Thursday, 30 October 2014

मूर्च्छा से परम जागरण (Osho on Puran )

Below this is ; The story is from Puran , Narad-Moh-Bhang ( Illusion Break of Narada ) , a very popular hindi scripture , embraces many short meaningful stories , many diamonds are there in hidden form.

On of Narad's many requests to get introduced of Lord's Maaya . Vishnu says to narad go and take bath in front of river , and as Narad take bath and come up , sudden all scene get different , just alike Dream , but realistic .. character get changed , here is narad is shishya feel and guru (vishnu ) is sit in front of him ... than he came closer and ask to guru with folded hands , i am coming to take shower as demonstrated by you , pl show me how is world .. read next :-

पुरानी कथा है:-

एक युवा संन्यासी ने अपने गुरु
को पूछा, यह संसार है क्या? गुरु ने कहा, तू
ऐसा कर, तू आज गांव में जा, फला—फलां द्वार
पर भिक्षा मांग लेना। लौट कर जब आएगा तब
संसार क्या है, बता दूंगा। युवक तो भागा।
ऐसी शुभ घड़ी ठग गई कि गुरु ने कहा कि संसार
क्या है, बता दूंगा। तू भिक्षा मांग ला।उसने
जाकर द्वार पर दस्तक दी। एक सुंदर युवती ने
द्वार खोला। अति सुंदर यूवती थी। युवक ने
ऐसी सुंदर स्त्री कभी देखी न थी। उसका मन
मोह गया। वह यह तो भूल ही गया कि गुरु के
लिए भिक्षा मांगने आया था, गुरु भूखे बैठे होंगे।
उसने तो युवती से विवाह का आग्रह कर
लिया। उन दिनों ब्राह्मण किसी से विवाह
का आग्रह करे तो कोई मना कर
नहीं सकता था। युवती ने कहा,मेरे पिता आते
होंगे। वे खेत पर काम करने गए हैं। हो सकेगा। घर में
आओ, विश्राम करो।वह घर में आ गया। वह
विश्राम करने लगा। पिता आ गए, विवाह
हो गया। वो गुरु की तो बात ही भूल गया।
वह भिक्षा मांगने आया था, यह तो बात
ही भूल गया। उसके बच्चे हो गए,तीन बच्चे
हो गए। फिर गाव में बाढ़ आई, नदी पूर चढ़ी।’
सारा गांव डूबने लगा। वह भी अपने तीन
बच्चों को और अपनी पत्नी को लेकर भागने
की कोशिश कर रहा है। और नदी विकराल है।
और नदी किसी को छोड़ेगी नहीं। सब डूब गए
हैं, वह किसी तरह बचने की कोशिश कर रहा है।
एक बच्चे को बचाने की कोशिश में दो बच्चे बह
गए। इधर हाथ छूटा, दो बह गए।
पत्नी को बचाने। बच्चा भी बह गया। फिर
अपने को बचाने की ही पड़ी तो पत्नी भी बह
गई। किसी तरह खुद बच गया, किसी तरह लग
गया किनारे, लेकिन इस बुरी तरह थक
गया कि गिर पड़ा। बेहोश हो गया।

जब आंख खुली तो गुरु सामने खड़े थे। गुरु ने
कहा,देखा संसार क्या होता है? और तब उसे
याद आया कि वर्षों हो गए, तब मैं
भिक्षा मांगने निकला था। गुरु ने कहा, कुछ
भी नहीं हुआ है सिर्फ तेरी झपकी लग गई थी।
जरा आंख खोल कर देख। वह भिक्षा मांगने
भी नहीं गया था। सिर्फ झपकी लग गई थी।

वह गुरु के सामने ही बैठा था। कुछ
घटना घटी ही न थी। वह जो सुंदर युवती थी,
सपना थी। वे जो बच्चे हुए, सपने थे। वह जो बाढ़
आई,सपना थी। वे जो वर्ष पर वर्ष बीते, सब
सपना था। वह अभी गुरु के सामने ही बैठा था।
झपकी खा गया था।

दोपहर रही होगी,झपकी आ गई होगी।

तुम यहां बैठे—
बैठे कभी झपकी खा जाते हो। तुम जरा सोचो,
तब एक क्षण की झपकी में यह पूरा सपना घट
सकता है।

क्यों? क्योंकि जागते का समय और
सोने का समय एक ही नहीं है। एक क्षण में बडे से
बड़ा सपना घट सकता है। कोई बाधा नहीं है।
तुमने कभी अनुभव भी किया होगा, अपनी टेबल
पर बैठे झपकी खा गए। झपकी खाने के पहले
ही घड़ी देखी थी दीवाल पर,बारह बजे थे।
लंबा सपना देख लिया। सपने में वर्षों बीत गए।
कैलेंडर के पन्ने फटते गए, उड़ते गए। आंख खुली, एक मिनट
सरका है कांटा घड़ी पर और तुमने
वर्षों का सपना देख लिया।

अगर तुम अपना पूरा सपना कहना भी चाहो
तो घंटों लग जाएं। मगर देख लिया।स्वप्न का समय जागते के
समय से अलग है। समय सापेक्ष है। अलबर्ट आइंस्टीन ने
तो इस सदी में सिद्ध किया कि समय सापेक्ष
है, पूरब में हम सदा से जानते रहे हैं, समय सापेक्ष है।

जब तुम सुख में होते हो तो समय
जल्दी जाता मालूम पड़ता है। जब तुम दुख में होते
हो तो समय धीमे— धीमे जाता मालूम
पड़ता है। जब तुम परम आनंद में होते हो तो समय
ऐसा निकल जाता है कि जैसे वर्षों क्षण में बीत
गए। जब तुम महादुख में होते
हो तो वर्षों की तो बात दूर, क्षण
भी ऐसा लगता है कि वर्षों लग रहे हैं और बीत
नहीं रहा, अटका है। फांसी लगी है।समय
सापेक्ष है। दिन में एक, रात दूसरा। जागते में एक,
सोते में दूसरा।

और महाज्ञानी कहते हैं कि जब
तुम्हारा परम जागरण घटेगा तो समय
होता ही नहीं। कालातीत! समय के तुम बाहर
हो जाते हो।सपना देखने के लिए नींद जरूरी है,
संसार देखने के लिए अज्ञान जरूरी है।
तो अज्ञान एक तरह की निद्रा है, एक तरह
की मूर्च्छा है, जिसमें तुम्हें यह
पता नहीं चलता कि तुम कौन हो।

नींद का और क्या अर्थ होता है? नींद में तुम
यही तो भूल जाते हो न कि तुम कौन हो? हिंदू
कि मुसलमान, स्त्री कि पुरुष, बाप
कि बेटे,गरीब कि अमीर, सुंदर कि कुरूप, पढ़े—
लिखे कि गैर—पढ़े लिखे—यही तो भूल जाते
हो न नींद में कि तुम कौन हो।मूर्च्छा में
भी और गहरे तल से हम भूल गए हैं कि हम कौन हैं।

