Thursday, 30 October 2014

(hindi) किताब ए मीरदाद - अध्याय - 25 / 26





         मुर्शिद गुम हो कर भी
         हमारे बीच रहता है ☜
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अध्याय -25

   अंगूर-बेल का दिवस और उसकी तैयारीउससे
   एक दिन पहले मीरदाद लापता पाया जाता है
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नरौन्दा: अंगू-बेल का दिवस निकट आ रहा था और हम नौका के निवासी, जिनमे मुर्शिद भी शामिल थे, बाहर से आये स्वयं सेवी सहायकों की टुकड़ियों के साथ दिन-रात बड़े प्रतिभोज की तैयारियों में जुटे थे।
मुर्शिद अपनी सम्पूर्ण शक्ति से और इतने अधिक उत्साह के साथ काम कर रहे थे कि शमदाम तक ने स्पष्ट रूप से संतोष प्रकट करते हुए इस पर टिप्पणी की।
नौका के बड़े-बड़े तहखानों को बुहारना था और उनकी पुताई करनी थी, और शराब के बीसियों बड़े बड़े मर्तबानों और मटकों को साफ़ करके यथास्थान रखना था ताकि उनमे नयी शराब भरी जा सके।
उतने ही और मर्तबानों और मटकों को, जिनमे पिछले साल के अंगूरों की फसल से बनी शराब रखी थी सजाकर प्रदर्शित करना था ताकि ग्राहक शराब को आसानी से चख और परख सकें, क्योंकि हर अंगूर-बेल के दिवस पर गत बर्ष की शराब बेचने की प्रथा है। सप्ताह भर के आनंदोत्सव के लिये नौका के खुले आँगनों को भली प्रकार सजाना-सँवारना था;
आने वाले यात्रियों के लिये सैकड़ों तम्बू लगाने थे और व्यापारियों के सामान के प्रदर्शन के लिये अस्थायी दुकाने बनानी थीं। अंगूर पेरने के विशाल कोल्हू को ठीक करना था ताकि अंगूरों के वे असंख्य ढेर उसमे डाले जा सकें जिन्हें नौका के बहुत से काश्तकार तथा हितैषी गधों,टट्टुओं और ऊँटों की पीठ पर लादकर लाने वाले हैं। जिनकी रसद कम पड़ जाये, या जो बिना रसद लिये आयें, उनको बेंचने के लिये बड़ी मात्रा में रोटियाँ पकानी थीं और अन्य खाद्य सामग्री तैयार करनी थी।
अंगूर-बेल का दिवस शुरू-शुरू में आभार प्रदर्शन का दिन था। परन्तु शमदाम की असाधारण व्यापारिक सूझ-बूझ ने इसे एक सप्ताह तक खींचकर एक प्रकार के मेले का रूप दे दिया जिसमे निकट और दूर से हर व्यवसाय के स्त्री-पुरुष प्रतिबर्ष बढती हुई संख्या में एकत्र होने लगे। राज और रंक, कृषक और कारीगर, लाभ के इच्छुक, आमोद-प्रमोद तथा अन्य ध्येयों की पूर्ति के चाहवान; शराबी और पुरे परहेजगार; धर्मात्मा यात्री और अधर्मी आवारागर्द; मंदिर के भक्त और मधुशाला के दीवाने, और इन सबके साथ लददू जानवरों के झुण्ड–ऐसी होती है यह रंग-बिरंगी भीड़ जो पूजा शिखर के शांत वातावरण पर धावा बोलती है साल में दो बार,
पतझड़ में अंगूर-बेल दिवस पर और बसंत में नौका-दिवस पर। इन दोनों अवसरों में से एक पर भी कोई यात्री नौका में खाली हाथ नहीं आता;
सब किसी न किसी प्रकार का उपहार साथ लाते हैं जो अंगूर के गुच्छों या चीड़ के फल से लेकर मोतियों की लड़ियों या हीरे के हारों तक कुछ भी हो सकता है। और सब व्यापारियों से उनकी बिक्री का दस प्रतिशत कर के रूप में लिया जाता है।
यह प्रथा है कि आनंदोत्सव के पहले दिन अंगूर के गुच्छों से सजाये लता-मण्डप के नीचे एक ऊँचे मंच पर बैठकर मुखिया भीड़ का स्वागत करता है और आशीर्वाद देता है, और उनके उपहार स्वीकार करता है। इसके बाद वह उनके साथ नयी अंगूरी शराब का जाम पीता है। वह अपने लिये एक बड़ी, लम्बी खोखली तुम्बी में से प्याले में शराब उड़ेलता है,
और फिर एकत्रित जन-समूह में घुमाने के लिये वह तुम्बी किसी भी एक साथी को थमा देता है। तुम्बी जब-जब खाली होती है उसे फिर से भर दिया जाता है। और जब सब अपने प्याले भर लेते हैं तो मुखिया सबको प्याले ऊँचे उठाकर अपने साथ पवित्र अंगूर-बेल का स्तुति-गीत गाने का आदेश देता है।
कहा जाता है कि यह स्तुति-गीत हजरत नूह और उनके परिवार ने तब गया था जब उन्होंने पहली बार अंगूर-बेल का रस चखा था। स्तुति-गीत गा लेने के बाद भीड़ खुशी के नारे लगाती हुई प्याले खाली कर देती है और फिर अपने-अपने व्यापार करने तथा खुशियाँ मनाने के लिये विसर्जित हो जाती है।और पवित्र अंगूर-बेल का स्तुति गीत यह है; नमस्कार इस पुण्य बेल को !
