Thursday, 30 October 2014

(hindi) किताब ए मीरदाद - अध्याय - 27 / 28



अध्याय 27.
 अस्तित्व का हर कण सत्य का अधिकारी
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सत्य का उपदेश क्या सबको
दिया जाना चाहिये या
कुछ चुने हुए व्यक्तियों को ?
अंगूर-बेल के दिवस से एक दिन पहले मिरदाद अपने लुप्त होने का भेद प्रकट करता है और झूठी सत्ता की चर्चा करता है
नरौन्दा: प्रीति- भोज जब स्मृति मात्र रह गया था, उसके काफी समय बाद एक दिन सातों साथी पर्वतीय नीड़ में मुर्शिद के पास इकटठे हुए थे।
उस दिन की स्मरणीय घटनाओं पर जब साथी विचार कर रहे थे तो मुर्शिद चुप रहे। कुछ साथियों ने उत्साह के साथ उद्वेग पर पर आश्चर्य प्रकट किया जिसके साथ जन समूह ने मुर्शिद के वचनों का स्वागत किया था।
और कुछ ने शमदाम के उस समय के विचित्र तथा रहस्य पूर्ण व्यवहार पर टिप्पणी की जब सैकड़ों ऋण-आलेख नौका के कोषागार से निकाल कर सबके सामने नष्ट किये थे, शराब के सैकड़ों मर्तबान और मटके तहखानों में से निकाल कर दे दिये गए थे और अनेक मूल्यवान उपहार लौटा दिये गए थे,
क्योंकि उस समय शमदाम ने किसी प्रकार का विरोध—जिसका हमें डर था—नहीं किया था, बल्कि चुपचाप, बिना हिले-डुले, आँखों से आंसुओं की धारा बहाते हुए सब कुछ देखता रहा था।
बैनून ने कहा कि यद्यपि जय-जयकार करते-करते लोगों के गले बैठ गये थे, उनकी सराहना मुर्शिद के वचनों के लिये नहीं बल्कि माफ़ कर दिये गए ऋणों और लौटा दिये गए उपहारों के लिये थी। उसने तो मुर्शिद की हलकी-सी आलोचना भी की कि उन्होंने ऐसी भीड़ पर समय नष्ट किया जिसे खाने-पीने तथा आनंद मनाने से बढ़कर किसी ख़ुशी की तलाश नहीं थी।
बैनून विचार प्रकट किया कि सत्य का उपदेश बिना सोच-विचार के सबको नहीं, कुछ चुने हुए व्यक्तियों को ही दिया जाना चाहिये। इस पर मुर्शिद ने अपना मौन तोड़ा और कहा:
मीरदाद: हवा में छोड़ा तुम्हारा श्वास निश्चय ही किसी के फेफड़ों में प्रवेश करेगा। मत पूछो कि फेफड़े किसके हैं। केवल इतना ध्यान रखो कि तुम्हारा श्वास पवित्र हो। तुम्हारा शब्द कोई कान खोजेगा और निश्चय ही उसे पा लेगा। मत पूछो की कान किसका है।
केवल इतना ध्यान रखो कि तुम्हारा शब्द स्वतंत्रता का सच्चा सन्देश-वाहक हो। तुम्हारा मूक विचार निश्चय ही किसी जिव्हा को को बोलने के लिये प्रेरित करेगा। मत पूछो की जिव्हा किसकी है। केवल इतना ध्यान रखो कि तुम्हारा विचार प्रेमपूर्ण ज्ञान से आलोकित।
किसी भी प्रयत्न को व्यर्थ गया मत समझो। कुछ बीज वर्षों धरती में दबे पड़े रहते हैं, परन्तु जब पहली अनुकूल ऋतू का श्वास उनमे प्राण फूँकता है, वे तुरंत सजीव हो उठते हैं। सत्य का बीज प्रत्येक मनुष्य और वस्तु के अन्दर मौजूद है।
तुम्हारा काम सत्य को बोना नहीं है, बल्कि उसके अंकुरित होने के लिये अनुकूल ऋतू तैयार करना है।अनन्तकाल में सबकुछ संभव है।
इसलिये किसी भी मनुष्य की स्वतंत्रता के विषय में निराश न होओं, बल्कि मुक्ति का सन्देश सामान विश्वास तथा उत्साह के साथ सब तक पहुँचाओ—जैसे तड़पने वालों तक वैसे ही न तड़पने वालों तक भी।