portion taken from The Osho's ~ Astravakramahageeta

(hindi) किताब ए मीरदाद-अध्याय - 35 / 36 /37

अध्याय-35
    परमात्मा की राह पर
          हर मार्ग प्रकाश से भर दिया जाएगा         
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   परमात्मा की राह पर प्रकाश-कण
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मीरदाद; इस रात के सन्नाटे में मीरदाद परमात्मा परमात्मा की ओर जानेवाली राह पर कुछ प्रकाश-कण विखेरना चाहता है ।
विवाद से बचो सत्य स्वयं प्रमाणित है; उसे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। जिसे तर्क और प्रमाण कि आवश्यकता होती है,
उसे देर-सवेर तर्क और प्रमाण के द्वारा ही गिरा दिया जाता है। किसी बात को सिद्ध करना उसके प्रतिपक्ष को खंडित करना है। उसके प्रतिपक्ष को सिद्ध करना उसका खंडन करना है। परमात्मा का कोई प्रतिपक्ष है ही नहीं फिर तुम कैसे उसे सिद्ध करोगे या कैसे उसका खंडन करोगे ?
यदि जिव्हा को सत्य का वाहक बनाना चाहते हो तो उसे कभी मूसल, विषदंत, वातसूचक ,कलाबाज या सफाई करनेवाला नहीं बनाना चाहिए। बेजबानों को राहत देने के लिये बोलो। अपने आप को राहत देने के लिये मौन रहो। शब्द जहाज हैं जो स्थान के समुद्रों में चलते हैं।
और अनेक बंदरगाहों पर रुकते हैं। सावधान रहो कि तुम उनमे क्या लादते हो; क्योंकि अपनी यात्रा समाप्त करने के बाद वे अपना माल आखिर तुहारे द्वार पर ही उतारेंगे। घर के लिए जो महत्वज झाड़ू का है, वही महत्व ह्रदय के लिए आत्म-निरीक्षण का है।
अपने ह्रदय को अच्छी तरह बुहारो। अच्छी तरह बुहारा गया ह्रदय एक अजेय गुर्ग है।जैसे तुम लोगों और पदार्थों को अपना आहार बनाते हो, वैसे ही वे तुम्हे अपना आहार बनाते हैं। यदि तुम चाहते हो कि तुम्हे विष न मिले, तो दूसरों के लिए स्वास्थ्य-प्रद भोजन बनो। जब तुम्हे अगले कदम के विषय में संदेह हो, निश्छल खड़े रहो।
जिसे तुम नापसंद करते हो वह तुम्हे नापसंद करता है, उसे पसंद करो और ज्यों का त्यों रहने दो। इस प्रकार तुम अपने रास्ते से एक बाधा हटा दोगे। सबसे अधिक असह्य परेशानी है किसी बात को परेशानी समझना। अपनी पसंद का चुनाव कर लो; हर वस्तु स्वामी बनना है या किसी का भी नहीं। बीच का कोई मार्ग सम्भव नहीं। रास्ते का हर रोड़ा एक चेतावनी है।
चेतावनी को अच्छी तरह पढ़ लो, और रास्ते का रोड़ा प्रकाश स्तम्भ बन जायेगा। सीधा टेढ़े का भाई है। एक छोटा रास्ता है दूसरा घुमावदार। टेढ़े के प्रति धैर्य रखो। विश्वास-युक्त धैर्य स्वास्थ्य है। विश्वास-रहित धैर्य अर्धांग है।होना, महसूस करना, सोचना, कल्पना करना, जानना –यह हैं मनुष्य के जीवन-चक्र के मुख्य पड़ावों का क्रम। प्रशंसा करने और पाने से बचो;
जब प्रशंसा सर्वथा निश्छल और उचित हो तब भी। जहाँ तक चापलूसी का सम्बन्ध है, उसकी कपटपूर्ण कसमों के प्रति गूँगे और बहरे बन जाओ । देने का एहसास रखते हुए कुछ भी देना उधार लेना ही है। वास्तव में तुम ऐसा कुछ भी नहीं दे जो तुम्हारा है।
तुम लोगों को केवल वाही देते हो जो तुम्हारे पास उनकी अमानत है। जो तुम्हारा है, सिर्फ तुम्हारा ही, वह तुम दे नहीं सकते चाहो तो भी नहीं। अपना संतुलन बनाये रखो, और तुम मनुष्यों के लिए अपने आपको नापने का मापदण्ड और तौलने की तराजू बन जाओ।
गरीबी और अमीरी नाम की कोई चीज नहीं है, बात वस्तुओं का उपयोग करने के कौशल की हैअसल में गरीब वह है जो उन वस्तुओं का जो उसके पास हैं गलत उपयोग करता है। अमीर वह है जो अपनी वस्तुओं का सही उपयोग करता है।
बासी रोटी की सूखी पपड़ी भी ऐसी दौलत हो सकती है जिसे आंका न जा सके। सोने से भरा तहखाना भी ऐसी गरीबी हो सकता है जिससे छुटकारा न मिल सके। जहाँ बहुत से रास्ते एक केंद्र में मिलते हों वहाँ इस अनिश्चय में मत पड़ो कि किस रस्ते से चला जाये।
प्रभु की खोज में लगे ह्रदय को सभी रास्ते प्रभु की ओर लेजा रहे हैं। जीवन के सब रूपों के प्रति आदर-भाव रखो। सबसे तुच्छ रूप में सबसे अधिक महत्त्वपूर्णरूप की कुंजी छुपी छिपी रहती है।
जीवन की सब कृतियाँ महत्वपूर्ण हैं —हाँ, अद्भुत,श्रेष्ठ और अद्वितीय। जीवन अपने आपको निरर्थक, तुच्छ कामों में नहीं लगाता।
प्रकृति के कारखाने में कोई वस्तु तभी बनती है जब वह प्रकृति की प्रेमपूर्ण देखभाल और श्रमपूर्ण कौशल की अधिकारी हो। तो क्या वह कम से कम तुम्हारे आदर कि अधिकारी नहीं होनी चाहिए ?
यदि मच्छर और चींटियाँ आदर के योग्य हों, तो तुम्हारे साथी मनुष्य उनसे कितने अधिक आदर के योग्य होने चाहियें ? किसी मनुष्य से घृणा न करो। एक भी मनुष्य से घृणा करने की अपेक्षा प्रत्येक मनुष्य से घृणा पाना कहीं अच्छा है।
क्योंकि किसी मनुष्य से घृणा करना उसके अंदर के लघु-परमात्मा से घृणा करना है। किसी भी मनुष्य के अंदर लघु-परमात्मा से घृणा करना अपने अंदर के लघु-परमात्मा से घृणा करना है।
वह व्यक्ति भला अपने बंदरगाह तक कैसे पहुँचेगा जो बंदरगाह तक ले जाने वाले अपने एकमात्र मल्लाह का अनादर करता हो ?नीचे क्या है, यह जानने के लिये ऊपर दृष्टी डालो। ऊपर क्या है, यह जानने के लिये नीचे दृष्टी डालो। जितना ऊपर चढ़ते हो उतना ही नीचे उतरो; नहीं तो तुम अपना संतुलन खो बैठोगे।
आज तुम शिष्य हो। कल तुम शिक्षक बन जाओगे। अच्छे शिक्षक बनने के लिये अच्छे शिष्य बने रहना आवश्यक है। संसार में से बदी के घांस-पात को उखाड़ फेंकने का यत्न न करो; क्योंकि घास-पात की भी अच्छी खाद बनती है।
उत्साह का अनुचित प्रयोग बहुधा उत्साही को ही मार डालता है। केवल ऊँचे और शानदार वृक्षों से ही जंगल नहीं बन जाता; झाड़ियां और लिपटती लताओं की भी आवश्यकता होती है।
पाखण्ड पर पर्दा डाला जा सकता है,लेकिन कुछ समय के लिए ही;उसे सदा ही परदे में नहीं रखा जा सकता, न ही उसे हटाया या नष्ट किया जा सकता है। दूषित वासनाएँ अंधकार में जन्म लेती हैं और वहीँ फलती-फूलती हैं। यदि तुम उन्हें नियंत्रण में रखना चाहते हो तो उन्हें प्रकाश में आने की स्वतन्त्रता दो।
यदि तुम हजार पाखण्डियों में से एक को भी सहज ईमानदारी की राह पर वापस लाने में सफल हो हो जाते हो तो सचमुच महान है तुम्हारी सफलता। मशाल को ऊँचे स्थान पर रखो, और उसे देखने के लिये लोगों को बुलाते न फिरो जिन्हे प्रकाश कि आवश्यकता है उन्हें किसी निमंत्रण की आवश्यकता नहीं होती।
बुद्धिमत्ता अधूरी बुद्धि वाले के लिये बोझ है, जैसे मूर्खता मुर्ख के लिये बोझ है। बोझ उठाने में अधूरी बुद्धि वाले कि सहायता करो और मूर्ख को अकेला छोड़ दो; अधूरी बुद्धि वाला मुर्ख को तुमसे अधिक सिखा सकता है।
कई बार तुम्हे अपना मार्ग दुर्गम,अंधकारपूर्ण और एकाकी लगेगा। अपना इरादा पक्का रखो और हिम्मत के साथ कदम बढ़ाते जाओ; और हर मोड़ पर तुम्हे एक नया साथी मिल जायेगा। पथ-विहीन स्थान में ऐसा कोई पथ नहीं जिस पर अभी तक कोई न चला हो।
जिस पथ पर पद-चिन्ह बहुत कम और दूर-दूर हैं, वह सीधा और सुरक्षित है, चाहे कहीं-कहीं उबड़-खाबड़ और सुनसान है। जो मार्गदर्शन चाहते हैं उन्हें मार्ग दिखा सकते है, उस पर चलने के लिए विवश नहीं कर सकते। याद रखो तुम मार्गदर्शक हो। अच्छा मार्गदर्शक बनने के लिये आवश्यक है कि स्वयं अच्छा मार्गदर्शन पाया हो। अपने मार्गदर्शक पर विश्वास रखो।
कई लोग तुमसे कहेंगे, ”हमें रास्ता दिखाओ।” किन्तु थोड़े ही बहुत ही थोड़े कहेंगे, ”हम तुमसे विनती करते हैं कि रास्ते में हमारी रहनुमाई करो”।आत्म-विजय के मार्ग में वे थोड़े- से लोग उन कई लोगों से अधिक महत्त्व रखते हैं। तुम जहाँ चल न सको रेंगो।
जहाँ दौड़ न सको, चलो; जहाँ उड़ न सको, दौड़ो; जहाँ समूचे विश्व को अपने अंदर रोक कर खड़ा न कर सको,उड़ो। जो व्यक्ति तुम्हारी अगुआई में चलते हुए ठोकर खाता है उसे केवल एक बार, दो बार या सौ बार ही नहीं उठाओ।
याद रखो कि तुम भी कभी बच्चे थे, और उसे तब तक उठाते रहो जब तक वह ठोकर खाना बन्द न कर दे। अपने ह्रदय और मन को क्षमा से पवित्र कर लो ताकि जो भी सपने तुम्हे आयें वे पवित्र हों।
जीवन एक ज्वर है जो हर मनुष्य कि प्रवृति या धुन के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार का और भिन्न-भिन्न मात्रा में होता है; और इसमें मनुष्य सदा प्रलाप की अवस्था में रहता है।
भाग्यशाली हैं वे मनुष्य जो दिव्य ज्ञान से प्राप्त होने वाली पवित्र स्वतंत्रता के नशे में उन्मत्त रहते हैं। मनुष्य के ज्वर का रूप-परिवर्तन किया जा सकता है; युद्ध के ज्वर को शान्ति के ज्वर में बदला जा सकता है
और धन-संचय के ज्वर को प्रेम का संचय करने के ज्वर में। ऐसी है दिव्य ज्ञान की वह रसायन-विद्या जिसे तुम्हे उपयोग में लाना है और जिसकी तुम्हे शिक्षा देनी है। जो मर रहे हैं उन्हें जीवन का उपदेश दो,
