Wednesday, 29 October 2014

(hindi) किताब ए मीरदाद - अध्याय -22 / 23 / 24






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अध्याय -22

 स्वयं  अपने स्वामी  बनो
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मीरदाद जमोरा को उसके रहस्य
के भार से मुक्त करता है
औरपुरुष तथा स्त्री की,विवाह की,
ब्रहमचर्य की तथा आत्म-विजेता की बात करता है…….
मीरदाद: नरौन्दा, मेरी विश्वसनीय स्मृति !
क्या कहते हैं तुमसे ये कुमुदनी के फूल ?
नरौन्दा: ऐसा कुछ नहीं जो मुझे सुनाई देता हो, मेरे मुर्शिद।
मीरदाद: मैं इन्हें कहते सुन रहा हूँ, ”हम नारौन्दा से प्यार करते हैं, और अपने प्यार-स्वरूप अपनी सुगन्धित आत्मा उसे प्रसन्नता पूर्वक भेंट करते है।”
नरौन्दा, मेरे स्थिर ह्रदय ! क्या कहता है तुमसे इस सरोवर का पानी ?
नरौन्दा: ऐसा कुछ नहीं जो
मुझे सुनाई देता हो,मेरे मुर्शिद।
मिरदाद: मैं इसे कहते सुनता हूँ, ” मैं नरौन्दा से प्यार करता हूँ, इसलिये मैं उसकी प्यास बुझाता हूँ, और उसके प्यारे कुमुदनी के फूलों की प्यास भी।”
नरौन्दा मेरे जाग्रत नेत्र!
क्या कहते हैं तुमसे यह दिन,उन सब चीजों को अपनी झोली में लिये जिन्हें यह धूप में नहाई अपनी बांहों में इतनी कोमलता से झुलाता है ?”
नरोन्दा: ऐसा कुछ नहीं जो मुझे सुनाई देता हो, मेरे मुर्शिद।
मीरदाद मैं इसे कहते सुनता हूँ, ” मैं नरौन्दा से बहुत प्यार करता हूँ, इसलिए मैं अपने प्रिय परिवार के एनी सदस्यों सहित उसे धूप में नहाई अपनी बाहों में इतनी कोमलता से झुलाता हूँ।”
जब प्यार करने के लिए और प्यार पाने के किये इतना कुछ है तो नरौन्दा का जीवन क्या इतना भरपूर नहीं कि सारहीन स्वप्न और विचार उसमे घोंसला न बना सकें, अपने अण्डे न से सकें ?
सचमुच मनुष्य ब्रम्हाण्ड का दुलारा है। सब चीजें उससे बहुत लाड़-प्यार करके प्रसन्न होती हैं। किन्तु इने-गिने हैं ऐसे मनुष्य जो इतने अधिक लाड़-प्यार से बिगड़ते नहीं, तथा और भी कम हैं ऐसे मनुष्य जो लाड-प्यार करनेवाले हाथों को काट नहीं खाते।
जो बिगड़े हुए नहीं हैं उनके लिये सर्प-दंश भी स्नेहमय चुम्बन होता है। किन्तु बिगड़े हुए लोगों के लिए स्नेहमय चुम्बन भी सर्प-दंश होता है। क्या ऐसा नहीं है, जमोरा ? जमोरा; जिस बात को मुर्शिद सच कहते हैं, वह अवश्य सच होगी।मीरदाद; क्या तुम्हारे सम्बन्ध में यह सच नहीं है, जमोरा ? क्या तुम्हे बहुत-से प्रेमपूर्ण चुम्बनों का बिष नहीं चढ़ गया है? क्या तुम्हे अपने बिषैले प्रेम की स्मृतियाँ अब दुखी नहीं कर रही है?
जमोरा; ( नेत्रों से अश्रु-धारा बहाते हुए मुर्शिद के पैरों में गिरकर ) ओह, मुर्शिद !
किसी भेद को ह्रदय के सबसे गहरे कोने में रखकर भी आपसे छिपाना मेरे लिये, या किसी के लिये, कैसा बचपना है, कैसा व्यर्थ अभिमान है !