क्योंकि न तड़पने वाले कभी अवश्य तड़पेंगे, और आज जिनके पंख नहीं हैं वे किसी दिन धूप चोंच से अपने पंखो को सँवारेंगे और अपनी उड़ानों से आकाश की दूरतम तथा अगम ऊँचाइयों को चीर डालेंगे। मिकास्तर: हमें बहुत दुःख है कि आज तक, हमारे बार-बार पूछने पर भी, मुर्शिद ने अंगूर-बेल के दिवस से एक दिन पहले अपने रहस्यपूर्ण ढंग से गायब हो जाने का भेद हम पर प्रकट नहीं किया है।
क्या हम उनके विश्वास के योग्य नहीं हैं ? मिरदाद: जो भी मेरे प्यार के योग्य हैं निःसंदेह मेरे विश्वास के योग्य भी हैं। विश्वास क्या प्रेम से बड़ा है, मिकास्तर ? क्या मैं तुम्हे दिल खोलकर प्रेम नहीं दे रहा हूँ? मैंने उस अप्रिय घटना की चर्चा नहीं की तो इसलिये कि मैं शमदाम को प्रायश्चित करने के लिये समय देना चाहता था,
क्योंकि वाही था जिसने दो अजनबियों की सहायता से उस शाम मुझे बलपूर्वक इस नीड़ में से उठाकर काले खड्डे में डाल दिया था। अभागा शमदाम ! उसने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि काला खड्ड कोमल हाथों से मिरदाद का स्वागत करेगा और उसके शिखर तक पहुँचने के लिये जादू की सीढियाँ लगा देगा।
हिम्बल: जब हमारे मुर्शिद शमदाम को इतना प्रेम करते हैं तो वह उन्हें क्यों सताता है?
मीरदाद: शमदाम मुझे नहीं सताता। शमदाम शमदाम को ही सताता है। अंधों के हाथ में नाममात्र की भी सत्ता दे दी तो वे उन सब लोगों की आँखे निकाल देंगे जो देख सकते हैं: उनकी भी जो उन्हें देखने की शक्ति प्रदान करने के लिये कठोर परिश्रम करते हैं। गुलाम को केवल एक दिन मनमानी करने की छूट दे दो,
और वह संसार को गुलामों के संसार में बदल देगा। सबसे पहले वह उन पर डंडे बरसायेगा और उन्हें बेड़ियाँ पहनायेगा जो उसे स्वतंत्र कराने के लिये निरंतर परिश्रम कर रहे हैं।संसार की प्रत्येक सत्ता, उसका आधार चाहे कुछ भी हो. झूठी है।
इसलिये वह अपनी एड़ें खनकाती है, तलवार घुमाती है, तथा कोलाहलपूर्ण ठाट-वाट और चमक-दमक के साथ सवारी करती है ताकि कोई उसके कपटी ह्रदय के अन्दर झाँकने का साहस न कर सके।
अपने डोलते सिंहासन को वह बंदूकों और भालों के सहारे स्थिर रखती है। मिथ्याभिमान की लपेट में आई अपनी आत्मा को वह डरावने-तावीजों और अंध-विश्वासों की आड़ में छिपाती है ताकि कुतूहली लोगों की आँखें उसकी घिनौनी निर्धनता को न देख सकें।
ऐसी सत्ता उसका उपयोग करने को उत्सुक व्यक्ति की आँखों पर पर्दा भी डालती है और उसके लिये अभिशाप भी होती है। वह हर मूल्य पर अपने आपको बनाये रखना चाहती है, चाहे बनाये रखने का भयंकर मूल्य चुकाने के लिये उसे स्वयं सत्ताधारी को और उसके समर्थकों को ही नष्ट करना पड़े, और साथ ही उनको जो उसका विरोध करते हैं। सत्ता की भूख के कारण मनुष्य निरंतर व्याकुल रहते हैं।
जिनके पास सत्ता है वे उसे बनाये रखने के लिये सदा लड़ते रहते हैं, जिनके पास नहीं वे सत्ताधारियों के हाथों से सत्ता छीनने के लिये सदा संघर्षरत रहते हैं। जबकि मनुष्य को, उसमे छिपे प्रभु को, पैरों और खुरों तले रौंदकर युद्ध-भूमि में छोड़ दिया जाता है—उपेक्षित, असहाय और प्रेम से वंचित।