जो जी रहे हैं उन्हें मृत्यु का। किन्तु जो आत्म विजय के लिए तड़प रहे हैं, उन्हें दोनों से मुक्ति का उपदेश दो।वश में रखने और वश में होने में बड़ा अंतर है। तुम उसी को वश में रखते हो जिससे तुम प्यार करते हो।
जिससे तुम घृणा करते हो, उसके तुम वश में होते हो। वश में होने से बचो। समय और स्थान के विस्तार में एक से अधिक पृथ्वियाँ अपने पथ पर घूम रहीं हैं। तुम्हारी पृथ्वी इस परिवार में सबसे छोटी है, और यह बड़ी हृष्ट-पुष्ट बालिका है। एक निश्चल गति—–कैसा विरोधाभास है।
किन्तु परमात्मा में संसारों की गति ऐसी ही है।यदि तुम जानना चाहते हो कि छोटी-बड़ी वस्तुएँ बराबर कैसे हो सकती हैं तो अपने हाथों की अँगुलियों पर दृष्टी डालो। संयोग बुद्धिमानों के हाथ में एक खिलौना है; मुर्ख संयोग के हाथ में खिलौना होते हैं। कभी किसी चीज की शिकायत न करो।
किसी चीज की शिकायत करना उसे अपने आपके लिये अभिशाप बना लेना है। उसे भली प्रकार सहन कर लेना उसे उचित दण्ड देना है। किन्तु उसे समझ लेना उसे एक सच्चा सेवक बना लेना है।
प्रायः ऐसा होता है कि शिकारी लक्ष्य किसी हिरनी को बनाता है परन्तु लक्ष्य चुकने से मारा जाता है कोई खरगोश जिसकी उपस्थिति का उसे बिलकुल ज्ञान न था। ऐसी स्थिति में एक समझदार शिकारी कहेगा, ”मैंने वास्तव में खरगोश को ही लक्ष्य बनाया था, हिरनी को नहीं। और मैंने अपना शिकार मार लिया। ”लक्ष्य अच्छी तरह से साधो।
परिणाम जो भी हो अच्छा ही होगा। जो तुम्हे पास आ जाता है, वह तुम्हारा है। जो आने में विलम्ब करता है, वह इस योग्य नहीं कि उसकी प्रतीक्षा की जाये। प्रतीक्षा उसे करने दो।जिसका निशाना तुम साधते हो यदि वह तुम्हे निशाना बना ले तो तुम निशाना कभी नहीं चूकोगे चूका हुआ निशाना सफल निशाना होता है। अपने ह्रदय को निराशा के सामने अभेद्य बना लो।
निराशा वह चील है जिसे दुर्बल ह्रदय जन्म देते हैं और विफल आशाओं के सड़े-गले मांस पर पालते हैं। एक पूर्ण हुई आशा कई मृत-जात आशाओं को जन्म देती है। यदि तुम अपने ह्रदय को कब्रिस्तान नहीं बनाना चाहते तो सावधान रहो, आशा के साथ उसका विवाह मत करो।
हो सकता है किसी मछली के दिए सौ अण्डों में से केवल एक में से बच्चा निकले। तो भी बाकी निन्यानवे व्यर्थ नहीं जाते। प्रकृति बहुत उदार है, और बहुत विवेक है उसकी विवेकहीनता में।
तुम भी लोगों के ह्रदय और बुद्धि में अपने ह्रदय और बुद्धि को बोने में उसी प्रकार उदार और विवेकपूर्वक विवेकहीन बनो। किसी भी परिश्रम के लिए पुरस्कार मत माँगो। जो अपने परिश्रम से प्यार करता है,
उसका परिश्रम स्वयं पर्याप्त पुरस्कार है।
सृजनहार शब्द तथा पूर्ण संतुलन को याद रखो। जब तुम दिव्य ज्ञान के द्वारा यह संतुलन प्राप्त कर लोगे तभी तुम आत्म-विजेता बनोगे, और तुम्हारे हाथ प्रभु के हाथों के साथ मिलकर कार्य करेंगे।
परमात्मा करे इस रात्रि की नीरवता और शान्ति का स्पन्दन तुम्हारे अंदर तब तक होता रहे जब तक तुम उन्हें दिव्य ज्ञान की नीरवता और शान्ति में डुबा न दो।
यही शिक्षा थी मेरी नूह को।
यही शिक्षा है मेरी तुम्हें।
अध्याय-36
नौका-दिवस तथा उसके धार्मिक अनुष्ठान
जीवित दीपक के बारे में बेसार
के सुलतान का सन्देश
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नरौंदा ; जबसे मुर्शिद बेसार से लौटे से लौटे तब से शमदाम उदास और अलग-अलग सा रहता था। किन्तु जब नौका- दिवस निकट आ गया तो वह उल्लास तथा उत्साह से भर गया और सभी जटिल तैयारियों का छोटी से छोटी बातों तक का,
नियंत्रण उसने स्वयं संभल लिया।
अंगूर-बेल के दिवस की तरह नौका-दिवस को भी एक दिन से बढ़ाकर उल्लास- भरे आमोद-प्रमोद का पूरा सप्ताह बना लिया गया था जिसमे सब प्रकार की वस्तुओं तथा सामान का तेजी के साथ व्यापार होता है।
इस दिन के अनेक धार्मिक अनुष्ठानों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं; बलि चढ़ाये जाने वाले बैल का वध, बाली-कुण्ड की अग्नि को प्रज्वलित करना, और उस अग्नि से वेदी पर पुराने दीपक के स्थान पर नये दीपक को जलना। इस वर्ष दीपक भेंट करने के लिए बेसार के सुलतान को चुना गया था।
उत्सव के एक दिन पहले शमदाम ने हमें और मुर्शिद को अपने कक्ष में बुलाया और हमसे अधिक मुर्शिद को सम्बोधित करते हुए उसने ये शब्द कहे;शमदाम:> कल एक पवित्र-दिवस है ;
हम सभी को यही शोभा देता है कि उसकी पवित्रता को बनाये रखें। पिछले झगड़े कुछ भी रहे हों, आओ उन्हें हम यहीं और अभी दफना दें। यह नहीं होना चाहिए कि नौका की प्रगति धीमी पद जाये, या हमारे उत्साह में कोई कमी आ जाये। और परमात्मा न करे कि नौका ही रुक जाये। मैं इस नौका का मुखिया हूँ।
इसके संचालन का कठिन दायित्व मुझ पर है। इसका मार्ग निश्चित करने का अधिकार मुझे प्राप्त है। ये कर्तव्य और अधिकार मुझे विरासत में मिले हैं ; इसी प्रकार मेरी मृत्यु के बाद वे निश्चय ही तुममें से किसी को मिलेंगे। जैसे मैंने अपने अवसर की प्रतीक्षा की थी,
तुम भी अपने अवसर की प्रतीक्षा करो। यदि मैंने मीरदाद के साथ अन्याय किया है तो वह मेरे अन्याय को क्षमा कर दे।
मीरदाद : मीरदाद के साथ तुमने कोई अन्याय नहीं किया है लेकिन शमदाम के साथ तुमने घोर अन्याय किया है।
शमदाम : क्या शमदाम को शमदाम के साथ अन्याय करने की स्वतंत्रता नहीं है ?
मीरदाद : अन्याय करने की स्वतंत्रता ? कितने बेमोल हैं ये शब्द ! क्योंकि अपने साथ अन्याय करना भी अन्याय का दास बनना है; जबकि दूसरों के साथ अन्याय करना एक दास का दास बन जाना है। ओह, भारी होता है अन्याय का बोझ।
शमदाम; यदि मैं अपने अन्याय का बोझ उठाने को तैयार हूँ तो इसमें तुम्हारा क्या बिगड़ता है ?
मीरदाद : क्या कोई बीमार दांत मुँह से कहेगा कि कि यदि मैं अपनी पीड़ा सहने को तैयार हूँ तो इसमें तुम्हारा क्या बिगड़ता है ?
शमदाम : ओह, मुझे ऐसा ही रहने दो, बस ऐसा ही रहने दो। अपना भरी हाथ मुझसे दूर हटा लो, और मत मारो मुझे चाबुक अपनी चतुर जिव्हा से। मुझे अपने बाकी दिन वैसे ही जी लेने दो जैसे मैं अब तक परिश्रम करते हुए जीता आया हूँ। जाओ, अपनी नौका कहीं और बना लो, पर इस नौका में हस्तक्षेप न करो। तुम्हारे और मेरे लिए, तथा तुम्हारी  और मेरी नौकाओं के लिए यह संसार बहुत बड़ा है।
कल मेरा दिन है। तुम सब एक ओर खड़े रहो और मुझे अपना कार्य करने दो —
क्योंकि मैं तुममें से किसी का भी
हस्तक्षेप सहन नहीं करूँगा।
ध्यान रहे शमदाम का प्रतिशोध उतना ही भयानक है जितना परमात्मा का। सावधान ! सावधान !
मीरदाद ; शमदाम का ह्रदय अभी तक शमदाम का ही ह्रदय है।उस क्षण एक लम्बा और प्रभावशाली व्यक्ति, जो सफ़ेद वस्त्र पहने हुए था, धक्कम धक्का करते कठिनाई से अपना रास्ता बनाते हुए वेदी की ओर आता दिखाई दिया।
तत्काल दबी आवाज में कानों-कान बात फ़ैल गई कि यह बेसार के सुल्तान का निजी दूत है जो नया दीपक ले कर आया है ;
और सब लोग उस बहुमूल्य निधि की झलक पाने के लिए उत्सुक हो उठे। ओरों की तरह यह मानते हुए कि वह नए वर्ष की बहुमूल्य भेंट लेकर आया है शमदाम ने बहुत नीचे तक झुककर उस दूत को प्रणाम किया।
लेकिन उस व्यक्ति ने शमदाम को दबी आवाज से कुछ कहकर अपनी जेब से एक चर्म-पत्र निकला और, यह स्पष्ट कर देने के बाद कि इसमें बेसर के सुल्तान का सन्देश है
जिसे लोगों तक खुद पहुँचाने का
उसे आदेश दिया गया है,
वह पत्र पढ़ने लगा :”बेसार के भूतपूर्व सुलतान की ओर से आज के दिन नौका में एकत्रित दूधिया पर्वतमाला के अपने सब साथी मनुष्यों के लिए शांति-कामना और प्यार। नौका के प्रति गहरी श्रद्धा के आप सब प्रत्यक्ष साक्षी हैं।
इस वर्ष का दीपक भेंट करने का सम्मान मुझे प्राप्त हुआ था, इसलिए मैंने बुद्धि और धन का उपयोग करने में कोई संकोच नहीं किया ताकि मेरा उपहार नौका के योग्य हो। और मेरे प्रयास पूर्णतया सफल रहे; क्योंकि मेरे वैभव और मेरे शिल्पकारों के कौशल से जो दीपक तैयार हुआ, वह सचमुच एक देखने योग्य चमत्कार था।
‘लेकिन प्रभु मेरे लिए क्षमाशील और कृपालु था, वह मेरी दरिद्रता का भेद नहीं खोलना चाहता था। क्योंकि उसने मुझे एक ऐसे दीपक के पास पहुंचा दिया जिसका प्रकश चकाचौंध कर देता है और जिसे बुझाया नहीं जा सकता, जिसकी सुंदरता अनुपम और निष्कलंक है।
उस दीपक को देखकर मैं इस विचार से लज्जा में डूब गया कि मैंने अपने दीपक की कभी कोई कीमत समझी थी। सो मैंने उसे कूड़े के ढेर पर फेंक दिया।
‘यह वह जीवित दीपक है जिसे किसी के हाथों ने नहीं बनाया है। मैं तुम सबको हार्दिक सुझाव देता हूँ कि उसके दर्शन से अपने नेत्रों को तृप्त करो,
उसी की ज्योति से अपनी
मोमबत्तियों को जलाओ।
देखो वह तुम्हारी पहुँच में है।
उसका नाम है मीरदाद।
प्रभु करे कि तुम उसके प्रकाश के योग्य बनो। ”.
अध्याय  -37
       जो आत्म विजय के लिए तड़फ रहे है
       वह आए और नौका पर सवार हो जाए

