प्रश्न :
क्या इस कलियुग में भी कोई प्रभु को उपलब्ध हो सकता है?
कलियुग सदा से है–वैसे ही जैसे सतयुग भी सदा से है। सतयुग में राम थे, रावण भी था। रावण को भूल मत जाना। रावण तो सतयुग में नहीं हो सकता; साथ-साथ थे दोनों। रावण कलियुग में था, राम सतयुग में थे।
सतयुग और कलियुग एक-दूसरे के पीछे पंक्ति में नहीं खड़े हैं, कि पहले सतयुग आया, फिर कलियुग आया। सतयुग और कलियुग समसामयिक हैं, कंटेंपरेरी हैं–ऐसे ही जैसे रात और दिन साथ-साथ हैं; अंधेरा-उजाला साथ-साथ हैं; बुराई-भलाई साथ-साथ हैं।
तुमने सदा ऐसा ही सुना है कि पहले सतयुग था, अच्छे दिन थे, अब बुरे दिन हैं। वह धारणा मौलिक रूप से गलत है। पहले भी ऐसा था; आज भी वैसा ही है। पहले भी बुरे होने की संभावना थी; आज भी बुरे होने की संभावना है। पहले भी भले होने की संभावना थी; आज भी द्वार बंद नहीं हो गए हैं।
और ध्यान रहे, अधिक लोग तो सदा ही कलियुग में रहे हैं। बुद्ध समझाते हैं लोगों को : “चोरी न करो, बेईमानी न करो,र् ईष्या न करो, मद-मत्सर न करो; हिंसा न करो।’ सुबह से सांझ तक समझाते हैं; चालीस साल ज्ञान की उपलब्धि के बाद यही समझाया ... यही और यही। किनको समझाते हैं ? सतयुग था ? तो जो लोग चोरी करते ही नहीं थे, उनको बुद्ध समझाते हैं चोरी मत करो ? जो लोग हिंसा करते ही नहीं थे, उनको बुद्ध समझाते हैं कि हिंसा मत करो ? जो लोग ईमानदार थे ही, उनको समझाते हैं कि ईमानदार हो जाओ? तो बुद्ध पागल रहे होंगे। ईमानदारों को कोई नहीं समझाता कि ईमानदार हो जाओ। बेईमानों को समझाना होता है।
महावीर भी वही कर रहे हैं सुबह से सांझ तक। पुरानी से पुरानी किताब वेद भी वही कर रही है। तो वेद के दिन में भी चोर थे, और साधुओं से ज्यादा रहे होंगे; बेईमान थे, और ईमानदारों से ज्यादा रहे होंगे। अगर भले ही लोग होते, शैतानियत होती ही न, तो शास्त्रों की भी कोई जरूरत न थी। शास्त्र किसके लिए लिखे जाते हैं? सद्-उपदेश किसके लिए हैं?
तो मैं तुम्हारी समय की धारणा में एक नया विचार आरोपित करना चाहता हूं: सतयुग सदा है; कलियुग भी सदा है। तुम जो चाहो चुन लो। तुम अभी चाहो तो सतयुग में रह सकते हो। तुम सत् हुए तो सतयुग में प्रविष्ट हो गए। तुम असत् हुए तो कलयुग में प्रविष्ट हो गए। तुमने अंधेरे में दोस्ती बांधी तो कलियुग में रहोगे। और तुमने रोशनी से दोस्ती बांध ली तो सतयुग में रहोगे।
सतयुग और कलियुग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । जो मरजी हो, उसमें जी लो। कलियुग को दोष मत दो।
आदमी बहुत होशियार है। आदमी कहता है : “हम क्या करें अब, यह तो कलियुग है!’ तुमने समय पर टाल दी बात। तुमने यह कह दिया कि समय ही खराब है; हमारी कोई खराबी नहीं है। तुमने अपनी जुम्मेवारी हटा दी कंधों से। निश्चित ही, अब तुम कलियुग में रहोगे। क्योंकि जिसने अपनी जुम्मेवारी छोड़ दी, उसके जीवन में जागरण की किरण कभी भी न आएगी। और स्वभावतः जब वह अंधेरे ही अंधेरे में जीएगा, तो उसकी धारणा और मजबूत होती जाएगी कि कलियुग बहुत भयंकर है; इससे छुटकारा नहीं हो सकता। और कलियुग तुम्हीं पैदा कर रहे हो।