मिरदाद; ( जमोरा को उठाकर ह्रदय से लगाते हुए ) कैसा बचपना है, कैसा व्यर्थ अभिमान है इन कुमुद-पुष्पों से भी उसे छिपाना।
जमोरा; मैं जानता हूँ कि मेरा ह्रदय अभी पवित्र नहीं है, क्योंकि मेरे गत रात्रि के स्वप्न अपवित्र थे। मेरे मुर्शिद, आज, मैं अपने ह्रदय का शोधन कर लूँगा।
मैं इसे निर्वस्त्र कर दूँगा, आपके सामने,नरौन्दा के सामने, और इन कुमुद-पुष्पों तथा इनकी जड़ों में रेंगते केंचुओं के सामने। कुचल डालनेवाले इस रहस्य के बोझ से मैं अपनी आत्मा को मुक्त कर लूँगा।
आज इस मंद समीर को मेरे इस रहस्य को उड़ाकर संसार के हर प्राणी,हर वस्तु तक ले जाने दो। अपनी युवावस्था में मैंने एक युवती से प्रेम किया था।
प्रभात के तारे से भी अधिक सुंदर थी वह। मेरी पलकों के लिये नींद जितनी मीठी थी, मेरी जिव्हा के लिये उससे कहीं अधिक मीठा था उसका नाम।
जब आपने हमें प्रार्थना और रक्त के प्रवाह के सम्बन्ध में उपदेश दिया था, तब मैं समझता हूँ, आपके शान्तिप्रद शब्दों के रस का पान सबसे पहले मैंने किया था,
क्योंकि मेरे रक्त की बागडोर होगला ( यही नाम था उस कन्या का ) के प्रेम के हाथ में थी, और मैं जानता था एक कुशल संचालक पाकर रक्त क्या कुछ कर सकता है। होगला का प्रेम मेरा था तो अनंत काल मेरा था।
उसके प्रेम को मैं विवाह की अंगूठी की तरह पहने हुए था। और स्वयं मृत्यु को मैंने कवच मान लिया था। मैं आयु में अपने आपको हर बीते हुए कल से बड़ा और भविष्य में जन्म लेने बाले अंतिम काल से छोटा अनुभव करता था। मेरी भुजाओं ने आकाश को थाम रखा था, मेरे पैर धरती को गति प्रदान करते थे,
जबकि मेरे ह्रदय में थे अनेक चमकते सूर्य। परन्तु होगला मर गई, और जमोरा आग में जल रहा अमरपक्षी, राख का ढेर होकर रह गया। अब उस बुझे हुए निर्जीव ढेर में से किसी नये अमरपक्षी को प्रकट नहीं होना था।
जमोरा, जो एक निडर सिंह था, एक सहमा हुआ खरगोश बनकर रह गया। जमोरा, जो आकाश का स्तम्भ था, प्रवाह-हीन पोखर में पड़ा एक शोचनीय खण्डहर बनकर रह गया। जितने भी जमोरा को मैं बचा सका उसे लेकर मैं नौका की ओर चला आया, इस आशा के साथ कि मैं अपने आपको नौका की प्रलयकालीन स्मृतियों और परछाइयों में जीवित दफना दूंगा।
मेरा सौभाग्य था कि मैं ठीक उस समय यहाँ पहुंचा जब एक साथी ने संसार से कूच किया ही था, और मुझे उसकी जगह स्वीकार कर लिया गया। पन्द्रह वर्ष तक इस नौका में साथियों ने जमोरा को देखा और सुना है, पर जमोरा का रहस्य उनहोंने न देखा न सुना।
हो सकता है कि नौका की पुरातन दीवारें और धुंधले गलियारे इस रहस्य से अपरिचित न हों। हो सकता है कि इस उद्यान के पेड़ों, फूलों और पक्षियों को इसका कुछ आभास हो। परन्तु मेरे रबाब के तार निश्चय ही आपको मेरी होगला के बारे में मुझसे अधिक बता सकते हैं, मुर्शिद।
आपके शब्द जमोरा की राख को हिलाकर गर्म करने ही लगे थे और मुझे एक नये जमोरा के जन्म का विशवास हो ही रहा था कि होगला ने मेरे सपनो में आकर मेरे रक्त को उबाल दिया, और मुझे उछाल फेंका आज के यथार्थ के उदास चट्टानी शिखरों पर — एक बुझ चुकी मशाल, एक मृत-जात आनंद, एक बेजान राख का ढेर।
आह, हो गला, हो गला !
मुझे क्षमा कर दें, मुर्शिद।
मैं अपने आंसुओं को रोक नहीं सकता। शरीर क्या शरीर के सिवाय कुछ और हो सकता है? दया करें मेरे शरीर पर। दया करें जमोरा पर।
मीरदाद : स्वयं दया को दया की जरुरत है। मिरदाद के पास दया नहीं है। लेकिन अपार प्रेम है मिरदाद के पास सब चीजों के लिये, शरीर के लिये भी, और उससे अधिक आत्मा के लिये जो शरीर का स्थूल रूप केवल इसलिये धारण करती है कि उसे निराकारता से पिघला दे। मिरदाद का प्रेम जमोरा को उसकी राख में से उठा लेगा और उसे आत्म– विजेता बना देगा।
आत्म-विजेता बनने का उपदेश देता हूँ मैं—एक ऐसा मनुष्य बनने का जो एक हो चुका हो, जो स्वयं अपना स्वामी हो। स्त्री के प्रेम द्वारा बंदी बनाया गया पुरुष और पुरुष के प्रेम द्वारा बंदी बनाई गई स्त्री, दोनों स्वतंत्रता के अनमोल मुकुट को पहनने के अयोग्य हैं।