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मुर्शिद लोगों कोआग और
खून की बाढ़ से सावधान करते हैं..
बचने का मार्ग बताते हैं,
औरअपनी नौका को जल में उतारते हैं
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मीरदाद : क्या चाहते हो तुम मीरदाद से ? वेदी को सजाने के लिए सोने का रत्न-जड़ित दीपक ?
परन्तु मीरदाद न सुनार है, न जौहरी, आलोक-स्तम्भ और आश्रय वह भले ही हो।
या तुम ताबीज चाहते हो बुरी नजर से बचने के लिये ? हाँ, ताबीज मीरदाद के पास बहुत हैं, परन्तु किसी और ही प्रकार के।
या तुम प्रकाश चाहते हो ताकि अपने-अपने पूर्व-निश्चित मार्ग पर सुरक्षित चल सको ?
कितनी विचित्र बात है। सूर्य है तुम्हारे पास, चन्द्र है, तारे हैं, फिर भी तुम्हे ठोकर खाने और गिरने का डर है ? तो फिर तुम्हारी आँखें तुम्हारा मार्गदर्शक बनने के योग्य नहीं हैं ; या तुम्हारी आँखों के लिए प्रकाश बहुत कम है। और तुममे से ऐसा कौन है जो अपनी आँखों के बिना काम चला सके ?
कौन है जो सूर्य पर कृपणता का दोष लगा सके ? वह आँख किस काम की जो पैर को तो अपने मार्ग पर ठोकर खाने से बचा ले,
लेकिन जब ह्रदय राह टटोलने का व्यर्थ प्रयास कर रहा हो तो उसे ठोकरें खाने के लिये और अपना रक्त बहाने के लिये छोड़ दे ?
वह प्रकाश किस काम का जो आँख को तो ज्यादा भर दे, लेकिन आत्मा को खाली और प्रकाशहीन छोड़ दे ? क्या चाहते हो तुम मीरदाद से ?
देखने की क्षमता रखनेवाला ह्रदय और प्रकश में नहाई आत्मा चाहते हो और उनके लिए व्याकुल हो रहे हो, तो तुम्हारी व्याकुलता व्यर्थ नहीं है।
क्योंकि मेरा सम्बन्ध मनुष्य की आत्मा और ह्रदय से है।इस दिन के लिए जो गौरवपूर्ण आत्म-विजय का दिन है, तुम उपहार-स्वरुप क्या लाये हो ?
बकरे, मेढ़े और बैल ? कितनी तुच्छ कीमत चुकाना चाहते हो तुम मुक्ति के लिये ! कितनी सस्ती होगी वह मुक्ति जिसे तुम खरीदना चाहते हो !किसी बकरे पर विजय पा लेना मनुष्य के लिए कोई गौरव की बात नहीं।
और गरीब बकरे के प्राण अपनी प्राण-रक्षा के लिए भेंट करना तो वास्तव में मनुष्य के लिये अत्यंत लज्जा की बात है। क्या किया है तुमने इस पवित्र-दिन की पवित्र भावना में योग देने के लिये,
जो प्रकट विश्वास और हर परख में सफल प्रेम का दिन है ? हाँ, निश्चय ही तुमने तरह-तरह की रस्में निभाई हैं, और अनेक प्रार्थनाएँ दोहराई हैं।
किन्तु संदेह तुम्हारी हर क्रिया के साथ रहा है, और घृणा तुम्हारी हर प्रार्थना पर ”तथास्तु”कहती रही है। क्या तुम जल-प्रलय का उत्सव मानाने के लिये नहीं आये हो ? पर तुम एक ऐसी विजय का उत्सव क्यों मानते हो जिसमे तुम पराजित हो गये ?
क्योंकि नूह ने अपने समुद्रों को पराजित करते समय तुम्हारे समुद्रों को पराजित नहीं किया था, केवल उन पर विजय पाने का मार्ग बताया था।
और देखो तुम्हारे समुद्र उफन रहे हैं और तुम्हारे जहाज को डुबाने पर तुले हुए हैं। जब तक तुम अपने तूफ़ान पर विजय नहीं पा लेते, तुम आज का दिन मानाने के योग्य नहीं हो सकते। तुममे से हर एक जल-प्रलय भी है,
नौका भी और केवट भी। और जब तक वह दिन नहीं आ जाता जब तुम अपनी किसी नहाई-सँवरी कुँआरी लंगर डाल लो, अपनी विजय का उत्सव मानाने की जल्दी न करना।तुम जानना चाहोगे कि मनुष्य अपने ही लिये बाढ़ कैसे बन गया।
जब पवित्र-प्रभु- इच्छा ने आदम को चीर कर दो कर दिया ताकि वह अपने आप को पहचाने और उस एक के साथ अपनी एकता का अनुभव कर सके,
तब वह एक पुरुष और एक स्त्री बन गया—एक नर-आदम और एक मादा-आदम। तभी डूब गया वह कामनाओं की बाढ़ में जो द्वैत से उत्पन्न होती हैं—कामनाएँ इतनी बहुसंख्य,
इतनी रंग-बिरंगी, इतनी विशाल, इतनी कलुषित और इतनी उर्वर कि मनुष्य आज तक उनकी लहरों में बेसहारा बह रहा है।
लहरें कभी उसे ऊंचाई के शिखर तक उठा देती हैं तो कभी गहराइयों तक खींच ले जाती हैं। क्योंकि जिस प्रकार उसका जोड़ा बना हुआ है, उसकी कामनाओं के भी जोड़े बने हुए हैं। और यद्यपि दो परस्पर विरोधी चीजें वास्तव में एक दूसरे की पूरक होती हैं, फिर भी अज्ञानी लोगों को वे आपस में लड़ती-झगड़ती प्रतीत होती हैं और क्षण भर के युद्ध-विराम की घोषणा करने के लिये तैयार नहीं जान पड़तीं।
यही है वह बाढ़ जिससे मनुष्य को अपने अत्यंत लम्बे, कठिन द्वैतपूर्ण जीवन में प्रतिक्षण, प्रतिदिन संघर्ष करना पड़ता है। यही है वह बाढ़ जिसकी जोरदार बौछार ह्रदय से फूट निकलती है और तुम्हे अपनी प्रबल धारा में बहा ले जाती है। यही है वह बाढ़ जिसका इंद्रधनुष तब तक तुम्हारे आकाश को शोभित नहीं करेगा जब तक तुम्हारा आकाश तुम्हारी धरती के साथ न जुड़ जाये और दोनों एक न हो जाएँ।
जबसे आदम ने अपने आपको हौवा में बोया है, मनुष्य बवण्डरों और बाधों की फसलें काटते चले आ रहे हैं। जब एक प्रकार के मनोवेगों का प्रभाव अधिक हो जाता है, तब मनुष्यों के जीवन का संतुलन बिगड़ जाता है, और तब मनुष्य एक या दूसरी बाढ़ की लपेट में आ जाते हैं ताकि संतुलन पुनः स्थापित हो सके।
और संतुलन तब तक स्थापित नहीं होगा जब तक मनुष्य अपनी सब कामनाओं को प्रेम की परात में गूँधकर उनसे दिव्य-ज्ञान की रोटी पकाना नहीं सीख लेता।
अफ़सोस ! तुम व्यस्त हो बोझ लादने में; व्यस्त हो अपने रक्त में दुखों से भरपूर भोगों का नशा घोलने में; व्यस्त हो कहीं न ले जाने वाले मार्गों के मान-चित्र बनाने में; व्यस्त हो अंदर झाँकनेका कष्ट किये बिना जीवन के गोदामों के पिछले अहातों से बीज चुनने में।
तुम डूबोगे क्यों नहीं मेरे लावारिश बच्चो ? तुम पैदा हुए थे ऊँची उड़ाने भरने के लिये, असीम आकाश में विचरने के लिये, ब्रम्हाण्ड को अपने डैनों में समेत लेने के लिये। परन्तु तुमने अपने आप को उन परम्पराओं और विश्वासों के दरबों में बंद कर लिया है
जो तुम्हारे परों को काटते हैं, तुम्हारी दृष्टी को क्षीण करते हैं और तुम्हारी नसों को निर्जीव कर देते हैं। तुम आने वाली बाढ़ पर विजय कैसे पाओगे मेरे लावारिस बच्चो ? तुम प्रभु के प्रतिबिम्ब और समरूप थे,
किन्तु तुमने उस समानता और समरूपता को लगभग मिटा दिया है। अपने ईश्वरीय आकर को तुमने इतना बौना कर दिया है कि अब तुम खुद उसे नहीं पहचानते। अपने दिव्य मुख-मण्डल पर तुमने कीचड़ पोत लिया है, और उस पर कितने ही मसखरे मुखौटे लगा लिए हैं।
जिस बाढ़ के द्वार तुमने स्वयं खोले हैं उसका सामना तुम कैसे करोगे मेरे लावारिस बच्चो ? यदि तुम मीरदाद की बात पर ध्यान नहीं दोगे तो धरती तुम्हारे लिए कभी भी एक कब्र से अधिक कुछ नहीं होगी, न ही आकाश एक कफ़न से अधिक कुछ होगा।
जबकि एक का निर्माण तुम्हारा पालना बनने के लिए किया गया था, दूसरे का तुम्हारा सिंहासन बनने के लिए। मैं तुमसे फिर कहता हूँ कि तुम ही बाढ़ हो, नौका हो और केवट भी। तुम्हारे मनोवेग बाढ़ हैं। तुम्हारा शरीर नौका है। तुम्हारा विश्वास केवट है।
पर सब में व्याप्त है तुम्हारी संकल्प- शक्ति और उनके ऊपर है तुम्हारे दिव्य ज्ञान की छत्र-छाया।यह निश्चय कर लो कि तुम्हारी नौका में पानी न रिस सके और वह समुद्र- यात्रा के योग्य हो; किन्तु इसी में अपना जीवन न गँवा देना; अन्यथा यात्रा आरम्भ का समय कभी नहीं आयेगा, और अंत में तुम वहीँ पड़े-पड़े अपनी नौका समेत सड़-गल कर डूब जाओगे।
यह भी निश्चय कर लेना कि तुम्हारा केवट योग्य और धैर्यवान हो। पर सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि तुम बाढ़ से से स्रोतों का पता लगाना सीख लो, और उन्हें एक-एक करके सुख देने के लिए अपनी संकल्प-शक्ति को साध लो। तब निश्चय ही बाढ़ थमेगी और अंत में अपने आप समाप्त हो जायेगी।
जला दो हर मनोवेग को, इससे पहले कि वह तुम्हें जला दें। किसी मनोवेग के मुख में यह देखने के लिए मत झाँको कि उसके दांत जहर से भरे हैं या शहद से। मधु-मक्खी जो फूलों का अमृत इकट्ठा करती है उनका विष भी जमा कर लेती है।
न ही किसी मनोवेग के चेहरे को यह पता लगाने के लिए जाँचो कि वह सुन्दर है या कुरूप। साँप का चेहरा हौवा को परमात्मा के चेहरे से अधिक सुंदर दिखाई दिया था। न ही किसी मनोवेग के भार का ठीक पता लगाने के लिए उसे तराजू पे रखो। भार में मुकुट की तुलना पहाड़ से कौन करेगा ?