जिंदगी को बदलो ! जिंदगी तुम्हारी है ; और कोई जुम्मेवार नहीं। तरकीबें न खेलो। आदमी हमेशा तरकीबें करता है। दोष किसी और पर टाल देता है। दोष दूसरे पर टालकर निश्चित हो जाता है कि अब मेरा तो कोई दोष है नहीं, अब मैं क्या कर सकता हूं, असहाय हूं।
लेकिन जिस दिन तुम असहाय हुए, उसी दिन नपुंसक भी हो जाते हो। जब तुमने कहा, “मैं क्या कर सकता हूं, समय खराब; मैं क्या कर सकता हूं, समाज खराब; मैं क्या कर सकता हूं, चारों तरफ बेईमान ही बेईमान हैं; मुझे भी बेईमान होना ही पड़ेगा, मजबूरी है’ –तो तुम बेईमान हो गए और तुम बेईमान होते चले जाओगे। तुम कमजोर हो जाते हो–उसी दिन, जिस दिन तुम जुम्मेवारी किसी और पर छोड़ते हो। तुम उसी दिन गुलाम हो जाते हो।
मालिक वही है, जिसने कहा : “बुरा हूं तो मैं अपने कारण हूं।’ स्वतंत्र वही है, जिसने कहा : “चोर हूं तो मैं अपने कारण हूं। चोर हूं सही; लेकिन कारण मैं हूं। मैंने चोर होना चुना है।’ यह आदमी साफ-सुथरा है। इस आदमी की जिंदगी में क्रांति हो सकती है। क्योंकि इसके पास क्रांति की मूल कुंजी है। यह कहता है : बुरा हूं तो मैं अपने कारण हूं। अगर अपने कारण बुरा हूं तो जिस दिन चाहूंगा, उस दिन भला हो जाऊंगा। वह दरवाजा मैंने अपने हाथ में रखा है। वह कुंजी अपने हाथ में है।
इसलिए तो इस देश में हम संन्यासी को स्वामी कहते हैं। स्वामी का अर्थ होता है मालिक । मालकियत की घोषणा कि मैं अपना मालिक हूं–बुरा हूं तो, भला हूं तो। मैं जैसा हूं, मैं ही कारणभूत हूं।
इससे घबड़ाओ मत कि मैं कारणभूत हूं। इससे हमें घबड़ाहट लगती है कि मैं अपने अपराधों के लिए जुम्मेवार; मैं अपनी बुराइयों के लिए जुम्मेवार; मैं अपनी शैतानियत के लिए जुम्मेवार! तुम्हें बहुत घबड़ाहट होती है। लेकिन इसका दूसरा पहलू देखो। इसका दूसरा पहलू यह है कि अगर मैं ही जुम्मेवार हूं तो कुछ किया जा सकता है; तो संभावना रूपांतरण की है, शेष है।
लोग तो टालते ही चले जाते हैं। अब समय पर टाल दिया! समय को कहां पकड़ोगे? कलियुग को तुम कैसे बदलोगे? सतयुग में? तो तुम्हारे तो हाथ के बाहर ही बात हो गयी। तो फिर जो है, ठीक है; इसी में गुजार लेना है–ऐसे ही रोते, ऐसे ही झींकते, ऐसे ही रिरियाते, ऐसे ही सड़कों पर सरकते कीड़े-मकोड़ों की तरह जी लेना है।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं : सदा से आदमी की संभावना रही है कि बुरा हो जाए, भला हो जाए। राम के समय में भी सभी लोग भले न थे। अगर सभी लोग भले होते तो राम को कोई अवतार क्यों कहता, कभी सोचा इस बात पर? राम की इतनी प्रतिष्ठा क्यों होती अगर सभी लोग भले होते? उन भले लोगों में राम भी खो गए होते। कौन पूछता! दो कौड़ी की भी बात नहीं थी फिर। जहां सारे भले लोग हों, जहां संतों की जमात हो, वहां कौन राम को पूछता! राम को हम भूल नहीं सके, हजारों साल बीत गए। क्यों नहीं भूल सके? रावणों की भीड़ थी, उसमें राम खूब उभर कर प्रकट हुए। जैसे अंधेरी रात में तारा चमकता है; दिन में तो नहीं चमकता। दिन में भी तारे हैं आकाश में, लेकिन चमकते नहीं। सूरज की रोशनी में सब खो जाते हैं। अंधेरे में चमकते हैं। काले बादल में जब बिजली चमकती है तो बहुत साफ दिखायी पड़ती है।
