दोस्तों !
अक्सर हम को अधिकाँश धर्म की कथाओं के माध्यम से कुछ संकेत बचपन से ही मिलते है , पर समझ ही इतनी बड़ी नहीं होती की उनकी गहरायियों में उत्तर पाएं , नतीजा दादी नानी से कथा सुनना मात्र बचपन का मनोरंजन बन के हमारे मन पे अंकित हो जाता है , ये तो भला हो मृत्यु जैसे भयानक सुन्दर सच का , जो हर वख्त हमें जगाता रहता है , कहता रहता है तुम्हारा घर ये नहीं , चार दिन का रैनबसेरा है।
फिर कभी किसी को ऐसी भी प्यास जागती है की इसी जीवन काल में वो उस रहस्य से साक्षात्कार करना चाहता है , किसी भी भ्रम को काटना चाहता है। फिर कोई विधि हो कोई उपाय हो , ध्यान हो अथवा संन्यास हो , पर सत्य को पाना ही जैसे जीवन का उद्देश्य बन जाता है।
मजे की बात , जिस सत्य को पाने को वर्षों प्रयास होता है वो सत्य तो साथ ही वास कर रहा होता है हमारे ही अंदर छुपा हुआ , वस्तुतः वो छुपा नहीं , हमारी ही अज्ञानता का आवरण उसे घेरे रहता है।
सदियों की परंपरा ही बन गयी है जैसे , माया अपना आवरण सघन करती जाती है , और मनुष्य अपने ज्ञान से स्वयं के अंतर्मन को चीरता यात्रा पे बढ़ता जाता है, शायद ये भी माया का ही प्रिय खेल है . क्यूंकि दिखता है , माया की शक्ति कम नहीं होती वरन बढ़ती जाती है , अज्ञानता की संख्या जनसँख्या के समान ही और भी अधिक गहराती जाती है। फिर भी मनुष्य को भी हिम्मत हारना नहीं आता , उसके प्रयास निरंतर जारी है। अब तो विज्ञानं ने भी वस्तुतः इतनी उन्नति कर ली है की ध्यानी को प्रमाण भी उपलब्ध है। पहले जैसी मात्र काल्पनिक ध्यान की स्थति नहीं की लोग मात्र संशय ही करते रहते थे , और एक आध उन्नत आत्माए ही रहस्य के दर्शन कर पाती थी।
मनोवैज्ञानिक आध्यात्मिक गुरु ओशो का ही कहना था की प्रारंभिक काल से मनुष्य को चित्र की भाषा समझ आती थी , चित्र के माध्यम से अद्भुत रहस्यों को उजागर करने की चेष्टा की गयी , फिर दूसरा संगीत का स्थान है ,संगीत -गीत और भाव कविता / छंद के माध्यम से उस परम ऊर्जा से संपर्क बनाने की चेष्टा की गयी। फिर तीसरा महत्वपूर्ण योगदान नृत्य और सुर-ताल का था । उस प्राचीन कॉल से ही मंदिरों के प्रकोष्ठ तक ये कलाये अपने प्रदर्शन और जनसामान्य की श्रद्धा तक ही सीमित थे। सर्व समाज में इनकी स्वीकृति और न सिर्फ स्वीकृति प्रसिद्धि प्रतिस्पर्धा और व्यवसाय में इनका शामिल बाद में हुआ । ये प्राचीन हिन्दू समाज का योगदान नहीं वरन पर्शियन कला का योगदान है और मुगलकालीन सभ्यता से इसको राजकीय सम्मान के साथ समाज में बढ़ावा और धन मिला। देव-कला का व्यवसायीकरण।
ऐसा ही एक और मध्याम बना इस परम केंद्र के सत्य को सुलझाने का , विषय विज्ञानं मनुष्य की मानसिक जिज्ञासा और न हारने वाली शक्ति का प्रतीक है , उसके सतत प्रयास की रहस्य को खोला जाये कुछ नया खोज जाये , समुन्दर में डूब के प्रमाण सहित मणि को निकला जाये , ऐसा ही रहस्य - विषय विज्ञानं ने भी सुलझाने का प्रयास किया , की समस्त ब्रह्माण्ड में आकाशगंगाओं समेत एक ऐसा ब्लैकहोल है जिसमे जो जाता है वो खो जाता है और उसका नामों निशान नहीं मिलता , ऐसा लगता है जैसे उस प्रकाशयुक्त तत्व ( तारा / पिंड ) का अस्तित्व ही नहीं था । पृथ्वी से दस गुना बड़े तारागण अपनी आयु पूरी करते है , उनमे विस्फोट होता है , उनके अंश जो किसी अन्य गृह की परिधि में आ गए वो उसके प्रभाव से उसके ही चक्कर काटने लगते है , अन्य व्योम में फैलते जाते है और बढ़ते जाते है उसी ब्लैकहोल की तरफ।