इतना भयंकर है यह युद्ध, और रक्त-पात के ऐसे दीवाने हैं यह योद्धा कि नकली दुल्हन के चेहरे पर से रंगा हुआ मुखौटा कोई नहीं हटाता, उसकी राक्षसी कुरूपता प्रकट करने के लिये कोई नहीं रुकता;
अफ़सोस कोई नहीं। विश्वास करो, साधुओ, किसी भी सत्ता का रत्ती भर मूल्य नहीं है, सिवाय दिव्य ज्ञान की सत्ता के जो अनमोल है। उसे पाने के लिये कोई त्याग बड़ा नहीं है। एक बार उस सत्ता को पा लो तो समय के अंत तक वह तुम्हारे पास रहेगी।
वह तुम्हारे शब्द में इतनी शक्ति भर देगी जितनी संसार की सारी सेनाओं के हाथ में कभी नहीं आ सकती; अपने आशीर्वाद से वह तुम्हारे कार्यों में इतना उपकार भर देगी जितना संसार की सब सत्ताएँ मिलकर भी कभी संसार की झोली में डालने का स्वप्न भी नहीं देख सकतीं। क्योंकि दिव्य ज्ञान स्वयं अपनी ढाल है;
इसकी शक्तिशाली भुज प्रेम है। यह न सताता है न अत्याचार करता है, यह तो हृदयों पर ओस की तरह गिरता है; और जो इसे स्वीकार नहीं करते उन्हें भी वह उसी प्रकार राहत देता है जिस प्रकार इसका पान करने वालों को। क्योंकि इसे अपनी आंतरिक शक्ति पर बहुत गहरा विश्वास है,
यह किसी बाहरी शक्ति का सहारा नहीं लेता। क्योंकि यह नितांत भय रहित है, यह किसी भी व्यक्ति पर अपने आपको थोपने के लिये भय को साधन नहीं बनाता। संसार दिव्य ज्ञान की दृष्टी से निर्धन है—-अफ़सोस, अति निर्धन!! इसलिये वह अपनी निर्धनता को झूठी सत्ता के परदे के पीछे छिपाने का प्रयास करता है।
झूठी सत्ता झूठी शक्ति के साथ रक्षात्मक तथा आक्रमक संधियाँ करती है, और दोनों अपना नेतृत्व भय को सौंप देते हैं। और भय दोनों को नष्ट कर देता है। क्या ऐसा नहीं होता आया कि दुर्बल अपनी दुर्बलता की रक्षा के लिये संगठित हो जाते हैं?
इस प्रकार संसार की सत्ता तथा संसार की पाशविक शक्ति दोनों, हाथ में हाथ डाले, भय के नियंत्रण में चलते हैं और अज्ञानता को युद्ध, रक्त तथा आंसुओं के रूप में उसका दैनिक कर देते हैं।
और अज्ञानता मंद-मंद मुस्कराती है और सबको कहती है ‘शाबाश!’मिरदाद को खड्ड के हवाले करके शमदाम ने शमदाम से कहा, ‘शाबाश !’ परन्तु शमदाम ने यह नहीं सोचा कि मुझे खड्ड में फेंककर उसने मुझे नहीं अपने आपको फेंका था।
क्योंकि खड्ड किसी मिरदाद को रोककर नहीं रख सकता; जबकि किसी शमदाम को उसकी काली और फिसलन भरी दीवारों पर चढ़ने के लिए देर तक कठिन परिश्रम करना पड़ता है। संसार की प्रत्येक सत्ता केवल नकली आभूषण है।
जो दिव्य ज्ञान की दृष्टी से अभी शिशु हैं, उन्हें इससे अपना मन बहलाने दो। किन्तु तुम स्वयं अपने आपको कभी किसी पर मत थोपो; क्योकि जो बलपूर्वक थोपा जाता है उसे देर-सवेर बलपूर्वक हटा भी दिया जाता है। मनुष्यों के जीवन पर किसी प्रकार का प्रभुत्व जमाने का प्रयत्न न करो; वह प्रभु-इच्छा के अधीन हैं।
न ही मनुष्यों की संपत्ति पर अधिकार जमाने का प्रयत्न करो; क्योंकि मनुष्य अपनी संपत्ति से उतना ही बंधा हुआ है जितना अपने जीवन से, और उसकी जंजीरों को छेड़नेवालों को वह संदेह और घृणा की दृष्टी से देखता है।
लेकिन प्रेम और दिव्य ज्ञान के द्वारा लोगों के ह्रदय में स्थान पाने का मार्ग खोजो; एक बार वहां स्थान पा लेने पर तुम लोगों को उनकी जंजीरों से छुटकारा दिलवाने के लिये अधिक कुशलता पूर्वक कार्य कर सकते हो।