काले ब्लैक बोर्ड पर हम सफेद खड़िया से लिखते हैं, ताकि दिखायी पड़े। राम अब तक दिखायी पड़ रहे हैं–रावणों का ब्लैक बोर्ड रहा होगा। काले बादल रहे होंगे, इसलिए राम की चमक अभी तक नहीं खोयी है। कृष्ण दिखायी पड़ते हैं; महावीर, बुद्ध दिखायी पड़ते हैं। क्यों? इतना सम्मान किसलिए? यह सम्मान हमने दिया क्यों? यह सम्मान हम न्यून को देते हैं, बिरले को देते हैं, अद्वितीय को देते हैं। यह सम्मान अगर सभी लोग हों एक जैसे, तो फिर नहीं देते।
मैंने सुना है, जब पहला आदमी इलाहाबाद में मैट्रिक पास हुआ था , तो पता है तुम्हें, हाथी पर उसका जुलूस निकला था! सारा इलाहाबाद सजाया गया था। पहला आदमी मैट्रिक पास हो गया! अब मैट्रिक कितने लोग पास हो रहे हैं, कोई गधे पर भी जुलूस नहीं निकालता। अब तुम अगर किसी से कहो कि मैट्रिक पास हूं, तो वह कहता है :”कौन-सी खूबी है! इसमें बताने की क्या बात है?’ मैट्रिक पास कहते वक्त तुमको भी ऐसा छाती बैठती मालूम पड़ेगी कि यह क्या कह रहे हैं।
जमाना था, जब मिडलची कलैक्टर हो जाते थे। उन दिनों कोई मैट्रिक पास हो जाता था तो दुदुंभि पिट जाती थी कि कोई गजब का काम हो गया।
राम की दुदुंभी अभी तक पिट रही है और हमने उनको मर्यादा-पुरुषोत्तम कहा –पुरुषों में उत्तम मर्यादावाले। लोग अमर्याद रहे होंगे। लोग बड़े हीन रहे होंगे। नहीं तो कैसे राम को तौलोगे? किस कारण विशिष्टता दोगे?
कोहेनूर की प्रतिष्ठा है; कंकड़ों की तो नहीं; कांच के टुकड़ों की तो नहीं। अगर कोहेनूर सड़कों पर पड़े हों, गली-कूचे हर जगह पड़े हों, बच्चे उनसे खेल रहे हों, राह पर ढेर लगे हों, सीमेंट में मिलाकर मकान बनाए जा रहे हों–फिर कोहेनूर इंगलैंड की महारानी रखे बैठी रहे, क्या मूल्य है? मूल्य होता है बिरले का।
राम को हम भूले नहीं। अब्राहम को हम भूले नहीं। मोज़िज़ को हम भूले नहीं। क्राइस्ट को हम भूले नहीं। मोहम्मद को हम भूले नहीं। कारण क्या है? आखिर ये लोग टंगे क्यों रह गए हमारी स्मृति में? बड़ी अंधेरी रात थी। उस अंधेरी रात में चमकते हुए तारे भूलें भी कैसे!
मैंने सुना है :
दैर वीरां है, हरम है बेखरोश
बरहमन चुप है, मोअज्जन है खामोश
सोज है अशलोक में बाकी न साज
अब वो खुत्वे में न हिद्दत है न जोश
हो गई बेसूद तलकीने-सवाब
अब दिलाएं भी तो क्या खोफै अजाब
अब हरीफे-शेख कोई भी नहीं
खत्म है अब हर एक मोजू-ए-खिताब
आज मधम-सी है आवाजे दरूद,
आज जलता ही नहीं मंदिर में ऊद
क्या कयामत है यकायक हो गया
महफिले जहाद पर तारी जमूद
रब्बेबर हक खालिके-आली जनाब
हो गए अपने मिशन में कामयाब
सिलसिला रूश्दो हिदायत का है खत्म
आसमां से अब न उतरेगी किताब
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया।
यह उस दिन की कविता है, जिस दिन शैतान मर गया। शैतान मर गया तो क्या हुआ?