परन्तु ऐसे पुरुष और स्त्री पुरस्कार के अधिकारी हैं जिन्हें प्रेम ने एक कर दिया हो, जिन्हें एक-दूसरे से अलग न किया जा सके, जिनकी अपनी अलग-अलग कोई पहचान ही न रही हो। वह प्रेम नहीं जो प्रेमी को अपने आधीन कर लेता है। वह प्रेम नहीं जो रक्त और मांस पर पलता है। वह प्रेम नहीं जो स्त्री को पुरुष की ओर केवल इसलिये आकर्षित करता है कि और स्त्रियाँ तथा पुरुष पैदा किये जायें और इस तरह उनके शारीरिक बन्धन स्थायी हो जायें।
…आत्म-विजेता बनने का उपदेश देता हूँ मैं—-उस अमरपक्षी जैसा मनुष्य बनने का जो इतना स्वतंत्र है की पुरुष नहीं हो सकता, और इतना महान और निर्मल कि स्त्री नहीं हो सकता। जिस प्रकार जीवन के स्थूल क्षेत्रों में पुरुष और स्त्री एक हैं, उसी प्रकार जीवन के सूक्ष्म क्षेत्रों में वे एक हैं। स्थूल और सूक्ष्म के बीच का अंतर नित्यता का केवल एक ऐसा खण्ड है
जिस पर द्वेत का भ्रम छाया हुआ है। जो न आगे देख पाते हैं न पीछे, वे नित्यता के इस खण्ड को नित्यता ही मान लेते हैं। यह न जानते हुए कि जीवन का नियम एकता है, वे द्वेत के भ्रम से ऐसे चिपके रहते हैं जैसे वाही जीवन का सार है। द्वेत समय में आनेवाली एक अवस्था है। द्वेत जिस प्रकार एकता से निकलता है, उसी प्रकार एकता की ओर ले जाता है। जितनी जल्दी तुम इस अवस्था को पार कर लोगे,उतनी ही जल्दी अपनी स्वतंत्रता को गले लगा लोगे।
और पुरुष और स्त्री हैं क्या ? एक ही मानव जो अपने एक होने से बेखबर है, और जिसे इसलिये दो टुकड़ों में चीर दिया गया है तथा द्वेत का विष पीने के लिये विवश कर दिया गया है कि वह एकता के अमृत के लिये तड़पे; और तडपते हुए दृढ़ निश्चय के साथ उसकी तलाश करे; और तलाश करते हुए उसे पा ले,
तथा उसका स्वामी बन जाये जिसे उसकी परम स्वतंत्रता का बोध हो। घोड़े को घोड़ी के लिये हिनहिनाने दो, हिरनी को हिरन को पुकारने दो। स्वयं प्रकृति उन्हें इसके लिये प्रेरित करती है, उनके इस कर्म को आशीर्वाद देती है और उसकी प्रशंसा करती है, क्योंकि संतान को जन्म देने से अधिक ऊँची किसी नियति का उन्हें अभी बोध ही नहीं है।
जो पुरुष और स्त्रियाँ अभी तक घोड़े घोड़ी से तथा हिरन और हिरनी से भिन्न नहीं है, उन्हें काम के अँधेरे एकांत में एक- दूसरे को खोजने दो। उन्हें शयन-कक्ष की वासना में विवाह- बंधन की छूट का मिश्रण करने दो। उन्हें अपनी कटि की जननक्षमता तथा अपनी कोख की उर्वरता में प्रसन्न होने दो। उन्हें अपनी नस्ल को बढ़ाने दो। स्वयं उनकी प्रेरिका तथा धाय बनकर खुश है;प्रकृति उन्हें फूलों की सेज बिछाती है, पर साथ ही उन्हें काँटों की चुभन देने से भी नहीं चूकती।
लेकिन आत्म-विजय के लिये तडपनेवाले पुरुषों और स्त्रिओं को शरीर में रहते हुए भी अपनी एकता का अनुभव जरूर करना चाहिये; शारीरिक संपर्क के द्वारा नहीं, बल्कि शारीरिक संपर्क की भूख और उस भूख द्वारा पूर्ण एकता और दिव्य ज्ञान के रास्ते में खड़ी की गई रुकावटों से मुक्ति पाने के संकल्प द्वारा।
तुम प्रायः लोगों को मानव प्रकृति के बारे में यों बात करते हुए सुनते हो जैसे वह कोई ठोस तत्व हो, जिसे अच्छी तरह नापा-तोला गया है, जिसके निश्चित लक्षण हैं, जिसकी पूरी तरह छान-बीन कर ली गई है और जो किसी ऐसी वस्तु द्वारा चारों ओर से प्रतिबंधित है जिसे लोग ”काम” कहते हैं। लोग कहते हैं काम के मनोवेग को संतुष्ट करना मनुष्य की प्रकृति है,
लेकिन उसके प्रचंड प्रवाह को नियंत्रित करके काम पर विजय पाने के साधन के रूप में उसका उपयोग करना निश्चय ही मानव-स्वभाव के विरुद्ध है और दुःख को न्योता देना है। लोगों की इन अर्थहीन बातों की ओर ध्यान मत दो। बहुत विशाल है मनुष्य और बहुत अनबूझ है उसकी प्रकृति। अत्यंत विविध हैं उसकी प्रतिभाएँ और अटूट है उसकी शक्ति।
सावधान रहो उन लोगों से जो उसकी सीमाएँ निर्धारित करने का प्रयास करते हैं। …
काम-वासना निश्चय ही मनुष्य पर एक भारी कर लगाती है। लेकिन यह कर वह कुछ समय तक ही देता है।
तुममे से कौन अनंतकाल के लिये दास बना रहना चाहेगा?
