पहले प्रहर , भोर का समय , डूबते तारों के साथ एक विचार अति गहन , जो दिख रहा है , समय के साथ दृष्य बदल जाएगा , जन्म के बाद से जबसे होश संभाला था , ये दृश्य नया नहीं। रोज ही शाम को सूर्यास्त और सुबह सूर्य दर्शन से कार्य का आरम्भ दिनचर्या और फिर सूर्यास्त तथा निद्रा ।
लेकिन आज जब वास्तविक निद्रा हलकी हो रही है , तो इन सबके दूसरे ही मायने दिख रहे है , मौन ही मौन ये विस्तृत को कह रहे है , मेरा अस्तित्व की क्षणभंगुरता मुझे ही समझा रहे है , और साथ ही साथ दिव्य-मार्ग भी दिखा रहे है इसके साथ ही विस्तृत-समय पहिये के विस्तार की चक्रीय सीमाओं को बताता है , तथा समय से भी ऊपर शीर्ष अथवा सहस्त्रधार पे स्थापित वो परम शक्ति केंद्र में हीरे सी चमक रही है,वस्तुतः ये दृष्टिगत नहीं , किन्तु आभासित है। व्योम का अर्थ मात्र लौकिक आकाश नहीं व्योम के विस्तार में समस्त आकाशगंगाये सिमटी है , जिनको समय का पहिया अपने में समेटे है जो चक्रीय ऊर्जा से आच्छादित है , जिसको ब्रह्मा के समय रथ के पहिये से जाना जा सकता है। नाम तो द्वैत में कुछ भी दिया जा सकता है , जो शब्दों की दुनिया का प्रयास भी है , की जीव यात्रा और ऊर्ध्वगमन की प्रेरणा और सहयोगी भी है।
कुछ समय से बहस चल रही थी एक महापुरुष के साथ स्वयं को शिवपुत्र कहते है तथा शिव की इक्छा से हुए जन्म का कोई बड़ा औचित्य बताते है , उस औचित्य मे मेरी कोई जिज्ञासा नहीं , वस्तुतः समय समय पे महाभारत काल के कई चरित्र को ले के उनके आज के इस जन्म और मृत्यु की उद्घोषणा भी कर चुके है। इस बार उन्होंने महाभारत के कर्ण का दामन थामाँ है , और ऐसा वैसा नहीं , उसको इस जनम में दंड देने पे भी स्वयं से वचनबद्ध है , क्यों की उनका कहना है कर्ण न तब सुधरा था न ही इस जनम में , पढ़िए उनकी जबानी :-
'महारथी कर्ण को इस तरह मारना क्या बहुत जरूरी हो गया था ?'
....
'धर्म' हेतु कृपया अपनी राय दें।
समाज पर उपकार होगा ?
आप सभी स्वागत के साथ आमंत्रित हैं।
Note : स्मरण रहे : इस तस्वीर में दिख रहे तीनों महान पात्र कलियुग के वर्तमान काल खंड में भी मानव जन्म लेकर अपना जीवन जी रहे हैं।
तथा
दुर्योधन का परममित्र....."महारथी कर्ण (सूर्यपुत्र अथवा सूतपुत्र)".... के जीवन चरित्र को देखकर आप व्यक्तिगत रूप से कैसा महसूस करते हैं ?
.
आपके विचार (ख्याल) महत्वपूर्ण हैं।
अनेकों को मार्ग मिलेगा।
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अपने को रोकें नहीं, कह दें।
अच्छा लगेगा कर्ण को।
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आपके दृष्टिकोण से वह अपने बारे में आज जानेगा तो संभव है कुछ परिवर्तन कर ले अपने स्वभाव में।
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आज का समाज पहले से ज्यादा सभ्य व परिष्कृत है इसलिए ?
है ना ?
Shivputra Chaitanya
इसको उन्होंने फेस बुक पे डाल दिया , और लोग अपने अपने अनुसार चर्चा में लग गए , कई लोगो ने कहा कर्ण के साथ न्याय न तब हुआ न अब , तो कईओं ने इन पोस्ट डालने वाले महापुरुष की अनेक प्रकार से प्रशंसा की । सोचने वाली बात ये है की स्वयं खंड खंड द्वैत में जीवित असमंजस में घिरी मनुष्य बुद्धि कर्ण के लिए क्या निर्णय दे पायेगी ! मात्र जितना इतिहास या कथाओं में चरित्र मिला उतना ही ज्ञान है वो भी बंटा और बिखरा हुआ। महापुरुष मित्र का कहना और जैसा अध्यात्म जगत धर्म जगत अथवा विज्ञानं जगत और सद्गुरुओं के माध्यम से ज्यादातर लोग जानते ही है की चेतनाएं नष्ट नहीं होती , तत्व और ऊर्जा रूप बदल बदल जन्म लेते है।
( विषय को जानना यानि सूचित होना और अनुभव होना यानि विषय को आत्मसात करना , विषय को जानना ज्ञान की प्रथम सीढ़ी और अंतिम सीढ़ी की वो विषय न होके अनुभव हो जाता है )
वैसे मेरा उन महापुरुष से न विरोध है न सहमति ,क्यूंकि अंततोगत्वा सभी जीव अपनी अपनी यात्रा पे अपने अपने उद्देश्य के साथ है पर उनकी इस चर्चा ने मुझे कुछ स्वध्यान के लिए प्रेरित किया जिसका निचोड़ नीचे है।
वैसे तो पृथ्वी समेत समस्त नक्षत्र ही आधार-विहीन है व्योम में नियमबद्ध घूमते परिधि बनाते हुए , मात्र एक दूसरे के आकर्षण से बद्ध हो के अपनी स्वयं की परिधि बनाते हुए एक दूसरे को खींच रहे है और इस प्रकार इस आकर्षण के अंतर्गत एक बड़ी बृहत् परिधि बन रही है जो आकाशगंगा की जन्मदात्री है और विज्ञानं जहाँ तक कहता है प्रमाण सहित उसका कहना है ऐसी असंख्य आकाशगंगायें व्योम में अपने अस्तित्व में है,( जिनकी निश्चित संख्या गणना के प्रमाण अभी उपलभ्द नहीं, यहाँ विज्ञानं ईमानदार है , जहाँ तक प्रमाण है वो भी प्रमाण पूर्वक कहा गया और जहाँ नहीं वो कल्पना भी खोज के र्रोप में स्वीकार की है , तो जहाँ तक प्रमाण मिलते है वहां तक विज्ञानं के साथ ही चलते है ),विज्ञानं कहता है की यहाँ कुछ भी नष्ट नहीं होता और कुछ पृथ्वी का पृथ्वी से बाहर भी नहीं जाता अगर इसी को आधार मान ले की तत्व और ऊर्जा रूप बदल बदल जन्म ले रहे है , तो भी कुछ प्रश्न खड़े हो जाते है , ख़ास कर उस प्रसंग में जब एक व्यक्ति स्वयं को स्थूल रूप मे ईश्वर पुत्र बता रहे हों , और ये भी की वो इस जनम में कर्ण को दंड देना चाहते है, क्यूंकि वो अपनी प्रवृत्ति जो उसने द्वापर युग में अर्जित की थी ; नहीं छोड़ रहा। तो हल्का सी दुविधा ये भी की तो कर्ण रामायण काल में भी होगा तो शिवपुत्र जी उसके उस युग के दंड की बात क्यों नहीं कर रहे ! ( क्या उपहासप्रद रहस्य है ) , तो क्या मात्र सनसनी फैलाना उद्देश्य है ! ( विचार ) और ऐसे लोगो को आकर्षित करना जो उनकी बातों पे शिरसा प्रणाम कर दंडवत हो आँख बंद करके विश्वास कर लेते हो !