मर गया ए बाय शैतां मर गया!
उस दिन यह हुआः दैर वीरां है! मंदिर खाली पड़े हैं। शैतान ही मर गया तो मंदिर में भगवान की क्या जरूरत रही!
दैर वीरां है, हरम है बेखरोश
मस्जिद शांत है; अब कोई अजान नहीं देता। शैतान ही मर गया तो अब भगवान की अजान भी कौन दे! सभी तरफ भगवान का राज्य हो गया। संघर्ष ही समाप्त हो गया।
दैर वीरां है, हरम है बेखरोश
बरहमन चुप है मोअज्जन है खामोश
अजान देनेवाले चुप हो गए हैं और ब्राह्मण अब मंत्रों का पाठ नहीं करते हैं। अब किसकी पूजा, किसका पाठ!
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया
सोज है अशलोक में बाकी न साज।
अब न तो श्लोक में बल है, न संगीत है, न उत्साह है।
अब वो खुत्वे में न हिद्दत है न जोश
अब धार्मिक भाषण में वह गरमी भी न रही।
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया
शैतान ही मर जाए. . . जिस दिन अंधेरा मर जाएगा, उस दिन रोशनी में क्या मजा रह जाएगा! जिस दिन बीमारी मर जाएगी उस दिन स्वास्थ्य में क्या खूबी रह जाएगी! जिस दिन कांटे होंगे ही नहीं, उस दिन फूल की प्रशंसा में गीत कौन गाएगा!
“हो गयी बेसूद तकलीने-सवाब।
अब दिलाएं भी तो क्या खोफै अजाब।
जिंदगी से सब पाप मिट गए अब लोगों को डराएं भी पाप से तो कैसे डराएं!
अब हरीफे-शेख कोई भी नहीं!
अब अच्छाई का कोई दुश्मन ही नहीं है। अब ज्ञानी का कोई दुश्मन ही नहीं है।
खत्म है हर एक मोजू-ए-खिताब
अब तो लोगों को संबोधित करने का कोई विषय ही न बचा।
मर गया ए बाय शैतां मर गया!
आज अधम सी है आवाजे-दरूद
आज पूजा-पाठ बड़ा मद्धम हो गया। मरा-मरा! श्वास टिकी-टिकी–अब गयी तब गयी!
आज मधम-सी है आवाजे दरूद
आज जलता ही नहीं है मंदिर में ऊद।
अब कोई उद्बत्ती नहीं जलाता, अब कोई धूप नहीं जलाता मंदिर में। परमात्मा की प्रार्थना अब नहीं होती। अब थालियां नहीं सजतीं आरती की। अब कोई फूल लेकर मंदिर में पूजा के लिए नहीं आता। किसकी अर्चना!
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया।
क्या कयामत है यकायक हो गया
यह क्या हो गया?
महफिले जह्हाद पर तारी जमूद!
यह भले लोगों की जबान एकदम बंद क्यों हो गयी? ये धार्मिक लोग एकदम चुप क्यों हो गए? ये धार्मिक लोगों की जबान पर ताले क्यों पड़ गए? यह क्या गजब हो गया!