परन्तु वास्तव में मुकुट पहाड़ से कहीं अधिक भारी होता है। और ऐसे मनोवेग भी हैं, जो दिन में तो दिव्य गीत गाते हैं, परन्तु रात के काले परदे के पीछे क्रोध से दांत पीसते हैं, काटते हैं और डंक मारते हैं।
ख़ुशी से फूले तथा उसके बोझ के नीचे दबे ऐसे मनोवेग भी हैं जो तेजी से शोक के कंकालों में बदल जाते हैं। कोमल दृष्टी तथा विनीत आचरण वाले ऐसे मनोवेग भी हैं जो अचानक भेड़ियों से भी अधिक भूखे,
लकड़बग्घों से भी अधिक मक्कार बन जाते हैं। ऐसे मनोवेग भी हैं जो गुलाब से भी अधिक सुगंध देते हैं जब तक उन्हें छेड़ा न जाये, लेकिन उन्हें छूते और तोड़ते ही उनसे सड़े-गले मांस तथा कबरबिज्जू से भी अधिक घिनौनी दुर्गन्ध आने लगती है।
अपने मनोवेगों को अच्छे और बुरे में मत बाँटो, क्योंकि यह एक व्यर्थ का परिश्रम होगा। अच्छाई बुराई के बिना टिक नहीं सकती; और बुराई अच्छाई के अंदर ही जड़ पकड़ सकती है। एक ही है नेकी और बदी का वृक्ष। एक ही है उसका फल भी। तुम नेकी का स्वाद नहीं ले सकते जब तक साथ ही बदी को भी न चख लो।
जिस चूची से तुम जीवन का दूध पीते हो उसी से मृत्यु का दूध भी निकलता है। जो हाथ तुम्हे पालने में झुलाता है वही हाथ तुम्हारी कब्र भी खोदता है। द्वैत की यही प्रकृति है, मेरे लावारिस बच्चो।
इतने हठी और अहंकारी न हो जाना कि इसे बदलने का प्रयत्न करो। न ही ऐसी मूर्खता करना कि इसे दो आधे-आधे भागों में बाँटने का प्रयत्न करो ताकि अपनी पसंद के आधे भाग को रख लो और दूसरे भाग को फेंक दो। क्या तुम द्वैत के स्वामी बनना चाहते हो ? तो इसे न अच्छा समझो न बुरा। क्या जीवन और मृत्यु का दूध तुम्हारे मुंह में खट्टा नहीं हो गया है ?
क्या समय नहीं आ गया है कि तुम एक ऐसी चीज से आचमन करो जो न अच्छी है न बुरी, क्योंकि वह दोनों से श्रेष्ठ है ? क्या समय नहीं आ गया है कि तुम ऐसे फल की कामना करो जो न मीठा है न कड़वा, क्योंकि वह नेकी और बदी के वृक्ष पर नहीं लगा है ?क्या तुम द्वैत के चंगुल से मुक्त होना चाहते हो ?
तो उसके वृक्ष को—नेकी और बदी के वृक्ष को—अपने ह्रदय में से उखाड़ फेंको। हाँ, उसे जसद और शाखाओं सहित उखाड़ फेंको ताकि दिव्य ज्ञान का बीज, पवित्र ज्ञान का बीज जो समस्त नेकी और बदी से परे है, इसकी जगह अंकुरित और पल्लवित हो सके।
तुम कहते हो मीरदाद का सन्देश निरानन्द है। यह हमें आने वाले कल की प्रतीक्षा के आनन्द से वंचित रखता है। यह हमें जीवन में गूँगे, उदासीन दर्शक बना देता है, जबकि हम जोशीले प्रतियोगी बनना चाहते हैं। क्योंकि बड़ी मिठास है प्रतियोगिता में, दाव पर चाहे कुछ भी लगा हो।
और मधुर है शिकार का जोखिम, शिकार चाहे एक छलावे से अधिक कुछ भी न हो। जब तुम मन में इस तरह सोचते हो तब भूल जाते हो कि तुम्हारा मन तुम्हारा नहीं है जब तक उसकी बागडोर अच्छे और बुरे मनोवेगों के साथ है।
अपने मन का स्वामी बनने के लिये अपने अच्छे-बुरे सब मनोवेगों को प्रेम की एकमात्र परात में गूँध लो ताकि तुम उन्हें दिव्य ज्ञान के तन्दूर में पका सको जहाँ द्वैत प्रभु में विलीन होकर एक हो जाता है। संसार को जो पहले ही अति दुःखी है और दुःख देना बन्द कर दो। तुम उस कुएँ से निर्मल जल निकालने की आशा कैसे कर सकते हो जिसमें तुम निरन्तर हर प्रकार का कूड़ा-करकट और कीचड़ फेंकते रहते हो ?
किसी तालाब का जल स्वच्छ और निश्चल कैसे रहेगा यदि हर क्षण तुम उसे हलोरते रहोगे ?दुःख में डूबे संसार से शान्ति की रकम मत माँगो, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हे अदायगी दुःख के रूप में हो। दम तोड़ रहे संसार से जीवन की रकम मत मांगो, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हे अदायगी मृत्यु के रूप में हो।
संसार अपनी मुद्रा के सिवाय और किसी मुद्रा में तुम्हे अदायगी नहीं कर सकता, और उसकी मुद्रा के दो पहलू हैं। जो कुछ माँगना है अपने ईश्वरीय अहम् से माँगो जो शान्तिपूर्ण ज्ञान से से इतना समृद्ध है।
संसार से ऐसी माँग मत करो जो तुम अपने आप से नहीं करते। न ही किसी मनुष्य से कोई ऐसी माँग करो जो तुम नहीं चाहते कि वह तुमसे करे।
और वह कौन-सी वस्तु है जो यदि सम्पूर्ण संसार द्वारा तुम्हे प्रदान कर दी जाये तो तुम्हारी अपनी बाढ़ पर विजय पाने और ऐसी धरती पर पहुँचने में तुम्हारी सहायता कर सके जो दुःख और मृत्यु से नाता तोड़ चुकी है और आकाश से जुड़कर स्थायी प्रेम और ज्ञान की शान्ति प्राप्त कर चुकी है ?
क्या वह वस्तु सम्पत्ति है, सत्ता है, प्रसिद्धि है ? क्या वह अधिकार है,प्रतिष्ठा है, सम्मान है ? क्या वह सफल हुई महत्त्वाकांक्षा है, पूर्ण हुई आशा है ? किन्तु इन में से तो हरएक जल का एक स्रोत है जो तुम्हारी बाढ़ का पोषण करता है।
दूर कर दो इन्हे,मेरे लावारिस बच्चो, दूर, बहुत दूर। स्थिर रहो ताकि तुम उलझनो से मुक्त रह सको। उलझनों से मुक्त रहो ताकि तुम संसार को स्पष्ट देख सको। जब तुम संसार के रूप को स्पष्ट देख लोगो, तब तुम्हे पता चलेगा कि जो स्वतन्त्रता, शान्ति तथा जीवन तुम उससे चाहते हो, वह सब तुम्हें देने में वह कितना असहाय और असमर्थ है।
संसार तुम्हे दे सकता है केवल एक शरीर—द्वैतपूर्ण जीवन के सागर में यात्रा के लिये एक नौका। और शरीर तुम्हे संसार के किसी व्यक्ति से नहीं मिला है। तुम्हे शरीर देना और उसे जीवित रखना ब्रम्हाण्ड का कर्तव्य है। उसे तुफानो का सामना करने के लिये अच्छी हालत में,
लहरों के प्रहार सहने के योग्य रखना, उसकी पाशविक वृतियों को बाँधकर नियंत्रण में रखना—यह तुम्हारा कर्तव्य है, केवल तुम्हारा। आशा से दीप्त तथा पूर्णतया सजग विश्वास रखना जिसको पतवार थमाई जा सके, प्रभु-इच्छा में अटल विश्वास रखना जो अदन के आनन्दपूर्ण प्रवेश-द्वार पर पहुँचने में तुम्हारा मार्गदर्शक हो—यह भी तुम्हारा काम है, केवल तुम्हारा।
निर्भय संकल्प हो, आत्म-विजय प्राप्त करने तथा दिव्य- ज्ञान के जीवन-वृक्ष का फल चखने के संकल्प को अपना केवट बनाना—-यह भी तुम्हारा काम है, केवल तुम्हारा।मनुष्य की मंजिल परमात्मा है।
उससे नीचे की कोई मंजिल इस योग्य नहीं कि मनुष्य उसके लिये कष्ट उठाये। क्या हुआ यदि रास्ता लम्बा है और उस पर झंझा और झक्कड़ का राज है ?
क्या पवित्र ह्रदय तथा पैनी दृष्टि से युक्त विश्वास झंझा को परास्त नहीं कर देगा और झक्कड़ पर विजय नहीं पा लेगा ?जल्दी करो, क्योंकि आवारगी में बिताया समय पीड़ा-ग्रस्त समय होता है। और मनुष्य, सबसे अधिक व्यस्त मनुष्य भी, वास्तव में आवारा ही होते हैं।
नौका के निर्माता हो तुम सब, और साथ हो नाविक भी हो। यही कार्य सौंपा गया है तुम्हे अनादि काल से ताकि तुम उस असीम सागर की यात्रा करो जो तुम स्वयं हो, और उसमे खोज लो अस्तित्व के उस मूक संगीत को जिसका नाम परमात्मा है।
सभी वस्तुओं का एक केन्द्र होना जरुरी है जहाँ से वे फ़ैल सकें और जिसके चारों ओऱ वे घूम सकें। यदि जीवन—-मनुष्य का जीवन—-एक वृत्त है और परमात्मा की खोज उसका केन्द्र, तो तुम्हारे हर कार्य का केंद्र परमात्मा की खोज ही होना चाहिये; नहीं तो तुम्हारा हर कार्य व्यर्थ होगा, चाहे वह गहरे लाल पसीने से तर-बतर ही क्यों न हो।पर क्योंकि मनुष्य को उसकी मंजिल तक ले जाना मीरदाद का काम है, देखो !
मीरदाद ने तुम्हारे लिए एक अलौकिक नौका तैयार की है, जिसका निर्माण उत्तम है और जिसका संचालन अत्यन्त कौशलपूर्ण। यह दयार से बनी और तारकोल से पुती नहीं है; और न ही यह कौओं, छिपकलियों और लकड़बग्घों के लिये बनी है।
इसका निर्माण दिव्य ज्ञान से हुआ है जो निश्चय ही उन सबके लिए आलोक-स्तम्भ होगा जो आत्म-विजय के लिये तड़पते हैं। इसका संतुलन-भार शराब के मटके और कोल्हू नहीं, बल्कि हर पदार्थ हर प्राणी के प्रति प्रेम से भरपूर ह्रदय होंगे। न ही इसमें चल या अचल सम्पत्ति, चाँदी, सोना, रत्न आदि लदे होंगे,
बल्कि इसमें होंगी अपनी परछाइयों से मुक्त हुई तथा दिव्य ज्ञान के प्रकाश और स्वतन्त्रता से सुशोभित आत्माएँ। जो धरती के साथ अपना नाता तोड़ना चाहते हैं, जो एकत्व प्राप्त करना चाहते हैं,
जो आत्म-विजय के लिए तड़प रहे हैं, वे आयें और नौका पर सवार हो जायें।
नौका तैयार है। वायु अनुकूल है।
सागर शान्त है।
यही शिक्षा थी मेरी नूह को।
यही शिक्षा है मेरी तुम्हे।