नमस्कार उस अद्भुत जड़ कोमृदु अंकुर का पोषण जो करती,स्वर्णिम फल में मदिरा भारती। नमस्कार इस पुण्य बेल को। जल-प्रलय से अनाथ हुए जो,कीचड में हैं धँसे हुए जो,आओ, चखो और आशिष दो सब इस दयालु शाखा के रस को। नमस्कार इस पुण्य बेल को। माटी के सब बंधक हो तुम, यात्री हो, पर भटक गये तुम; मुक्ति-मूल्य चुका सकते हो,पथ भी अपना पा सकते हो,
इसी दिव्य पौधे के रस से, इसी बेल से,इसी बेल से। उत्सव के आरम्भ से एक दिन पहले प्रातः-काल मुर्शिद लापता हो गये। सातों साथी इतने घबरा गये कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता; उन्होंने तुरंत पूरी सावधानी के साथ खोज आरम्भ कर दी। पूरा दिन और पूरी रात, मशालें और लालटेनें लिये वे नौका में और उसके आस-पास खोज रहे थे;
किन्तु मुर्शिद का कोई सुराग नहीं पा सके। शमदाम ने इतनी चिंता प्रकट की और वह इतना व्याकुल दिखाई दे रहा था कि मुर्शिद के इस प्रकार रहस्यमय ढंग से लापता हो जाने में उसका हाथ होने का किसी को संदेह नहीं हुआ। परन्तु सबको पूरा विशवास था कि मुर्शिद किसी कपटपूर्ण चाल के शिकार हो गये हैं|
महान आनंदोत्सव चल रहा था लेकिन सातों साथियों की जुबान शोक से जड़वत हो गई थी और वे परछाइयों की तरह घूम रहे थे।
जन-समूह स्तुति-गीत गा चुका था और शराब पी चुका था और मुखिया ऊँचे मंच से उतरकर नीचे आ गया था जब भीड़ के शोर शराबे से बहुत ऊँची एक चीखती आवाज सुनाई दी, ”हम मिरदाद को देखना चाहते हैं, हम मिरदाद को सुनना चाहते हैं।”
हमने पहचान लिया कि यह आवाज रस्तिदियन की थी। मुर्शिद ने जो कुछ उससे कहा था और जो उसके लिये किया था वह सब रस्तिदियन ने दूर-दूर तक लोगों को बता दिया था।
जन-समूह ने उसकी पुकार को तुरंत अपनी पुकार बना लिया। मुर्शिद के लिये की जा रही पुकार चारो ओर फैलकर कानों को बेधने लगी, और हमारी आँखें भर आईं, हमारे गले रूँध गये मानो शिकंजे में जकड़ लिये गए हों। अचानक कोलाहल शांत हो गया,
और पुरे समुदाय पर एक गहरा सन्नाटा छा गया। बड़ी कठिनाई से हम अपनी आँखों पर विशवास कर पाये जब हमने नजर उठाई और मुर्शिद को उस ऊँचे मंच पर जनता को शांत करने के लिये हाथ हिलाते हुए देखा।
        मीरदाद प्रेम की शराब से लदा है
        अपने खाली पयाले ले आयो..