रब्बेबर हक . . . हे परमात्मा! खालिके-आली जनाब! हो गए अपने मिशन में कामयाब। भगवान अपने मिशन में सफल हो गया। मर गया ऐ बाय शैतां मर गया। शैतान मर गया, भगवान अपने मिशन में सफल हो गए–इस कारण अब मंदिर-मस्जिद चुप पड़े हैं।
सिलसिला रूश्दो हिदायत का है खत्म
अब उपदेश की कोई जरूरत न रही।
आसमां से अब न उतरेगी किताब।
अब न वेद उतरेगी, न इंजील, न कुरान।
सिलसिला रूश्दो हिदायत का है खत्म
आसमां से अब न उतरेगी किताब
अब मर गया ए बाय शैतां मर गया।
किताबें उतरती रहीं–कुरान, वेद, बाइबिल। पैगंबर आते रहे–अब्राहम, मोज़िज़, मोहम्मद, जीसस। तीर्थंकर उठते रहे–महावीर, बुद्ध, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ, आदिनाथ। बड़े संदेशवाहक पैदा हुए–जरथुस्त्र, लाओत्सु। संत चमके। ये किसलिए हैं? यह किस तरह है? ये सब सबूत हैं इस बात के कि कलियुग सदा से था। शैतान कभी मरा नहीं था। न शैतान कभी मरा था, न आज मर गया है, न कभी मरेगा। शैतान और परमात्मा साथ-साथ हैं, जैसे दिन और रात साथ-साथ हैं। तुम्हारी जो मर्जी, चुन लो। तुम चाहो तो दिन में सो जाओ और रात में जागो। तुम चाहो तो रात में सो जाओ और दिन में जागो। तुम्हारी मरजी जो तुम चाहो। तुम चाहो कलियुग में सो जाओ, सतयुग में जागो। और तुम चाहो सतयुग में सो जाओ कलियुग में जागो। तुम अभी चाहो राम बन जाओ, चाहो रावण बन जाओ। ये राम और रावण दो संभावनाएं हैं।
इसलिए तुम्हारे समय की धारणा को मैं बदलना चाहूंगा। मैं ऐसा नहीं कहता कि पहले सतयुग हुआ, फिर कलियुग आया। यह तो बात ही गलत है। दोनों सदा साथ रहे। दोनों समय के, गाड़ी के दो चाक हैं।
और तब एक और नयी संभावना का द्वार खुलता है। तुम चाहो तो दोनों मुक्त हो जाओ। समय से मुक्त हो जाओ। बुरे-भले दोनों से मुक्त हो जाओ। वही मोक्ष है। वही निर्वाण है। जो बुरा है, वह बुरे से बंधा है। जो भला है वह भले से बंधा है। दोनों बंधे हैं। अच्छा है कि बुराई से बंधने की बजाए भलाई से बंधो। अगर जंजीरें ही पहननी हैं तो सोने की पहनो। क्या जरूरत है लोहे की पहनो!–जंग लगी, वजनी, भारी! आभूषण ही पहनने हैं तो बहुमूल्य पहनो, हीरे-जवाहरातों के पहनो। मगर बंधे तो रहोगे।
बुराई का बंधन है बुरा, भलाई का बंधन है भला; लेकिन बंधन तो बंधन ही है। और जहर फिर चाहे कितनी ही अच्छी बोतल में हो–सोने की बोतल में हो, तो भी क्या फर्क पड़ता है, मारेगा तो ही।
धर्म की आत्यंतिक खोज समय से मुक्त हो जाना है–कालातीत। न तो सतयुग रह जाए, न कलियुग रह जाए। कलियुग में जो जीता है, वह दुर्जन। सतयुग में जो जीता है वह सज्जन। और दोनों के जो पार हो गया, उसी को हम संत कहते हैं। संत का अर्थ है, जो समय में जीता हो नहीं; जो समय के बाहर सरक गया। बुराई से ही नहीं सरका, भलाई से भी सरक गया। जिसने रात तो छोड़ी ही छोड़ी, दिन भी छोड़ा। जिसने सब छोड़ दिया। जो अपने भीतर सरक गया। जो अपने शून्य में विराजमान हो गया। गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में विसराम।
तुम पूछते हो कि क्या इस कलियुग में भी कोई प्रभु को उपलब्ध हो सकता है? तुम ऐसा पूछ रहे होः कि क्या इस अंधेरी रात में भी कोई दीया जला सकता है? तुमसे कहा किसने?अंधेरी रात ने दीया जलाने में बाधा कब डाली? अंधेरा दीया जलाने में बाधा डाल भी कैसे सकता है? अंधेरे का बल क्या है? दीया जलता हो तो ऐसा थोड़े है कि अंधेरा झपट्टा मारकर उसे बुझा दे; कि तुम दीया जलाओ तो अंधेरा जलने न दे। अंधेरे की सामर्थ्य क्या? दीया जला कि अंधेरा गया। रात के बहाने निकालकर दीया जलाने से बचने की कोशिश मत करो।