****इति ***
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(hindi) किताब ए मीरदाद-अध्याय - 33 / 34

अध्याय -33
समय आ गया है
    आदमी आदमी को लुटना बंद करे
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     रात्रि अनुपम गायिका
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नरौंदा ; पर्वतीय नीड़ के लिये, जिसे बर्फीली हवाओं और बर्फ के भारी अम्बारों ने पूरे शीतकाल में हमारी पहुँच से परे रखा था,
हम सब इस प्रकार तरस रहे थे जिस प्रकार कोई निर्वासित व्यक्ति अपने घर के लिए तरसता है ।
हमें नीड़ में ले जाने के लिये मुर्शिद ने बसन्त की एक ऐसी रात चुनी जिसके नेत्र कोमल और उज्जवल थे, उसकी साँस उष्ण और सुगन्धित थी, जिसका ह्रदय सजीव और सजग था ।
वे आठ सपाट पत्थर, जो हमारे बैठने के काम आते थे, अभी तक वैसे ही अर्ध-चक्र के आकार में रखे थे जैसे हम उन्हें उस दिन छोड़ गए थे जब मुर्शिद को बेसार ले जाया गया था ।
स्पष्ट था कि उस दिन से कोई
भी नीड़ में नहीं गया था । एक शिला से दूसरी शिला पर गिर रहे पहाड़ी झरनों ने रात्रि को अपने तुमुल संगीत से भर दिया था ।बीच-बीच में किसी उल्लू की घू-घू या किसी झींगुर के गीत के खण्डित स्वर सुनाई देते थे
मीरदाद;- इस रात की शांति में मीरदाद चाहता है कि तुम रात्रि के गीत सुनो ।
रात्रि के गायक-वृन्द को सुनो । क्योंकि सचमुच ही रात्रि एक अनुपम गायिका है । अतीत की सबसे अँधेरी दरारों में से, भविष्य के उज्जवल दुर्गों में से, आकाश के शिखरों तथा धरती की गहराईयों में से निकल रहे है रात्रि के स्वर, और तेजी से पहुँच रहे हैं विश्व के दूरतम कोनों तक ।
विशाल तरंगों के रूप में ये तुम्हारे कानों के चारों ओर लहरा रहे हैं । अपने कानों को अन्य सब स्वरों से मुक्त कर दो ताकि इन्हे सुन सको । उतावली- भरा दिन जिसे आसानी से मिटा देता है, उतावली से मुक्त रात्रि उसे अपने क्षण भर के जादू से पुनः बना देती है क्या चाँद और तारे दिन की रौशनी में छिप नहीं जाते ?
दिन जिसे कल्पना और असत्य के मिश्रण में डुबा देता है, रात्रि उसे नपे-तुले उल्लास के साथ दूर-दूर तक गाती है । जड़ी-बूटियों के सपने भी रात्रि के गायक-वृन्द में शामिल होकर उनके गीत में योग देते हैं सुनो आकाशपिण्डों को :गगन में वे झूलते सुनाते हैं
लोरियाँदलदली बालू के पालने में सो रहे भीमकाय शिशु को,चीथड़े कंगाल के पहने हुए राजा को,बेड़ियों-जंजीरों में जकड़ी हुई दामिनी को–पोतड़ों में लिपटे स्वयं परमात्मा को सुनो तुम धरती को,एक ही समय पर जो प्रसव में कराहती है, दूध भी पिलाती है,पालती है,
ब्याहती है, कब्र में सुलाती है। सुनो वन पशुओं को : घूमते हैं जंगलों में टोह में शिकार की, चीखते, गुर्राते हैं, चीरते, चिर जाते हैं ;
सुनो अपनी राहों पर रेंगते जंतुओं को,रहस्यमय गीत अपने गुनगुनाते कीड़ों को;किस्से चारागाहों के, गीत जल- प्रवाहों के , सुनो अपने सपनों में दोहराते विहंगों को; वृक्षों को, झाड़ियों को, हर एक जीव को मृत्यु के प्याले में गट-गट पीते जीवन को । शिखर से और वादी से, मरुस्थल और सागर से,
तृणावत भूमि के नीचे से और वायु से आ रही हैं चुनौती समय में छिपे प्रभु को । सुनो सभी माताओं को, कैसे वे रोती हैं, कैसे बिलखती हैं और सभी पिताओं को, कैसे वे कराहते हैं कैसे आहें भरते हैं ।
सुनो उनके बेटों को और उनकी बेटियों को बन्दूक लेने भागते, बन्दूक से डर भागते,प्रभु को फटकारते,और भाग्य को धिक्कारते ।स्वाँग रचते प्यार का और घृणा फुसफुसाते हैं,पीते हैं जोश, और डर से पसीने छूट जाते हैं, बोते हैं मुस्काने और काटते आँसू हैं,अपने लाल खून से उमड़ रही बाढ़ के प्रकोप को पैनाते हैं ।
सुनो उनके क्षुधा-ग्रस्त पेटों को पिचकते,सूजी हुई उनकी पलकों को झपकते, कुम्हलाई अँगुलियों को उनकी आशा की लाश को ढूंढते, और उनके हृदयों को फूलत–फूलते ढेरों में फूटते । सुनो क्रूर मशीनों को तुम गड़गड़ाते हुए,दर्प-भरे नगरों को खण्डहर बन जाते हुए,शक्तिशाली दुर्गों को अपने ही अवसान की घण्टियाँ बजाते हुए,पुरातन कीर्ति-स्तम्भों को पंकिल रक्त-ताल में गिर छीटे उड़ाते हुए ।
सुनो न्यायी लोगों की तुम प्रार्थनाओं को लोभ की चीखों के साथ सुर मिलाते हुए, बच्चों की भोली-भाली तोतली बातों को दुष्टों की बकबक के साथ तुक मिलाते हुए। और किसी कन्या की लज्जारुण मुस्कान को वेश्या की धूर्त्तता के संग चहचहाते हुए, और एक वीर के हर्षोन्माद को किसी मायावी के विचार गुनगुनाते हुए ।
हर जनजाती और हर एक गोत्र के हर खेमे,हर कुटिया में रात्रि सुनाती है ऊँचे स्वर में तुम्ही पर युद्ध-गीत मनुष्य के । पर जादूगरनी रात्रि लोरियाँ, चुनोतियाँ, युद्ध-गीत, सब कुछ ढाल देती एक ही मधुरम संगीत में ।
गीत इतना सूक्ष्म जो कान सुन पाये न —गीत इतना भव्य, और अनन्त फैलाव में,स्वर में गहराई और टेक में मिठास इतनी,तुलना में फरिश्तों के तराने और वृन्द गान लगते मात्र कोलाहल और बड़बड़ाहट हैं आत्म-विजेता का यही विजय-गान है ।
पर्वत जो रात्रि की गोद में हैं ऊँघते,यादों में डूबे मरू लिये टीले रेत के,भ्रमणशील तारे, सागर नदी में जो घूमते, निवासी-प्रेत-पुरियों के,पावन-त्रयी और हरी इच्छा ,करते आत्म-विजेता का स्वागत है, जय घोष है । भाग्य वान हैं वे जो सुनते हैं और बूझते ।
भाग्य वान हैं लोग जिनको रात्रि संग अकेले में होती अनुभूति है रात्रि जैसी शान्ति की,गहराई की, विस्तार की ;लोग वे, अँधेरे में चेहरों पर जिनके अँधेरे में किये गयेअपने कुकर्मों की पड़ती नहीं मार है ;
लोग वे, आँसू जिनकी ररकते नहीं पलकों में साथियों की आँखों से जो उन्होंने बहाये थे ;हाथों में न जिनके लोभ से, द्वेष से, होती कभी खाज है ;कानो को न जिनके अपनी तृष्णाओं की घेरती फूत्कार है ;विवेक को न जिनके डंक कभी मारते उनके विचार हैं भाग्य वान हैं,
ह्रदय जिनके समय के हर कोने से घिरकर आती हुई विविध चिन्ताओं के बैठने के छत्ते नहीं ;बुद्धि में जिनकी भय सुरंग खोद लेते नहीं ;साहस के साथ जो कह सकते हैं रात्रि से, ”दिखा दो हमें दिन को ”कह सकते हैं दिन को, ”दिखा दो हमें रात्रि को ”।
हाँ, बहुत भाग्यवान हैं जिनको रात्रि संग अकेले में होती अनुभूति है रात्रि जैसी समस्वरता, नीरवता, अनन्तता की । उनके लिए ही केवल गाती है रात्रि यह गीत आत्म-विजेता का ।यदि तुम दिन के झूंठे लांछनों का सामना सिर ऊंचा रखकर विश्वास से चमकती आँखों से करना चाहते हो, तो शीघ्र ही रात्रि की मित्रता प्राप्त करो ।
रात्रि के साथ मैत्री करो । अपने ह्रदय को अपने ही जीवन रक्त से अच्छी तरह धोकर उसे रात्रि के ह्रदय में रख दो । अपनी आवरण हीं कामनाएँ रात्रि के वक्ष को सौंप दो, और दिव्य ज्ञान के द्वारा स्वतन्त्र होने की महत्त्वाकाँक्षा के अतिरिक्त अन्य सभी महत्त्वाकांक्षाओं की उसके चरणों में बलि दे दो ।
तब दिन का कोई भी तीर तुम्हे वेध नहीं सकेगा, और तब रात्रि तुम्हारी ओर से लोगों के सामने गवाही देगी कि तुम सचमुच आत्म- विजेता हो ।बेचैन दिन भले ही पटकें तुम्हे इधर- उधरतारक-हीन रातें चाहे अँधेरे में अपने लपेट लें तुमको,फेंक दिया जाये तुम्हे विश्व के चौराहों पर,चिन्ह पदचिन्ह न हों राह तुम्हें दिखाने को फिर भी न डरोगे तुम किसी भी मनुष्य से और न किसी स्थिति से,न ही होगा शक तुम्हे लेशमात्र इसका कि दिन और रातें,
मनुष्य और चीजें भी जल्दी ही या देर से आयेंगे तुम्हारे पास, और विनयपूर्वक प्रार्थना वे करेंगे आदेश उन्हें देने का । विश्वास क्योंकि रात्रि का प्राप्त होगा तुमको । और विश्वास रात्रि का प्राप्त जो कर लेता है सहज ही आदेश वह अगले दिन को देता है ।
रात्रि के ह्रदय को ध्यान से सुनो, क्योंकि उसी के अंदर आत्म-विजेता का ह्रदय धड़कताहै । यदि मेरे पास आंसू होते तो आज रात मैं उन्हें भेंट कर देता हर टिमटिमाते सितारे और रज-कण को; हर कल-कल करते नाले और गीत गाते टिड्डे को; वायु में अपनी सुगन्धित आत्मा को बिखेरते हर नील-पुष्प को ;
हर सरसराते समीर को; हर पर्वत और वादी को; हर पेड़ और घांस की हर कोंपल को — इस रात्रि की सम्पूर्ण अस्थाई शान्ति और सुंदरता को । मैं अपने आंसू मनुष्य की कृतध्नता तथा बर्बर अज्ञान के लिये क्षमायाचना के रूप में इनके सामने उँड़ेल देता ।
क्योंकि मनुष्य, घृणित पैसे के गुलाम, अपने स्वामी की सेवा में व्यस्त है, इतने व्यस्त की स्वामी की आवाज और इच्छा के अतिरिक्त और किसी आवाज और इच्छा की ओर ध्यान नहीं दे सकते ।और भयंकर है मनुष्य के स्वामी का कारोबार — मनुष्य के संसार को एक ऐसे कसाईखाने में बदल देना जहाँ वे ही गला काटनेवाले हैं और वे ही गला कटवाने वाले ।
और इसलिए, लहू के नशे में चूर मनुष्य मनुष्यों को इस विश्वास में मारते चले जाते हैं कि जिन मनुष्यों का कोई खून करता है, धरती के सब प्रसादों और आकाश की समस्त उदारता में उन मनुष्यों का सभी हिस्सा उसे विरासत में मिल जाता है ।
अभागे मूर्ख ! क्या कभी कोई भेड़िया किसी दूसरे भेड़िये का पेट चीर कर मेमना बना है ? क्या कभी कोई साँप अपने साथी साँपों कुचल और निगल कर कपोत बना है ? क्या कभी किसी मनुष्य ने अन्य मनुष्यों की ह्त्या करके उनके दुखों को छोड़ उनकी खुशियाँ विरासत में पाईं हैं ? क्या कोई कान दूसरे कान में डाट लगाकर जीवन की स्वर-तरंगों का अधिक आनन्द ले सकता है ?
या कभी कोई आँख अन्य आँखों को नोचकर सुंदरता के विविध रूपों के प्रति अधिक सजग हुई है ?क्या ऐसा कोई मनुष्य या मनुष्य का समुदाय है जो केवल एक घण्टे के वरदानों का भी पूरी तरह उपयोग कर सके, वरदान चाहे खाने पीने के पदार्थों के हों,
चाहे प्रकाश और शान्ति के ? धरती जितने जीवों को पाल सकती है उससे अधिक जीवों को जन्म नहीं देती । आकाश अपने बच्चों के पालन के लिये न भीख मांगता है, न चोरी करता है ।वे झूठ बोलते हैं जो मनुष्य से कहते हैं, ”यदि तुम तृप्त होना चाहते हो तो मारो और जिन्हे मारो उनकी विरासत प्राप्त करो ।”
जो मनुष्य का प्यार, धरती का दूध और मधु, तथा आकाश का गहरा स्नेह पाकर नहीं फला-फूला, वह मनुष्य के आंसू, रक्त और पीड़ा के आधार पर कैसे फले-फूलेगा ? वे झूठ बोलते हैं जो मनुष्य से कहते हैं, ”हर राष्ट्र अपने लिये है ।”कनख़जूरा कभी एक इंच भी आगे कैसे बढ़ सकता है यदि उसका हर पैर दूसरे पैरों के विरुद्ध दिशा में चले, या उसके पैरों के आगे बढ़ने में रुकावट डाले, या दूसरे पैरों के विनाश के लिए षड्यन्त्र रचे ?
मनुष्य भी क्या एक दैत्याकार कनखजूरा नहीं है, राष्ट्र जिसके अनेक पैर हैं ?वे झूठ बोलते हैं जो मनुष्य से कहते हैं, ” शासन करना सम्मान की बात है, शासित होना लज्जा की ।” क्या गधे को हांकने वाला उसकी दुम के पीछे-पीछे नहीं चलता ? क्या जेलर कैदी से बँधा नहीं होता । वास्तव में गधा अपने हाँकने वाले को हाँकता है ;
कैदी अपने जेलर को जेल में बंद रखता है । वे झूठ बोलते हैं जो मनुष्य से कहते हैं, ”दौड़ उसी की जो तेज दौड़े, सच्चा वही जो समर्थ हो ।”क्योंकि जीवन मांसपेशियों और बाहुबल की दौड़ नहीं है । लूले- लँगड़े भी बहुधा स्वस्थ लोगों से बहुत पहले मंजिल पर पहुँच जाते हैं ।
और कभी-कभी तो एक तुच्छ मच्छर भी कुशल योद्धा को पछाड़ देता है । वे झूठ बोलते हैं जो मनुष्य से कहते हैं कि अन्याय का उपचार केवल अन्याय से ही किया जा सकताहै । अन्याय के बदले में थोपा गया अन्याय कभी न्याय नहीं बन सकता । अन्याय को अकेला छोड़ दो, वह स्वयं ही अपने आपको मिटा देगा ।
परन्तु भोले लोग अपने स्वामी पैसे के सिद्धांतों को आसानी से सच मान लेते हैं । पैसे और जमाखोरों में वे भक्तिपूर्ण विश्वास रखते हैं और उनकी हर मनमानी सनक के आगे सिर झुकाते हैं ।रात्रि का न वे विश्वास करते हैं न परवाह । जबकि रात्रि मुक्ति के गीत गाती है, और मुक्ति तथा प्रभु-प्राप्ति की प्रेरणा देती है ।
तुम्हे तो मेरे साथियो, वे या तो पागल करार देंगे या पाखण्डी ।मनुष्य की कृतध्नता और तीखे उपहास का बुरा मत मानना ; बल्कि प्रेम और असीम धैर्य के साथ स्वयं उनसे तथा आग और खून की बाढ़ से, जो शीघ्र ही उनपे टूट पड़ेगी, उनके बचाव के लिये उद्यम करना । समय अ गया है कि मनुष्य मनुष्य की हत्या करना बंद कर दें । सूर्य, चन्द्र, और तारे अनादिकाल से प्रतीक्षा कर रहे हैं कि उन्हें देखा, सुना और समझा जाये;
धरती की लिपि प्रतीक्षा कर रही है कि उसे पढ़ा जाये; आकाश के राजपथ, कि उन पर यात्रा कि जाये, समय का उलझा हुआ धागा, कि उसमे पड़ी गांठों को खोला जाये, ब्रह्माण्ड की सुगंध, कि उसे सूँघा जाये; पीड़ा के कब्रिस्तान, कि उन्हें मिटा दिया जाये; मौत किई गुफा, कि उसे ध्वस्त किया जाये; ज्ञान की रोटी, कि उसे चखा जाये; और मनुष्य पर्दों में छिपा परमात्मा, प्रतीक्षा कर रहा है कि उसे अनावृत किया जाये ।
समय आ गया है कि मनुष्य मनुष्यों को लूटना बन्द कर दें और सर्वाहित के काम को पूरा करने के लिए एक हो जाएँ ।
बहुत बड़ी है यह चुनौती, पर मधुर होगी विजय भी । तुलना में और सब तुच्छ तथा खोखला है । हाँ, समय आ गया है । पर ऐसे बहुत कम हैं जो ध्यान देंगे ।
बाक़ी को एक और पुकार की
प्रतीक्षा करनी होगी —–
एक और भोर की ।