कौन-सा दास अपने राजा का जुआ उतार फेंकने और ऋण-मुक्त होने के सपने नहीं देखता ? मनुष्य दास बन्ने के लिये पैदा नहीं हुआ था, अपने पुरुषत्व का दास भी नहीं। मनुष्य तो सदैव हर प्रकार की दासता से मुक्त होने के लिये तडपता है;
और वह मुक्ति उसे अवश्य मिलेगी। जो आत्म-विजय प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रखते हैं, उनके लिये खून के रिश्ते क्या ? एक बंधन जिसे दृढ़ संकल्प द्वारा तोड़ना जरुरी है। आत्म-विजेता हर रक्त के साथ अपने रक्त का सम्बन्ध महसूस करता है। इसलिये वह किसी के साथ बँधा नहीं होता। जो तड़पते नहीं, उन्हें अपनी नस्ल बढ़ाने दो।
जो तड़पते हैं, उन्हें एक और नस्ल बढ़ानी है–आत्म-विजेताओं की नस्ल। आत्म-विजेताओं की नस्ल कमर और कोख से नहीं निकलती। बल्कि उसका उदय होता है संयमी हृदयों से रक्त की बागडोर विजय पाने के निर्भीक संकल्प के हाथों में होती है।
मैं जानता हूँ तुमने तथा तुम जैसे अन्य अनेक लोगों ने ब्रम्हचर्य का व्रत ले रखा है। किन्तु अभी बहुत दूर हो तुम ब्रम्हचर्य से, जैसा कि जमोरा का गत रात्रि का स्वप्न सिद्ध करता है। ब्रम्हचारी वे नहीं हैं जो मठ की पोशाक पहनकर अपने आपको मोटी दीवारों और विशाल लौह-द्वारों के पीछे बंद कर लेते हैं। अनेक साधू और साध्वियां अति कामुक लोगों से भी अधिक कामुक होते हैं, चाहे उनके शरीर सौगंध खाकर कहें,
और पूरी सच्चाई के साथ कहें, कि उनहोंने कभी किसी दूसरे के साथ सम्पर्क नहीं किया। ब्रम्हचारी तो वे हैं, जिनके ह्रदय और मन ब्रम्हचारी हैं, चाहे वे मठों में रहें चाहे खुले बाजारों में। स्त्री का आदर करो, मेरे साथियों, और उसे पवित्र मानो। मनुष्य जाती की जननी के रूप में नहीं, पत्नी या प्रेमिका के रूप में नहीं, बल्कि द्वैत पूर्ण जीवन के लम्बे श्रम और दुःख में कदम-कदम पर मनुष्य के प्रतिरूप और बराबर के भागिदार के रूप में।
क्योंकि उसके बिना पुरुष द्वेत के खण्ड को पार नहीं कर सकता। स्त्री में ही मिलेगी पुरुष को अपनी एकता और पुरुष में ही मिलेगी स्त्री को द्वैत से अपनी मुक्ति। समय आने पर ये दो मिलकर एक हो जायेंगे–यहाँ तक कि आत्म-विजेता बन जायेंगे जो न नर है न नारी, जो है, पूर्ण मानव।
आत्म-विजेता बनने का उपदेश देता हूँ मैं—ऐसा मनुष्य बनने का जो एकता प्राप्त कर चुका हो, जो स्वयं अपना स्वामी हो। और इससे पहले कि मीरदाद तुम्हारे बीच में से अपने आप को उठा ले, तुम में से प्रत्येक आत्म-विजेता बन जायेगा।जमोरा; आपके मुख से हमें छोड़ जाने की बात सुनकर मेरा ह्रदय दुखी होता है।
यदि वह दिन कभी आ गया जब हम ढूंढ़ें और आप न मिलें, तो जमोरा निश्चय ही अपने जीवन का अन्त कर देगा। मिरदाद; अपनी इक्षा–शक्ति से तुम बहुत-कुछ कर सकते हो, जमोरा–सब कुछ कर सकते हो। पर एक काम नहीं कर सकते और वह है अपनी इक्षा-शक्ति का अन्त कर देना, जो जीवन की इच्छा है, जो प्रभु–इच्छा है। क्योंकि जीवन, जो अस्तित्व है, अपनी इच्छा शक्ति से अस्तित्व हीन नहीं हो सकता; न ही अस्तित्वहीन की कोई इच्छा हो सकती है। नहीं,परमात्मा भी जमोरा का अन्त नहीं कर सकता।
जहां तक मेरा तुमको छोड़ जाने का प्रश्न है, वह दिन अवश्य आयेगा जब तुम मुझे देह रूप में ढूंढोगे और मैं नहीं मिलूंगा, क्योंकि इस धरती के अतिरिक्त कहीं और भी मेरे लिये काम हैं। पर मैं कहीं भी अपने काम को अधूरा नहीं छोड़ता। इसलिये खुश रहो। मीरदाद तब तक तुमसे विदा नहीं लेगा जब तक वह तुम्हे आत्म-विजेता नहीं बना देता—
ऐसे मानव जो एकता प्राप्त कर चुके हों, जो पूर्णतया अपने स्वामी बन गये हों। जब तुम अपने स्वामी बन जाओगे और एकता प्राप्त कर लोगे, तब तुम अपने ह्रदय में मिरदाद को निवास करता पाओगे, और उसका नाम त्तुम्हारी स्मृति में कभी धूमिल नहीं होगा।
यही शिक्षा थी मेरी नूह को।
यही शिक्षा ही मेरी तुम्हे।

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महत्त्व शब्दों का नहीं महत्व भावना का है
जो शब्दों में गुंजती है
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अध्याय 23
मीरदाद सिम-सिम को ठीक करता है
और बुढापे के बारे में बताता है”
नरौन्दा: नौका की पशुशालाओं की सबसे बूढ़ी गाय सिम-सिम पांच दिन से बीमार थी और चारे या पानी को मुंह नहीं लगा रही थी।
इस पर शमदाम ने कसाई को बुलवाया। उसका कहना था कि गाय को मारकर उसके मांस और खाल की बिक्री से लाभ उठाना अधिक समझदारी है,
बनिस्बत इसके कि गाय को मरने दिया जाये और वह किसी काम न आये। जब मुर्शिद ने यह सुना तो गहरे सोच में डूब गये, और तेजी से सीधे पशुशाला की ओर चल पड़े तथा सिम-सिम के ठान पर जा पहुंचे।
उनके पीछे सातों साथी भी वहां पहुँच गये।सिम-सिम उदास और हिलने-डुलने असमर्थ-सी थी।
उसका सर नीचे लटका हुआ था, आँखें अधमुँदी थीं, शरीर के बाल सख्त और कान्ति-हीन थे। किसी ढीठ मक्खी को उड़ाने के लिये वह कभी–
कभी अपने कान को थोड़ा सा हिला देती थी। उसका विशाल दुग्ध-कोष उसकी टांगों के बीच ढीला और खाली लटक रहा था, क्योंकि वह अपने लम्बे तथा फलपूर्ण जीवन के अंतिम भाग में मातृत्व की मधुर वेदना से वंचित हो गई थी।
उसके कूल्हों की हड्डियाँ उदास और असहाय, कब्र के दो पत्थरों की तरह बाहर निकली हुई थीं। उसकी पसलियाँ और रीढ़ की हड्डियाँ आसानी से गिनी जा सकती थीं। उसकी लम्बी और पतली पूंछ सिरे पर बालों का भारी गुच्छा लिये अकड़ी हुई सीधी लटक अहि थी। मुर्शिद बीमार पशु के निकट गये और उसे आँखों तथा सींगों के बीच और ठोड़ी के नीचे सहलाने लगे।
कभी-कभी वे उसकी पीठ और पेट पर हाथ फेरते। पूरा समय वे उससे इस प्रकार बातें करते रहे जैसे किसी मनुष्य के साथ बातें कर रहे हों :
मीरदाद: तुम्हारी जुगाली कहाँ है,
मेरी उदार सिम-सिम?