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अध्याय 26

अंगूर-बेल के दिवस पर आये यात्रियों को मिरदाद प्रभावशाली उपदेश देता है और नौका को कुछ अनावश्यक भार से मुक्त करता है
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मिरदाद: देखो मिरदाद को–अंगूर की उस बेल को जिसकी फसल अभी तक नहीं काटी गई, जिसका रस अभी तक नहीं पिया गया।
अपनी फसल से लदा हुआ है मिरदाद। पर, अफ़सोस, लुनेरे दूसरी ही अंगूर-वाटिकाओं में व्यस्त हैं। और रस की बहुलता से मिरदाद का दम घुट रहा है। लेकिन पीने और पिलाने वाले दूसरी ही शराबों के नशे में चूर हैं।
हल, कुदाल, और दराँती चलानेवाली, तुम्हारे हालों, कुदालों और दरांतियों को मैं आशीर्वाद देता हूँ। आज तक तुमने क्या जोता है, क्या खोदा है, क्या काटा है ?
क्या तुमने अपनी आत्मा के सुनसान बंजरों में हल चलाया है जो हर प्रकार के घास-पात से इतने भरे पड़े हैं कि सचमुच जंगल ही बन गये हैं जिनमे भयंकर और घिनौने सर्प, बिच्छू आदि पनप रहे हैं और उनकी सख्या बढ़ रही है !
क्या तुमने उन घातक जड़ों को उखाड़ फेंका है जो अँधेरे में तुम्हारी जड़ों से लिपटकर उन्हें दबोच रही हैं, और इस प्रकार तुम्हारे फल को कलि की अवस्था में ही नोच रही हैं? क्या तुमने अपनी उन शाखाओं की छँटाई की है जीने व्यस्त कीड़ों ने खोखला कर दिया है, या परजीवी बेलों के आक्रमण ने सुखा दिया है?
अपनी लौकिक अंगूर वाटिकाओं में हल चलाना और उनकी खुदाई तथा छँटाई करना तुमने भली भाँती सीख लिया है। पर वह अलौकिक अंगूर-वाटिका जो तुम खुद हो बुरी तरह से उजाड़ और उपेक्षित पड़ी है।
कितना निरर्थक तुम्हारा सब श्रम जब तक तुम वाटिका से पहले वाटिका के स्वामी की ओर ध्यान नहीं देते! श्रम-जन्य घट्ठों से भरे हाथ वाले लोगो ! मैं तुम्हारे घट्ठों को आशीर्वाद देता हूँ।
लम्बसूत्र और पैमाने के मित्रो, हथोड़े और अहरन के साथियों, छेनी और आरे के हमराहियो, अपने-अपने शिल्प में तुम कितने कुशल और योग्य हो ! तुम्हे मालुम है की वस्तुओं का स्तर और उनकी गहराई कैसे जानी जाती है; परन्तु अपना स्तर और गहराई कैसे जानी जाती है, इसका तुम्हे पता नहीं।
तुम लौहे के टुकड़े को हथौड़े और अहरन से कुशलतापूर्वक गढ़ते हो, पर नहीं जानते कि ज्ञान की अहरन पर संकल्प के हथौड़े से अनगढ़ मनुष्य को कैसे गढ़ा जाता है। न ही तुमने अहरन से यह अनमोल शिक्षा ली है कि चोट के बदले चोट पहुँचाने का रत्ती भर विचार किये बिना भी चोट कैसे खाई जाती है।
लकड़ी पर आरा और पत्थर पर चलाने में तुम सामान रूप से निपुण हो; पर नहीं जानते कि गंवारू और उलझे हुए मनुष्य को सभ्य और सुलझा हुआ कैसे बनाया जाता है। कितने निरर्थक हैं तुम्हारे सब शिल्प जब तक पहले तुम शिल्पी पर उनका प्रयोग नहीं करते!अपनी धरती-माँ के दिये उपहारों और साथी मनुष्य के हाथों से बनी चीजों की मनुष्य की आवश्यकता होती है,
और मनुष्य अपने लाभ के लिये ही इस आवश्यकता का व्यापार कर रहे हैं। मैं आवश्यकताओं को, उपहारों को, और उत्पादित वस्तुओं को आशीर्वाद देता हूँ, आशीर्वाद देता हूँ व्यापार को भी। किन्तु स्वयं उस लाभ के लिये, जो वास्तव में हानि है, मेरे मुख से शुभकामना नहीं निकलतीरात के महत्वपूर्ण सन्नाटे में जब तुम दिन भर हकी आय के जमा-खर्च का हिसाब करते हो तो लाभ के खाते में क्या डालते हो और हानि के खाते में क्या?
