Wednesday, 29 October 2014

(hindi) किताब ए मीरदाद - अध्याय -19/20/21


अध्याय -19

  समय के पहिये को
      ☞ कैसे रोका जाये
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      तर्क और विश्वास
       अहम् को नकारना अहम् को उभारना है
         समय के पहिये को कैसे रोका जाये  
     रोना और हँसना
     
बैनून: क्षमा करें, मुर्शिद। आपका तर्क अपनी तर्कहीनता से मुझे उलझन में डाल देता है।
मीरदाद: हैरानी की बात नहीं, बैनून, कि तुम्हे ‘न्यायधीश’ कहा गया है। किसी मामले तर्क-संगत होने का विश्वास हो जाने पर ही तुम उस पर निर्णय दे सकते हो। तुम इतने समय तक न्यायधीश रहे हो, तो भी क्या तुम अब तक यह नहीं जान पाये कि तर्क का एकमात्र उपयोग मनुष्य को तर्क से छुटकारा दिलाना और उसको विश्वास की ओर प्रेरित करना है जो दिव्य ज्ञान की ओर ले जाता है।
तर्क अपरिपक्वता है जो ज्ञान के विशालकाय पशु को फँसाने के इरादे से अपने बारीक जाल बुनता रहता है जब तर्क वयस्क हो जाता है तो अपने ही जाल में अपना दम घोंट लेता है,
और फिर बदल जाता है विश्वास में जो वास्तव में गहरा ज्ञान है। तर्क अपाहिजों के लिये बैसाखी है; किन्तु तेज पैरवालों के लिये एक बोझ है, और पंख वालों के लिये तो और भी बड़ा बोझ है। तर्क सठिया गया विश्वास है। विश्वास वयस्क हो गया तर्क है। जब तुम्हारा तर्क वयस्क हो जायेगा, बैनून,
और वयस्क वह जल्दी ही होगा,तब तुम कभी तर्क की बात नहीं करोगे।
बैनून: समय की हाल से उसकी धुरी पर आने के लिये हमें अपने आपको नकारना होगा। क्या मनुष्य अपने अस्तित्व को नकार सकता है ?
मीरदाद: बेशक! इसके लिये तुम्हे उस अहम् को नकारना होगा जो समय के हाथों में एक खिलोना है और इस तरह उस अहम् को उभारना होगा जिस पर समय के जादू का असर नहीं होता।
बैनून; क्या एक अहम् को नकारना दूसरे अहम् को उभारना हो सकता है ?
मीरदाद: हाँ, अहम् को नकारना ही अहम् को उभारना है। जब कोई परिवर्तन के लिये मर जाता है तो वह परिवर्तन– रहित हो जाता है। अधिकाँश लोग मरने के लिये जीते हैं। भाग्यशाली हैं वे जो जीने के लिये मरते हैं।
बैनून: परन्तु मनुष्य को अपनी अलग पहचान बड़ी प्रिय है। यह कैसे संभव है कि वह प्रभु में लीं हो जाये और फिर भी उसे अपनी अलग पहचान का बोध रहे ?
मीरदाद: क्या किसी नदी-नाले के लिये सागर में समा जाना और इस प्रकार अपने आपको सागर के रूप में पहचानने लगना घाटे का सौदा है ? अपनी अलग पहचान को प्रभु के अस्तित्व में लीन कर देना वास्तव में मनुष्य का अपनी परछाईं को खो देना है और अपने अस्तित्व का परछाईं रहित सार पा लेना है।
मिकास्तर: मनुष्य, जो समय का जीव है, समय की जकड से कैसे छूट सकता है ?