इतना दिया है सिम-सिम ने कि अपने लिये थोड़ा-सा जुगाल रखना भी भूल गई। अभी और बहुत देना है सिम-सिम को।
उसका बर्फ-सा सफ़ेद दूध आज तक हमारी रगों में गहरा लाल रंग लिये दौड़ रहा है। उसके पुष्ट बछड़े हमारे खेतों में भारी हल खींच रहे है और अनेक भूखे जीवों को भोजन देने में हमारी सहायता कर रहे हैं। उसकी सुंदर बछियाँ अपने बच्चों से हमारी चारागाहों को भर रही हैं। उसका गोबर भी हमारे बैग की रस-भरी सब्जियों और फलोद्यान के स्वादिष्ट फलों में हमारे भोजन की बरकत बना हुआ है।
हमारी घाटियाँ नेक सिम-सिम के खुलकर रँभाने की ध्वनी और प्रतिध्वनि से अभी तक गूँज रही हैं। हमारे झरने उसके सौम्य तथा सुंदर मुख को अभी तक प्रतिबिम्बित कर रहे हैं। हमारी धरती की मिटटी उसके खुरों की अमित छाप को अभी तक सीने से लगाय हुए है और सावधानी के साथ उसकी सँभाल कर रही है।
बहुत प्रसन्न होती है हमारी घांस सिम-सिम का भोजन बनकर। बहुत संतुष्ट होती है हमारी धूप उसे सहला कर। बहुत आनंदित होता हमारा मन्द समीर उसके कोमल और चमकीले रोम-रोम को छूकर।
बहुत आभार महसूस करता है मीरदाद उसे वृद्धावस्था के रेगिस्तान को पार करवाते हुए, उसे एनी सूर्यों तथा समीरों के देश में नयी चरागाहों का मार्ग दिखाते हुए। बहुत दिया है सिम-सिम ने,
और बहुत लिया है;
लेकिन सिम-सिम को अभी
और भी देना और लेना है।
मिकास्तर: क्या सिम-सिम आपके शब्दों को समझ सकती है जो आप उससे ऐसे बातें कर रहे हैं मानो वह मनुष्य की-सी बुद्धि रखती हो?
मीरदाद; महत्व शब्द का नहीं होता, भले मिकास्तर। महत्व उस भावना का होता है जो शब्द के अंदर गूंजती है; और पशु भी उससे प्रभावित होते हैं।
और फिर, मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि बेचारी सिम-सिम की आँखों में से एक स्त्री मेरी ओर देख रही है।
मिकास्तर; बूढी और दुर्बल सिम-सिम के साथ इस प्रकार बातें करने का क्या लाभ ? क्या आप आशा करते है कि इस प्रकार आप बुढापे के प्रकोप को रोककर सिम-सिम की आयु लम्बी कर देंगे ?
मीरदाद; एक दर्दनाक बोझ है बुढापा मनुष्य के लिये, और पशु के लिये भी। मनुष्य ने अपनी उपेक्षापूर्ण निर्दयता से इसे और भी दर्दनाक बना दिया है। एक नवजात शिशु पे वे अपना अधिक से अधिक ध्यान और प्यार लुटाते हैं।
परन्तु बुढापे के बोझ से दबे मनुष्य के लिये वे अपने ध्यान से अधिक अपनी उदासीनता, और अपनी सहानुभूति से अधिक अपनी उपेक्षा बचाकर रखते हैं। जितने अधीर वे किसी दूधमुंहे बच्चे को जवान होता देखने के लिये होते हैं, उतने ही अधीर होते हैं वे किसी वृद्ध मनुष्य को कब्र का ग्रास बनता देखने के लिये।
बच्चे और बूढ़े दोनों ही सामान रूप से असहाय होते हैं किन्तु बच्चों की बेबसी बरबस सबकी प्रेम और त्याग से पूर्ण सहायता प्राप्त कर लेती है;
जब कि बूढों की बेबसी किसी किसी की ही अनिच्छा पूर्वक दी गई सहायता को पाने में सफल होती है। वास्तव में बच्चों की तुलना में बूढ़े सहानुभूति के अधिक अधिकारी होते हैं। जब शब्दों को उस कान में प्रवेश पाने के लिये जो कभी हलकी से हलकी फुसफुसाहट के प्रति भी संवेदनशील और सजग था, देर तक और जोर से खटखटाना पड़ता है ;
जब आँखें, जो कभी निर्मल थीं, विचित्र धब्बों और छायाओं के लिये नृत्य मंच बन जाती हैं ;जब पैर, जिनमें कभी पंख लगे हुये थे, शीशे के ढेले बन जाते हैं ;
और हाथ जो जीवन को साँचे में ढालते थे, टूटे साँचों में बदल जाते हैं ;जब घुटनों के जोड़ ढीले पड़ जाते हैं, और सिर गर्दन पर रखी एक कठपुतली बन जाता है ;जब चक्की के पाट घिस जाते हैं, और स्वयं चक्की-घर सुनसान गुफा हो जाता है ;जब उठने का अर्थ होता है गिर जाने के भय से पसीने-पसीने होना, और बैठने का अर्थ होता है इस दुःखदायी संदेह के साथ बैठना कि शायद फिर कभी उठा ही न जा सके ;
जब खाने-पीने का अर्थ होता है खाने-पीने के परिणाम से डरना, और न खाने-पीने का अर्थ होता है घ्रणित मृत्यु का दबे-पाँव चले आना ;हाँ जब बुढ़ापा मनुष्य को दबोच लेता है, तब समय होता है, मेरे साथियो,
उसे कान और नेत्र प्रदान करने का, उसे हाथ और पैर देने का, उसकी क्षीण हो रही शक्ति को अपने प्यार के द्वारा पुष्ट करने का, ताकि उसे महसूस हो कि अपने खिलते बचपन और यौवन में वह जीवन को जितना प्यारा था, इस ढलती आयु में उससे रत्ती भर भी कम प्यारा नहीं है।
अस्सी वर्ष अनन्तकाल में चाहे एक पल से कम न हों; किन्तु वह मनुष्य जिसने अस्सी वर्षों तक अपने आप को बोया हो, एक पल से कहीं अधिक होता है। वह अनाज होता है उन सब के लिये जो उसके जीवन की फसल काटते हैं। और वह कौन-सा जीवन है जिसकी फसल सब नहीं काटते हैं ?