      अध्याय -34
        आदमी एक लघु परमात्मा है
      ☞ विराट कैसे होगा ☜
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 माँ–अण्डाणु
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मीरदाद; मीरदाद चाहता है कि इस रात के सन्नाटे में तुम एकाग्र चित्त होकर माँ–अण्डाणु के विषय में विचार करो । स्थान और जो कुछ्ह उसके अंदर है एक अण्डाणु है जिसका खोल समय है यही माँ-अण्डाणु है ।
जैसे धरती को वायु लपेटे हुए है, वैसे ही इस अण्डाणु को लपेटे हुए है विकसित परमात्मा, विराट परमात्मा—जीवन जो कि अमूर्त, अनन्त और अकथ है ।
इस अण्डाणु में लिपटा हुआ है कुंडलित परमात्मा लघु–परमात्मा–जीवन जो मूर्त है किन्तु उसी तरह अनन्त और अकथ ।
भले ही प्रचलित मानवीय मानदण्ड के अनुसार माँ–अण्डाणु अमित है, फिरभी इसकी सीमाएँ हैं । यद्यपि यह स्वयं अनन्त नहीं है, फिर भी इसकी सीमाएँ हर ओर अनन्त को छूती हैं |
ब्रह्माण्ड में जो भी पदार्थ और जीव हैं, वे सब उसी लघु- परमात्मा को लपेटे हुए समय-स्थान के अण्डाणुओं से अधिक और कुछ नहीं, परन्तु सबमें लघु-परमात्मा प्रसार की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में है ।
पशु के अंदर के लघु- परमात्मा की अपेक्षा मनुष्य के अंदर के लघु-परमात्मा का और वनस्पति के अंदर के लघु-परमात्मा की अपेक्षा पशु के अंदर के लघु- परमात्मा का समय-स्थान में प्रसार अधिक है ।
और सृष्टि में नीचे-नीचे की श्रेणी में क्रमानुसार ऐसा ही है । दृश्य तथा अदृश्य सब पदार्थो और जीवों का प्रतिनिधित्व करते अनगिनत अण्डाणुओं को माँ-अण्डाणु के अंदर इस क्रम में रखा गया है कि प्रसार में बड़े अण्डाणु के अंदर उसकेनिकटतम छोटा अण्डाणु है, और यही क्रम सबसे छोटे अंडाणु तक चलता है ।
अण्डाणुओं के बीच में जगह है और सबसे छोटा अण्डाणु केन्द्रीय नाभिक है जो अत्यन्त अल्प समय तथा स्थान के अंदर बन्द है । अण्डाणु के अंदर अण्डाणु, फिर उस अण्डाणु के अंदर अण्डाणु, मानवीय गणना से परे और सब प्रभु द्वारा अनुप्रमाणित—यही ब्रह्माण्ड है.
मेरे साथियो । फिर भी मैं महसूस करता हूँ कि मेरे शब्द कठिन हैं, वे तुम्हारी बुद्धि की पकड़ में नहीं आ सकते । और यदि शब्द पूर्ण ज्ञान तक ले जाने वाली सीढ़ी के सुरक्षित तथा स्थिर डण्डे बनाये गए होते तो मुझे भी अपने शब्दों को सुरक्षित तथा स्थिर डण्डे बनाने में प्रसन्नता होती ।
इसलिये यदि तुम उन ऊंचाइयों, गहराइयों और चौड़ाइयों तक पहुँचना चाहते हो जिन तक मीरदाद तुम्हे पहुँचाना चाहता है, तो बुद्धि से बड़ी किसी शक्ति के द्वारा शब्दों से बड़ी किसी वस्तु का सहारा लो ।
शब्द, अधिक से अधिक, बिजली की कौंध हैं जो क्षितिजों की झलक दिखती हैं; ये उन क्षितिजों तक पहुँचने का मार्ग नहीं हैं ;
स्वयं क्षितिज तो बिलकुल नहीं । इसलिए जब मैं तुम्हारे सम्मुख माँ–अण्डाणु और अण्डाणुओं की, तथा विराट-परमात्मा और लघु-परमात्मा की बात करता हूँ तो मेरे शब्दों को पकड़कर न बैठ जाओ, बल्कि कौंध की दिशा में चलो ।
तब तुम देखोगे कि मेरे शब्द तुम्हारी कमजोर बुद्धि के लिये बलशाली पंख हैं ।अपने चारों ओर की प्रकृति पर ध्यान दो ।क्या तुम उसे अण्डाणु के नियम पर रची गई नहीं पाते हो ? हाँ, अण्डाणु में तुम्हे सम्पूर्ण सृष्टि की कुंजी मिल जायेगी ।
तुम्हारा सिर, तुम्हारा ह्रदय,तुम्हारी आँख अण्डाणु हैं । अण्डाणु है हर फूल और उसका हर बीज ।
अंडाणु है पानी की एक बूँद तथा प्रत्येक प्राणी का प्रत्येक वीर्याणु ।
और आकाश में अपने रहस्यमय मार्गों पर चल रहे अनगिनत नक्षत्र क्या अण्डाणु नहीं हैं
जिनके अंदर प्रसार की भिन्न-भिन्न
अवस्थाओं में पहुँचा हुआ जीवन का
सार—लघु–परमात्मा—निहित है ?
क्या जीवन निरंतर अण्डाणु में से ही नहीं निकल रहा है और वापस अण्डाणु में ही नहीं जा रहा है ? निःसंदेह चमत्कारपूर्ण और निरंतर है सृष्टि की प्रक्रिया ।
जीवन का प्रवाह माँ अण्डाणु कि सतह से उसके केंद्र तक, तथा केंद्र से वापस सतह तकबीना रुके जारी रहता है ।
केंद्र- स्थित लघु- परमात्मा जैसे-जैसे समय तथा स्थान में फैलता जाता है, जीवन के निम्नतम वर्ग से जीवन के उच्चतम वर्ग तक एक अण्डाणु से दूसरे अण्डाणु में प्रवेश करता चला जाता है ।
सबसे नीचे का वर्ग समय तथा स्थान में सबसे कम फैला हुआ है और सबसे ऊँचा बर्ग सबसे अधिक । एक अण्डाणु से दूसरे अण्डाणु में जाने में लगने वाला समय भिन्न-भिन्न होता है–कुछ स्थितियों पलक की एक झपक होता है तो कुछ में पूरा युग ।
और इस प्रकार चलती रहती है सृष्टि की प्रक्रिया जब तक माँ–अण्डाणु का खोल टूट नहीं जाता और लघु-परमात्मा विराट-परमात्मा होकर बाहर नहीं निकल आता ।इस प्रकार जीवन एक प्रसार, एक वृद्धि और एक प्रगति है, लेकिन उस अर्थ में नहीं जिस अर्थ में लोग वृद्धि और पगति का उल्लेख प्रायः करते हैं; क्योंकि उनके लिए वृद्धि है आकार में बढ़ना, और प्रगति आगे बढ़ना ।
जबकि वास्तव में वृद्धि का तात्पर्य है समय और स्थान में सब तरफ फैलना ; और प्रगति का तात्पर्य है सब दिशाओं में समान गति ; पीछे भी और आगे भी, और नीचे तथा दायें-बायें और ऊपर भी ।
अतएव चरम वृद्धि है स्थान से परे फ़ैल जाना और चरम प्रगति है समय की सीमाओं से आगे निकल जाना, और इस प्रकार विराट-परमात्मा में लीन हो जाना और समय तथा स्थान के बन्धनों में से निकलकर परमात्मा की स्वतन्त्रता तक जा पहुँचना जो स्वतन्त्रता कहलाने योग्य एकमात्र अवस्था है ।
और यही है वह नियति जो मनुष्य के लिये निर्धारित है ।इन शब्दों पर ध्यान दो, साधुओ । यदि तुम्हारा रक्त तक इन्हे प्रसन्नता पूर्वक न कर ले, तो सम्भव है कि अपने आप और दूसरों को स्वतन्त्र कराने के तुम्हारे प्रयत्न तुम्हारी और उनकी जंजीरों में और अधिक बेड़ियां जोड़ दें ।
मीरदाद चाहता है कि तुम इन शब्दों को समझ लो ताकि इन्हें समझने में तुम सब तड़पने वालों की सहायता कर सको ।
मीरदाद चाहता है कि तुम स्वतन्त्र हो जाओ ताकि उन सब लोगों को जो आत्म-विजयी और स्वतन्त्र होने के लिए तड़प रहे हैं तुम स्वतन्त्रता तक पहुँचा सको । इसलिए मीरदाद अण्डाणु के इस नियम को और अधिक स्पष्ट करना चाहेगा, खासकर जहाँ तक इसका सम्बन्ध मनुष्य से है ।
मनुष्य से नीचे जीवों के सब वर्ग सामूहिक अण्डाणुओं में बन्द हैं । इस तरह पौधों के लिए उतने ही अण्डाणु हैं जितने पौधों के प्रकार हैं,
जो अधिक विकसित हैं उनके अंदर सभी कम विकसित बन्द हैं और यही स्थिति कीड़ों, मछलियों और स्तनपायी जीवों की है; सदा ही जीवन के एक अधिक विकसित वर्ग के अन्दर उससे नीचे के सभी वर्ग बन्द होते हैं ।
जैसे साधारण अण्डे के भीतर की जर्दी और सफेदी उसके अंदर के चूजों के भ्रूण का पोषण और विकास करती है, वैसे ही किसी भी अण्डाणु में बन्द सभी अण्डाणु उसके अन्दर के लघु-परमात्मा का पोषण और विकास करते हैं ।