आपो गुरु आपो भवः के साथ कुछ विचार बिंदु है जिनको नीचे व्यक्त किया है :-
१- मानव इतिहास वर्षों का नहीं युगों में फैला है , हिन्दू धार्मिक ग्रंथो में , मनु-सतरूपा से सृष्टि शुरू होती है , और आज तक विस्तार से फैली है , चार युगों में इतिहास सिमटा है। ईश्वर की सत्ता अवश्य ही इनसे परे है , युग शक्तिशाली अस्तित्व के अंदर है। और हर जीव भोग रूप में अपने जन्म और मृत्यु के पहिये में घूम रहा है।
२- चलिए मान लेते है , ईश्वर अवतार लेते है पृथ्वी पे धर्म की स्थापना के लिए , सतयुग में धर्म स्थापना की चले गए , फिर सीधा द्वापर युग में आये धर्म स्थापना की और चले गए , बीच बीच में हलके फुल्के अवतारों का जिक्र है , जैसे नृसिँघ और वामन , अनेक है , किन्तु महादानी कर्ण को तो स्वयं उनके आग्रह पे और उनकी कार्य संरचना पे अर्जुन ने छल से वध किया था । और सोने के दांत को दानरूप मांगना भी स्वयं कृष्ण ने ही किया था। प्रशंसा भी की थी। तो फिर ! ईश्वरांश स्थूल जन्म में ये उन्नत आत्मा कर्ण को किस बात का दंड देने को उतारू है ? चलिए ये भी मान लेते है की कर्ण ने आज इस काल में पुनः जन्म लिया , और अपने स्वभाव के साथ लिया , सिर्फ कर्ण ही क्यों ! हर युग की हर जीवात्मा जन्म मृत्यु के घेरे में है ! और हर आत्मा के अपने कर्म बंधन है। उन्नत आत्मतत्व का मात्र जन्म का अंतराल बढ़ जाता है और बृहत् उद्देश्य हेतु जन्म होता है । ऊर्जा संग तत्व और भाव रंगो के समान है जो वातावरण में फैले है। जन्म के साथ ही शरीर में प्राकृतिक रूप से वासित है। कर्मबंध भी ऐसा ही है , जो "जन्म मृत्यु = मृत्यु जन्म" के घेरे में साथ ही डोलता है। कर्म भोग और कर्म फल भोग मुक्ति यानि मोक्ष का अलग नजरिया है।
३- महाभारत युद्ध छल और बल का युद्द है ! जिसमे दोनों ही दल कृष्ण समेत इस व्यवहार में शामिल है , तो यदि कर्म भोग और कर्म फल भोग मुक्ति की दृष्टि से देखें , तो ऊपर के चित्र में इन्होने कहा है की तीन इस चित्र के पात्र आज भी जीवित है , इनकी इस कथा के अनुसार स्वयं कृष्ण भी अर्जुन समेत आज जिन्दा है स्थूल रूप में , चलिए ये भी मान लेते है कृष्ण मुक्त नहीं ( हालाँकि इससे कई हिन्दूधर्म की ईश्वर सम्बंधित मान्यताये ध्वस्त हो जाएँगी ) पर फिर भी मान लेते है। क्यूंकि ईश्वर भी तो हम मानव ही बनाते है। तो इसका सीधा अर्थ ये हुआ की जो भी भोग भोगे जा रहे है , उनका कोई अंत नहीं , क्यूंकि द्वापर के कर्ण अभी भी दंड के पात्र है और स्वयं ईश्वर सबसे पूछ रहे है , की इन्हे दंड दू या न दू ? हैं न ! प्रश्न चिन्ह ! तो यहाँ मेरा ये कहना है की , जिनको सतयुग से लेकर कलियुग के आखिरी चरण तक उचित दंड नहीं मिल सका , और ध्यान दीजियेगा , सिर्फ कर्ण ही नहीं , कुंती , जरासंध कृष्ण देवकी भीष्म आदि आदि आज भी भोगना में लिप्त है और जन्म मृत्यु की चक्की में डोल रहे है। तो इस जनम में विशेष दंड की बात वो भी मात्र कर्ण को , उपहास योग्य है। देना ही है तो जरा ईसिस ( आतंकवादी संगठन ) तथा अन्य निर्मम आतंकवादी संगठनो को दंड दीजिये। जहाँ ऐसी महान आत्माए भरी हुई है , द्वापर के पाप को लेके कर्ण के पीछे समय क्यों नष्ट कर रहे है !
४- अथवा , तो क्या रामायण काल के कोई पात्र क्या इस काल में जन्म नहीं ले रहे , और ले रहे है तो उनके दंड का क्या ? मात्र महाभारत काल के पात्र क्यों बार बार दंड हेतु जन्म ले रहे है ?