चूँकि यदि कोई वस्तु एक तरफ से होल के भीतर गयी है तो अवश्य ही उसके बाहर निकलने का भी प्राविधान होना ही चाहिए ऐसा विज्ञानं का नियम और उसकी कल्पना कहती है। विज्ञानं को भी स्वयं का मूल विचार आगे बढ़ाने के लिए एक सीमा के बाद कल्पना का ही सहारा लेना पड़ता है नयी खोज नयी उपलब्धियां जिनके प्रमाण है उनका आरम्भ कल्पना ही है ( सत्य है ; किन्तु स्वयं को संशय से बचाने के लिए विज्ञानं एक सुदृढ़ दीप -स्तम्भ है क्यूंकि चलता अंधकार में है परन्तु अपने पीछे प्रमाणों के निशान बनता जाता है तो जहाँ तक ये प्रमाण मिले इनके साथ ही चलना सुरक्षित है उसके बाद तो एक छलांग लगनी ही है उस परमात्मा की ग्रेविटी में जाने के लिए ) । यहाँ विज्ञानं द्वारा उस विशाल ब्लैकहोल के दूसरे छोर के रहस्य को सुलझाने के लिए एक व्हाइटहोल की कल्पना की गयी।
ये कल्पना की गयी की यदि एक तरफ से विनाश हो रहा है तो दूसरी तरफ से सृजन की प्रक्रिया भी जारी है।कोई भी ऊर्जा या तत्व नष्ट नहीं हो रहा। कोई तत्व ऊर्जा या तत्व हो नष्ट होता भी नहीं , सिर्फ स्वरुप बदलता है और स्थान बदलता है।
इस कल्पना के तहत आरम्भ से प्रमाण जुटाते जुटाते केंद्र की कल्पना की गयी उसी केंद्र को अपनी धुरी पे घूमते पाया गया और ये केंद्र कण से लेकर समग्र विश्व और व्योम में भी व्याप्त है। इस नियम के अनुसार हर सेल अपनी ही धुरी पे स्थिर हो के तीव्र गति से घूम रहा है। और इस सेल से लेकर तारागण तक के घूमने चक्कर काटने की प्रक्रिया को हजारों वर्ष पहले बिना आधुनिक विज्ञानं की मदत के ऋषिमुनियों ने अपने तप से जाना था कि समस्त विश्व ( धरती के अर्थ में नहीं विश्व का अर्थ आकाशगंगाओं को भी स्वयं में समेटे है ) एक गति में लिप्त है जो स्वयं की धुरी पे तो घूम ही रहा है एक दूसरे के चुंबकीय आकर्षण में बंधा हुआ एक दूसरे के चारों तरफ भी चक्कर काट रहा है और अपने ध्यान योग द्वारा उस जगत के केंद्र स्थान में भी काल्पनिक प्रवेश भी किया जहाँ उन्होंने कहना चाहा ऊर्जा स्वकेंद्र रूप में ईश्वर स्वरुप में स्थित है , अद्भुत है ! जिस केंद्र के प्रमाण आज भी हम विज्ञान द्वारा ले रहे है।
समस्या ये कि इस अद्भुत विलक्षण अनुभव को आम आदमी को कैसे समझाया जाये , कौन सी भाषा में ये गूढ़ रहस्य खोला जाये ! जब की सामान्य शिक्षा का स्तर संभवतः आज के अनुपात अनुसार रहा होगा या इससे भी कम। आज भी सामने व्यक्ति मात्र जादू की भाषा से ईश्वर को समझ पाते है। थोड़ा पढ़लिख लिए तो विज्ञानं पे भरोसा करते है।और इनमे भी जो आगे बढ़ते है वे साक्षात्कार की चेष्टा करते है। और इनमे भी जिनको साक्षात्कार सुलभ हुआ वे बताने की चेष्टा करते है। अब आप देखिये ! ये तो वो गोल-चक्र हो गया जो सदियों पहले से मनुष्य समाज में था। कुछ अलग नहीं। बस पहले संगीत चित्र नृत्य प्रधान था वो ही परम तक आवाज उठता था और आज वैज्ञानिक उपकरण ज्यादा प्रामाणिक है , परन्तु इन उपकरण से भी ऊपर भाव-तरंग है जो चित्र संगीत और नृत्य के द्वारा परम ऊर्जा से सीधा तरंगित हो के जुड़ती है ,जिस जगत के लिए विज्ञानं अभी प्रमाण इकठा कर रहा है , अवश्य करेगा , सत्ता के प्रमाण भी मिलेंगे। तब जो अभी ये वैज्ञानिक अपने अहसासों में महसूस करते है उसको दृढ़ता पूर्वक कह सकेंगे। ऐसा मेरा विश्वास है। क्यूंकि ये वैज्ञानिक भी मनुष्य ही तो है। वो समस्त तरंगे उनकी शक्ति उनका खिंचाव इनके अंदर भी है और अति-प्रगाढ़ है। ये ऊर्जा का खिंचाव ही तो है जो इन उन्नत आत्माओं को खोज की प्रेरणा देता है और सफलता भी देता है ।