क्या लाभ के खाते में वह धन डालते हो जो तुम्हे तुम्हारी लागत से अधिक प्राप्त हुआ है? तो सचमुच बेकार गया वह दिन जिसे बेंचकर तुमने वह पूंजी प्राप्त की, चाहे वह पूंजी कितनी ही बड़ी क्यों न रही हो।
और उस दिन के सौहार्द, शान्ति और प्रकाश के अंतहीन खजाने से तुम पूर्णतया बंचित रह गये। उस दिन के द्वारा स्वतंत्रता के लिये दिये गये निरंतर आमंत्रणों का भी तुम लाभ न उठा सके और खो बैठे उन मानव-हृदयों को जिन्हें उसने तुम्हारे लिये उपहार के रूप में अपनी हथेली पर रखा था।
जब तुम्हारी मुख्य रूचि लोगों के बटुओं में है, तब तुम्हे उनके ह्रदय में प्रवेश का मार्ग कैसे मिल सकता है ? और यदि तुम्हे मनुष्य के ह्रदय में प्रवेश का मार्ग नहीं मिलता तो प्रभु के ह्रदय तक पहुँचने की आशा कैसे कर सकते हो ? और यदि तुम प्रभु के ह्रदय तक नहीं पहुंचे तो क्या अर्थ है तुम्हारे जीवन का ?
जिसे तुम लाभ समझते हो यदि वह हानि हो, तो कितनी अपार होगी वह हानि ! निश्चय ही व्यर्थ है तुम्हारा सम्पूर्ण व्यापार जब तक तुम्हारे लाभ के खाते में प्रेम और दिव्य ज्ञान न आये। राजदण्ड थामनेवाले मुकुटधारियो ! ऐसे हाथों में जो घायल करने में बहुत चुस्त, लेकिन घाव पर मरहम लगाने में बहुत सुस्त हैं राजदण्ड सर्प के सामान है।
जबकि प्रेम का मरहम लगाने वाले हाथों में राजदण्ड एक विद्युत-दण्ड के सामान है जो विषाद और विनाश को पास नहीं फटकने देता।भली प्रकार परखो अपने हाथों को। मिथ्या अभिमान, अज्ञान तथा मनुष्यों पर प्रभुत्व के लोभ से फूले हुए मस्तक पर सजा हीरे, लाल और नीलम से जुड़ा सोने का मुकुट बोझ, उदासी बेचैनी महसूस करता है।
हाँ, ऐसा मुकुट तो अपनी पीठिका का–जिस पर वह रखा है उसका मर्मभेदी उपहास ही होता है। जब कि अत्यंत दुर्लभ और उत्कृष्ट रत्नों से जड़ा मुकुट भी ज्ञान तथा आत्म-विजय से आलोकित मस्तक के अयोग्य होने के कारण लज्जा का अनुभव करता है। भली प्रकार परखो अपने मस्तकों को। लोगों पर शासन करना चाहते हो तुम ?
तो पहले अपने आप पर शासन करना सीखो। अपने आप पर शासन किये बिना तुम औरों पर शासन कैसे कर सकते हो ?
वायु से प्रताड़ित, फेन उगलती लहर क्या सागर को शान्ति तथा स्थिरता प्रदान कर सकती है ?
अश्रु-पूरित आँख क्या किसी अश्रु-पूरित ह्रदय में आनंदपूर्ण मुस्कान जाग्रत कर सकती है ?
भय और क्रोध से कांपता हाथ क्या जहाज का संतुलन बनाये रख सकता है ?
मनुष्यों पर शासन करनेवाले लोग मनुष्यों द्वारा शासित होते हैं। और मनुष्य अशान्ति, अराजकता तथा अव्यवस्था से भरे हुए हैं,
क्योंकि वे सागर ही की तरह आकाश की हर झंझा के प्रहार के सामने बेबस हैं; सागर ही की तरह उनमे ज्वार-भाटा आता है, और कभी-कभी लगता है कि वे अपनी सीमा का उल्लंघन करने ही वाले हैं।
लेकिन सागर ही की तरह उनकी गहराईयाँ शांत और सतह पर होने वाले झंझाओं के प्रहारों के प्रभाव से मुक्त रहती हैं।यदि तुम सचमुच लोगों पर शासन करना चाहते हो तो उमकी चरम गहराईयों तक पहुँचो, क्योंकि मनुष्य केवल उफनती लहरें नहीं है।
परन्तु मनुष्यों की चरम गहराईयों तक पहुँचने लिये तुम्हे पहले अपनी चरम गहराई तक पहुँचना होगा। और ऐसा करने के लिये तुम्हे राजदण्ड तथा मुकुट को त्यागना होगा ताकि तुम्हारे हाथ महसूस करने के लिये स्वतंत्र हों, और तुम्हारा मस्तक सोचने और परखने के लिये भार-मुक्त हो।धूप-दानों और धर्म-पुस्तकों वालो ! क्या जलाते हो तुम धूप-दानों में ?
