Tuesday, 11 November 2014

स्पर्श-तल

जब अनुभव्  गहरा होता है तो छलकता है, शब्द सहयोग से  लिखा  जाता है। शायद ऐसा ही मुझे भी महसूस हो रहा  है , तो लेख बनता  है। अद्भुत है  किंन्तु सत्य लगता है , अनेक योनियों  के अनुभव से गुजारी मानव चेतना  मनुष्य रूप में भी  भूतकाल के गुणधर्म से प्रभावित होती है। इसीलिए समग्र रूप से मनुष्य   सीखता भी है तो  प्रकर्ति  और अन्य जीव उसके सबसे अच्छे गुरु साबित होते है।  प्रकृति स्वयं सबसे अधिक प्रभावी तरीके से  शिक्षा देती है शिक्षिका बनती है , अवसर उपलब्ध कराती ही रहती है  इसी सत्य को स्वीकार करने केलिए जब भी आँख खुल जाये , निद्रा टूट जाये। आध्यात्मिक यात्रा शुरू हो जाती है।

aadmi nahin avtar shiv ek prakrutik swroop hai 
pratyek maanav swbhav ki purn avastha  sabhi shiv putr hain yesa nahin sabhi shiv hi hain 
shiv ko sarv sweekar hai ..vaashnaon se bhagte nahin 
purnta se sweekar karte hain
aur purnta se pare bhi hain
manav jeevan me adbhut hai shiv avastha 

yah jo kai jeev jantu aas-pass aur shareer pe vichran kar rahe hain 

yoni chakron me manav in sabhi yoniyon se gujra aur ab manav yoni me
aaya manav swbhav me sabhi yoniyon ki samvadnayen daudti hain
bhut kaal me hum vaise hi nahin girte shiv bhi girte hain janmo janmo ki swbhav samvednaayen aakarshit karti hain ...kabhi pakshi jaise halke hote hain udaan bharte hain to kabhi gadhe jaise bhaar se bhar jate hain ...
yah sansar jhad aur jhakhad ulajh ulajh mar jana hai ...kabeer ne bhi mahsoos kiya
vah bhi thak gaye the bhar mahsoos hua to likh dya ...rahna nahin yah desh veerana hai ....Nandu

धन्यवाद   इस  अनुभव को बाँटने के लिए Bhagwatidas Nandlal भाई जी आभार प्रणाम

उपर्युक्त  वास्तविक विषय से अलग है किन्तु ये  जीव की आत्मस्वीकृति का एक उदाहरण है।  आईये, अब मूल विषय तल और तल  को स्पर्श करते  बिंदु , पे चिंतन  मनन  आरम्भ करते है।

तल  यानी निम्तम सिरा  वो छोर  जहाँ पहला आश्रय मिलता है , बच्चा जब जन्म लेता है  तो पदार्थ रूप में  उसके कदम धरती पे आते है, प्रथम तल उसका प्रथम आश्रय बनता है , उसका ज्ञान अनुभव  और उसकी  जिज्ञासा यही बनते  है , सब तर्क  स्पर्धा  जिज्ञासा  और अनुभव  तथा ज्ञान  यही है इसी तल पे । यूँ समझे की मछली के लिए  उसका प्रथम और अंतिम तल जल ही  है , जल के बाहर की दुनिया से सर्वथा अपरिचित। किन्तु जल के अतिरिक्त  थल भी है और व्योम भी है।   अज्ञानता का आवरण जीव को तल के भेद में बांध के रखता है।  नभचर को थल और नभ दो तल का ज्ञान  रहता है जल की गहराईओं से ये अनजान होते है ।   और मनुष्य को  जल थल और आकाश  तीनो तलो का  ज्ञान है । संकेत मिलते है की मनुष्य का जन्म साधारण नहीं  बहुत सी सम्भावनाओ  और जिम्मेदारियों से  भरा है। अन्य प्राणिजगत से अलग , ज्ञान के विकासक्रम में   मनुष्य को जब विभिन्न तल का जिज्ञासा और बोध होता है  तो जल थल और गगन से अलग  ऊर्जा जगत  और  पदार्थ जगत सम्बंधित होता  है।  प्रथम तल का अनुभव तो जन्म से और थोड़े से ज्ञान अभ्यास से प्राप्त है  किन्तु ऊर्जा जगत इस दूसरे तल  का न कोई अनुभव,ना ही याद ,न ही ज्ञान , किन्तु रहस्यमयी जगत का आकर्षण है  जो अंजना है अज्ञात की ओर है , वर्षों की समूह-साधना के पश्चात भी ऊर्जा घूँघट डाले आकर्षित करती है  और यही आकर्षण  जो दृश्य भी नहीं , उसको निरंतर खोज के लिए  प्रेरित करता रहता है। महानतम आश्चर्य की  पहले जो मात्र अध्यात्म के द्वारा वो केंद्र अनुभव होता था  इस खोजी  वैज्ञानिक समूह ने  कुछ सीमा तक  प्रमाण उपलब्ध करा के अध्यात्मिको के  मार्ग-प्रकाश का काम किया है , वस्तुतः आध्यात्मिक  की  छलांग पार  के दृश्य तक रहस्यमयी है  अभी भी उस केंद्र तक  जीव को पदार्थहीन हो अकेले ही जाना है और अनुभव करना है ।  संभवतः मनुष्य अपनी बुद्धि से केंद्र ऊर्जा के दर्शन कर सके ! सम्भावना से इंकार भी नहीं।  इसी भाव को  ओशो ने अपने शब्दों में और सरल सारयुक्त कर दिया , यहाँ  ओशो  उन्ही दो तल की  चर्चा  कर रहे है  प्रथम जमीं की कशिश  दूसरी परमात्मा  की कशिश :-