दोस्तों , ये जो नीचे चित्र है , इसका क्रेडिट नासा को जाता है , संसार में मनुष्य की खगोलीय खोज का उच्चतम स्थान (http://www.unexplained-mysteries.com/news/269542/black-holes-may-bounce-back-as-white-holes) है।
ये विज्ञानं की कल्पना है कि व्योम में एक ब्लैकहोल जरूर है जहाँ सारे उल्कापिंड समां जाते है और ठीक इसके उलट एक व्हाइट होल भी होना ही चाहिए विनाश और सृजन की उचित संतुलित व्यवस्था के लिये ; चूँकि , प्रकर्ति व्योम और समस्त विश्व अपने नियम अनुसार ही कार्यरत है। तो यहाँ भी एक परमऊर्जा के दो सिरे मिलते दिखते है। स्वयं विज्ञानं भी सदैव ईश्वरत्व के सामान ही नियमाधीन है।
मजे की बात ये की हजारो वर्षों पहले जिस ईश्वर के विश्व रूप की कल्पना ध्यान में ऋषिजनो ने की और उसे भगवत्स्वरूप में चित्रित भी किया उसे मंत्रो में महिमा गान भी गया , वो ऐसी ही थी । विश्वरूप में ईश्वर सृजनकर्ता और विनाशकर्ता दोनों ही है । यानि के दोनों सिरे विनाश और सृजन एक ही परमऊर्जा के है , ऐसे विश्वस्वरूप विष्णु भगवान के मुख से तत्व और ऊर्जा का जन्म हो रहा है और दूसरी तरफ अपने अपने निश्चित समयानुसार विनाश भी हो रहा है , और ये परमनियम के अंतर्गत सुनियोजित है। इसमें मनुष्य और मनुष्य का जीवन बहुत छोटी घटना है।
ध्यान देने योग्य बात ये है की तत्व और वृत्ति में अर्थ इन सिरों के भिन्न है * तत्व अर्थ में ऊपरी सिर बौद्धिक है और निम्न सृजन है। * वृत्ति अर्थ में ऊपरी छोर आध्यात्मिक परकष्ठा है सहस्त्रधार है और निम्न मूलाधार लौकिक अधोगति और भिन्न भिन्न चक्रों से सम्बंधित विभिन्न वासनाओं में लिप्तता को दर्शाता है। यही चक्रो के जागरण का आधार भी है।
परम का तत्व अर्थ में दो छोरो में वास एक सृजन कारी है तो दूसरा विनाशकारी है। और इस सृजन और विनाश के क्रम को ४ युगो में ऋषियों द्वारा ही समयबद्ध किया गया
" Cycles of time -
There are four ages (called yugas):
- The first lasts 1,728,000 years
- The second lasts 1,296,000 years
- The third lasts 864,000 years
- The fourth lasts 432,000 years (this last age is Kali yuga, our present age beginning 5000 years ago)
Each age sees a decline in virtue (dharma) from the previous. As told in one parable, in the first golden age, dharma stood on four legs like a table, but in the second age it stood only on three, in the third age on two, and now in the present age only on one, thus all but one fourth of the world's virtue has vanished in the present age.
These four ages, as lengthy as they may seem, are only a small part of the great cycle of time:
- 4 ages = one mahayuga (great age), 4,320,000 yrs, after which creation will rest (return to a state of non-differentiation) for one mahayuga.
- 1000 mahayugas = one day of Brahma (or one kalpa), 4,320,000,000 years, after which Brahma sleeps and creation rests for one kalpa.
