रामायण काल भी मानवीय विषैले स्वभाव , शक्ति प्रदर्शन , दैत्य प्रव्रतीय शक्तिशाली मनुष्य और देवतुल्य मनुष्य के मेल से बना समाज था , जहाँ आध्यात्मिक शिक्षा दीक्षा की परंपरा समस्त विषयों के ज्ञान के साथ ऋषि मुनियो द्वारा आगे बढ़ाई जाती थी। फिर भी सहज मानवीय सामाजिक कुरीतिया थी , जिनका वर्णन धार्मिक भाव या भक्तिभाव की लीपापोती के साथ रामायण में मिलता है। वो ही सामान्य मानुष की गुण यहाँ भी हावी थे , शक्तिशाली राज्य करते थे अत्याचार करते थे , दैत्य समुदाय था जो ऋषियों को पीड़ा देता था। एक देवगुण युक्त समुदाय था जो ऋषियों की सुरक्षा करता था। आदि आदि। कैकयी का पात्र , मंथरा का पात्र , राजा दशरथ का पात्र , राम समेत उनके तीन भाई उनकी पत्निया , स्वयं सीता , रावण रावण की पत्नी , पत्नियां , बहुत कुछ तत्कालीन मानवीय कमजोरियों को उजागर करते है। तब भी एक सामाजिक ढांचा था जो राजमहल से बाहर का था , जहाँ आम व्यक्ति रहते थे , कर्म करते थे। बहुत छोटा सा अंश है रामायण में मिलता है वो है धोबी का कथन सीता के लिए , तत्कालीन समाज की पृष्ठभूमि ही साफ़ कर देता है , जिसका भाव कुछ यूँ था " वैसे तो पुरुष के लिए ऐसी स्त्री त्याज्य है जो पर पुरुष के साथ रही हो परन्तु चूँकि वो राजा की स्त्री है तो राम का साथ रखने का निर्णय सही ही है " । अधिकतर तो ये धार्मिक-ग्रन्थ भक्तिभाव से ही घिरा है। तत्कालीन समाज की स्थति भी भाव और भक्ति की दिखाई सी पड़ती है , वस्तुतः एक सत्य सदैव उपस्थ्ति रहता है किसी भी मानव जीवंत कथा किसी भी पात्र में की जो दिखरहा है जो समझ आरहा है , वास्तविकता कुछ अलग और सत्य का रूप और ही है।
ठीक इसी प्रकार कृष्ण काल में भी सामाजिक कुरीतियां थी ,विभिन्न सामाजिक संरचनाओं में मनुष्य बुद्धि सहज इन पृथक पृथक सम्प्रदायों धर्म और मानसिकताओं को स्वीकार करती है , जिनमे से एक आध की मान्यता समाजिक मनुष्य होने के कारण अर्जुन अनुरागी (राग से भरे ) के भी मनपटल पे अंकित थी , युद्ध के समय अनेक संदेह से भरा अर्जुन , गीता के द्वितीय अध्याय में कृष्ण से संदेह व्यक्त करता है उसने चार तर्क दिए पहला - ऐसे युद्ध से सनातन धर्म नष्ट होगा। दूसरा - वर्णसंकर ( गुण दोष का मिलाजुला वातावरण ) पैदा होगा। तीसरा - (मरणोपरांत ) पिडोदक क्रिया लुप्त होगी। चौथा - हम लोग कुलक्षय द्वारा महान पाप करने को उद्धत है। इसके बाद अर्जुन को समझाने के लिए कृष्ण ने अनेक शब्दों का उपयोग किया जिनमे एक है " शोचिंतुनार्हसि ", मनुष्य मन सोचता भी अधिक है और शोक भी अधिक करता है। यहाँ पे कृष्ण अर्जुन को सूत्र देते है। उतना ही सोचना उचित है जो मानव धर्म में हो , आवश्यकता से अधिक शोक और सोच भरम देते है। गीता की पृष्ठभूमि में एक ऐसा सामाजिक व्यसनों से भरा समाज है , जिसमे समस्त मानवीय कमिया अच्छाईयों पे भरी होती दिखाई गयी है। हर चरित्र , हर पात्र कथा में अपना अभूतपूर्व योगदान देता सा लगता है। शक्ति धन और चालाकियों का नृत्य , जिसको समाप्त करने में कौरव और पांडव सभी पुरुष समाप्त हो गए मात्र विधवाएं बची जिन्होंने स्वेक्छा से युधिष्ठिर के साथ स्वर्ग गमन का निश्चय किया । कृष्ण शापित हुए , जिसके कारण यदुवंश का नाश सुनिश्चित हुआ और ये भी कारण की यदुवंशी आज के मानव जैसे घृणा क्रोध लोभ द्वेष आदि विकारों से भर के युद्ध के लिए प्रेरित हुए , युद्ध और युद्ध के परिणाम विनाशकारी ही है , विकास को भी नष्ट करते है , ये मानवीय बुद्धि जितनी सृजनात्मक है उतनी ही विध्वंस कारी भी है । गुण -दोष के संतुलन में ही मानव मानव रह सकता है।