क्योंकि प्रेम तुम्हे मार्ग दिखाएगा
और दिव्य ज्ञान होगा तुम्हारा दीप-वाहक।

अध्याय -28
        अपना नाम लोगो के मुंह पर मत थोपो
        लोगो के ह्रदय में अपना नाम अंकित कर दो

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बेसार का सुलतान शमदाम
के साथ नीड़ में आता है
युद्ध और शान्ति के विषय में
”सुलतान और मीरदाद”
में वार्तालाप शमदाम
मीरदाद को जाल में फँसाता है……
सुलतान ; प्रणाम, महात्मन । हम उस महान मीरदाद का अभिवादन करने आये हैं जिसकी प्रसिद्धि इन पर्वतों में दूर-दूर तक फैलती हुई हमारी दूरस्थ राजधानी में भी पहुँच गई है ।
मीरदाद ; प्रसिद्धि विदेश में द्रुतगामी रथ पर सवारी करती है ; जबकि घर में वह बैसाखियों के सहारे लड़खड़ाती हुई चलती है । इस बात में मुखिया मेरे गवाह हैं । प्रसिद्धि की चंचलता पर विश्वाश न करो, सुलतान ।
सुलतान ; फिर भी मधुर होती है प्रसिद्धि की चंचलता, और सुखद होता है लोगों के ओठों पर अपना नाम अंकित करना ।
मीरदाद ; लोगों के ओठों पे अंकित नाम वैसा ही होता है जैसा समुद्र-तट की रेत पर नाम अंकित करना । हवाएं और लहरें उसे रेत पर से बहा ले जाएंगी । ओठों पर से तो उसे एक छींक ही उड़ा देगी । यदि तुम नहीं चाहते कि लोगों की छींकें तुम्हे उड़ा दें तो अपना नाम उनके ओठों पर मत छापो, बल्कि उनके हृदयों पर अंकित कर दो ।
सुलतान ; लेकिन लोगों का ह्रदय
           तो अनेक तालों में बंद है ।
मीरदाद ; ताले चाहे अनेक हों, पर चाबी एक है ।
सुलतान ; क्या आपके पास है वह चाबी ?
           मुझे उसकी बहुत सख्त जरुरत है ।
मीरदाद ; वह तुम्हारे पास भी है ।
सुलतान ; अफ़सोस ! आप मेरा मूल्य मेरी योग्यता से            कहीं अधिक लगा रहे हैं ।
मैं लम्बे समय से खोज रहा हूँ वह चाबी जिससे अपने पड़ोसी के ह्रदय में प्रवेश पा सकूँ,
परन्तु वह मुझे कहीं नहीं मिली ।
वह एक शक्तिशाली सुलतान है
और मुझसे युद्ध करने पे उतारू है ।
अपने शांति-प्रिय स्वभाव के
बावजूद मैं उसके विरुद्ध हथियार
उठाने के लिए विवश हूँ । मुर्शिद,
मेरे मुकुट और मोतियों-जड़े वस्त्रों के धोके में न आयें । जिस चाबी की मुझे तलाश है वह मुझे इनमे नहीं मिल रही है ।
मीरदाद ; ये वस्तुएं चाबी को छिपा तो देती हैं, पर उसे अपने पास नहीं रखतीं । ये तुम्हारे द्वारा उठाये गए कदम को जकड देती हैं, तुम्हारे हाथ को रोक लेती हैं, तुम्हारी दृष्टी को लक्ष्य-भ्रष्ट कर देती हैं, और इस प्रकार तुम्हारी तलाश को विफल कर देती हैं ।
सुलतान ; इससे मुर्शिद का क्या अभिप्राय है मुझे अपने मुकुट और राजसी वस्त्रों को फेक देना होगा ताकी मुझे अपने पडोसी के ह्रदय में प्रवेश करने की चाबी मिल जाये ।
मीरदाद ; इन्हे रखना है तो तुम्हे अपने पडोसी को खोना होगा, अपने पडोसी को रखना है तो तुम्हे इन्हे खोना होगा । और अपने पडोसी को खोना अपने आप को खो देना है ।
सुलतान ; मैं अपने पडोसी की मित्रता इतनी बड़ी कीमत पर नहीं खरीदना चाहता ।
मीरदाद ; क्या तुम इस ज़रा-सी कीमत पर भी अपने आपको नहीं खरीदना चाहते ?