ध्यान में उतरना (Dhyan Ke Kamal-07) :-
जैसे जमीन की कशिश, जमीन का ग्रेविटेशन, आकर्षण शरीर को अपनी तरफ खींचता है, वैसे ही परमात्मा की ग्रेस, उसका आकर्षण आत्मा को अपनी तरफ खींचता है। आप कौन हैं, इस पर निर्भर करेगा कि कौन सी कशिश आप पर काम करेगी। अगर आप शरीर हैं, तो जमीन काम करेगी। अगर आप आत्मा हैं, तो परमात्मा काम शुरू कर देगा। Osho

जीवन के  चार आर्य सत्य  ने सिधार्थ  (बुद्ध) को  इस अध्यात्म की शाखा  के शीर्ष पे  बिठा दिया। जिस ऊंचाई  को आज उनके अनुयायी महसूस करते है , संभवतः स्वयं उनको अपने इस तल के प्रकाश का आभास नहीं हुआ होगा , दिया कैसे  स्वयं की अग्नि को देख सकता है ! अद्वैत के  इस वास्तविकता से परिचय के साथ ही द्वंद्व समाप्त होजाता है , विरोधाभास से प्रतीत होते दो छोर भी द्वैत में ही दीखते है।  यहाँ अद्वैत में शुन्य के सिवा  कुछ है ही नहीं। ( आज मुझे यह भी आभास हो रहा है  की राम कृष्ण  बुद्ध  महावीर  नानक मीरा कबीर  ओशो  की अवस्था  अनुभव की अवस्था है।  चमत्कार की नहीं ज्ञान की अवस्था है, सामान्य व्यक्ति के लिए  प्रेरणा की अवस्था है  मंदिर बना पूजा की नहीं । पूजन की पध्हति पुजारियों ने देके अध्यात्म के मार्ग बंद से कर दिए , समस्याओं के उपाय दे दिए, उदाहरण के लिए  फलां रंग का फलां फूल फलां दिन फलां दिशा  को मुह करके अपनी  मनोकामना दोहराते हुए अर्पण कर देने से इक्छा पूरी होगी।  इक्छा पूरी और आदमी मस्त  नहीं पूरी हुई तो  भाग्य पे डाल अगली इक्छा के लिए  फिर वो ही विधि।  बस यूँ ही विधियों और इक्छायो के झूले में वृद्धावस्था  दस्तक देने लगती है,फिर कहा जाता है अब तुम्हारे  सन्यास का वख्त आ गया  यहाँ जीव जो आजीवन इक्छाओं पे जिया  वो संन्यास  को  स्वीकार ही नहीं कर पाता। अतृप्त इक्छाओं और विधियों के बीच ही प्राण त्यागता है ।  संन्यास स्वयं से  लड़ने या जबरदस्ती  लादने जैसी अवस्था नहीं।  ये तो कमल सी  स्वयं प्रकट होती है , वो भी प्रकर्ति के अथक प्रयास और सहयोग से।  )