क्या तुम इस क्षण भी उस प्रत्येक स्त्री और पुरुष के जीवन की फसल नहीं काट रहे हो जो कभी इस धरती पर चले थे ? तुम्हारी बोली उनकी बोली की फसल के सिवाय और क्या है ?
तुम्हारे विचार उनके विचारों के बीने गये दानों के सिवाय और क्या हैं ? तुम्हारे वस्त्र और मकान तक, तुम्हारा भोजन, तुम्हारे उपकरण,तुम्हारे क़ानून, तुम्हारी परम्पराएँ और तुम्हारी परिपाटियाँ—ये क्या उन्हीं लोगों के वस्त्र, मकान, भोजन, उपकरण, क़ानून, परम्पराएँ और परिपाटियाँ नहीं हैं जो तुमसे पहले यहाँ आ चुके हैं और यहाँ से जा चुके हैं।एक समय में तुम एक ही चीज की फसल नहीं काटते हो, बल्कि सब चीजों की फसल काटते हो, और हर समय काटते हो।
तुम ही बोने वाले हो, फसल हो, लुनेरे हो, खेत हो और खलिहान भी। यदि तुम्हारी फसल खराब है तो उस बीज की ओर देखो जो तुमने दूसरों के अंदर बोया है, और उस बीज की ओर भी जो तुमने उन्हें अपने अंदर बोने दिया है। लुनेरे और उसकी दराँती की ओर भी देखो, और खेत और खलिहान की ओर भी।
एक वृद्ध मनुष्य जिसके जीवन की फसल तुमने काटकर अपने कोठारों में भर ली है, निश्चय ही तुम्हारी अधिकतम देख-रेख का अधिकारी है। यदि तुम उसके उन वर्षों में जो अभी काटने के लिए बची वस्तुओं से भरपूर है, अपनी उदासीनता से कड़वाहट घोल दोगे, तो जो कुछ तुमने उससे बटोर कर संभल लिया है,
और जो कुछ तुम्हें अभी बटोरना है, वह सब निश्चय ही तुम्हारे मुंह को कड़वाहट से भर देगा। अपनी शक्ति खो रहे पशु की उपेक्षा करके भी तुम्हे ऐसी ही कड़वाहट का अनुभव होगा। यह उचित नहीं कि फसल से लाभ उठा लिया जाये, और फिर बीज बोने वाले और खेत को कोसा जाये। हर जाती तथा हर देश के लोगों के प्रति दयावान बनो, मेरे साथियो।
वे प्रभु की ओर तुम्हारी यात्रा में तुम्हारा पाथेय हैं। परन्तु मनुष्य के बुढ़ापे में उसके प्रति विशेष रूप से दयावान बनो; कहीं ऐसा न हो कि निर्दयता के कारण तुम्हारा पाथेय खराब हो जाये और तुम अपनी मंजिल पर कभी पहुँच ही न सको। हर प्रकार के और हर उम्र के पशुओं के प्रति दयावान बनो; यात्रा की लम्बी और कठिन तैयारियों में वे तुम्हारे गूँगे किन्तु बहुत वफादार सहायक हैं।
परन्तु पशुओं के बुढ़ापे में उनके प्रति विशेष रूप से दयावान रहो; ऐसा न हो तुम्हारे ह्रदय की कठोरता के कारण उनकी वफादारी बेवफाई में बदल जाये और उनसे मिलने वाली सहायता बाधा बन जाये।
सिम-सिम के दूध पर पलना
और जब उसके पास देने को
और न रहे तो उसकी गर्दन
पर कसाई की छुरी रख
देना चरम कृतध्नता है।
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अध्याय - २४ 
दूसरे की पीड़ा पर जीना
पीड़ा का शिकार होना है
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खाने के लिये मारना क्या उचित है? जब शमदाम और कसाई चले गए तो मिकेयन ने मुर्शिद से पूछा: मिकेयन: खाने के लिये मारना क्या उचित नहीं है मुर्शिद ?