जैन मानते हैं कि यह पंचमकाल है, अब कोई तीर्थंकर नहीं हो सकता। हिंदू मानते हैं यह कलियुग है, अब कोई भगवान को कैसे उपलब्ध हो! ये सब हताश बातें हैं। ये बातें आदमी को नपुंसक किए जा रही हैं। मैं तुमसे कहता हूं : ऐसा ही सदा था, ऐसा ही अब है। जो पहले हो सका, आज हो सकता है। जो आज हो सका, वही पहले भी हो सकता था। ज़रा भी फर्क नहीं है। दुनिया वैसी की वैसी है।
लेकिन हमें अड़चन होती है। हमें अड़चन होने के कारण हैं। होता ऐसा है कि अतीत की जब तुम स्मृति करते हो तो उसमें से भले-भले को चुनकर स्मृति करते हो। बुद्ध की तो हमें याद है, लेकिन बुद्ध जिन लोगों के बीच गुजरते थे, जिन लोगों के बीच जीते थे, उनकी हमें कोई याद नहीं, उनका कोई इतिहास नहीं बना। वे तो मिट गए। बुद्ध बचे। तो वह जो काला ब्लैकबोर्ड था, वह तो खो गया, सिर्फ चमकते हुए सफेद अक्षर हमारी याद में रह गए हैं। आज तुम्हें याद नहीं कि बुद्ध के समय का आदमी कैसा था; राम के समय का आदमी कैसा था; कृष्ण के समय का आदमी कैसा था। यह चमकते हुए तारों की याद रह गयी और अंधेरी रात का हमने कोई स्मरण न रखा। इससे ठीक उलटी बात घटती है अभी। अभी ऐसा घटता है कि करोड़ आदमी में कभी एकाध कोई चमकता आदमी मिलता है। वे जो करोड़ अंधेरे से भरे हुए लोग हैं वे रोज मिलते हैं उठते, बैठते सुबह सांझ, घर में, बाहर, दुकान, बाजार में–सब जगह वही है। बुद्ध तो कभी-कभार कोई मिलेगा। और मिल भी जाए तो तुम देख न पाओ। क्योंकि बुरे, पागलों की भीड़ में जीते-जीते जीते-जीते तुम्हारा बुद्ध को देखने का, बुद्ध को परखने की जो सूझ चाहिए वही खो गयी है। आदमियों से घिसते-पिसते, आदमियों की बेईमानी, चोरी सहते-सहते तुम इतने कठोर हो जाते हो! होना ही पड़ता है।
अगर किसी आदमी को कांटे के ही रास्ते पर चलना पड़े, कांटों पर ही चलना पड़े, तो धीरे-धीरे उसका चमड़ा कठोर हो जाएगा। फिर एक दिन फूल को स्पर्श हो, तो फूल का स्पर्श उसे पता ही न चलोगे। चमड़ी मोटी हो गयी। इसलिए तो पैर की चमड़ी मोटी हो जाती है। अब तुम पैर से ही अगर गुलाब को टटोलना चाहोगे तो न टटोल पाओगे; पैर की चमड़ी मोटी हो गयी। होना ही पड़ा। जमीन पर चलना है, कंकड़-पत्थर पर चलना है, तो पैर की चमड़ी को मजबूत, मोटा होना ही पड़ेगा। अब अगर तुम पैर की चमड़ी से टटोलो गुलाब को, तो तुम्हें कुछ पता न चलेगा। ऐसी ही बात है।
जिंदगी में रोज तो मिलते हैं बुरे लोग, कभी संयोगवशात कोई जीवंत भगवत्ता को उपलब्ध व्यक्ति के दर्शन होते हैं–तब तक तुम्हारी आंखें क्षमता खो चुकी होती हैं। तुम इस आदमी को समझ नहीं पाते। तुम मान नहीं पाते। तुम्हारा हृदय हजार संदेहों से भर गया। क्योंकि जब भी तुमने माना, धोखा खाया। जिसको माना, उससे धोखा खाया। धोखे ही धोखे की कथा है। जिसको तुमने सोचा कि ठीक है, वही गलत सिद्ध हुआ। यह इतनी बार हुआ कि अब तुम कैसे मानो किसी को, कि कोई ठीक हो सकता है! और संत हो सकता है, यह तो बात ही नहीं मानने की।
तो तुम्हारे जीवन का अनुभव जो है, वह तुम्हें कलियुग से घेरता है, और कभी एकाध कहीं किसी व्यक्ति में सतयुग की लपट होती है। तुम उसे मानते नहीं। तुम उसे देखते नहीं। तुम उसे स्वीकार नहीं करते।
और तुम्हें मैं क्षमा करता हूं। तुम्हें मैं क्षमा करता हूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि तुम्हारी भी अड़चन है। तुम भी क्या करो! हजार बार भरोसा किया और हजार बार भरोसा टूटा, तो अब तुम भरोसा करने में असमर्थ हो गए हो। अब श्रद्धा सुगम न रही। जब पाया, कांटा पाया। और जब भी कांटा पाया, तो पहले हर कांटे ने फूल को धोखा दिया था। आज फूल को देखकर भी तुम यही सोचोगे कि पता नहीं, फिर धोखा हो! मन कहेगा : “अब तो कुछ सीखो! कहां इस कलियुग में? कहां इस अंधेरी दुनिया में कोई जागता है? कहां कोई प्रभु को उपलब्ध होता है? अब भगवान कहां?’