मीरदाद: जिस प्रकार मृत्यु तुम्हे मृत्यु से छुटकारा दिलायेगी और जीवन जीवन से, उसी प्रकार समय तुम्हे समय से मुक्ति दिलायेगा। मनुष्य परिवर्तन से इतना ऊब जायेगा कि उसका पूरा अस्तित्व परिवर्तन से अधिक शक्तिशाली वस्तु के लिये तरसेगा, कभी मंद न पड़ने वाली तीब्रता के साथ तरसेगा। और निश्चय ही वह उसे अपने अंदर प्राप्त करेगा।
भाग्यशाली हैं वे जो तरसते है क्योंकि वे स्वतंत्रता की देहरी पर पहुँच चुके हैं। उन्ही की मुझे तलाश है और उन्ही के लिये मैं उपदेश देता हूँ। क्या तुम्हारी ब्याकुल पुकार सुनकर ही मैंने तुम्हे नहीं चुना है ?पर अभागे हैं वे जो समय और चक्र के साथ घूमते हैं और उसी में अपनी स्वतंत्रता और शांति ढूढने की कोशिश करते हैं।
वे अभी जन्म पर मुस्कराते ही हैं कि उन्हें मृत्यु पर रोना पड़ जाता है। वे अभी भरते ही हैं कि उन्हें खली कर दिया जाता है। वे अभी शांति के कपोत को पकड़ते ही हैं कि उनके में ही उसे युद्ध के गिद्ध में बदल दिया जाता है। अपनी समझ में वे जितना अधिक जानते हैं, वास्तव में वे उतना ही कम जानते हैं।
जितना वे आगे बढ़ते हैं, उतनी ही पीछे हट जाते हैं। जितना वे ऊपर उठते है, उतना ही नीचे गिर जाते हैं। उनके लिये मेरे शब्द केबल एक अस्पष्ट और उत्तेजक फुसफुसाहट होंगे;
पागलखाने में की गई प्रार्थना के सामान होंगे, और होंगे अंधों के सामने जलाई गई मिशाल के सामान। जब तक वे भी स्वतंत्रता के लिये तरसने नहीं लगेंगे, मेरे शब्दों की ओर ध्यान नहीं देंगे।
हिम्बल: ( रोते हुए) आपने केवल मेरे कान ही नहीं खोल दिये, मुर्शिद, बल्कि मेरे ह्रदय के द्वार भी खोल दिये हैं। कल के बहरे और अंधे हिम्बल को क्षमा करें।
मीरदाद: अपने आंसुओं को रोको, हिम्बल। समय और स्थान की सीमाओं से परे के क्षितिजों को खोजने वाली आँख में आँसू शोभा नहीं देते। जो समय की चालाक अँगुलियों द्वारा गुदगुदाये जाने पर हँसते हैं, उन्हें समय के नाखूनों द्वारा अपनी चमड़ी के तार-तार किये जाने पर रोने दो। जो यौवन की कान्ति के आगमन पर नाचते और गाते हैं, उन्हें बुढापे की झुर्रियों के आगमन पर लडखडाने और कराहने दो।
समय के उत्सवों में आनन्द मनानेवालों को समय की अन्त्येष्टियों में अपने सिर पर राख डालने दो। किन्तु तुम सदा शांत रहो। परिवर्तन के बहुरुपदर्शी दर्पण में केवल परिवर्तन-मुक्त को खोजो।
समय में कोई वस्तु इस योग्य नहीं है कि जिसके लिये आँसू बहाये जायें। कोई वस्तु इस योग्य नहीं कि उसके लिये मुस्कुराया जाये। हँसता हुआ चेहरा और रोता हुआ चेहरा सामान रूप से अशोभनीय और विकृत होते हैं। क्या तुम आंसुओं के खारेपन से बचना चाहते हो?
तो फिर हँसी की कुरूपता से बचो।
आँसू जब भाप बनकर उड़ता है
तो हँसी का रूप धारण कर लेता है;
हँसी जब सिमटती है तो आँसू बन जाती है।
ऐसे बनो कि तुम न हर्ष में फैलकर खो जाओ,
और न शोक में सिमटकर अपने
अंदर घुट जाओ।
बल्कि दोनों में तुम सामान रहो शांत रहो।    
  
अध्याय-20
पश्चाताप
मरने के बाद हम कहां जाते है
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मीरदाद: इस समय तुम कहाँ हो,मिकास्तर ?
मिकास्तर: नीड़ में।
मीरदाद: तुम समझते हो कि यह नीड़ तुम्हे अपने अंदर रखने के लिये काफी बड़ा है ? तुम समझते हो यह धरती मनुष्य का एकमात्र घर है ?
