से उत्पन्न भाग्यफल  ; यहाँ  एक बात ध्यान योग्य है " बेहतर है शांत जल शांत रहे  यदि किसी कारन जान या अनजान से  कंकड़ झील में पड़  गया तो तरंगे  तो उठती ही रहेगी वो भी प्राकृतिक ही है , जब तक दोबारा जल शांत न हो जाये ",  तो प्रार्थना में स्वयं के लिए  मांगने जैसा कुछ है भी नहीं  बस  बनना  है उसके प्रदेश के योग्य होना है , मात्र ध्यानी का एक यही उद्देश्य है  )


यही सृष्टि  चक्र भी  है।   

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