सुलतान ; अपने आप को खरीदूं मैं कोई कैदी नहीं हूँ कि रिहाई की कीमत दूँ । और इसके अतिरिक्त मेरी रक्षा के लिए मेरे पास सेना है जिसे अच्छा बेटन दिया जाता है और जिसके पास पर्याप्त युद्ध सामग्री है । मेरा पडोसी इससे उत्तम सेना होने का दावा नहीं कर सकता ।
मीरदाद ; एक व्यक्ति या वस्तु का बंदी होना ही असहनीय कारावास है । मनुष्यों की एक विशाल सेना, और कई वस्तुओं के समूह का बंदी होना तो अंतहीन देश-निकाला है । क्योंकि किसी वस्तु पर निर्भर होना उस वस्तु का बंदी बनना है । इसलिए केवल प्रभु पर निर्भर रहो, क्योंकि प्रभु का बंदी होना निःसंदेह स्वतंत्र होना है ।
सुलतान ; तो क्या मैं अपने आपको,
          अपने सिंहासन को अपनी
          प्रजा को असुरक्षित छोड़ दूँ ?
मीरदाद ;
          अपने आपको असुरक्षित न छोडो ।
सुलतान ;
          इसलिए तो मैं सेना रखता हूँ ।
मीरदाद ;
         इसलिए तो तुम्हे अपनी सेना
         को भंग कर देना चाहिये ।
सुलतान ; परन्तु तब मेरा पडोशी
          मेरे राज्य को रौंद डालेगा ।
मीरदाद ; तुम्हारे राज्य को रौंद सकता है
           लेकिन तुम्हे कोई नहीं निगल सकता ।
           दो कारागार मिलकर एक हो जाएँ तो
           भी वे स्वतंत्रता के लिए
           एक छोटा-सा घर               
           नहीं बन जाते ।
यदि कोई मनुष्य तुम्हे तुम्हारे कारागार में से निकाल दे तो ख़ुशी मनाओ ; परन्तु उस व्यक्ति से ईर्ष्या न करो जो खुद तुम्हारे कारागार में बंद होने के लिए आ जाये  ।
सुलतान ; मैं एक ऐसे कुल की संतान हूँ जो रणभूमि में अपनी वीरता के लिए विख्यात है । हम दूसरों को युद्ध के लिए कभी विवश नहीं करते । किन्तु जब हमें युद्ध के लिए विवश किया जाता है तो हम कभी पीछे नहीं हटते, और शत्रु की लाशों पर ऊँची विजय पताकाएं लहराये बिना रण-भूमि से विदा नहीं लेते । आपकी सलाह कि मैं अपने पड़ोसी को मनमानी करने दूँ ,
उचित सलाह नहीं है ।
मीरदाद : क्या तुमने कहा नहीं
          था कि तुम शांति चाहते हो ?
सुलतान : हाँ शांति तो मैं चाहता हूँ ।
मीरदाद : तो युद्ध मत करो ।
सुलतान : पर मेरा पडोसी मुझसे युद्ध करने पर तुला हुआ है ; और मुझे उससे युद्ध करना ही पड़ेगा ताकि हमारे बीच शांति स्थापित हो सके ।
मीरदाद : तुम अपने पडोसी को इसलिए मार डालना चाहते हो ताकि उसके साथ शांतिपूर्वक जी सको ! कैसी विचित्र बात है ! मुर्दों के साथ शांतिपूर्वक जीने में कोई खूबी नहीं ; खूबी तो है उसके साथ शांति पूर्वक जीने में जो जिन्दा हैं । यदि तुम्हे किसी ऐसे ज़िंदा मनुष्य या वस्तु से युद्ध करना ही है जिसकी रूचि और हित तुम्हारी रूचि और हित से कभी-कभी टकराते हैं, तो युद्ध करो उस प्रभु से जो इन्हे अस्तित्व में लाया है । और युद्ध करो संसार से ;
क्योंकि उसके अंदर ऐसी अनगिनत वस्तुएं हैं जो तुम्हारे मन को व्याकुल करती हैं, तुम्हारे ह्रदय को पीड़ा पहुँचाती हैं, और अपने आप को जबरदस्ती तुम्हारे जीवन पर थोपती हैं ।
सुलतान ; यदि मैं अपने पड़ोसी के साथ शांतिपूर्वक रहना चाहूँ पर वह युद्ध करना चहता है .