मैं यहाँ किसी एक व्यक्ति की आलोचना नहीं कर रही , अपितु बृहत् अर्थ में समझने की चेष्टा कर रही हूँ , पाठक इसको मेरी तपस्या के अंदर ले सकते है। इसके निष्कर्ष से मुझे मेरे मार्ग पे लाभ मिलने वाला है।
५ - यहाँ एक बात सीधी हो जाती है कि जैसा ब्रह्मकुमारी नामकी संस्था का कहना है , समस्त उर्जाये व्यापक है , हर युग में है , कही नहीं जाती , तत्व के संयोग से पुनः पुनः जन्म लेती है। सतयुग की हों या द्वापर की अथवा कलियुग की। आत्माओं का आना जाना ऐसा ही है जैसे खेलने की कुछ इक्छा बाकी रह गयी तो पुनः जन्म ले लिए खेला और वापिस चले गए विश्राम को , और अपने अपने उद्देश्य से पुनः जन्म ले लिया।
६ - ये जन्म मृत्यु का भोग उपभोग जन्म जन्मान्तर की प्रक्रिया है , कब तक ! जब तक ब्रह्मा का विश्राम नहीं होता।
७ - इस खंड को जरा ध्यान से पढिएगा :- युग जितने भी लम्बे हो , ब्रह्मा का सुप्त काल और जागरण काल कितना भी गहरा हो , उनका भी निद्रा काल और जागरण काल समय चक्की के घेरे में है। आधा काल सोने का और आधा काल जागने का। और इस समय चक्की में युग बहुत छोटी इकाई है यानि मानव मस्तिष्क से इसको जाने तो दिन के चार पहर का एक हिस्सा। ब्रह्मा के इस एक पहर में मनुष्य के लाखों वर्ष समाये है। इन लाखों वर्षों में मानवीय सभ्यता का इतिहास उपलभ्ध होता है कुछ हजार वर्षों का और कुछ लाख वर्षों का कथानक अथवा कथा इतिहास , उसके बाद कुछ ऐसा होता है , की समस्त मानव जाति पुनः पाषाण युग की तरफ बढ़ जाती है , तमाम विकास उन्नति , वैज्ञानिक उपलब्धिया नष्ट हो जाती है। और जब पिछला कोई भी जीवित मनुष्य जगत का प्रमाण सूत्र मिलता है , तो उनकी उपलब्धियों को जादू के रूप में जाना जाता है। जैसे रामायण काल में राम का रावण के साथ शक्तिशाली युद्ध शैली, उड़ने वाले वाहन से रावण का सीता हरण , या फिर ब्रह्मास्त्र आदि जादू से भरे शस्त्र का उपयोग और अन्य छल बल , रूप बदले वाले जादूयी तरीके। यही कुछ द्वापर में कृष्ण के साथ उनके तरीको से भी जान पड़ता है , सब जादुई तरीके,चाहे राक्षस कुल इस्तेमाल करे या फिर स्वयं कृष्ण का । हिंदू धर्म में इन सब का जादुई शक्ति से भरे देव और असुर पात्रो के रूप में वर्णन मिलता है।
इतिहास गवाह है की पूर्ण विकसित मानव सभ्यता पांच लाख साल ज्यादा नहीं चलती , स्वयं को मार काट के समाप्त कर लेते है। और फिर नयी सभ्यता का जन्म पाषाण युग के साथ होता है। भूगर्भ शास्त्रियों को इससे प्राचीन मानव सभ्यता के निशाँ नहीं मिलते। पर इतिहास युगों पुराना है। सोचने वाली बात है ! अगर इसको ऐसे सोचा जाये की हमारे पास विज्ञानं न हो विकास न हो , दो पत्थर रगड़ के आग लगा के भोजन बनाते हो , और ऐसा कुछ लिखना पड़े या कहना पड़े तो शायद हम भी ऐसे ही कहेंगे !
८- समय की घूमती चक्की स्वयं परम ऊर्जा से चलित है , यानि केंद्र वो स्थान है जहा को सभी दौड़ लगा रहे है , समस्त सौरमंडल , समस्त आकाशगंगा सभी कहीं न कही से खंडित हो अलग हुए हैं और एक दूसरे के आकर्षण में एक दूसरे को खींचे हुए है , एक दूसरे से बंधे हुए है और एक वृहत परिधि बना रहे है , वस्तुतः मूल केंद्र इनसे भी परे है।
९- बड़ी महत्त्व पूर्ण बात है एक बार फिर से ध्यान चाहूंगी - ब्रह्मकुमारी का अपना विचार है वैसे ही सहज योग का भी एक सूत्र है जो उनकी तपस्या के परिणाम स्वरुप है , हर किसी की एक ही मान्यता है , और हम इन सभी मान्यताओं का पुनः मंथन करके हीरा खोज रहे है , इस व्योम में घूमती समय चक्की में अनेकानेक छोटे बड़े अदृश्य घेरे है , जिनमे ऊर्जाएं खंड खंड है और इनके भी कार्मिक घेरे भी खंड खंड में सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर में घूमते हुए है , सूक्ष्म शरीर भी कर्म बंधन में है और व्योम की सात चक्रीय ऊर्जा में अपनी अपनी चित्त वृत्ति अनुसार स्थित है , इस व्योम का भी सस्त्रधार है जैसे पृथ्वी का है और हम सभी में है। यही वो सात चक्र-घेरे है जहाँ उर्जाये अपने सूक्ष्म शरीर के साथ निवास करती है। और इनके जन्म का अंतराल इनकी दिव्यता और विकास से स्वयं ही सुनिश्चित करती है। एक बहुत बड़ा चुंबकीय ऊर्जा है जिसके ये सात चक्र है स्व आत्मिक ऊर्ध्वगमन के साथ जैसे अपनी चेतना उर्धमुखी होती है एक एक चक्र को पार करती सहस्त्रधार को उन्मुख होती है , वैसे ही इस विशाल चुंबकीय व्योम ऊर्जा के भी सात घेरों में खंडित ऊर्जाओं का उत्थान अनुसार चक्र -घेरा स्वयं सुनिश्चित होता जात्ता है , ये उत्थान अगर जन्मांतर की प्रक्रिया में कर्म बाधित नहीं होता , तो ऊर्ध्वगमन जारी रहता है। और उस चक्र के सातवे चक्र को प्राप्त कर पाता है। यह विचार जो सहज योग की उपलब्धि है अब इस के साथ जो घेरे में अथवा जिस चक्र में जो जो आत्माए है उनका जिक्र अथवा विभाजन कुछ इस प्रकार है , और इन सात चक्रो को आत्माओं का वास स्थल जानना है , वास्तविकता में लौकिक दृष्टि से सुलभ नहीं अपितु ये सम्पूर्ण विकसित अदृश्य तरंगित प्रदेश है जिनका आभास किया जा सकता है जो अखंड व्योम में वासित है :-