तुम्हारी अड़चन मेरी समझ में आती है। अतीत के भगवानों की याद्दाश्त रह गयी; अतीत के मनुष्यों की याद्दाश्त खो गयी। आज के मनुष्य दिखायी पड़ते हैं; आज का भगवान दिखायी नहीं पड़ता। इसलिए बड़ी निराशा पैदा होती है।
न फलक पर कोई तारा, न जमीं पर जुगनू
जो किरन नूर की है, मात हुई जाती है,
कारगर योरिशे जुलमात हुई है कितनी
क्या हमेशा के लिए रात हुई जाती है?
बहुत बार यह मन में सवाल उठता है। न फलक पर कोई तारा…. एक तारा नहीं दिखायी क्षितिज पर। न जमीं पर जुगनू. . . छोड़ो तारों की बात, रात ऐसी अंधेरी है कि एक तारा नहीं दिखायी पड़ता फलक पर, आसमान पर एक तारे की झलक नहीं। रात ऐसी अंधेरी है कि तारों की तो बात छोड़ दो, जमीन पर कोई जुगनू भी चमकता हुआ नहीं दिखायी पड़ता।
न फलक पर कोई तारा न जमीं पर जुगनू
जो किरन नूर की है मात हुई जाती है।
इसलिए प्रकाश की किरण पर भरोसा कैसे आए? प्रकाश की किरण हारी जाती है। ऐसा लगता है कि “अब हम आशा छोड़ देंगे, सत्य नहीं होगा; सत्य नहीं हो सकता; इस कलियुग में कहां सत्य! वह सतयुग में होता था, वह कथा है पुराणों में! वह भी क्या पक्का पता, होता था कि नहीं होता था। मगर पहले होता होगा, अब तो नहीं होता। और अब तो कभी नहीं होगा। वह स्वर्णयुग जा चुका।’
कारगर योरिशे जुलमात हुई है कितनी. . . और अंधेरे में कितने जुल्म हुए हैं! अंधेरे के द्वारा कितने जुल्म हुए हैं! अंधेरा कितना झपट-झपट कर हमें तोड़ता रहा, सब तरफ से लूटता रहा है!
कारगर योरिशे जुलमात हुई है कितनी!
क्या हमेशा के लिए रात हुई जाती है?
तो यह संदेह स्वाभाविक है कि मन में विचार उठने लगेः “क्य हमेशा के लिए रात हुई जाती है? क्या अब कभी सुबह न होगी?’