क्या पढ़ते हो तुम धर्म-पुस्तकों में ?
क्या तुम वह रस जलाते हो जो कुछ पौधों के सुगंध पूर्ण ह्रदय में से रिस-रिस कर जम जाता है?
किन्तु वह तो आम बाजारों में खरीदा तथा बेंचा जाता है, और दो टेक का रस किसी भी देवता को कष्ट देने के लिये काफी है।
क्या तुम समझते हो कि धूप की सुगंध घृणा, ईर्ष्या और लोभ की दुर्गन्ध को दबा देगी?
दबा सकती है फरेबी आँखों की,झूठ बोलती जिव्हा की, और वासनापूर्ण हाथों की दुर्गन्ध को? दबा सकती है विश्वास का नाटक करते अविश्वास और ढोल पीटती अधम पार्थिवता की दुर्गन्ध को?
इन सब को भूखों मारकर, एक-एक कर ह्रदय में जला देने से, और उनकी राख को चारों दिशाओं में बिखेर देने से जो सुगंध उठेगी वह तुम्हारे प्रभु की नासिका को कहीं अधिक सुहावनी लगेगी। क्या जलाते हो तुम धूप-दानों में? अनुनय,प्रशंसा और प्रार्थना?
अच्छा है क्रोधी देवता को अपने क्रोध की अग्नि में झुलसते छोड़ देना।
अच्छा है प्रशंसा के भूखे देवता को प्रशंसा की भूख से तड़पने के लिये छोड़ देना।
अच्छा है कठोर-ह्रदय देवता को अपने ही ह्रदय की कठोरता के हाथों मरने के लिये छोड़ देना।
किन्तु प्रभु न क्रोधी है, न प्रशंसा का भूखा और न ही कठोर-ह्रदय। क्रोध से भरे, प्रशंसा के भूखे और कठोर-ह्रदय तो तुम हो।प्रभु यह नहीं चाहता कि तुम धूप जलाओ; वह तो चाहता है कि तुम अपने क्रोध को. अहंकार को और कठोरता को जला डालो ताकि तुम उसी जैसे स्वतंत्र और सर्वशक्तिमान हो जाओ।
वह चाहता है कि तुम्हारा ह्रदय ही धूप-दान बन जाये| क्या पढ़ते हो तुम अपनी धर्म-पुस्तकों में?
क्या तुम धर्मादेशों को पढ़ते हो ताकि उन्हें सुनहरे अक्षरों में मंदिरों की दीवारों और गुम्बदों पर लिख दो?
या तुम पढ़ते हो जीवन सत्य को ताकि उसे अपने ह्रदय में अंकित कर सको?
क्या तुम सिद्धांतों को पढ़ते हो ताकि धार्मिक मंचों से उनकी शिक्षा दे सको और तर्क तथा वचन-चातुरी द्वारा, और यदि आवश्यकता पड़े तो तलवार की धार द्वारा, उनकी रक्षा कर सको?
या तुम अध्ययन करते हो जीवन का जो कोई सिद्धांत नहीं है जिसकी शिक्षा दी जाये और रक्षा की जाये, बल्कि एक मार्ग है जिस पर स्वतन्त्रता प्राप्त करने के दृढ़ संकल्प के साथ चलना है, मंदिर के अंदर भी वैसे ही जैसे उसके बाहर, रात में भी वैसे ही जैसे दिन में, और निचले पदों पर भी वैसे ही जैसे ऊँचे पदों पर।
और जब तक तुम उस मार्ग पर चलते नहीं तुम्हे उसकी मंजिल का निश्चित रूप से पता नहीं लग जाता, तब तक तुम औरों को उस मार्ग पर चलने का निमन्त्रण देने का दुःसाहस कैसे कर सकते हो? क्या तुम अपनी धर्म-पुस्तकों में तालिकाओं, मानचित्रों और मूल्य-सूचियों को देखते हो जो मनुष्य को बताती हैं कि इतनी या इतनी धरती से कितना स्वर्ग खरीदा जा सकता है?