तुम्हारा शरीर चाहे वह समय की सीमा से बंधा हुआ है, समय और स्थान में विद्यमान हर पदार्थ में से लिया जाता है। तुम्हारा जो अंश सूर्य में से आता है, वह सूर्य में जीता है। तुम्हारा जो अंश धरती में से आता है, वह धरती में जीता है।
और ऐसा ही सभी ग्रहों और उनके बीच पथहीन शून्यों के साथ भी है। केवल मूर्ख ही सोचना पसंद करते हैं कि मनुष्य का एकमात्र आवास धरती है।
तथा आकाश में तैरते असंख्य पिंड सिर्फ मनुष्य के आवास की सजावट के लिये हैं, उसकी दृष्टि को भरमाने के लिये हैं।प्रभात- तारा, आकाश-गंगा, कृतिका मनुष्य के लिये इस धाती से कम नहीं हैं।
जब-जब वे उसकी आँख में किरण डालते हैं, वे उसे अपनी ओर उठाते है। जब-जब वह उनके नीचे से गुजरता है, वह उनको अपनी ओर खीचते हैं। सब वस्तुएं मनुष्य में समाई हुई हैं, और मनुष्य सब वस्तुओं में।
यह ब्रम्हांड केवल एक ही पिण्ड है। इसके सूक्ष्म से सूक्ष्म कण के साथ संपर्क कर लो, और तुम्हारा सभी के साथ संपर्क हो जायेगाऔर जिस प्रकार तुम जीते हुए मरते हो, उसी प्रकार मरकर तुम जीते रहते हो;
यदि इस शरीर में नहीं, तो किसी अन्य रूप बाले शरीर में। परन्तु तुम शरीर में निरंतर रहते हो जब तक परमात्मा में विलीन नहीं हो जाते; दुसरे शब्दों में, जब तक तुम हर प्रकार के परिवर्तन पर विजय नहीं पा लेते|
मिकास्तर: शरीर से दुसरे शरीर में जाते हुए क्या हम वापस धरती इस पर आते हैं ?
मीरदाद: समय का नियम पुनरावृत्ति है। समय में जो एक बार घाट गया, उसका बार-बार घटना अनिवार्य है; जहां तक मनुष्य का सम्बन्ध है, अंतराल लम्बे या छोटे हो सकते हैं,
और यह निर्भर करता है पुनरावृत्ति के लिये प्रत्येक मनुष्य की इच्छा और संकल्प की प्रबलता पर।
जब तुम जीवन कहलानेवाले चक्र में से निकलकर मृत्यु कहलानेवाले चक्र में प्रवेश करोगे, और अपने साथ ले जाओगे धरती के लिये,उसके भोगों के लिये अनबुझी प्यास तथा उसके भोगों के लिये अतृप्त कामनाएँ,
तब धरती का चुम्बक तुम्हे वापस उसके वक्ष की ओर खींच लेगा। तब धरती तुम्हे अपना दूध पिलायेगी, और समय तुम्हारा दूध छुडवायेगा –एक के बाद दुसरे जीवन में और एक के बाद दूसरी मौत तक,
और यह क्रम तब तक चलता रहेगा जब तक तुम स्वयं अपनी ही इच्छा और संकल्प से धरती का दूध सदा के लिये त्याग नहीं दोगे।
अबिमार: हमारी धरती का प्रभुत्व क्या आप पर भी है, मुर्शिद ? क्योंकि आप हम जैसे ही दिखाई देते हैं।
मीरदाद: मैं जब चाहता हूँ आता हूँ, और जब चाहता हूँ चला जाता हूँ। मैं इस धरती के वासियों को धरती की दासता से मुक्त करवाने आता हूँ।
मिकेयन: मैं सदा के लिये धरती से अलग होना चाहता हूँ। यह मैं कैसे कर सकता हूँ; मुर्शिद ?
मीरदाद: धरती तथा उसके सब बच्चों से प्रेम करके। जब धरती के साथ तुम्हारे खाते में केवल प्रेम ही बाकी रह जायेगा, तब धरती के साथ तुम्हारे खाते में केवल प्रेम ही बाकी रह जायेगा, तब धरती तुम्हे अपने ऋण से मुक्त कर देगी।
मिकेयन: परन्तु प्रेम मोह है, और मोह एक बंधन है।
मीरदाद: नहीं, केवल प्रेम ही मोह से मुक्ति है। तुम जब हर वस्तु से प्रेम करते हो, तुम्हारा किसी भी वस्तु के प्रति मोह नहीं रहता।
जमोरा: क्या प्रेम के द्वारा कोई प्रेम के प्रति लिये गये अपने पापों को दोहराने से बच सकता है और क्या इस तरह समय के चक्र को रोक सकता है ?