- Brahma's lifetime = 100 years of his days and nights: 4.32 billion x 365 x 2 x 100 = 311 trillion yrs, after which Shiva dances, all things including Brahma dissolve and nothing exists for an equivalent time, then it all begins again.
Against such immense scale, one single lifetime becomes insignificant."
इतने विशाल अर्थ में फैले समय के विस्तार के सामने एक सिमित आयु सिमित शक्ति के साथ अनेक शारीरिक और मानसिक सीमाओं के साथ क्षुद्र सी है , नगण्य है। परन्तु एक जीव की जैविक यात्रा में एक एक पल के विकास और पतन का अर्थ है महत्त्व है।
वस्तुतः मनुष्य ईश्वर की अनुपम कृति है। अद्वितीय है क्यूंकि ईश्वरत्व की समस्त सम्भावना है ईश्वर का सृजन सूत्र इस जीव से जुड़ा है वहीँ उसी ईश्वर के दिव्य सूत्र का दूसरा छोर भी इसी मनुष्य से जुड़ा है वो है विनाश का। ऐसा जीव दूसरा धरती में नहीं। जो मौलिक है बौद्धिक है। जो निरंतर विकास को प्रयत्नशील है। संघर्ष करना हिम्मत न हारना , अद्वितीय गुण है , सौंदर्य बोध है , ईश्वर की उपस्थ्ति का आभास भी है। परन्तु , ईश्वर के ही दोनों छोर से जुड़ा हुआ ये जीव जितना सृजन करता है उतना ही विनाश भी करता चलता है। भ्रमित है , बौद्धिक क्षमताओ को स्वीकार करता है , स्वयं की सृजन शक्ति परिचित है , किन्तु क्षमताओं का अहंकार है। साथ ही साथ , मृत्यु दर्शन ये भी सीखती है की स्वयं का कुछ नहीं इसलिए सब कुछ उस परम सत्ता को समर्पित भी है। यही उधेड़बुन का शिकार मनुष्य है।
विष्णु विश्वरूप के सर के छोर पे मनुष्य देव है , और विष्णु विश्स्वरूप के दूसरे छोर पे मनुष्य राक्षस है। एक तरफ सृजन है दूजी तरफ विनाश है। और इनके मध्य ये भी भाव है की मनुष्य है सीमित आयु के स्वामी है , अपने ही आँखों के सामने अपने प्रिय को मरता देखते है , जलता देखता है , राख में बदलता देखता है। तो सोच में पड़ता है। फिर उस अपने ही स्वरुप से जुड़ने का प्रयास करता है। अतिरेक दुःख , अतिरेक विपदा , अतिरेक अक्षमता , जीवन और मृत्यु का तांडव , मनुष्य को मनुष्य बनाते है। यही तो है जो उसे याद दिलाते है स्वजन्म का धर्म ।
माया का पर्दा भ्रमित करता है , प्रलोभित करता है , लोभ मोह अहंकार क्रोध और वासना जैसे दानव आक्रमण करते है। परन्तु उसका स्वयं का संतुलन प्रयास ही उसे बचाता भी है। और इसी संतुलन के लिए मनुष्य सतत प्रयास रत है , मूल स्व केंद्र से उस मूल परम केंद्र से जुड़ पाना , इन्ही प्रयासों का फल है , जिस केंद्र की चर्चा अब विज्ञानं भी करता है। चुंबकत्व को विज्ञानं ने भी प्रमाण के साथ माना है। और यही चुंबकत्व केंद्र को केंद्र से न सिर्फ जोड़ता है वरन निरंतर अपनी ओर आकर्षित भी करता है खींचता भी है।
ये भी अजीबोगरीब संतुलन का ही हिस्सा है , माया से लिपटी वासनाएं मनुष्य को अपनी तरफ खींचती है ( जो प्रकर्ति के सृजन का हिस्सा है प्रकर्ति की शक्ति है वही शक्ति के अधोस्तर होने का संकेत भी है ) और मनुष्य की देवस्थति यानि की विष्णु विश्वरूप के सर की स्थति उसे निरंतर सहस्त्रधार की ओर चलने को प्रेरित करती है।