पदार्थ जगत में  हर पदार्थ  असंख्य  अणु के मेल से बना है , " पूर्व आध्यात्मिक जगत की ज्ञात सबसे छोटी इकाई कण थी  ऐसा ज्ञानी  ऋषियों को  पूर्व अनुभव अथवा तपस्या से ज्ञात  था , विज्ञानं  और खोज के दौरान  वैज्ञानिक जगत  ने कण के अंदर अणु  के भी अंदर दो और  प्राण तत्व  खोजे  जिसमे एक परमाणु ऊर्जा है और परमाणु के अंदर भी एक और ऊर्जा है जिसे क्वार्क  का नाम दिया।
Three colored balls (symbolizing quarks) connected pairwise by springs (symbolizing gluons), all inside a gray circle (symbolizing a proton). The colors of the balls are red, green, and blue, to parallel each quark's color charge. The red and blue balls are labeled "u" (for "up" quark) and the green one is labeled "d" (for "down" quark).
उपराचित्रत क्वार्क ( अणु  के अंदर  परमाणु और परमाणु के भी अंदर पाये जाने वाला  तत्व ) अपने अंदर एंटिक्वार्क के गुणों को भी समेटे है क्वार्क में कई प्रकार के गुण होते है, जैसे विद्युत आवेशकलर चार्ज {color charge}, भ्रमि या प्रचक्रण {spin} और द्रव्यमान। प्रतिकण में भी यह सभी गुण पाये जाते है, परंतु विपरीत होते है।

इस प्रकार क्वार्क और परमाणु को समाहित किये एक अणु  सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सम्भावना को समेटे है  एक अणु  का ४२  घंटे का कार्य संपादन का चित्र  ऐसा  है जो ब्रह्माण्डीय कार्यप्रणाली के ही समरूप  है

(http://en.wikipedia.org/wiki/Cell_division)

ऊर्जा के  संयोग और पदार्थो के गुणों से विभिन्न चराचर  जगत  की संरचना हुई , जगत ही नहीं  अखिल ब्रह्माण्ड की रचना के आधार में ये कण ही है। हर कण अपने तीन शरीरों  के साथ समग्र रूप से ऊर्जावान है।


छोटा  और गहरा  शब्द  तल (  ठोस आधार जहाँ से  भवन की मजबूत बुनियाद पड़े ) अपने अर्थ को  गहरा करता है , संभवतः  एक बुनियाद  पे एक ही भवन बन सकता है , यही पे अध्यात्म / विज्ञानं  इस तरह की दो बुनियाद  पे एक भवन खड़ा करते  है, प्रथम  तत्व जगत  दूसरा ऊर्जाजगत और , और यही दो ज्ञान के जगत विभिन  अलग अलग  स्तर  पे स्वयं को भेदते हुए  और गहरे होते जाते है।  कहते है सतसईया के दोहे गंभीर अर्थ समेटे थे सतसयिया  के कहे गए सूक्ष्म मार्मिक  छोटे छोटे दोहे  से भी गहरा अर्थ  समेटे है , किन्तु इस तल शब्द  को विस्तार से खंगाले उसके पहले ये निम्न  दोहा याद करते है :-

"सतसइया के  दोहरे  ज्यूँ  नाविक के तीर 
देखें  मा  छोटे  लगे ,  घाव   करे   गंभीर "

ज्ञान के आधार पे  पहला विभाजन  कर्म (ऊर्जा )  और  पृथ्वी (तत्व ) है 


कार्मिक तल पे  हम सबका जुड़ाव् निम्न सांकेतिक रूप से  कुछ ऐसा है  एक दूसरे से समाज रूप से जुड़े तथा  मानव रूप में   कर्मबन्ध सहयोगी है  समस्त पृथ्वी के स्वास्थ  के  लिए सामान रूप से  उत्तरदायी है।  

 पृथ्वी के तल  पे हमारा तरंगित संपर्क निम्न चित्र के अनुसार  सांकेतिक  कुछ ऐसा है , इसमें  ऊर्जा पदार्थ दोनों सम्मलित है , पदार्थ रूप में  कार्मिक सहयोग  और उर्जारूप में तरंगित स्वयात्रा  और सहयोग 