मिरदाद: यह तुम पश्चात्ताप के द्वारा कर सकते हो। तुम्हारी जिव्हा से निकले दुर्वचन जब लौटकर तुम्हारी जिव्हा को प्रेमपूर्ण शुभ कामनाओं से लिप्त पायेंगे तो अपने लिये कोई ओर ठिकाना ढूंढेंगे ।
इअ प्रकार प्रेम उन दुर्वचनो की पुनरावृति को रोक देगा। काम्पूर्ण दृष्टि जब लौटकर उस आँख को, जिसमे से वह निकली है, प्रेमपूर्ण चितवनों से छलकती हुई पायेगी तो कोई दूसरी कामपूर्ण आँख ढूंढेगी।
इस प्रकार प्रेम उस कामातुर चितवन की पुनरावृति पर रोक लगा देगा। दुष्ट ह्रदय से निकली दुष्ट इच्छा जब लौटकर उस ह्रदय को प्रेमपूर्ण कामनाओं से छलकता हुआ पायेगी, तो कहीं और घोंसला ढूँढेगी ।
इस प्रकार प्रेम उस दुष्ट इच्छा से फिर से जन्म लेने के प्रयास को निष्फल कर देगा। यही है पश्चात्ताप।
जब तुम्हारे पास केवल प्रेम ही बांकी रह जाता है तो समय तुम्हारे लिये प्रेम के सिवाय और कुछ नहीं दोहरा सकता। जब हर जगह और वक्त पर एक चीज दोहराई जाती है तो वह एक नित्यता बन जाती है
जो सम्पूर्ण समय और स्थान में व्याप्त हो जाती है और इस प्रकार दोनों के अस्तित्व को ही मिटा देता है।
हिम्बल: फिर भी एक और बात मेरे ह्रदय को बैचेन और मेरी बुद्धि को धुंधला करती है, मुर्शिद।
मेरे पिता ऐसी मौत क्यों मरे,
किसी और मौत क्यों नहीं?
 ☞  परमात्मा की मौज ☜
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        अध्याय -२१ घटनाएं जैसे और जब घटती हैं
             वैसे और तब क्यों घटती हैं
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मीरदाद:   कैसी विचित्र बात है कि तुम,
जो समय और स्थान के बालक हो,
अभी तक यह नहीं जानते कि समय
स्थान की शिलाओं पर अंकित की
हुई ब्रम्हांड की स्मृति है।


यदि इन्द्रियों द्वारा सीमित होने के बावजूद तुम अपने जन्म और मृत्यु के बीच की कुछ विशेष बातों को याद रख सकते हो तो समय, जो तुम्हारे जन्म से पहले भी था और तुम्हारी मृत्यु के बाद भी सदा रहेगा, कितनी अधिक बातों को याद रख सकता है?
मैं तुमसे कहता हूँ, समय हर छोटी से छोटी बात को याद रखता है–केवल उन बातों को ही नहीं जो तुम्हे स्पष्ट याद हैं, बल्कि उन बातों को भी जिनसे तुम पूरी तरह अनजान हो।
क्योंकि समय कुछ भी नहीं भूलता; छोटी से छोटी चेष्टा, श्वास-निःश्वास, या मन की तरंग तक को नहीं। और वह सब कुछ जो समय की स्मृति में अंकित होता है स्थान में मौजूद पदार्थ पर गहरा खोद दिया जाता है।
वही धरती जिस पर तुम चलते हो, वही हवा जिसमे तुम श्वास लेते हो, वाही मकान जिसमे तुम रहते हो, तुम्हारे अतीत, वर्तमान तथा भावी जीवन की सूक्ष्मतम बातों को सहज ही तुम्हारे सामने प्रकट कर सकते हैं,
यदि तुममे केवल पढ़ने की शक्ति और अर्थ को ग्रहण करने की उत्सुकता हो।जैसे जीवन में वैसे ही मृत्यु में, जैसे धरती पर वैसे ही धरती से परे, तुम कभी अकेले नहीं हो, बल्कि उन पथार्थों और जीवों की निरंतर संगति में ही जो तुम्हारे जीवन और मृत्यु में भागीदार हो।