तो मैं क्या करूँ ?
मीरदाद ; युद्ध करो ।
सुलतान ; अब आप मुझे ठीक सलाह दे रहे हैं ।
मीरदाद ; हाँ , युद्ध करो, परन्तु अपने पड़ोसी से नहीं । युद्ध करो उन सभी वस्तुओं से जो तुम्हे और तुम्हारे पड़ोसी को आपस में लड़ाती हैं ।
सुलतान, तुम्हारा पडोसी तुमसे लड़ना चाहता है तुम्हारे राजसी वस्त्रों के लिए, तुम्हारे सिंहासन, तुम्हारी संम्पत्ति और तुम्हारे प्रताप के लिए,
और उन सब वस्तुओं के लिए जिनके तुम बंदी हो । क्या तुम उसके विरुद्ध शास्त्र उठाये बिना उसे पराजित करना चाहोगे ? तो इससे पहले कि वह तुमसे युद्ध छेड़े, तुम स्वयं ही इन सब वस्तुओं के विरुद्ध युद्ध कि घोषणा कर दो ।
जब तुम अपनी आत्मा को इनके शिकंजे से छुड़ाकर इन पर विजय पा लोगे ; जब तुम इन्हे बाहर कूड़े के ढेर पर फेंक दोगे, सम्भव है कि तब तुम्हारा पड़ोसी अपने कदम थाम ले, और अपनी तलवार वापिस म्यान में रख ले और अपने आप से कहे ” यदि ये वस्तुएं इस योग्य होतीं कि इनके लिए युद्ध किया जाये, तो मेरा पड़ोसी इन्हे कूड़े के ढेर पर न फेंक देता ।”
यदि तुम्हारा पड़ोसी अपना पागलपन न छोड़े और उस कूड़े के ढेर को उठाकर ले जाये, तो ऐसे घृणित बोझ से अपनी मुक्ति पर ख़ुशी मनाओ, लेकिन अपने पडोसी के दुर्भाग्य पर, अफ़सोस करो ।
सुलतान ; मेरे मान का, मेरी इज्जत का क्या होगा जो मेरी सारी संम्पत्ति से कहीं अधिक मूल्य वान है ?
मीरदाद ; मनुष्य का मान केवल मनुष्य बने रहने में है —- मनुष्य जो कि प्रभु का जीता-जागता प्रतिबिम्ब और प्रतिरूप है । बाकी सब मान तो अपमान ही हैं । मनुष्यों द्वारा प्रदान किये गए सम्मान मनुष्य आसानी से छीन लेते हैं । तलवार से लिखे गए मान को तलवार आसानी से मिटा देती है ।
कोई भी मान इस लायक नहीं कि उसके लिए जंग लगा तीर भी चलाया जाये, तप्त आंसू बहाना या रक्त की एक भी बूंद गिराना तो दूर रहा ।
सुलतान ; और स्वतंत्रता, मेरी और मेरी प्रजा कि स्वतन्त्रता, क्या बड़े से बड़े
बलिदान के लायक नहीं ?