१- सस्त्रधार स्वयं एक ऊर्जा शिव के लिए सुरक्षित इस मूल शक्ति में अन्य उर्जाये समाँ जाती है
२- आग्यां चक्र ईशवर सदृश उन्नत जीवजन्म के लिए (वे उन्नत आत्माए जिनके मस्तिष्क अधीन है )
३ -विशुद्धि चक्र ( जिन्होंने कंठ प्रदेश तक विजय हासिल की है )
४- अनाहत ह्रदय ( भाव विजय सम्बंधित आत्माएं )
५- मणिपुर ( जिह्वा और क्षुधा इक्छा अनिक्छा भोजन आदि से सम्बंधित )
६- स्वाधिष्ठान ( नाभि केंद्र , जो मूल रूप से भय अथवा असुरक्षा से कम्पित है )
७- मूलाधार , ( जो यौनिक गतिविधियों की अधीनता से विजयी हुआ है )
इन चक्रों का और इन चक्रीय नामो का उपयोग हर केंद्र से जुड़ने पे मौजूद रहता है , चाहे वो , स्वयं का हो पृथ्वी का हो , सौरमंडल का हो , या व्योम का।
और एक महत्वपूर्ण बात , जब आत्मा के उठान की चेतना जागती है तो जिन चक्रो पे एक एक करके विजय हासिल करने की बात की , मूलतः वो बहुत शुरूआती किन्तु अंतिम भी हमारे अपने शरीर से शुरू होती है , चक्र के अधिक अध्ययन के लिए , लिंक यहाँ नीचे है
http://myspiritualitydiscourses.blogspot.in/2014/10/summary-of-7-chakras.html
http://myspiritualitydiscourses.blogspot.in/2014/05/blog-post_17.html
http://myspiritualitydiscourses.blogspot.in/2014/03/our-mother-earth-is-live-not-dead-all.html
http://myspiritualitydiscourses.blogspot.in/2014/02/abstract-in-hindi-and-jaggi-vasudev-in.html
http://myspiritualitydiscourses.blogspot.in/2014/03/chakras-1-from-net.html
http://myspiritualitydiscourses.blogspot.in/2014/03/ramnak-island-of-kaliya-krishnas-is-in.html
http://myspiritualitydiscourses.blogspot.in/2014/04/kundalni-shakti.html
यहाँ तक चेतना रहस्य कुछ हद तक स्पष्ट होता है , यहाँ यदि एक बार मान भी लें की परम ने मित्र को विशेष कार्य हेतु भेजा है ,तो वो मात्र महाभारतीय चरित्र में क्यों उलझे है ? आत्मा की यात्रा तो उससे भी पुरानी है , साथ ही ये भी की जिस भाव से मेरे मित्र ने यहाँ कर्ण के दंड के विषय जो भी कहा वो मात्र अस्तित्वहीन ही नहीं इस बृहत् के समक्ष व्यर्थ भी है. कर्ण नामक चरित्र के विषय में जहाँ तक मेरी जानकारी है वे दानवीर तो थे ही शूरवीर साहसी भी थे , संयम के धनी थे ओजवान थे , मात्र अगर गलती कही जाये तो क्रोधी थे अभिमानी थे जिसको वो अपना स्वाभिमान कहते थे और इसी स्वाभिमान के अंदर कई गलत निर्णय भी उनसे हुए और मुझेलगता है की इतने विद्वान को अपने गलत लिए निर्णय का आभास भी अवश्य होगा , ऐसा जीव अवश्य कई चक्रो का साधक भी होगा इसका अर्थ ये हुआ की ये जीव कर्म के कारन कर्म-भोग का अधिकारी तो है , दंड का भोग ईश्वर कुछ प्रकर्ति के सहयोग से करा ही देते है ; उसके लिए इस अवस्था में मुझे लगता है की शिवा अपने पुत्र को (यदि है ) दंड हेतु नियुक्त नहीं करेंगे क्यूंकि ये भी एक वास्तविकता है , मानव रूप में जन्मित स्थूल शरीर का नाभि स्थल चक्रीय मध्यप्रदेश , केंद्र है स्वाधिष्ठान जागृत उर्ध्व गामी चेतनाएं स्वाधिष्ठान से ही ऊपर को ही उठती है और अधोगामी चेतनाये भी यही से नीचे को सात चक्र में गमन करती है , अतल , वितल , सुतल , पाताल , रसातल आदि इनके अधोगामी चक्र है , जो दैवीय (उर्धगामी ) और राक्षसिया वृत्त (अधोगामी ) के सूचक है , मनुष्य में अन्तर्निहित व्रती चक्र के भी और , पृथ्वी के चक्र स्थति के अनुसार इनका कर्म प्रकट होता है तथा व्योम प्रदेश में इनके कर्म के अनुसार स्थान तथा जन्म का अंतराल भी स्वयं से ही सुनिश्चित है। इसका मात्र इतना सरल सा अर्थ है की वासनाएं जितनी गहरी उनकी पूर्ति हेतु जन्म उतना ही जल्दी जल्दी । परम एक ही इक्षा से बाधित है वो है संतुलन की , इसलिए वो अपना मूल स्थान नहीं छोड़ते , ऊर्जावान गुण युक्त ऊर्जा के प्रस्फुटन का कारन बनते है (जिसको अवतार भी कहते है ) स्थूल शरीर तो है पर शक्तिशाली प्रतिभावान है जिसका निवास व्योम के ज्ञान चक्र में है इसीकारण उसका भी जन्म उद्देश्य है किन्तु उसके जन्म का अंतराल भी सबसे बडा है। शायद ही ऐसा आत्माओं के लिए अपवाद ससार में मिले की उर्ध्व को उठती आत्मा अधोगति को चलने लगे। अवश्य ही दुखद है। पर जो अपराध आतंकवादी बनके आत्माएं कर्म कर रही है और तर्कसंगत भी समझ रही है , मुझे लगता है यदि शिवा अपने पुत्र को यदि नियुक्त कर्नेगे तो सबसे पहले द्वापर की जगह कलियुग की आत्माओ का हिसाब करेंगे। आखिर मुझसे तो ज्यादा ही ईश्वर समझदार है।
इस संसार में अलग अलग समुदायों की शीर्ष आत्माओं ने अपनी अपनी तपस्या से कुछ कुछ अनुभव फल प्राप्त किये , उन सभी की तपस्या के फल को पुनः ही चक्की में डाल और सुन्दर अनुभव फल मिला , जो आप सबसे यहाँ मैने कहा।
तो ये समय की सम्पूर्ण चक्की की सम्पूर्ण कथा है युग युगांतर में प्रारम्भ से उनमे होने वाले खेल आत्माओं के कर्मबध व्योम में स्थित नीचे और ऊपर को चलने वाले चक्रो को ये समय पहिया अपने में समेटे हुए है। और केंद्र हीरे के समान चमकता शीर्ष इसके भी ऊपर।
ओम