जन्म लेते ही  शीघ्र  जो शिक्षा  जीव  पाता है ;  वो  है पदार्थ और ऊर्जा  दो तत्वों के मेल का  प्रथम अनुभव  माँ की गोद और उसका स्वयं का प्रथम धरती से संपर्क , और होश सँभालते ही पठन-पाठन शुरू हो जाता है इस भाव  के साथ की अब हमें  ये कक्षा पास करनी है  इसलिए शब्दों   को कंठस्थ  करना है  और वैसा का वैसा  कागज पे उतार  के  दिमाग खाली करना है ,दिमाग की सीमा है और  भारवहन की भी और फिर अभी रटने को  बहुत विषय  बाकी  है , साल दर  साल  यही माध्यम होते होते,कुछ बीज ज्ञान के रूप में बैठ जाते है , और हम समूह में बुद्धिमान बन जाते है , यानि  की सूचनाये  ज्ञान  के रूप में   स्थापित हो चली। किन्तु अनुभव से  दूर दूर तक परिचय नहीं। ज्यादातर ज्ञानी समुदाय  ऐसे ही है,शब्दों के समूह , शब्द ही फेंकते है।  किन्तु इसका भी प्रथम परिचय तब ही हो पता  है जब स्वयं चेतना शब्दों के प्रभाव से बाहर हो जाती है,साक्षी  भाव को समझ लेती है ,  उसके पहले  मस्तिष्क भयंकर युद्ध करता है  अपने अस्तित्व को सुरक्षित करने के लिए।  ये युद्ध स्वयं से भी और बाहरी दुनिया से भी सामान रूप से होता है और दोनों ही जगह  मस्तिष्क अस्तित्व सुरक्षा के लिए प्रयासरत रहता है ।  किन्तु  चेतना अंतर्गम्य  ध्यान द्वारा निरंतर अथक प्रयास द्वारा  इस बाह्य और अंतर्जगत का भेद कर पाती  है। तो अगला चरण  उसका  पदार्थ जगत  और ऊर्जा जगत को समझने का होता है।   बाह्य दृष्टि और अंतरदृष्टि यहाँ चेतना की स्पष्ट है। अंतर्दृष्टि के विकास के साथ  सम्पूर्ण  ऊर्जा और पदार्थ न सिर्फ स्पष्ट होते है, वरन सम्बन्ध भी स्पष्ट होता है। फिर नन्हे फूल से भी  सम्बन्ध है और चाँद सूरज से भी , पत्थर भी सजीव है और समस्त सृष्टि प्रयोजन युक्त है ।  और इस अवस्था में हर समय शब्द सञ्चालन अभिव्यक्ति के लिए शब्द सहयोग मात्र चिड़ियों का शोर बन जाता है।  मौन वार्ता सुखद अनुभव वार्ता । विकास की इस अवस्था में चेतना  ध्यान द्वारा आत्मभ्रमण  करने में समर्थ हो जाती है।  यानी दूसरे तल पे विचर सकती है। इसी अभ्यास में चलते चलते।  एक पल ऐसा भी आता है , न सिर्फ  पदार्थ  और ऊर्जा  के ही साक्षी  अपितु  ऊर्जा और चेतना  के भी साक्षी बन जाते है। इसी को तल का स्पर्श कहते है , पहला तल  पदार्थ जगत का  है जो  पदार्थ  और  चेतना में भेद  बताता है , दूसरा तल  जो चेतना जगत का है जो चेतन और अचेतन के अंतर को स्पष्ट करता है।  तीसरा तल  वो है जब इन पदार्थ  और चेतना  दोनों के साक्षी बन जाते है तो तीसरे तल का स्पर्श संभव  होता है।


मजे की बात ये की हर तल पे जीव स्वयं को सुरक्षित और पूर्ण  समझता है , जो वस्तुतः  "है भी"  वो उस घेरे का पूर्ण सच है , इसी कारन  जो व्यक्ति जहाँ जिस तल पे भी  है  उसी में वो सुरक्षित  महसूस करता है, उसके समग्र मानसिक और शारीरिक प्रयास  स्वयं को स्थापित करने के उसकी सत्यता  को कहते है, प्रथम वो स्वयं को सत्य  मानता है  और फिर वो बाह्य जगत को भी  यही मनवाना चाहता है , जो संभवतः  उसके प्रयास ही है और मात्र उसी एक के नहीं, ऐसे ही प्रयासों में ( सृष्टि की साजिश  )समस्त  मानव चेतना  या और बृहत् समझे तो  समस्त जीव जगत  शामिल है  ।  दृष्टि विकास के साथ ये भी स्पष्ट होता है  की हमारी हर सोच और हर कृत्य उस बृहत् की तरफ ही इशारा है।  हम ही क्यों प्रकृति का एक एक गुण  , नियम  और  प्रभाव  जो दिखता है  या जो भासित है  , उसी बृहत्तम  की तरफ मात्र कदम है।