चालवाजो और पाप के प्रतिनिधियों ! तुम मनुष्य को स्वर्ग बेंचकर उनसे धरती का हिस्सा मोल लेना चाहते हो। तुम धरती को नरक बनाकर मनुष्यों को यहाँ से भाग जाने के लिये प्रेरित करते हो और अपने आप को और भी मजबूती के साथ यहाँ जमा लेना चाहते हो। तुम मनुष्यों को यह क्यों नहीं समझाते कि वह धरती के कुछ हिस्से के बदले स्वर्ग में अपना हिस्सा बेंच दें?
यदि तुम अपनी धर्म-पुस्तकों अच्छी तरह पढ़ते तो लोगों को दिखाते कि धरती को स्वर्ग कैसे बनाया जाता है, क्योंकि दिव्य-ह्रदय मनुष्य के लिये धरती एक स्वर्ग है; जबकि उनके लिये जिनका ह्रदय संसार में है स्वर्ग एक धरती है।मनुष्य और उसके साथियों के बीच, मनुष्य और अन्य जीवों के बीच, मनुष्य और प्रभु के बीच खड़ी सब बाधाओं को हटाकर मनुष्य के ह्रदय में स्वर्ग को प्रकट कर दो। परन्तु इसके लिये तुम्हे स्वयं दिव्य ह्रदय बनना पड़ेगा। स्वर्ग कोई खिला हुआ उद्यान नहीं है जिसे खरीदा या किराये पर लिया जा सके। स्वर्ग तो अस्तित्व की एक अवस्था है
जिसे धरती पर उतनी ही आसानी से प्राप्त किया जा सकता है जितनी आसानी से इस असीम ब्रम्हांड में कहीं भी। फिर उसे धाती से प्रे देखने के लिये अपने गर्दन क्यों तानते हो, अपनी आँखों पर क्यों जोर डालते हो?
न ही नरक कोई दहकती हुई भटठी है जिससे प्रार्थनाएँ करके या धूप जलाकर बचा जा सके। नरक तो मन की एक अवस्था है जिसका धरती पर उतनी ही आसानी से अनुभव किया जा सकता है जितनी आसानी से इस अमिट विशालता में कहीं भी।
जिस आग का ईंधन मन हो उस आग से भागकर तुम कहाँ जाओगे जब तक तुम मन से ही नहीं भाग जाते? जब तक मनुष्य अपनी ही छाया का बंदी है तब तक व्यर्थ है स्वर्ग की खोज, और व्यर्थ है नरक से बचने का प्रयास। क्योंकि स्वर्ग और नरक द्वेत की स्वाभाविक अवस्थाएँ हैं। जब तक मनुष्य की बुद्धि एक न हो, ह्रदय एक न हो, और शरीर एक न हो;
जब तक वह छ्या-मुक्त न हो और उसका संकल्प एक न हो, तब तक उसका एक पैर हमेशा स्वर्ग में रहेगा और दूसरा हमेशा नरक में। और यह अवस्था निःसंदेह नरक है। और यह तो नरक से भी बदतर है की पंख प्रकाश के हों और पैर सीसे के;
कि आशा ऊपर उठाये और निराशा नीचे घसीट ले; कि भय-मुक्त बन्धन को खोले और भयपूर्ण संशय बन्धन में जकड ले।स्वर्ग नहीं है वह स्वर्ग जो दूसरों के लिये नरक हो। नरक नहीं है वह नरक जो दूसरों के लिये स्वर्ग हो।
और क्योंकि एक का नरक प्रायः
दूसरे का स्वर्ग होता है,
और एक का स्वर्ग प्रायः दूसरे का नरक,
इसलिये और नरक स्थायी और परस्पर विरोधी अवस्थाएँ नहीं, बल्कि पड़ाव हैं जिन्हें स्वर्ग और नरक दोनों से स्वतंत्रता प्राप्त करने की लम्बी यात्रा में पार करना है।
पवित्र अंगूर-बेल के यात्रियों ! सदाचारी बनने के इच्छुक व्यक्तियों को बेचने और प्रदान करने के लिये मिरदाद के पास कोई स्वर्ग नहीं है; न ही उसके पास पास कोई नरक है जिसे वह दुराचारी बनने के इच्छुक लोगों के लिये हौआ बनाकर खड़ा कर दे।