लेकिन आज जब वास्तविक निद्रा हलकी हो रही है , तो इन सबके दूसरे ही मायने दिख रहे है , मौन ही मौन ये विस्तृत को कह रहे है , मेरा अस्तित्व की क्षणभंगुरता मुझे ही समझा रहे है , और साथ ही साथ दिव्य-मार्ग भी दिखा रहे है इसके साथ ही विस्तृत-समय पहिये के विस्तार की चक्रीय सीमाओं को बताता है , तथा समय से भी ऊपर शीर्ष अथवा सहस्त्रधार पे स्थापित वो परम शक्ति केंद्र में हीरे सी चमक रही है,वस्तुतः ये दृष्टिगत नहीं , किन्तु आभासित है। व्योम का अर्थ मात्र लौकिक आकाश नहीं व्योम के विस्तार में समस्त आकाशगंगाये सिमटी है , जिनको समय का पहिया अपने में समेटे है जो चक्रीय ऊर्जा से आच्छादित है , जिसको ब्रह्मा के समय रथ के पहिये से जाना जा सकता है। नाम तो द्वैत में कुछ भी दिया जा सकता है , जो शब्दों की दुनिया का प्रयास भी है , की जीव यात्रा और ऊर्ध्वगमन की प्रेरणा और सहयोगी भी है।
कुछ समय से बहस चल रही थी एक महापुरुष के साथ स्वयं को शिवपुत्र कहते है तथा शिव की इक्छा से हुए जन्म का कोई बड़ा औचित्य बताते है , उस औचित्य मे मेरी कोई जिज्ञासा नहीं , वस्तुतः समय समय पे महाभारत काल के कई चरित्र को ले के उनके आज के इस जन्म और मृत्यु की उद्घोषणा भी कर चुके है। इस बार उन्होंने महाभारत के कर्ण का दामन थामाँ है , और ऐसा वैसा नहीं , उसको इस जनम में दंड देने पे भी स्वयं से वचनबद्ध है , क्यों की उनका कहना है कर्ण न तब सुधरा था न ही इस जनम में , पढ़िए उनकी जबानी :-
'महारथी कर्ण को इस तरह मारना क्या बहुत जरूरी हो गया था ?'
....
'धर्म' हेतु कृपया अपनी राय दें।
समाज पर उपकार होगा ?
आप सभी स्वागत के साथ आमंत्रित हैं।
Note : स्मरण रहे : इस तस्वीर में दिख रहे तीनों महान पात्र कलियुग के वर्तमान काल खंड में भी मानव जन्म लेकर अपना जीवन जी रहे हैं।
तथा
दुर्योधन का परममित्र....."महारथी कर्ण (सूर्यपुत्र अथवा सूतपुत्र)".... के जीवन चरित्र को देखकर आप व्यक्तिगत रूप से कैसा महसूस करते हैं ?
.
आपके विचार (ख्याल) महत्वपूर्ण हैं।
अनेकों को मार्ग मिलेगा।
.
अपने को रोकें नहीं, कह दें।
अच्छा लगेगा कर्ण को।
.
आपके दृष्टिकोण से वह अपने बारे में आज जानेगा तो संभव है कुछ परिवर्तन कर ले अपने स्वभाव में।
.
आज का समाज पहले से ज्यादा सभ्य व परिष्कृत है इसलिए ?
है ना ?
Shivputra Chaitanya
इसको उन्होंने फेस बुक पे डाल दिया , और लोग अपने अपने अनुसार चर्चा में लग गए , कई लोगो ने कहा कर्ण के साथ न्याय न तब हुआ न अब , तो कईओं ने इन पोस्ट डालने वाले महापुरुष की अनेक प्रकार से प्रशंसा की । सोचने वाली बात ये है की स्वयं खंड खंड द्वैत में जीवित असमंजस में घिरी मनुष्य बुद्धि कर्ण के लिए क्या निर्णय दे पायेगी ! मात्र जितना इतिहास या कथाओं में चरित्र मिला उतना ही ज्ञान है वो भी बंटा और बिखरा हुआ। महापुरुष मित्र का कहना और जैसा अध्यात्म जगत धर्म जगत अथवा विज्ञानं जगत और सद्गुरुओं के माध्यम से ज्यादातर लोग जानते ही है की चेतनाएं नष्ट नहीं होती , तत्व और ऊर्जा रूप बदल बदल जन्म लेते है।
( विषय को जानना यानि सूचित होना और अनुभव होना यानि विषय को आत्मसात करना , विषय को जानना ज्ञान की प्रथम सीढ़ी और अंतिम सीढ़ी की वो विषय न होके अनुभव हो जाता है )
वैसे मेरा उन महापुरुष से न विरोध है न सहमति ,क्यूंकि अंततोगत्वा सभी जीव अपनी अपनी यात्रा पे अपने अपने उद्देश्य के साथ है पर उनकी इस चर्चा ने मुझे कुछ स्वध्यान के लिए प्रेरित किया जिसका निचोड़ नीचे है।
वैसे तो पृथ्वी समेत समस्त नक्षत्र ही आधार-विहीन है व्योम में नियमबद्ध घूमते परिधि बनाते हुए , मात्र एक दूसरे के आकर्षण से बद्ध हो के अपनी स्वयं की परिधि बनाते हुए एक दूसरे को खींच रहे है और इस प्रकार इस आकर्षण के अंतर्गत एक बड़ी बृहत् परिधि बन रही है जो आकाशगंगा की जन्मदात्री है और विज्ञानं जहाँ तक कहता है प्रमाण सहित उसका कहना है ऐसी असंख्य आकाशगंगायें व्योम में अपने अस्तित्व में है,( जिनकी निश्चित संख्या गणना के प्रमाण अभी उपलभ्द नहीं, यहाँ विज्ञानं ईमानदार है , जहाँ तक प्रमाण है वो भी प्रमाण पूर्वक कहा गया और जहाँ नहीं वो कल्पना भी खोज के र्रोप में स्वीकार की है , तो जहाँ तक प्रमाण मिलते है वहां तक विज्ञानं के साथ ही चलते है ),विज्ञानं कहता है की यहाँ कुछ भी नष्ट नहीं होता और कुछ पृथ्वी का पृथ्वी से बाहर भी नहीं जाता अगर इसी को आधार मान ले की तत्व और ऊर्जा रूप बदल बदल जन्म ले रहे है , तो भी कुछ प्रश्न खड़े हो जाते है , ख़ास कर उस प्रसंग में जब एक व्यक्ति स्वयं को स्थूल रूप मे ईश्वर पुत्र बता रहे हों , और ये भी की वो इस जनम में कर्ण को दंड देना चाहते है, क्यूंकि वो अपनी प्रवृत्ति जो उसने द्वापर युग में अर्जित की थी ; नहीं छोड़ रहा। तो हल्का सी दुविधा ये भी की तो कर्ण रामायण काल में भी होगा तो शिवपुत्र जी उसके उस युग के दंड की बात क्यों नहीं कर रहे ! ( क्या उपहासप्रद रहस्य है ) , तो क्या मात्र सनसनी फैलाना उद्देश्य है ! ( विचार ) और ऐसे लोगो को आकर्षित करना जो उनकी बातों पे शिरसा प्रणाम कर दंडवत हो आँख बंद करके विश्वास कर लेते हो !