जैसे तुम उनसे कुछ लेते हो, वैसे ही वे तुमसे कुछ लेते हैं, औए जैसे तुम उन्हें ढूंढ़ते हो, वैसे हो वे तुम्हे ढूंढ़ते हैं।हर पदार्थ में मनुष्य की इच्छा शामिल है और मनुष्य में शामिल है पदार्थ की इच्छा।
यह परस्पर विनिमय निरंतर चलता है। परन्तु मनुष्य की दुर्बल स्मृति एक बहुत ही घटिया मुनीम है। समय की अचूक स्मृति का यह हाल नहीं है;
वह मनुष्य के अपने साथी मनुष्य के साथ तथा ब्रम्हांड के एनी सब जीवों के साथ संबंधों का पूरा-पूरा हिसाब रखती है, और मनुष्य को हर जीवन हर मृत्यु में प्रतिक्षण अपना हिसाब चुकाने पर विवश करती है।
बिजली कभी किसी मकान पर नहीं गिरती जब तक वह मकान उसे अपनी ओर न खींचे।
अपनी बर्बादी के लिये यह मकान उतना ही जिम्मेदार होता है, जितनी बिजली।
साँड कभी किसी को सीग नहीं मारता जब तक वह मनुष्य उसे सींग मारने का निमंत्रण न दे और वास्तव में वह मनुष्य इस रक्त-पात के लिये साँड से अधिक उत्तरदायी होता है।
मारा जाने वाला मारनेवाले के छुरे को सान देता है और घातक बार दोनों करते हैं।
लुटनेवाला लूटनेवाले की चेष्टाओं को निर्देश देता है और डाका दोनों डालते हैं।
हाँ, मनुष्य अपनी विपत्तियों को निमंत्रण देता है और फिर इन दुखदायी अतिथियों के प्रति विरोध प्रकट करता है,
क्योंकि वह भूल जाता है कि उसने कैसे, कब और कहाँ उन्हें निमंत्रण-पत्र लिखे और भेजे थे। परन्तु समय नहीं भूलता; समय उचित अवसर पर हर निमंत्रण-पत्र ठीक पते पर दे देता है। और समय ही हर अतिथि को मेजबान के घर पहुंचाता है।
मैं तुमसे कहता हूँ, किसी अथिति का विरोध मत करो, कहीं ऐसा न हो बहुत ज्यादा ठहरकर, या जितनी बार वह अन्यथा आवश्यक समझता उससे अधिक बार आकर, वह अपने स्वाभिमान को लगी ठेस का बदला ले।अपने सभी अतिथियों का प्रेमपूर्वक सत्कार करो, उनकी चाल-ढाल और उनका व्यवहार कैसा भी हो, क्योंकि वे वास्तव में केवल तुम्हारे लेनदार हैं।
खासकर अप्रिय अतिथियों का जितना चाहिए उससे भी अधिक सत्कार करो ताकि वे संतुष्ट और आभारी होकर जाएँ, और दुबारा तुम्हारे घर आयें तो मित्र बनकर आयें, लेनदार नहीं।प्रत्येक अतिथि की ऐसी आवभगत करो मानो वह तुम्हारा विशेष सम्मानित अतिथि हो, ताकि तुम उसका विश्वास प्राप्त कर सको और उसके आने के गुप्त उद्देश्यों को जान सको।
दुर्भाग्य को इस प्रकार स्वीकार करो मानो वह सौभाग्य हो, क्योंकि दुर्भाग्य को यदि एक बार समझ लिया जाये तो वह शीघ्र ही सौभाग्य में बदल जाता है। जबकि सौभाग्य का यदि गलत अर्थ लगा लिया जाये तो वह शीघ्र ही दुर्भाग्य बन जाता है।
तुम्हारी अस्थिर स्मृति स्पष्ट दिखाई दे रहे छिद्रों और दरारों से भरा भ्रमों का जाल है; इसके बावजूद अपने जन्म तथा मृत्यु का, उसके समय,स्थान और ढंग का चुनाव भी तुम स्वयं ही करते हो। बुद्धिमत्ता का दावा करने वाले घोषणा करते हैं कि अपने जन्म और मृत्यु में मनुष्य का कोई हाथ नहीं होता।
आलसी लोग, जो समय और स्थान को अपनी संकीर्ण तथा टेढ़ी नजर से देखते हैं, समय और स्थान में घटनेवाली अधिकाँश घटनाओं को संयोग मानकर उन्हें सहज ही मन से निकाल देते हैं। उनके मिथ्या गर्व और धोखे से सावधान, मेरे साथियो।