मीरदाद: मृत्यु से पेट भरना मृत्यु का आहार बनना है। दूसरों की पीड़ा पर जीना पीड़ा का शिकार होना है। यही आदेश है प्रभु-इच्छा का यह समझ लो और फिर अपना मार्ग चुनो, मिकेयन।
मिकेयन: यदि मैं चुन सकता तो अमर पक्षी की तरह वस्तुओं की सुगंध पर जीना पसंद करता, उसके मांस पर नहीं।
मीरदाद: तुम्हारी पसंद सचमुच उत्तम है। विश्वास करो, मिकेयन, वह दिन आ रहा है जब मनुष्य वस्तुओं की सुगंध पर जियेंगे जो उनकी आत्मा है, उनके अक्त मांस पर नहीं।
और तड़पने वाले के लिये वह दिन दूर नहीं। क्योंकि तड़पने वाले जानते हैं कि देह का जीवन और कुछ नहीं, देह-रहित जीवन तक पहुँचने वाला पुल-मात्र है। और तड़पने वाले जानते हैं कि स्थूल और अक्षम इन्द्रियाँ अत्यंत सूक्ष्म तथा पूर्ण ज्ञान के संसार के अंदर झाँकने के लिये झरोखे-मात्र हैं।
और तड़पने वाले जानते हैं कि जिस भी मांस को वे काटते है, उसे देर-सवेर, अनिवार्य रूप से, उन्हें अपने ही मांस से जोड़ना पडेगा;
और जिस भी हड्डी को वे कुचलते हैं, उसे उन्हें अपनी ही हड्डी से फिर बनाना पडेगा; और रक्त की जो बूंद वे गिराते हैं, उसकी पूर्ति उन्हें अपने ही रक्त से करनी पड़ेगी। क्योंकि शरीर का यही नियम है। पर तड़पने वाले इस नियम की दासता से मुक्त होना चाहते हैं।
इसलिये वे अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को कम से कम कर लेते हैं और इस प्रकार कम कर लेते हैं शरीर के प्रति अपने ऋण को जो वास्तव में पीड़ा और मृत्यु के प्रति ऋण है।तड़पने वाले पर रोक केवल उसकी अपनी इच्छा और तड़प की होती है,
जबकि न तड़पने वाला दूसरों द्वारा रोके जाने की प्रतीक्षा करता है अनेक वस्तुओं को, जिन्हें न तड़पने वाला उचित समझता है तड़पने वाला अपने लिये अनुचित मानता है। न तड़पने वाला अपने पेट या जेब में डालकर रखने के लिये अधिक से अधिक चीजें हथियाने का प्रयत्न करता है, जबकि तदपने वाला जब अपने मार्ग पर चलता है तो न उसकी जेब होती है और न ही उसके पेट में किसी जीव के रक्त और पीड़ा-भरी एंठ्नों की गंदगी।
न तड़पने वाला जो ख़ुशी किसी पदार्थ को बड़ी मात्रा में पाने से करता है–या समझता है कि वह प्राप्त करता है—तड़पने वाला उसे आत्मा के हलकेपन और दिव्य ज्ञान की मधुरता में प्राप्त करता है। एक हरे-भरे खेत को देख रहे दो व्यक्तियों में से एक उसकी उपज का अनुमान मन और सेर में लगाता है और उसका मूल्य सोने-चांदी में आँकता है।
दूसरा अपने नेत्रों से खेत की हरियाली का आनंद लेता है, अपने विचारों से हर पत्ती को चूमता है, और अपनी आत्मा में हर छोटी से छोटी जड़,हर कंकड़ और मिटटी के हर ढेले के प्रति भ्रातृभाव स्थापित कर लेता है। मैं तुमसे कहता हूँ, दुसरा व्यक्ति उस खेत का असली मालिक है, भले ही क़ानून की दृष्टी से पहला व्यक्ति उसका मालिक हो।एक मकान में बैठे दो व्यक्तियों में से एक उसका मालिक है,
दूसरा केवल एक अतिथि। मालिक निर्माण तथा देख-रेख के खर्च की, और पर्दों,गलीचों तथा अन्य साज-सामग्री के मूल्य की विस्तार के साथ चर्चा करता है। जबकि अतिथि मन ही मन नमन करता है उन हाथों को जिन्होंने खोदकर खदान में से पत्थरों को निकाला, उनको तराशा और उनसे निर्माण किया; उन हाथों को जिन्होंने गलीचों तथा पर्दों को बुना;
और उन हाथों को जिन्होंने जंगलों में जाकर उन्हें खिडकियों और दरवाजों का,कुर्सियों और मेजों का रूप दे दिया। इन वस्तुओं को अस्तित्व में लानेवाले निर्माण-कर्ता हाथ की प्रशंसा करने में उसकी आत्मा का उत्थान होता है। मैं तुमसे कहता हूँ, वह अतिथि उस घर का स्थायी निवासी है;
जब कि वह जिसके नाम वह मकान है केवल एक भारवाहक पशु है जो मकान को पीठ पर ढोता है, उसमे रहता नहीं। दो व्यक्तियों में से,जो किसी बछड़े के साथ उसकी माँ के दूध के सहभागी हैं, एक बछड़े को इस भावना के साथ देखता है कि बछड़े का कोमल शरीर उसके आगामी जन्म-दिवस पर उसके तथा उसके मित्रों की दावत के लिये उन्हें बढ़िया मांस प्रदान करेगा।
दूसरा बछड़े को अपना धाय-जाया भाई समझता है और उसके ह्रदय में उस नन्हे पशु तथा उसकी माँ के प्रति स्नेह उमड़ता है। मैं तुमसे कहता हूँ, उस बछड़े के मांस से दूसरे व्यक्ति का सचमुच पोषण होता है; जबकि पहले के लिये वह विष बन जाता है। हाँ बहुत सी ऐसी चीजें पेट में दाल ली जाती हैं जिन्हें ह्रदय में रखना चाहिये।
बहुत सी ऐसी चीजें जेब और कोठारों में बन्द कर दी जाती हैं जिनका आनंद आँख और नाक के द्वारा लेना चाहिये। बहुत सी ऐसी चीजें दांतों द्वारा चबाई जाती हैं जिनका स्वाद बुद्धि द्वारा लेना चाहिये।जीवित रहने के लिये शरीर की आवश्यकता बहुत कम है। तुन उसे जितना कम दोगे, बदले में वह तुम्हे उता ही अधिक देगा; जितना अधिक दोगे, बदले में उतना ही कम देगा।
वास्तव में तुम्हारे कोठार और पेट से बाहर रहकर चीजें तुम्हारा उससे अधिक पोषण करती हैं जितना कोठार और पेट के अन्दर जाकर करती हैं। परन्तु अभी तुम वस्तुओं की केवल सुगंध पर जीवित नहीं रह सकते, इसलिये धरती के उदार ह्रदय से अपनी जरुरत के अनुसार निःसंकोच लो,
लेकिन जरुरत से ज्यादा नहीं। धरती इतनी उदार और स्नेहपूर्ण है कि उसका दिल अपने बच्चों के लिये सदा खुला रहता है।
धरती इससे भिन्न हो भी कैसे सकती है ?