प्रत्येक अण्डाणु में समय- स्थान का जो अंश लघु-परमात्मा को मिलता है, वह पिछले अण्डाणु में मिलने वाले अंश से थोड़ा भिन्न होता है ।
इसलिए समय-स्थान में लघु-परमात्मा के प्रसार में अन्तर होता है । गैस में वह बिखरा हुआ आकारहीन होता है, पर तरल पदार्थ में अधिक घना हो जाता है और आकर धारण करने की स्थिति में आ जाता है;
जबकि खनिज में वह एक निश्चित आकार और स्थिरता धारण कर लेता है । परन्तु इन सब स्थितियों में वह जीवन के गुणों से रहित होता है जो उच्चतर श्रेणियों में प्रकट होते हैं। वनस्पति में वह ऐसा रूप अपनाता है जिसमे बढ़ने, अपनी संख्या-वृद्धि करने और महसूस करने की क्षमता होती है।
पशु में वह महसूस करता है, चलता है और संतान पैदा करता है; उसमे स्मरण शक्ति होती है और सोच-विचार के मूल तत्व भी लेकिन मनुष्य में, इन सब गुणों के अतिरिक्त, वह एक व्यक्तित्व और सोच-विचार करने, अपने आपको अभिव्यक्त करने तथा सृजन करने की क्षमता भी प्राप्त कर लेता है ।
निःसंदेह परमात्मा के सृजन की तुलना में मनुष्य का सृजन ऐसा ही है जैसा किसी महान वास्तुकार द्वारा निर्मित एक भव्य मंदिर या सुन्दर दुर्ग की तुलना में एक बच्चे द्वारा बनाया गया तांस के पत्तों का घर। किन्तु है तो वह फिर भी सृजन ही।प्रत्येक मनुष्य एक अलग अण्डाणु बन जाता है,
और विकसित मनुष्य में कम विकसित मानव-अण्डाणुओं के साथ सब पशु, वनस्पति तथा उनके निचले स्तर के अण्डाणु, केंद्रीय नाभिक तक, बन्द होते हैं। जबकि सबसे अधिक विकसित मनुष्य में—आत्म-विजेता में—सभी मानव अण्डाणु और उनसे निचले स्तर के सभी अण्डाणु भी बन्द होते हैं।
किसी मनुष्य को अपने अंदर बंद रखने वाले अण्डाणु का विस्तार उस मनुष्य के समय-स्थान के क्षितिजों के विस्तार से नापा जाता है। जहाँ एक मनुष्य की समय चेतना और उसके शैशव से लेकर वर्त्तमान घडी तक की अल्प अवधि से अधिक और कुछ नहीं समा सकता,
और उसके स्थान के क्षितिजों के घेरे में उसकी दृष्टी की पहुँच से परे का कोई पदार्थ नहीं आता, वहाँ दूसरे व्यक्ति के क्षितिज स्मरणातीत भूत और सुदूर भविष्य को, तथा स्थान की लम्बी दूरियों को जिन पर अभी उसकी दृष्टी नहीं पड़ी है अपने घेरे में ले आते हैं।
प्रसार के लिए सब मनुष्यों को समान भोजन मिलता है, पर उनका खाने और पचाने का सामर्थ्य समान नहीं होता ; क्योंकि वे एक ही अण्डाणु में से एक ही समय और एक ही स्थान पर नहीं निकले हैं।
इसलिए समय-स्थान में उनके प्रसार में अन्तर होता है; और इसी लिये कोई दो मनुष्य ऐसे नहीं मिलते जो हूबहू एक जैसे हों।सब लोगों के सामने प्रचुर मात्रा में और खुले हाथों परोसे गये भोजन में से एक व्यक्ति स्वर्ण की शुद्धता और सुंदरता को देखने का आनंद लेता है और तृप्त हो जाता है,
जब कि दूसरा स्वर्ण का स्वामी होने का रस लेता है और सदा भूखा रहता है। एक शिकारी एक सुंदर हिरनी को देखकर उसे मारने और खाने के लिये प्रेरित होता है; एक कवी उसी हिरनी को देखकर मानो पंखों पर उड़ान भरता हुआ उस समय और स्थान में जा पहुँचता है जिसका शिकारी कभी सपना भी नहीं देखता ।
एक आत्म-विजेता का जीवन हर व्यक्ति के जीवन को हर ओर से छूता है, क्योंकि सब व्यक्तियों के जीवन उसमे समाये हुये हैं। परन्तु आत्म-विजेता के जीवन को किसी भी व्यक्ति का जीवन हर ओर से नहीं छूता। अत्यन्त सरल व्यक्ति को आत्म-विजेता अत्यन्त सरल प्रतीत होता है। अत्यन्त विकसित व्यक्ति को वह अत्यन्त विकसित दिखाई देता है।
किन्तु आत्म-विजेता के सदा कुछ ऐसे पक्ष होते हैं जिन्हे आत्म-विजेता के सिवाय और कोई न कभी समझ सकता है, न महसूस कर सकता है। यही कारण है कि वह सबके बीच में रहते हुए भी अकेला है; वह संसार में है फिर भी संसार का नहीं है।
लघु-परमात्मा बन्दी नहीं रहना चाहता। वह मनुष्य की बुद्धि से कहीं ऊँची बुद्धि का प्रयोग करते हुये समय तथा स्थान के कारावास से अपनी मुक्ति के लिये सदैव कार्य-रत रहता है। निम्न स्तर के लोगों में इस बुद्धि को लोग सहज-बुद्धि कहते हैं।
साधारण मनुष्यों में वे इसे तर्क और उच्च कोटि के मनुष्यों में इसे दिव्य बुद्धि कहते हैं। यह सब तो वह है ही, पर इससे अधिक भी बहुत कुछ है। यह वह अनाम शक्ति है जिसे कुछ लोगों ने ठीक ही पवित्र शक्ति का नाम दिया है, और जिसे मीरदाद दिव्य ज्ञान कहता है।
समय के खोल को बेधने वाला और स्थान की सीमा को लाँघने वाला प्रथम मानव- पुत्र ठीक ही प्रभु का पुत्र कहलाता है। उसका अपने ईश्वरत्व का ज्ञान ठीक ही पवित्र शक्ति कहलाता है।
किन्तु विश्वास रखो तुम भी प्रभु के पुत्र हो, और तुम्हारे अन्दर भी वह पवित्र शक्ति अपना कार्य कर रही है। उसके साथ कार्य करो उसके विरुद्ध नहीं।परन्तु जब तक तुम समय के खोल को बेध नहीं देते और स्थान की सीमा को लाँघ नहीं जाते, तब तक कोई यह न कहे, ”मैं प्रभु हूँ”।
बल्कि यह कहो ” प्रभु ही मैं हैं।” इस बात को अच्छी तरह ध्यान में रखो, कहीं ऐसा न हो कि अहंकार तथा खोखली कल्पनाएँ तुम्हारे ह्रदय को भ्रष्ट कर दें और तुम्हारे अन्दर हो रहे पवित्र शक्ति के कार्य का विरोध करें। क्योंकि अधिकाँश लोग पवित्र शक्ति के विरुद्ध कार्य करते हैं, और इस प्रकार अपनी अंतिम मुक्ति को स्थगितकअऋ देते हैं।
समय को जीतने के लिए यह आवश्यक है कि तुम समय द्वारा ही समय के विरुद्ध लड़ो। स्थान को पराजित करने के लिए यह आवश्यक है कि तुम स्थान को ही स्थान का आहार बनने दो।
दोनों में से एक का भी स्नेहपूर्ण स्वागत करना दोनों का बन्द होना तथा नेकी और बदी की अन्तहीन हास्य-जनक चेष्टाओं का बन्धक बने रहना है।
जिन लोगों ने अपनी नियति को पहचान लिया है और उस तक पहुँचने के लिए तड़पते हैं, वे समय के साथ लाड़ करने में समय नहीं गँवाते और न ही स्थान में भटकने में अपने कदम नष्ट करते हैं।
सम्भव है कि वे एक ही जीवन- काल में युगों को समेट लें तथा अपार दूरियों को मिटा दें। वे इस बात की प्रतीक्षा नहीं करते कि मृत्यु उन्हें उनके इस अण्डाणु से अगले अण्डाणु में ले जाये;
वे जीवन पर विश्वास रखते हैं कि बहुत से अण्डाणुओं के खोलों को एक साथ तोड़ डालने में वह उनकी सहायता करेगा। इसके लिए तुम्हे हर वस्तु के मोह का त्याग करना होगा,
ताकि समय तथा स्थान की तुम्हारे ह्रदय पर कोई पकड़ न रहे। जितना अधिक तुम्हारा परिग्रह होगा, उतने ही अधिक होंगे तुम्हारे बन्धन।
जितना कम तुम्हारा परिग्रह होगा, उतने ही कम होंगे तुम्हारे बन्धन।
हाँ, अपने विश्वास, अपने प्रेम
तथा दिव्य ज्ञान के द्वारा
मुक्ति के लिये अपनी तड़प के
अतिरिक्त हर वस्तु की
लालसा को त्याग दो।

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