मीरदाद ; सच्ची स्वतंत्रता तो इस लायक है कि उसके लिए अपने अहम् की बलि दे दी जाये । तुम्हारे पडोसी के हथियार उस स्वतंत्रता को छीन नहीं सकते ; तुम्हारे अपने हथियार उसे प्राप्त नहीं कर सकते, उसकी रक्षा नहीं कर सकते । और युद्ध का मैदान तो सच्ची स्वतन्त्रता के लिए एक कब्र है । सच्ची स्वतंत्रता ह्रदय में ही पाई और खोई जाती है ।
क्या युद्ध चाहते हो तुम ? तो अपने ह्रदय में अपने ही ह्रदय से युद्ध करो । दूर करो अपने ह्रदय से हर आशा को,हर भय और खोखली कामना को जो तुम्हारे संसार को एक घुटन-भरा बाड़ा बनाये हुए हैं, और तुम इसे ब्रह्माण्ड से भी अधिक विशाल पाओगे ।
इस ब्रह्माण्ड में तुम स्वेच्छा से विचरण करोगे, और कोई भी वस्तु बाधा नहीं बनेगी तुम्हारे मार्ग में । केवल यही एक युद्ध है जो छेड़ने योग्य है । जुट जाओ इस युद्ध में और तब तुम्हे अन्य किसी युद्ध के लिए समय ही नहीं मिलेगा ।
और तब युद्ध तुम्हे घृणित तथा आसुरी दाँव-पेंच प्रतीत होने लगेंगे जिनका काम होगा तुम्हारे मन को भटकाना और तुम्हारी शक्ति को सोखना, और इस प्रकार अपने आपके विरुद्ध तुम्हारे महायुद्ध में जो वास्तव में धर्म युद्ध है, तुम्हारी पराजय का कारण बनना ।
इस युद्ध को जीतने का अर्थ है अनंत जीवन को पाना, किन्तु अन्य किसी भी युद्ध में विजय पूर्ण पराजय से भी बुरी होती है । और मनुष्य के हर युद्ध का भयानक पक्ष यही है कि विजेता और पराजित दोनों के पल्ले पराजय ही पड़ती है । क्या शान्ति चाहते हो तुम ?
तो मत खोजो उसे दस्तावेजों के शब्द जाल में; और मत प्रयत्न करो उसे चट्टानों पर अंकित करने में ।क्योंकि जो लेखनी इतनी आसानी से शांति लिख सकती है, वह उतनी ही आसानी से युद्ध भी लिख सकती है ;
और जी छेनी ” आओ शांति स्थापित करें ।” खोदती है, वह उतनी ही आसानी से ”आओ युद्ध करें ” भी खोद सकती है ।
और इसके अतिरिक्त, कागज़ और चट्टान, लेखनी और छेनी जल्दी ही कीड़े ,जलन,जंग और प्रकृति के परिवर्तन लाने वाले तत्वों का शिकार हो जाते हैं । किन्तु मनुष्य के काल-मुक्त ह्रदय की बात अलग है वह तो दिव्य ज्ञान के बैठने का सिंहासन है ।
जब एक बार दिव्य ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, तो युद्ध तुरंत जीत लिया जाता है और ह्रदय में स्थायी शांति स्थापित हो जाती है । अज्ञानी ह्रदय द्वैतपूर्ण होता है । द्वैतपूर्ण ह्रदय का परिणाम होता है विभाजित संसार, और विभाजित संसार जन्म देता है निरंतर संघर्ष और युद्ध को । ज्ञानवान ह्रदय एकतापूर्ण होता है ।
एकतापूर्ण ह्रदय का परिणाम होता है एक संसार, और एक संसार शांतिपूर्ण संसार होता है, जबकि लड़ने के लिए दो की जरुरत होती है । इसलिए मैं तुम्हे सलाह देता हूँ कि अपने ह्रदय को एकतापूर्ण बनाने के लिए उसी के विरुद्ध युद्ध करो विजय का पुरस्कार होगा स्थायी शांति ।
हे सुलतान, जब तुम हर शिला में सिंहासन देख सकोगे, और हर गुफा में दुर्ग पा सकोगे, तब सूर्य तुम्हारा सिंहासन और तारा मंडल तुम्हारे दुर्ग बनकर बहुत प्रसन्न होंगे । जब तुम अपने ह्रदय पर शासन कर सकोगे, तब तुम्हे इससे क्या फर्क पडेगा कि तुम्हारे शरीर पर किसका शासन है,?
जब सारा ब्रह्माण्ड तुम्हारा होगा, तो इससे क्या फर्क पड़ेगा कि धरती के किसी
टुकड़े पर किसका प्रभुत्व है ?