कलियुग का अर्थ होता है कि अब कभी सुबह न होगी। कलियुग का अर्थ है यह आखिरी रात आ गयी। वे दिन गए, जब दिन हुआ करता था। वे दिन गए, वे दिन सपने हो गए।
तुम लोगों की बातों को सुनो। वे कहते हैं : “वे पुराने भले दिन! वे अच्छे दिन!’ लोग पीछे की तरफ सोचते हैं कि अच्छे दिन थे। उसके पीछे भी मनोवैज्ञानिक कारण है। उसके पीछे यह अर्थ नहीं कि पीछे अच्छे दिन थे। आदमी ऐसा ही रहा है, सदा से ऐसा ही रहा है। ज़रा भी फर्क नहीं है आदमी में। सामान बदल गए हैं, मगर आदमी नहीं बदला। आदमी की सारी वृत्तियां वही की वही हैं।
तुम सोचते हो : आज का आदमी बुरा है। तो चंगेजखान आज तो नहीं हुआ। और नादिरशाह आज तो नहीं हुआ और तैमूरलंग आज तो नहीं हुआ। कुछ फर्क नहीं हुआ है। तुम सोचते हो कि पीछे सब ठीक था। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण है, ऐतिहासिक कारण नहीं। हर आदमी अपने पीछे बचपन छोड़ आया है, वही कारण है। बचपन में कोई चिंता न थी, कोई जुम्मेवारी न थी, कोई फिक्र-फांटा न था। दुनिया में क्या हो रहा था, कुछ पता भी न था। बचपन में सब तरफ रोशनी थी; फूल खिले थे; तितलियां उड़ रही थीं; आकाश में बादल छाए थे और परियों का राज्य था। हर बच्चा अपने पीछे छोड़ आया है सुख के दिन, फिर चिंता आयी, फिर परेशानी आयी, फिर बेचैनियां आयीं, फिर संघर्ष आया, फिर लड़ना, जूझना, हारना, ईमानदारी-बेईमानी की दुनिया शुरू हुई, फिर बाजार पैदा हुआ। तो हर आदमी अपने पीछे बचपन छोड़ आया है। उस बचपन के कारण एक मनोवैज्ञानिक धारणा बनी है कि पहले सब अच्छा था । और बचपन के भी पहले हर आदमी गर्भ के नौ महीने छोड़ आया है। वे नौ महीने अद्भुत थे। उन नौ महीनों में तो चिंता का सवाल ही न था। भोजन भी खुद नहीं करना पड़ता था, मां करती थी। खून भी खुद नहीं बनाना पड़ता था, मां बनाती थी। श्वास भी खुद नहीं लेनी पड़ती थी, मां लेती थी।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मां के गर्भ में जैसा सुख बच्चा जान लेता है, उसी के कारण जीवन भर पीछे लौट-लौट कर सोचता है कि पीछे कितना सुख था! और यह हर आदमी बचपन से गुजरा है। तो हर आदमी के मन में यह धारणा बैठी है कि पहले अच्छा था। इसी पहले अच्छे का विस्तार है सतयुग का खयाल, कि पहले सब अच्छा था और अब सब बुरा हो गया।
कुछ बदला नहीं है। सब वैसा ही है।
ये बरसता हुआ मौसम, ये-शबे तीरोत्तार
किसी मद्धम से सितारे की जिया भी तो नहीं
उफ ये वीरानी-ए-माहौल-ये वीरानी-ए-दिल
आसमानों से कभी नूर भी बरसा होगा
बर्के इलहाम भी लहरा गई होगी शायद
लेकिन अब दीद-ए-हसरत से सू-ए-अर्श न देख
अब वहां एक अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं
देख इस फर्श को जो जुल्मते-शब के बावस्फ
रोशनी से अभी महरूम नहीं है शायद
इकन इक जर्रा यहां अब भी दमकता होगा
कोई जुगनू किसी गोशे में चमकता होगा
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती
किसी जांबाज के माथे पर शहादत का जलाल
किसी मजबूर के सीने में बगावत की तरंग
किसी दोशीजा के ओठों पै तबस्सुम की लकीर
कल्बे-उश्शाक में महबूब से मिलने की उमंग
दिले जुहाद में नाकरद गुनाहों की खलिश
दिल में एक फाहशा के पहली मोहब्बत का ख्याल
कहीं एहसास का शोला ही फरोजां होगा
कहीं अफकार की कंदील ही रोशन होगी
कोई जुगनू कोई जर्रा तो दमकता होगा
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती।
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती!
माना कि रात बड़ी अंधेरी है, लेकिन कहीं इस अंधेरी रात में भी कोई तारा चमकता होगा। खोजना पड़ेगा। जिन्होंने खोजा, उन्होंने ही पाया। कहीं तो कोई कंदील जलती होगी! भयानक अमावस है! “ये जमीं नूर से महरूम नहीं है।
Yahi to baat hai jiski khoz mein tha main, ab mil gayi.wise words I found..tha tha
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