जब तक कि तुम्हारी सदाचारिता खुद ही स्वर्ग नहीं बन जाती, वह एक दिन के लिये खिलेगी और फिर मुरझा जायेगी। जब तक तुम्हारी दुराचारिता खुद ही हौआ नहीं बन जाती, वह एक दिन के लिये दबी रहेगी पर अनुकूल अवसर पाते ही खिल उठेगी। तुम्हे देने के लिये मिरदाद के पास कोई स्वर्ग या नरक नहीं है, परन्तु है दिव्य ज्ञान जो तुम्हे किसी भी नरक की आग और किसी भी स्वर्ग के ऐश्वर्य से बहुत ऊपर उठा देगा।
हाथ से नहीं,ह्रदय से स्वीकार करना होगा तुम्हे यह उपहार। इसके लिये तुम्हे अपने ह्रदय को ज्ञान-प्राप्ति की इक्षा और संकल्प के अतिरिक्त अन्य हर इच्छा और संकल्प के बोझ से मुक्त करना होगा।
तुम धरती के लिये कोई अजनबी नहीं हो, न ही धरती तुम्हारे लिये सौतेली माँ है। तुम तो उसके ह्रदय का ही सारभूत अंश हो, और उसके मेरुदण्ड का ही बल हो। अपनी सबल, चौड़ी और सुदृढ़ पीठ पर तुम्हे उठाने में उसे ख़ुशी होती है; तुम क्यों अपने दुर्बल और क्षीण व्क्शःस्थल पर उसे उठाने का हाथ करते हो,
और परिणाम स्वरूप कराहते, हाँफते और सांस के लिये छटपटाते हो?दूध और शहद बहते हैं धरती के थनों से। लोभ के कारण अपनी आवश्यकता से अधिक मात्रा में इन्हें लेकर तुम इन दोनों को खट्टा क्यों करते हो?
शांत और सुन्दर है धरती का मुखड़ा। तुम दुखद कलह और भय से उसे अशांत और कुरूप क्यों बनाना चाहते हो? एक पूर्ण ईकाई है धरती। तुम तलवारों और सीमा-चिन्हों से क्यों इसके टुकड़े-टुकड़े कर देने पर तुले हो? आज्ञाकारी और निश्चिन्त है धरती। तुम क्यों इतने चिन्ता-ग्रस्त और अवज्ञाकारी हो ?
फिर भी तुम धरती से, सूर्य से, तथा आकाश के सभी ग्रहों से अधिक स्थायी हो। सब नष्ट हो जायेंगे, पर तुम नहीं। फिर तुम क्यों हवा में पत्तों की तरह काँपते हो? यदि अन्य कोई वस्तु तुम्हे ब्रम्हांड के साथ तुम्हारी एकता का अनुभव नहीं करवा सकती तो अकेली धरती से ही तुम्हे इसका अनुभव हो जाना चाहिये। परन्तु धरती स्वयं केवल दर्पण है जिसमे तुम्हारी परछाइयाँ प्रतिबिम्बित होती हैं।
क्या दर्पण प्रतिबिम्बित वास्तु से अधिक महत्वपूर्ण है? क्या मनुष्य की परछाईं मनुष्य से अधिक महत्वपूर्ण है? आँखें मलो और जागो। क्योंकि तुम केवल मिट्टी नहीं हो। तुम्हारी नियति केवल जीना और मरना तथा मृत्यु के भूखे जबड़ों के लिये आहार बन कर रह जाना नहीं है।
तुम्हारी नियति है प्रभु की सतत फलदायिनी अंगूर-वाटिका की फलवती अंगूर-बेल बनना। जिस प्रकार किसी अंगूर-बेल की जीवित शाखा धरती में दबा दिये जाने पर जड़ पकड़ लेती है और अंत में अपनी माता की ही तरह, जिसके साथ वह जुडी रहती है,
अंगूर देने वाली स्वतंत्र बेल बन जाती है, उसी प्रकार मनुष्य, जो दिव्य लता की जीवित शाखा है, अपनी दिव्यता की मिटटी में दबा देये जाने पर परमात्मा का रूप बन जाएगा और सदा परमात्मा के साथ एक–रूप रहेगा।क्या मनुष्य जीवित दफना दिया जाये ताकि वह जीवन पा ले? हाँ, निःसंदेह हाँ।
जब तक तुम जीवन और मृत्यु के द्वेत के प्रति दफ़न नहीं हो जाते, तुम अस्तित्व के एकत्व को नहीं पाओगे। जब तक तुम दिव्य प्रेम के अंगूरों से पोषित नहीं होते, तुम दिव्य ज्ञान की मदिरा से भरे नहीं जाओगे।