और अपने पोषण के लिये अपने आपसे बाहर जा भी कहाँ सकती है ? धरती का पोषण धरती को ही करना है, और धरती कोई कंजूस गृहणी नहीं, उसका भोजन तो सदा परोसा रहता है और सबके लिये पर्याप्त होता है। जिस प्रकार धरती तुम्हे भोजन पर आमंत्रित करती है और कोई भी चीज तुम्हारी पहुँच से बाहर नहीं रखती,
ठीक उसी प्रकार तुम भी धरती को भोजन पर आमंत्रित करो और अत्यंत प्यार के साथ तथा सच्चे दिल से उससे कहो;”मेरी अनुपम माँ !
जिस प्रकार तूने अपना ह्रदय मेरे सामने फैला रखा है ताकि जो कुछ मुझे चाहिये ले लूँ, उसी प्रकार मेरा ह्रदय तेरे सम्मुख प्रस्तुत है ताकि जो कुछ तुझे चाहिये ले ले।”
यदि धरती के ह्रदय से आहार प्राप्त करते हुए तुम्हे ऐसी भावना प्रेरित करती है, तो इस बात का कोई महत्व नहीं कि तुम क्या खाते हो।परन्तु यदि वास्तव में यह भावना तुम्हे प्रेरित करती है तो तुम्हारे अन्दर इतना विवेक और प्रेम होना चाहिये कि तुम धरती से उसके किसी बच्चे को न छीनो, विशेष रूप से उन बच्चों में से किसी को जो
जीने के आनंद और मरने की पीड़ा अनुभव करते हैं–जो द्वेत के खण्ड में पहुँच चुके हैं; क्योंकि उन्हें भी धीरे-धीरे और परिश्रम के साथ, एकता की ओर जानेवाले मार्ग पर चलना है। और उनका मार्ग तुम्हारे मार्ग से अधिक लंबा है। यदि तुम उनकी गति में बाधक बनते हो तो वे भी तुम्हारी गति में बाधक होंगे।
अबिमार; जब मृत्यु सभी जीवों की नियति है, चाहे वह एक कारण से हो या किसी दूसरे कारण से, तो किसी पशु की मृत्यु का कारण बनने में मुझे कोई नैतिक संकोच क्यों हो ?
मिरदाद: यह सच है कि सब जीवों का मरना निश्चित है, फिर भी धिक्कार है उसे जो किसी भी जीव की मृत्यु का कारण बनता है। जिस प्रकार यह जानते हुए कि मैं नरौन्दा से बहुत प्रेम करता हूँ और मेरे मन में कोई रक्त-पिपासा नहीं है, तुम मुझे उसे मारने का काम नहीं सौंपोगे, उसी प्रकार प्रभु-इच्छा किसी मनुष्य को किसी दूसरे मनुष्य या पशु को मारने का काम नहीं सौंपती, जब तक कि वह उस मौत के लिये साधन रूप में उसका उपयोग करना आवश्यक न समझती हो।
जब तक मनुष्य वैसे ही रहेंगे जैसे वे हैं, तब तक रहेंगे उनके बीच चोरियाँ और डाके, झूठ, युद्ध और हत्याएँ, तथा इस प्रकार के दूषित और पाप पूर्ण मनोवेग।लेकिन धिक्कार है चोर को और डाकू को, धिक्कार है झूठे को और युद्ध-प्रेमी को, तथा हत्यारे को और हर ऐसे मनुष्य को जो अपने ह्रदय में दूषित तथा पाप पूर्ण मनोवेगों को आश्रय देता है,
क्योकि अनिष्ट पूर्ण होने के कारण इन लोगों का उपयोग प्रभु-इच्छा अनिष्ट के संदेह-वाहकों के रूप में करती है।परन्तु तुम, मेरे साथियों,
अपने ह्रदय को हर दूषित
और पाप पूर्ण आवेग से
अवश्य मुक्त करो
ताकि प्रभु-इच्छा तुम्हे दुखी
संसार में सुखद सन्देश
पहुँचाने का अधिकारी
समझे–दुःख से मुक्ति का
सन्देश, आत्म-विजय का सन्देश,
प्रेम और ज्ञान द्वारा मिलने वाली
स्वतंत्रता का सन्देश।
यही शिक्षा थी मेरी नूह को।
यही शिक्षा है मेरी तुम्हे।
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