सुलतान ; आपके शब्द काफी लुभावने हैं फिर भी मुझे लगता है कि युद्ध प्रकृति का नियम है । क्या समुद्र की मछलियां भी निरंतर लड़ती नहीं रहतीं ? क्या दुर्बल बलवान का शिकार नहीं होता ? पर मैं किसी का शिकार नहीं बनना चाहता ।
मीरदाद ; जो तुम्हे युद्ध प्रतीत होता है वह अपना पेट भरने और अपना विस्तार करने का प्रकृति का केवल एक ढंग है । बलवान को उसी प्रकार दुर्बल का आहार बनाया गया है जिस प्रकार दुर्बल को बलवान के लिए । और फिर प्रकृति में कौन बलवान है और कौन दुर्बल ? केबल प्रकृति ही बलवान है; अन्य सभी तो निर्बल जीव हैं जो प्रकृति की इक्षा का पालन करते है और चुप चाप मृत्यु की धारा में बहे चले जाते हैं ।
केवल मृत्यु से मुक्त जीवों को बलवान का दर्जा दिया जा सकता है । और मनुष्य, ऐ सुलतान,मृत्यु-मुक्त है । हाँ, प्रकृति से अधिक शक्तिशाली है मनुष्य । वह केवल इसलिए समुद्र प्रकृति का शोषण करता है कि अपने अभावों की पूर्ति कर सके ।
वह केवल इसलिए संतान के माध्यम से अपना विस्तार करता है कि अपने आपको ऐसे विस्तार से ऊपर उठा सके । जो मनुष्य पशु की स्वच्छ मूल-प्रवृतियों का उल्लेख कर के अपनी दूषित कामनाओं को उचित सिद्ध करना चाहते हैं, उन्हें अपने आपको जंगली सूअर, या भेड़िये, या गीदड़ या और कुछ भी कह लेने दो, परन्तु उन्हें मनुष्य के श्रेष्ठ नाम को दूषित मत करने दो । मीरदाद पर विश्वास करो सुलतान,
और शांति प्राप्त करो ।
सुलतान ; मुखिया ने मुझे बताया कि मीरदाद जादू टोने के रहस्यों का अच्छा ज्ञाता है, और मैं चाहता हूँ कि वह अपनी कुछ शक्तियों का प्रदर्शन करे ताकि मैं उन पर विश्वास कर सकूँ ।
मीरदाद ; यदि मनुष्य के अंदर प्रभु प्रकट करना जादू है तो मीरदाद जादूगर है । क्या तुम मेरे जादू का कोई प्रमाण और कोई प्रदर्शन चाहते हो ?तो देखो मैं ही प्रमाण और प्रदर्शन हूँ । अब जाओ जिस काम के लिए आये हो वह करो ।
सुलतान ; ठीक अनुमान लगाया है तुमने कि मुझे तुम्हारी सनकी बातों से कान बहलाने के अलावा और भी काम हैं । क्योंकि बेसार का सुलतान एक दूसरी तरह का जादूगर है ; और अपने कौशल का वह अभी प्रदर्शन करेगा । सिपाहियो, अपनी जंजीरें लाओ और इस प्रभु- मनुष्य या मनुष्य – प्रभु के हाथ पैर बाँध दो ।
आओ , दिखा दें इसे तथा यहाँ उपस्थित व्यक्तियों को कि हमारा जादू कैसा है ?
नरौंदा ; सिपाही हिंसक पशुओं की तरह मुर्शिद पे झपटे और उनके हाथों और पैरों को जंजीरों से बांधने लगे । क्षण भर के लिए सातों साथी स्तब्ध बैठे रहे ; उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि उनके सामने जो हो रहा है उसे मजाक समझें या गम्भीर घटना ।
मिकेयन और जामोरा ने उस अप्रिय स्थिति की गम्भीरता को पहले से ही समझ लिया । दो क्रोधित सिंहों की तरह वे सिपाहियों पर टूट पड़े ; और यदि मुर्शिद की रोकती और धैर्य बंधाती आवाज उन्हें सुनाई न देती तो उन्होंने सिपाहियों को पछाड़ दिया होता ।
मीरदाद ; इन्हे अपने कौशल का प्रयोग कर लेने दो, उतावले मिकेयन । इन्हे अपनी इच्छा पूरी कर लेने दो, भले जामोरा । काले खड्ड से भयानक नहीं हैं इनकी जंजीरें मीरदाद के लिए ।
शमदाम को अपनी सत्ता पर बेसार के सुलतान की सत्ता का पैबंद लगाने की खुशियां मना लेने दो । यह पैबंद ही इन दोनों को चीर डालेगा ।
सुलतान ;- ऐसा ही व्यवहार किया जाएगा हर उस दुष्ट और पाखण्डी के साथ जो वैध अधिकार और सत्ता का विरोध करने का दुःसाहस करेगा ।
मीरदाद को सुलतान के सिपाही बाहर ले गए, और सुलतान तथा शमदाम ख़ुशी से अकड़ते हुए पीछे पीछे चल दिए ।

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