आपो गुरु आपो भवः के साथ कुछ विचार बिंदु है जिनको नीचे व्यक्त किया है :-
१- मानव इतिहास वर्षों का नहीं युगों में फैला है , हिन्दू धार्मिक ग्रंथो में , मनु-सतरूपा से सृष्टि शुरू होती है , और आज तक विस्तार से फैली है , चार युगों में इतिहास सिमटा है। ईश्वर की सत्ता अवश्य ही इनसे परे है , युग शक्तिशाली अस्तित्व के अंदर है। और हर जीव भोग रूप में अपने जन्म और मृत्यु के पहिये में घूम रहा है।
२- चलिए मान लेते है , ईश्वर अवतार लेते है पृथ्वी पे धर्म की स्थापना के लिए , सतयुग में धर्म स्थापना की चले गए , फिर सीधा द्वापर युग में आये धर्म स्थापना की और चले गए , बीच बीच में हलके फुल्के अवतारों का जिक्र है , जैसे नृसिँघ और वामन , अनेक है , किन्तु महादानी कर्ण को तो स्वयं उनके आग्रह पे और उनकी कार्य संरचना पे अर्जुन ने छल से वध किया था । और सोने के दांत को दानरूप मांगना भी स्वयं कृष्ण ने ही किया था। प्रशंसा भी की थी। तो फिर ! ईश्वरांश स्थूल जन्म में ये उन्नत आत्मा कर्ण को किस बात का दंड देने को उतारू है ? चलिए ये भी मान लेते है की कर्ण ने आज इस काल में पुनः जन्म लिया , और अपने स्वभाव के साथ लिया , सिर्फ कर्ण ही क्यों ! हर युग की हर जीवात्मा जन्म मृत्यु के घेरे में है ! और हर आत्मा के अपने कर्म बंधन है। उन्नत आत्मतत्व का मात्र जन्म का अंतराल बढ़ जाता है और बृहत् उद्देश्य हेतु जन्म होता है । ऊर्जा संग तत्व और भाव रंगो के समान है जो वातावरण में फैले है। जन्म के साथ ही शरीर में प्राकृतिक रूप से वासित है। कर्मबंध भी ऐसा ही है , जो "जन्म मृत्यु = मृत्यु जन्म" के घेरे में साथ ही डोलता है। कर्म भोग और कर्म फल भोग मुक्ति यानि मोक्ष का अलग नजरिया है।
३- महाभारत युद्ध छल और बल का युद्द है ! जिसमे दोनों ही दल कृष्ण समेत इस व्यवहार में शामिल है , तो यदि कर्म भोग और कर्म फल भोग मुक्ति की दृष्टि से देखें , तो ऊपर के चित्र में इन्होने कहा है की तीन इस चित्र के पात्र आज भी जीवित है , इनकी इस कथा के अनुसार स्वयं कृष्ण भी अर्जुन समेत आज जिन्दा है स्थूल रूप में , चलिए ये भी मान लेते है कृष्ण मुक्त नहीं ( हालाँकि इससे कई हिन्दूधर्म की ईश्वर सम्बंधित मान्यताये ध्वस्त हो जाएँगी ) पर फिर भी मान लेते है। क्यूंकि ईश्वर भी तो हम मानव ही बनाते है। तो इसका सीधा अर्थ ये हुआ की जो भी भोग भोगे जा रहे है , उनका कोई अंत नहीं , क्यूंकि द्वापर के कर्ण अभी भी दंड के पात्र है और स्वयं ईश्वर सबसे पूछ रहे है , की इन्हे दंड दू या न दू ? हैं न ! प्रश्न चिन्ह ! तो यहाँ मेरा ये कहना है की , जिनको सतयुग से लेकर कलियुग के आखिरी चरण तक उचित दंड नहीं मिल सका , और ध्यान दीजियेगा , सिर्फ कर्ण ही नहीं , कुंती , जरासंध कृष्ण देवकी भीष्म आदि आदि आज भी भोगना में लिप्त है और जन्म मृत्यु की चक्की में डोल रहे है। तो इस जनम में विशेष दंड की बात वो भी मात्र कर्ण को , उपहास योग्य है। देना ही है तो जरा ईसिस ( आतंकवादी संगठन ) तथा अन्य निर्मम आतंकवादी संगठनो को दंड दीजिये। जहाँ ऐसी महान आत्माए भरी हुई है , द्वापर के पाप को लेके कर्ण के पीछे समय क्यों नष्ट कर रहे है !
४- अथवा , तो क्या रामायण काल के कोई पात्र क्या इस काल में जन्म नहीं ले रहे , और ले रहे है तो उनके दंड का क्या ? मात्र महाभारत काल के पात्र क्यों बार बार दंड हेतु जन्म ले रहे है ?