मित्रों , यदि विज्ञानं को प्रमाण मानते है , तो फिर ये भी मनना ही पड़ेगा की जैसे केंद्र हर कण में मौजूद है , वैसे ही चक्र की संरचना भी कण कण में उपस्थ्ति है। जो मनुष्य में दिखती है जागृत रूप में किन्तु समस्त जीव में सुप्त है ये चक्र की संरचना। किन्तु है ! इस नियम से , चराचर जगत में ये चक्र मौजूद है जिसका एक सिर श्वेत (यानि सर ) दूजा छोर काला ( यानि मूलाधार ) है। प्राणी जगत में इन मूल सात चक्रो से ऊपर भी साथ चक्रो की उपस्थ्ति मानी गयी और नीचे भी अधोगामी सात चक्रो की उपस्थ्ति मानी गयी है। मनुष्यता कहींभी उठ सकती है या गिर सकती है। वस्तुतः संतुलन मध्य के सात चक्रो में ही सर्वोत्तम है। इस मध्य के सात चक्रो में एक एक चक्र का संतुलन मनुष्य को स्वस्थ जीवन जीने की प्रेरणा देता है। ( आप इसी ब्लॉग में इन ७ + ७ + ७ = २१ चक्र से सम्बंधित लेख विस्तार से पढ़ सकते है ) और इसी नियम के अंतर्गत विष्णु के इस विश्वरूप में भी उन्ही सातो चक्रो की उपस्थ्ति मानी गयी। जिनको वैज्ञानिको ने काला अती-छोर और सफ़ेद सिर का छोर कहा , ऋषियों के इसी को श्वेत सिरे को सर (बुद्धि / सृजन ) और काले सिरे को मूल (विनाश / दुर्बुद्धि ) से जोड़ा।
संभवतः विष्णु के विश्वरूप की कल्पना जो ऋषियों ने की थी वो कल्पना स्वयं में चमत्कार थी। जो विज्ञानं द्वारा इस रूप में सामने आ रही है। ओशो जो स्वयं में ज्ञानी और मणिवैज्ञानिक थे उनका कहना था , मनुष्य कल्पना में भी वो कल्पना नहीं कर सकता जो विश्व में मौजूद नहीं। इसलिए कल्पनाओ से परहेज नहीं करना चाहिए। संभवतः ये कल्पनायें ही सत्य के द्वार तक ले जाती है। और यही आधार वैज्ञानिक कल्पनाओ का भी है।
मजे की बात ये है की कल्पना जो चित्रो के माध्यम से की गयी , वो सामान्य जनमानस के लिए थी , इसी लिए उसे मनुष्य अपना सके उसके मनुष्य की ही तरीके से नयन नक्श बनाये गए , सजाया गया , वस्त्र आभूषण दिखाए गए , वर्ना सोचिये उस परम ऊर्जा के लिए ये सब किस काम के ?
अद्भुत और परमाश्चर्यजनक ज्योतिषविज्ञान भी इसी खगोलशास्त्र से निकला है ये भी उन ऋषि मुनियों के तपस्या से उत्पन्न ज्ञान का परिणाम है जिसमे उन्होंने कल्पना की थी तारामंडल सौरगृह और इन ग्रहों से प्रभावित जीव के जीवन के कर्मचा और जीवन चक्र की युक्ति।
जिसमे उन्होंने गहन तौर पे पाया था ग्रहों की ऊर्जा और उनका चुंबकत्व उनकी परिक्रमा अवधि और परिधि मे जन्मे जीव को जन्म जन्मान्तर तक प्रभावित करता है इस आधार पे धरती से अति नजदीक नौ ग्रहो की कल्पना की गयी जिनको विज्ञानं ने प्रमाण दिया , इन नौ ग्रहो की परिधि और चाल एक दूसरे से सम्बन्ध और एक दूसरे की पारधी को छूते हुए गुजरते या फिर काटते हुए गुजरते गृह किस प्रकार से जीव के जन्म के मूल ग्रौं से सम्बन्ध बनाते हुए परिणाम देते है। … अद्भुत और आश्चर्यजनक है मात्र विश्वास की भूमि पे खड़ा ये विज्ञानं , मनुष्यो में अत्यधिक प्रचलित है। विश्वास पे टिका ये विज्ञानं अक्सर अज्ञानता और अन्धविश्वास का भोजन भी बन जाता है , चूँकि मानवीय बुद्धि जिज्ञासु भी है और कलुषित भी , तमाम अच्छाईयों और बुराईयों से भरे मनुष्य जीवन में , लोभ और वासनाओ का शिकार ये विज्ञानं आसानी से बनता है। वस्तुतः इसकी सच्चाई में कोई शक नहीं। अभूतपूर्व विज्ञानं है , कल्पनातीत है उस लोक का रहस्यमयी आभास देता है। किन्तु इस विद्या के निर्लोभ ज्ञाता गिनती के है , धनोपार्जन का आधार बन चूका ये विज्ञानं भी चिकित्सा शास्त्र जैसा ही व्यवसाय की श्रेणी में खड़ा है। इसलिए अंध भरोसे से पहले सावधानी नितांत आवश्यक है।