समय और स्थान के अंदर कोई आकस्मिक घटना नहीं होती। सब घटनाएं प्रभु-इच्छा के आदेश से घटती हैं, जो जो न किसी बात में गलती करती हैं, न किसी चीज को अनदेखा करती हैं।जैसे बर्षा की बूँदें अपने आप को झरनों में एकत्र कर लेती हैं,
झरने, नालों और छोटी नदियों में इकट्ठेहोने के लिये बहते हैं, छोटी नदियाँ तथा नाले अपने आपको सहायक नदियों के रूप में बड़ी नदियों को अर्पित कर देते हैं, महानदियाँ अपने जल को सागर तक पहुंचा देती हैं, और सागर महासागर में इकट्ठे हो जाते हैं,
वैसे ही हर सृष्ट पदार्थ या जीव की हर इच्छा एक सहायक नदी के रूप में बहकर प्रभु-इच्छा में जा मिलती है।मैं तुमसे कहता हूँ कि हर पदार्थ की इच्छा होती है। यहाँ तक कि पत्थर भी, जो देखने मैं इतना गूँगा, बहरा और बेजान होता है, इच्छा से विहीन नहीं होता।
इसके बिना इसका अस्तित्व ही नहीं होता, और न वह किसी चीज को प्रभावित करता न कोई चीज उसे प्रभावित करती। इच्छा करने का और अस्तित्व का उसका बोध मात्रा में महुष्य के बोध से भिन्न हो सकता है, परन्तु अपने मूल रूप में नहीं।
एक दिन के जीवन के कितने अंश के बोध का तुम दावा कर सकते हो? निःसंदेह, एक बहुत ही थोड़े अंश का। बुद्धि और स्मरण-शक्ति से तथा भावनाओं और विचारों को दर्ज करने के साधनों से सम्पन्न होते हुए भी यदि तुम दिन के जीवन के अधिकाँश भाग से बेखबर रहते हो, तो फिर पत्थर अपने जीवन और इच्छा से इस तरह बेखबर रहता है तो तुम्हे आश्चर्य क्यों होता है?
और जिस प्रकार जीने और चलने-फिरने का बोध न होते हुए तुम इतना जी लेते हो, चल-फिर लेते हो, उसी प्रकार इच्छा करने का बोध न होते हुए भी तुम इतनी इच्छाएँ कर लेते हो। किन्तु प्रभु-इच्छा को तुम्हारे और ब्रम्हांड के हर जीव और पदार्थ की निर्बोधता का ज्ञान है। समय के प्रत्येक क्षण और और स्थान के प्रत्येक बिंदु पर अपने आपको फिरसे बाँटना प्रभु– इच्छा का स्वभाव है।
और ऐसा करते हुए प्रभु– इच्छा हर मनुष्य को और हर पदार्थ को वह सब लौटा देती है—न उससे अधिक न कम–जिसकी उसने जानते हुए और अनजाने में इच्छा की थी। परन्तु मनुष्य यह बात नहीं जानते, इसलिए प्रभु- इच्छा के थैले में से, जिसमे सबकुछ होता है, उनके हिस्से में जो भी आता है उससे वह बहुधा निराश हो जाते हैं।
और फिर हताश होकर शिकायत करते हैं और अपनी निराशा के लिये चंचल भाग्य को दोषी ठहराते हैं।भाग्य चंचल नहीं होता, साधुओ, क्योंकि भाग्य प्रभु-इच्छा का ही दुसरा नाम है। यह तो मनुष्य की इच्छा है जो अभी तक अत्यंत चपल, अत्यंत अनियमित तथा अपने मार्ग के बारे में अनिश्चित है।
यह आज तेजी से पूर्व की ओर दौड़ती है तो कल पश्चिम की ओर। यह किसी चीज पर यहाँ अच्छाई की मोहर लगा देती है, तो उसी को वहां बुरा कहकर उसकी निंदा करती है। अभी यह किसी को मित्र के रूप में स्वीकार करती है,