कल्पना कीजिये , एक नन्हा बिंदु अस्तित्व  अपने सम्पूर्ण घेरे में है , जो निश्चित  ठीक ठीक  गोल परिधि  बनाता है पूरी पूर्णता के साथ।  किन्तु उससे भी  बड़े बिंदु जिनके अंदर उसका अस्तित्व है उसके घेरे से बाहर है  और  जिनके अंदर ही इस जैसी असंख्य नन्हे बिंदु  का अस्तित्व है । ब्रह्माण्ड की बात से  पूर्व यदि मात्र  धरती की बात करें  तो   स्वयं में धरती गोल घेरा बनाती है इस संसार में हर छोटा कण अपनी परिधि बनता है , निर्माण  अाकार  कुछ भी हो सकता है, दृश्य कितने भी हो सकते है किन्तु मूल में  असंख्य  गोल गोल कणो  का आपस में जुड़ना ही है। यही जब अनुभव प्रभाव का घेरा भासित ज्ञान कद के साथ  विस्तृत होता जाता है , दृश्य दृष्टा को  अलग करता है , किन्तु हर घेरा  दृश्य और दृष्टा समेत अपनी  ठीक ठीक पूर्ण  गोल परिधि ही बनता है । यही घेरा अथवा परिधि और  बिंदु  का अनुभव  साक्षी के साथ  और गहरा और बड़ा  होता जाता है , दृश्य  दृष्टा  विस्तृत  और विशाल होते जाते है घेरे संकीर्ण से   विशालता की ओर  फैलते जाते है  किन्तु  विशिष्ट  परिधि में । जो सौरमंडल को  ब्रह्माण्ड को  भेदता  सीधा अपने केंद्र से जुड़ता है। यही अनुभव  कभी कभी संवेदनशीलता के अनुसार  एक पल में होता है तो कभी वर्षों भी लग सकते है। इस संवेदनशीलता  के विकास से  दो तीन गुण  स्पष्ट दीखते है , प्रकृति के साथ  तादात्म् जिस कारन दिव्य आभार  का जन्म होता है  और  दिव्य करुणा , जो सभी जीवो के कष्ट को अनुभव कर सकता है। वो स्वयं की अनैतिक कार्य में संलग्न नहीं हो सकता।


अब हम यहाँ से मूल विषय को पुनः पकड़ते  है  वो  ऐसा तल  जहाँ से ; पदार्थ का एक तल - चेतना  बीच का पुल है  और ऊर्जा  केंद्र शक्ति का दूसरा तल।  , यद्यपि  ये तल  के संयोग ही  जीव के कर्म का आधार बनते है जिसको हम सामान्य अर्थ में   जन्म  कहते  है  और  निश्चित अवधि पूरी होने लगती है  तो उसे मृत्यु कहते है।  ये सत्य है  की  हर जन्म  स्वयं अनोखा  है अपने को दोहराता नहीं।  हर जन्म  विलक्षण  और प्रकर्ति की गुणवत्ता  को कहता है।  ऊर्जा और पदार्थ का संयोग  जन्म है।  चाहे वो  वृक्ष  हो  चट्टान हो  या हिलने डुलने वाले जीव। तपस्वी  वृक्ष के बाद मनुष्य उत्तम है  क्यूंकि वो अपने स्थान से ऊर्ध्वगमन की सम्भावना को  समेटे है।  मनुष्य को   सहज  है थोड़े से प्रयास से , वस्तुतः किसी भी अन्य जीव को भी ये अनुभव हो सकता है , प्रारब्ध से।  किन्तु मनुष्य प्रारब्ध और कर्म का अद्भुत संयोग है जो भूत  से  सीख लेता हुआ भविष्य के विकास की नीव भी रखता है । प्रकृति अनावश्यक स्वयं छोड़ती जाती है , और जो है वो सकारण।