मैं यहाँ किसी एक व्यक्ति की आलोचना नहीं कर रही , अपितु बृहत् अर्थ में समझने की चेष्टा कर रही हूँ , पाठक इसको मेरी तपस्या के अंदर ले सकते है। इसके निष्कर्ष से मुझे मेरे मार्ग पे लाभ मिलने वाला है।
५ - यहाँ एक बात सीधी हो जाती है कि जैसा ब्रह्मकुमारी नामकी संस्था का कहना है , समस्त उर्जाये व्यापक है , हर युग में है , कही नहीं जाती , तत्व के संयोग से पुनः पुनः जन्म लेती है। सतयुग की हों या द्वापर की अथवा कलियुग की। आत्माओं का आना जाना ऐसा ही है जैसे खेलने की कुछ इक्छा बाकी रह गयी तो पुनः जन्म ले लिए खेला और वापिस चले गए विश्राम को , और अपने अपने उद्देश्य से पुनः जन्म ले लिया।
६ - ये जन्म मृत्यु का भोग उपभोग जन्म जन्मान्तर की प्रक्रिया है , कब तक ! जब तक ब्रह्मा का विश्राम नहीं होता।
७ - इस खंड को जरा ध्यान से पढिएगा :- युग जितने भी लम्बे हो , ब्रह्मा का सुप्त काल और जागरण काल कितना भी गहरा हो , उनका भी निद्रा काल और जागरण काल समय चक्की के घेरे में है। आधा काल सोने का और आधा काल जागने का। और इस समय चक्की में युग बहुत छोटी इकाई है यानि मानव मस्तिष्क से इसको जाने तो दिन के चार पहर का एक हिस्सा। ब्रह्मा के इस एक पहर में मनुष्य के लाखों वर्ष समाये है। इन लाखों वर्षों में मानवीय सभ्यता का इतिहास उपलभ्ध होता है कुछ हजार वर्षों का और कुछ लाख वर्षों का कथानक अथवा कथा इतिहास , उसके बाद कुछ ऐसा होता है , की समस्त मानव जाति पुनः पाषाण युग की तरफ बढ़ जाती है , तमाम विकास उन्नति , वैज्ञानिक उपलब्धिया नष्ट हो जाती है। और जब पिछला कोई भी जीवित मनुष्य जगत का प्रमाण सूत्र मिलता है , तो उनकी उपलब्धियों को जादू के रूप में जाना जाता है। जैसे रामायण काल में राम का रावण के साथ शक्तिशाली युद्ध शैली, उड़ने वाले वाहन से रावण का सीता हरण , या फिर ब्रह्मास्त्र आदि जादू से भरे शस्त्र का उपयोग और अन्य छल बल , रूप बदले वाले जादूयी तरीके। यही कुछ द्वापर में कृष्ण के साथ उनके तरीको से भी जान पड़ता है , सब जादुई तरीके,चाहे राक्षस कुल इस्तेमाल करे या फिर स्वयं कृष्ण का । हिंदू धर्म में इन सब का जादुई शक्ति से भरे देव और असुर पात्रो के रूप में वर्णन मिलता है।
इतिहास गवाह है की पूर्ण विकसित मानव सभ्यता पांच लाख साल ज्यादा नहीं चलती , स्वयं को मार काट के समाप्त कर लेते है। और फिर नयी सभ्यता का जन्म पाषाण युग के साथ होता है। भूगर्भ शास्त्रियों को इससे प्राचीन मानव सभ्यता के निशाँ नहीं मिलते। पर इतिहास युगों पुराना है। सोचने वाली बात है ! अगर इसको ऐसे सोचा जाये की हमारे पास विज्ञानं न हो विकास न हो , दो पत्थर रगड़ के आग लगा के भोजन बनाते हो , और ऐसा कुछ लिखना पड़े या कहना पड़े तो शायद हम भी ऐसे ही कहेंगे !
८- समय की घूमती चक्की स्वयं परम ऊर्जा से चलित है , यानि केंद्र वो स्थान है जहा को सभी दौड़ लगा रहे है , समस्त सौरमंडल , समस्त आकाशगंगा सभी कहीं न कही से खंडित हो अलग हुए हैं और एक दूसरे के आकर्षण में एक दूसरे को खींचे हुए है , एक दूसरे से बंधे हुए है और एक वृहत परिधि बना रहे है , वस्तुतः मूल केंद्र इनसे भी परे है।
९- बड़ी महत्त्व पूर्ण बात है एक बार फिर से ध्यान चाहूंगी - ब्रह्मकुमारी का अपना विचार है वैसे ही सहज योग का भी एक सूत्र है जो उनकी तपस्या के परिणाम स्वरुप है , हर किसी की एक ही मान्यता है , और हम इन सभी मान्यताओं का पुनः मंथन करके हीरा खोज रहे है , इस व्योम में घूमती समय चक्की में अनेकानेक छोटे बड़े अदृश्य घेरे है , जिनमे ऊर्जाएं खंड खंड है और इनके भी कार्मिक घेरे भी खंड खंड में सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर में घूमते हुए है , सूक्ष्म शरीर भी कर्म बंधन में है और व्योम की सात चक्रीय ऊर्जा में अपनी अपनी चित्त वृत्ति अनुसार स्थित है , इस व्योम का भी सस्त्रधार है जैसे पृथ्वी का है और हम सभी में है। यही वो सात चक्र-घेरे है जहाँ उर्जाये अपने सूक्ष्म शरीर के साथ निवास करती है। और इनके जन्म का अंतराल इनकी दिव्यता और विकास से स्वयं ही सुनिश्चित करती है। एक बहुत बड़ा चुंबकीय ऊर्जा है जिसके ये सात चक्र है स्व आत्मिक ऊर्ध्वगमन के साथ जैसे अपनी चेतना उर्धमुखी होती है एक एक चक्र को पार करती सहस्त्रधार को उन्मुख होती है , वैसे ही इस विशाल चुंबकीय व्योम ऊर्जा के भी सात घेरों में खंडित ऊर्जाओं का उत्थान अनुसार चक्र -घेरा स्वयं सुनिश्चित होता जात्ता है , ये उत्थान अगर जन्मांतर की प्रक्रिया में कर्म बाधित नहीं होता , तो ऊर्ध्वगमन जारी रहता है। और उस चक्र के सातवे चक्र को प्राप्त कर पाता है। यह विचार जो सहज योग की उपलब्धि है अब इस के साथ जो घेरे में अथवा जिस चक्र में जो जो आत्माए है उनका जिक्र अथवा विभाजन कुछ इस प्रकार है , और इन सात चक्रो को आत्माओं का वास स्थल जानना है , वास्तविकता में लौकिक दृष्टि से सुलभ नहीं अपितु ये सम्पूर्ण विकसित अदृश्य तरंगित प्रदेश है जिनका आभास किया जा सकता है जो अखंड व्योम में वासित है :-
( चित्र सभी सांकेतिक है ,मूल की विशालता का आभास स्व चेतना के ध्यान में जाने से ही संभव है किन्तु प्रयास है संकेत का , इस संकेत को ध्यान से देखें अनेक आकाशगंगायें इस वर्तुल में सिमटी है जिसका अपना घेरा है जिसके आने चक्र है स्थान है प्रदेश है धरती इतनी सूक्ष्म है की यहाँ से दिखेगी भी नहीं उसके लिए इस आकाशगंगाओं के घेरे में से अंदर को जाना पड़ेगा , सभी ग्रे नक्षत्र सौरमंडल को भेदते हुए पृथ्वी पे उतरना और जीव कर्म लिप्त जगत में जाना पड़ेगा , ध्यान आपका सहयोगी होगा )