अगले ही पल उसी को शत्रु मानकर उससे युद्ध छेड़ देती है। तुम्हारी इच्छा को चंचल नहीं होना चाहिये, मेरे साथियो।
यह जान लो कि पदार्थ और मनुष्य के साथ तुम्हारे सम्बन्ध इस बात से तय होते हैं कि तुम उससे क्या चाहते हो और वे तुमसे क्या चाहते हैं। और जो तुम उनसे चाहते हो, उसी से यह निर्धारित होता है कि वे तुम से क्या चाहते हैं।
इसलिये मैंने पहले भी तुमसे कहा था, और अब भी कहता हूँ: ध्यान रखो तुम कैसे साँस लेते हो, कैसे बोलते हो, क्या चाहते हो, क्या सोचते,कहते और करते हो। क्योंकि तुम्हारी इच्छा हर सांस में,हर चाह में, तुम्हारे हर विचार, वचन और कर्म में छिपी रहती है। और जो तुमसे छिपा है वह प्रभु-इच्छा के लिये सदा प्रकट है।
किसी मनुष्य से ऐसे सुख की इच्छा न रखो जो उसके लिये दुःख हो; कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा सुख तुम्हे उस दुःख से अधिक पीड़ा दे। न ही किसी से ऐसे हित की कामना करो जो उसके लिये अहित हो;कहीं ऐसा न हो कि तुम अपने ही लिये अहित की कामना कर रहे होओं।बल्कि सब मनुष्यों और सब पदार्थों से उनके प्रेम की इच्छा करो;
क्योंकि उसी के द्वारा तुम्हारे परदे उठेंगे, तुम्हारे ह्रदय में ज्ञान प्रकट होगा जो तुम्हारी इच्छा को प्रभु-इच्छा के अद्भुत रहस्यों से परिचित करा देगा।जब तक तुम्हे सब पदार्थों का बोध नहीं हो जाता, तब तक तुम्हे न अपने अंदर उनकी इच्छा का बोध हो सकता है और न उनके अंदर अपनी इच्छा का। जब तक तुम्हे सभी पदार्थों में अपनी इच्छा तथा अपने अंदर उनकी इच्छा का बोध नहीं हो जाता, तब तक तुम प्रभु-इच्छा के रहस्यों को नहीं जान सकते।
और जब तक प्रभु-इच्छा के रहस्यों को जान न लो, तुम्हे अपनी इच्छा को उसके विरोध में खडा नहीं करना चाहिये; क्योंकि पराजय निःसंदेह तुम्हारी होगी। हर टकराव में तुम्हारा शारीर घायल होगा और तुम्हारा ह्रदय कटुता से भर जायेगा। तब तुम बदला लेने का प्रयास करोगे, और परिणाम यह होगा तुम्हारे घावों में नये घाव जुड़ जायेंगे और तुम्हारी कटुता का प्याला भरकर छलकने लगेगा।
मैं तुमसे कहता हूँ, यदि तुम हार को जीत में बदलना चाहते हो तो प्रभु-इच्छा को स्वीकार करो। बिना किसी आपत्ति के स्वीकार करो उन सब पदार्थों को जो उसके रहस्यपूर्ण थैले में से तुम्हारे लिये निकलें; कृतज्ञता तथा इस विश्वास के साथ स्वीकार करो कि प्रभु इच्छा में वे तुम्हारा उचित तथा नियत हिस्सा हैं। उनका मूल्य और अर्थ समझने की दृढ़ भावना से उन्हें स्वीकार करो।
और जब एक बार तुम अपनी इच्छा की गुप्त कार्य-प्रणाली को समझ लोगे,तो तुम प्रभु इच्छा को समझ लोगे। जिस बात को तुम नहीं जानते उसे स्वीकार करो ताकि उसे जानने में वह तुम्हारी सहायता करे। उसके प्रति रोष प्रकट करोगे तो वह एक अनबूझ पहेली बनी रहेगी।
अपनी इच्छा को तब तक
प्रभु- इच्छा की दासी बनी रहने दो
जब तक दिव्य ज्ञान प्रभु-इच्छा को
तुम्हारी इच्छा की दासी न बना दे।
यही शिक्षा थी मेरी नूह को।
यही शिक्षा है मेरी तुम्हे।

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