और जब तक तुम दिव्य ज्ञान की मदिरा के नशे में बेहोश नहीं हो जाते, तुम स्वतंत्रता के चुम्बन से होश में नहीं आओगे। प्रेम का आहार नहीं करते हो तुम जब पृथ्वी की अंगूर-बेल के फल खाते हो।
तुम एक छोटी भूख को शांत करने के लिये एक बड़ी भूख को आहार बनाते हो। ज्ञान का पान नहीं करते हो तुम जब पृथ्वी की अंगूर-बेल का रस पीते हो।
तुम केवल पीड़ा की क्षणिक विस्मृति का पान करते हो जो अपना प्रभाव समाप्त होते ही तुम्हारी पीड़ा की तीव्रता को दुगना कर देती है। तुम एक दुःख दायी अहम् से दूर भागते हो और वाही अहम् तुम्हे अगले मोड़ पर खडा मिलता है।
जो अंगूर तुम्हे मिरदाद पेश करता है उसे न फफूंदी लगती है न वे सड़ते हैं। उनसे एक बार तृप्त हो जाना सदा के लिये तृप्त हो रहना है। जो मदिरा उसने तुम्हारे लिये तैयार की है वह उन ओंठों के जिये बहुत तीखी है जो जलने से डरते हैं; लेकिन वह जान डाल देती है उन हृदयों में अनन्तकाल काल तक आत्म-विस्मृति में डूबे रहना चाहते हैं।
क्या तुममे ऐसे मनुष्य हैं जो मेरे अंगूरों के भूखे हैं ? वे अपनी टोकरियाँ लेकर आगे आ जायें।क्या कोई ऐसे हैं जो मेरे रस के प्यासे हैं ?
वे अपने प्याले लेकर आ जायें।
क्योंकि मिरदाद अपनी फसल से लदा है, और रस की वहुलता से उसकी सांस रुक रही है। पवित्र अंगूर-बेल का दिवस आत्म-विस्मृति का दिन था—प्रेम की मदिरा से उन्मत और ज्ञान की आभा से स्नात दिन, स्वतन्त्रता के पँखों के संगीत से आनंद-विभोर दिन. बाधाओं को हटाकर एक को सबमे और सबको एक में विलीन कर देने का दिन। पर देखो, आज यह क्या बन गया है।
एक सप्ताह बन गया है यह रोगों अहम् के दावे का; घृणित लोभ का जो घृणित लोभ का ही व्यापार कर रहा है; दासता का जो दासता के साथ ही क्रीडा कर रहा है; अज्ञानता का जो अज्ञानता को ही दूषित कर रही है। जो नौका कभी विश्वास, प्रेम और स्वतंत्रता की मदिरा बनाने का केंद्र थी, उसी को अब शराब की एक विशाल भट्ठी तथा घृणित व्यापार मण्डी में बड़क दिया गया है।
वह तुम्हारी अंगूर-वाटिकाओं की उपज लेती है और उसे मति-भ्रष्ट करनेवाली मदिरा के रूप में वापिस तुम्हे ही बेंच देती है। और तुम्हारे हाथों के श्रम की वह तुम्हारे ही हाथों के लिये हथकड़ियाँ गढ़ देती है।
तुम्हारे श्रम के पसीने को वह जलते हुए अंगार बना देती है तुम्हारे ही मस्तक को दागने के लिये। दूर बहुत दूर भटक गई है नौका अपने नियत मार्ग से। किन्तु अब इसकी पतवार को ठीक देशा दे दी गई है।
अब इसे सारे अनावश्यक भार से मुक्त कर दिया जायेगा ताकि यह अपने मार्ग पर सुविधापूर्वक और सुरक्षित चल सके। इसलिये सब उपहार उन्ही को, जिन्होंने दिये थे,
लौटा दिये जायेंगे और सब कर्जदारों को माफ़ कर दिये जायेंगे। नौका सिवाय प्रभु के किसी को डाटा स्वीकार नहीं करती, और प्रभु चाहता है कोई भी कर्जदार न रहे–उसका अपना कर्जदार भी नहीं।
यही शिक्षा थी मेरी नूह को थी।

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