१- सस्त्रधार स्वयं एक ऊर्जा शिव के लिए सुरक्षित इस मूल शक्ति में अन्य उर्जाये समाँ जाती है
२- आग्यां चक्र ईशवर सदृश उन्नत जीवजन्म के लिए (वे उन्नत आत्माए जिनके मस्तिष्क अधीन है )
३ -विशुद्धि चक्र ( जिन्होंने कंठ प्रदेश तक विजय हासिल की है )
४- अनाहत ह्रदय ( भाव विजय सम्बंधित आत्माएं )
५- मणिपुर ( जिह्वा और क्षुधा इक्छा अनिक्छा भोजन आदि से सम्बंधित )
६- स्वाधिष्ठान ( नाभि केंद्र , जो मूल रूप से भय अथवा असुरक्षा से कम्पित है )
७- मूलाधार , ( जो यौनिक गतिविधियों की अधीनता से विजयी हुआ है )
इन चक्रों का और इन चक्रीय नामो का उपयोग हर केंद्र से जुड़ने पे मौजूद रहता है , चाहे वो , स्वयं का हो पृथ्वी का हो , सौरमंडल का हो , या व्योम का।
और एक महत्वपूर्ण बात , जब आत्मा के उठान की चेतना जागती है तो जिन चक्रो पे एक एक करके विजय हासिल करने की बात की , मूलतः वो बहुत शुरूआती किन्तु अंतिम भी हमारे अपने शरीर से शुरू होती है , चक्र के अधिक अध्ययन के लिए , लिंक यहाँ नीचे है
http://myspiritualitydiscourses.blogspot.in/2014/10/summary-of-7-chakras.html
http://myspiritualitydiscourses.blogspot.in/2014/05/blog-post_17.html
http://myspiritualitydiscourses.blogspot.in/2014/03/our-mother-earth-is-live-not-dead-all.html
http://myspiritualitydiscourses.blogspot.in/2014/02/abstract-in-hindi-and-jaggi-vasudev-in.html
http://myspiritualitydiscourses.blogspot.in/2014/03/chakras-1-from-net.html
http://myspiritualitydiscourses.blogspot.in/2014/03/ramnak-island-of-kaliya-krishnas-is-in.html
http://myspiritualitydiscourses.blogspot.in/2014/04/kundalni-shakti.html
यहाँ तक चेतना रहस्य कुछ हद तक स्पष्ट होता है , यहाँ यदि एक बार मान भी लें की परम ने मित्र को विशेष कार्य हेतु भेजा है ,तो वो मात्र महाभारतीय चरित्र में क्यों उलझे है ? आत्मा की यात्रा तो उससे भी पुरानी है , साथ ही ये भी की जिस भाव से मेरे मित्र ने यहाँ कर्ण के दंड के विषय जो भी कहा वो मात्र अस्तित्वहीन ही नहीं इस बृहत् के समक्ष व्यर्थ भी है. कर्ण नामक चरित्र के विषय में जहाँ तक मेरी जानकारी है वे दानवीर तो थे ही शूरवीर साहसी भी थे , संयम के धनी थे ओजवान थे , मात्र अगर गलती कही जाये तो क्रोधी थे अभिमानी थे जिसको वो अपना स्वाभिमान कहते थे और इसी स्वाभिमान के अंदर कई गलत निर्णय भी उनसे हुए और मुझेलगता है की इतने विद्वान को अपने गलत लिए निर्णय का आभास भी अवश्य होगा , ऐसा जीव अवश्य कई चक्रो का साधक भी होगा इसका अर्थ ये हुआ की ये जीव कर्म के कारन कर्म-भोग का अधिकारी तो है , दंड का भोग ईश्वर कुछ प्रकर्ति के सहयोग से करा ही देते है ; उसके लिए इस अवस्था में मुझे लगता है की शिवा अपने पुत्र को (यदि है ) दंड हेतु नियुक्त नहीं करेंगे क्यूंकि ये भी एक वास्तविकता है , मानव रूप में जन्मित स्थूल शरीर का नाभि स्थल चक्रीय मध्यप्रदेश , केंद्र है स्वाधिष्ठान जागृत उर्ध्व गामी चेतनाएं स्वाधिष्ठान से ही ऊपर को ही उठती है और अधोगामी चेतनाये भी यही से नीचे को सात चक्र में गमन करती है , अतल , वितल , सुतल , पाताल , रसातल आदि इनके अधोगामी चक्र है , जो दैवीय (उर्धगामी ) और राक्षसिया वृत्त (अधोगामी ) के सूचक है , मनुष्य में अन्तर्निहित व्रती चक्र के भी और , पृथ्वी के चक्र स्थति के अनुसार इनका कर्म प्रकट होता है तथा व्योम प्रदेश में इनके कर्म के अनुसार स्थान तथा जन्म का अंतराल भी स्वयं से ही सुनिश्चित है। इसका मात्र इतना सरल सा अर्थ है की वासनाएं जितनी गहरी उनकी पूर्ति हेतु जन्म उतना ही जल्दी जल्दी । परम एक ही इक्षा से बाधित है वो है संतुलन की , इसलिए वो अपना मूल स्थान नहीं छोड़ते , ऊर्जावान गुण युक्त ऊर्जा के प्रस्फुटन का कारन बनते है (जिसको अवतार भी कहते है ) स्थूल शरीर तो है पर शक्तिशाली प्रतिभावान है जिसका निवास व्योम के ज्ञान चक्र में है इसीकारण उसका भी जन्म उद्देश्य है किन्तु उसके जन्म का अंतराल भी सबसे बडा है। शायद ही ऐसा आत्माओं के लिए अपवाद ससार में मिले की उर्ध्व को उठती आत्मा अधोगति को चलने लगे। अवश्य ही दुखद है। पर जो अपराध आतंकवादी बनके आत्माएं कर्म कर रही है और तर्कसंगत भी समझ रही है , मुझे लगता है यदि शिवा अपने पुत्र को यदि नियुक्त कर्नेगे तो सबसे पहले द्वापर की जगह कलियुग की आत्माओ का हिसाब करेंगे। आखिर मुझसे तो ज्यादा ही ईश्वर समझदार है।
इस संसार में अलग अलग समुदायों की शीर्ष आत्माओं ने अपनी अपनी तपस्या से कुछ कुछ अनुभव फल प्राप्त किये , उन सभी की तपस्या के फल को पुनः ही चक्की में डाल और सुन्दर अनुभव फल मिला , जो आप सबसे यहाँ मैने कहा।
तो ये समय की सम्पूर्ण चक्की की सम्पूर्ण कथा है युग युगांतर में प्रारम्भ से उनमे होने वाले खेल आत्माओं के कर्मबध व्योम में स्थित नीचे और ऊपर को चलने वाले चक्रो को ये समय पहिया अपने में समेटे हुए है। और केंद्र हीरे के समान चमकता शीर्ष इसके भी ऊपर।
ओम
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