इसी के साथ इस लेख को समाप्त करती हूँ। संभवतः ऋषियों को अन्य कोई कल्पना जो विज्ञानं से मिल जाये , इस उम्मीद के साथ।
एक छोटा सा संकेत आप सभी के लिए चिंतन कीजिये मर्म को जानने की समझने की चेष्टा कीजिये क्यूंकि नीचे उद्धृत प्रसंग भी ऊर्जा से ही सम्बंधित है :
''Aghor Shivputra'' 27 August 2014 एक महत्वपूर्ण सुचना । "द्वापरयुग के महाभारत कालीन हस्तिनापुर के कौरव सम्राट 'महाराजा धृष्टराष्ट्र' इस जन्म में अपनी शैया पर पहुंच चुके हैं।""जय बाबा श्री केदारनाथ__जय माँ सति कामाख्या"
''Aghor Shivputra'' 9 October 2014 at 10:49 PM "दुखद समाचार"................द्वापरयुग के महाभारत कालीन कुरुवंशीय कौरव सम्राट महाराज धृतराष्ट्र ने इन बार के मानव जीवन की अंतिम श्वास ले ली है। "जय बाबा श्री केदारनाथ__जय माँ सति कामाख्या"
'Aghor Shivputra'' ने किसी पौराणिक पात्र के संबंध में कहा है तो घटना हुई है। और, वह घटना अपने भीतर कर्मों का प्रचंड भंडार लिए होगा। अन्यथा यहाँ जन्मना--मरना---मारना चलता रहता है। कहाँ किसी को फुर्सत है ?
Lata Tewari : यही वो अंतिम स्थान है जहाँ तक आ के शब्द साथ छोड़ देते है कुछ कहने को बताने को बचता ही नहीं।
आप ठीक कह रही हैं परन्तु ऐसा होता नहीं है।
.
काश ऐसा हो जाता ?
इस स्थान में भी, इस स्थान के पूर्व से ही और इस स्थान के पश्चात भी 'शब्द' ..'प्राणी का साथ कभी नहीं छोड़ता'।
.
सिर्फ, यदि छूटता है तो स्थूल शरीर, स्थूल वैभव और स्थूल संबंध के साथ स्थूल चालाकी।
अन्यथा शब्द के साथ ही बहुत कुछ अभी भी रह ही जाता है।
.
धन्यवाद।
ध्यान देने वाली बात है स्थूल छुट्ता है समस्त स्थूल छूटता है और समस्त ऊर्जा प्रस्थान करती है , सूक्ष्म शरीर के साथ। और इस शरीर से भी सूक्ष्म वो ऊर्जा जो परमात्मा का अंश है पवित्र है। इनका कहना है शब्द भी कर्म का और ऊर्जा का रूप है और जीवात्मा के साथ वासना रूप में साथ ही रहते है , और जन्म के साथ ही पुनः सक्रीय हो जाते है। विभिन्न स्तर की आत्माए अपने साथ इन तरंगो को ऊर्जा रूप में साथ पाती है। और जन्म के साथ ही सक्रीय हो जाती है , शायद ये ही प्रारब्ध का साथ है। किन्तु जीव की अपनी गति भी है भोग भी है जो प्रारब्ध का काट भी है और नये प्रारब्ध की रचना भी।
'Aghor Shivputra'' - "जीवन अपना है।
जन्म-मृत्यु असीमित है।"
जीवन जीने की चाह वाला जीव एक मजा हुआ 'खिलाड़ी' है।
'माया'... शब्द की आड़ में वह खुद के कर्मों को छुपाना चाहता है।
यद्यपि जन्म-मृत्यु में स्वयं उलझा हुआ है।
अपने ही अंश का यह रोमांचक मायावी खेल देखकर एक 'शिवत्व' ही सतत मुस्कुरा सकता है।
मुस्कुराता है 'वह', गहरी मुस्कान के संग।
जिसे 'शिव' कहते हैं।
खेलता है खेल जीव अपनी जगत में, जीभर कर।
इसमें कोई कहानी नहीं, जो सिमित हो।
जीवन अपना है।
जन्म-मृत्यु असीमित है।
अंत में आप सभी मित्रो को प्रणाम।
धन्यवाद।
No comments:
Post a Comment