ये भी एक अद्भुत संयोग है  की प्रकृति में हर रूप में  दो ही स्थ्तिया होती है  एक पदार्थ की  और एक ऊर्जा की , किन्तु महत्वपूर्ण ये है  ज्ञान  के विकास के साथ दृष्टा  और दृश्य  के बीच अन्तर्सम्बन्ध अलग अलग तल पे अलग अलग  दिखाई देता है।  प्रथम परिचय  में  पदार्थ  का भाव ज्यादा  सघन होता है  ऊर्जा को स्वयं का पता यही नहीं होता।  किन्तु प्रारब्ध और कर्म के मेल से  ज्ञान का विकास होते होते   ऊर्जा और पदार्थ एक दूसरे से  परिचित होने लगते है।  आहिस्ता से  पदार्थ  की सघनता कमजोर पड़ने लगती है  और ऊर्जा की  शक्ति प्रखर होने लगती है।  और ये अवस्था चैतन्य  की अवस्था है।  जो ऊर्जा और पदार्थ दोनों को देख रहा है। बृहत्तम  अर्थ में साक्षित्व का अर्थ समझ के साधने के बाद  चेतना स्पष्ट दो तल  देखती है , पहला पदार्थमय जगत और  दूसरा ऊर्जाजगत   यह भी  द्वित  की स्थति है   अभी भी चेतना  विषय को बाँट रही है , यद्यपि मार्ग सही है।

अगले विकास क्रम में  चैतन्य  ऊर्जा  और अद्वैत में तारतम्य  पा लेता है पदार्थ  का स्थान  यही  स्थूल जगत में रह जाता है।  ऊर्जा  और अद्वैत के  एक होते ही  चेतना  भी लुप्त हो जाती है।  फिर साक्षी को भी समाप्त होना ही है , चेतना के विकास की ये अंतिम  अवस्था  है , जब चेतना स्वयं की साक्षी होने लगती है। यहाँ पे  इस अवस्था में अचेतन का अनुभव होने लगता है , केंद्र का अस्तित्व  आभासित होता है। असंख्य ऊर्जा पदार्थ के घेरे  स्पष्ट  दिखने लगते है।   और घेरो के भी अंदर  घेरे  सूक्ष्मतम घेरा  अणु  परमाणु   और बृहत्तम यानि केंद्र  स्पष्ट होता है।   अगर  कम से कम शब्दों में  इस अवस्था को कहना चाहे  तो द्वैत से अद्वैत  की यात्रा है।   और  सबसे ज्यादा मजेदार   बात यह है की , चाहे वो न्यूनतम बिंदु की अनुभव अवस्था हो , या बृहत्तम  केंद्र की  शून्यावस्था।  ये केंद्र अपनी पूर्ण पवित्रता के साथ  एक एक अणु  और एक एक परमाणु में  अपने पूर्ण स्वरुप के साथ वास करता है।  यही वो स्थिति  है  जो कहती है की हर जीव सीधा  अपने केंद्र से जुड़ा है , और जिस पल चाहे यही का यहीं अनुभव कर सकता है ।

वस्तुतः यह अद्वैत  चरम अनुभव है , इस तल तक  पहुँचने से पूर्व समस्त  पदार्थ जनित  दोष गुण , कर्म प्रभाव , अच्छा बुरा जैसे  विचलित करने वाली स्थतियां  पूर्णतः स्पष्ट होती जाती  है।  और ये भी की , पृथ्वी पे  जो भी मनुष्य की मानसिक क्रिया से भरे कृत्य है  वे  कही  धरती पे ही रेगंते  नजर आते है।  इस तल पे उनका प्रभाव नहीं।  फिर धर्म राजनीती  समाज  बहुत छोटे है।  जो धरती पे भी  छोटे ही है।  टुकड़ो में बनते हुए , टुकड़ो में बिखरे।

अध्यात्म  एक उपलब्धि नहीं , पदवी नहीं , स्पष्ट यात्रा है , अंतर्जगत की बृहत्तम यात्रा। सबसे  नजदीकी  हृदयप्रदेश  की दूरस्थ यात्रा। और इस धरती पे जन्मे  हर जीव की यात्रा है।  जिनको  हम  स्वामी या गुरु कहते है  उनकी भी यात्रा है । जिनको हम अवतार  कहते है उनकी भी यात्रा उसी केंद्र की तरफ है ,   सभी यात्रा में है।  संपर्क में आना  विशेष प्रयोजन के अंतर्गत है  और अलग हो जाना भी एक प्रयोजन के अंतर्गत।  यही यात्रा है , एक पड़ाव  और अगला पड़ाव कर कर के यात्री आगे बढ़ते रहते है।  वस्तुतः  चरम उपलब्धि में  शुन्य हो जाते है। वह कुछ है ही नहीं द्वैत जैसा।  समस्त  उपलब्धियां और पड़ाव मात्र  द्वैत का हिस्सा है।  अद्वैत  पूर्ण है।

अद्वैत स्वयं में पूर्ण है।  

सत  चित  आनंद 



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