ठीक इसी प्रकार कृष्ण काल में भी सामाजिक कुरीतियां थी ,विभिन्न सामाजिक संरचनाओं में मनुष्य बुद्धि सहज इन पृथक पृथक सम्प्रदायों धर्म और मानसिकताओं को स्वीकार करती है , जिनमे से एक आध की मान्यता समाजिक मनुष्य होने के कारण अर्जुन अनुरागी (राग से भरे ) के भी मनपटल पे अंकित थी , युद्ध के समय अनेक संदेह से भरा अर्जुन , गीता के द्वितीय अध्याय में कृष्ण से संदेह व्यक्त करता है उसने चार तर्क दिए पहला - ऐसे युद्ध से सनातन धर्म नष्ट होगा। दूसरा - वर्णसंकर ( गुण दोष का मिलाजुला वातावरण ) पैदा होगा। तीसरा - (मरणोपरांत ) पिडोदक क्रिया लुप्त होगी। चौथा - हम लोग कुलक्षय द्वारा महान पाप करने को उद्धत है। इसके बाद अर्जुन को समझाने के लिए कृष्ण ने अनेक शब्दों का उपयोग किया जिनमे एक है " शोचिंतुनार्हसि ", मनुष्य मन सोचता भी अधिक है और शोक भी अधिक करता है। यहाँ पे कृष्ण अर्जुन को सूत्र देते है। उतना ही सोचना उचित है जो मानव धर्म में हो , आवश्यकता से अधिक शोक और सोच भरम देते है। गीता की पृष्ठभूमि में एक ऐसा सामाजिक व्यसनों से भरा समाज है , जिसमे समस्त मानवीय कमिया अच्छाईयों पे भरी होती दिखाई गयी है। हर चरित्र , हर पात्र कथा में अपना अभूतपूर्व योगदान देता सा लगता है। शक्ति धन और चालाकियों का नृत्य , जिसको समाप्त करने में कौरव और पांडव सभी पुरुष समाप्त हो गए मात्र विधवाएं बची जिन्होंने स्वेक्छा से युधिष्ठिर के साथ स्वर्ग गमन का निश्चय किया । कृष्ण शापित हुए , जिसके कारण यदुवंश का नाश सुनिश्चित हुआ और ये भी कारण की यदुवंशी आज के मानव जैसे घृणा क्रोध लोभ द्वेष आदि विकारों से भर के युद्ध के लिए प्रेरित हुए , युद्ध और युद्ध के परिणाम विनाशकारी ही है , विकास को भी नष्ट करते है , ये मानवीय बुद्धि जितनी सृजनात्मक है उतनी ही विध्वंस कारी भी है । गुण -दोष के संतुलन में ही मानव मानव रह सकता है।
बुद्ध काल में केश कम्बल एक संप्रदाय था , जिसमे पूर्ण आध्यात्मिक उपलब्धि तब मानी जाती थी जब व्यक्ति केश बढ़ा के कंबल की तरह ओढ़ लेता था , तो कोई संप्रदाय गोवृतिक (गाय की तरह रहने वाला ) था । तो कोई कुकुरवृतिक , पर ब्रह्म ज्ञान का मात्र प्रलोभन था , ब्रह्मज्ञान का अंश भी नहीं था। संप्रदाय बन जाना , कुरीतियों का विकास मानव समाज का ही एक अंश है।
जिन कुरीतियों के विपरीत सिद्धार्थ ने आध्यात्मिक यात्री को चार सहज आर्य सत्य दिए थे-
जिन कुरीतियों के विपरीत सिद्धार्थ ने आध्यात्मिक यात्री को चार सहज आर्य सत्य दिए थे-
* जीवन दुखमय है
* दुःख का कारन अनुराग है
* बोध से इसे रोक जा सकता है
* इस बोध का रास्ता >> सम्यक दृष्टि , सम्यक भाव ,सम्यक वाणी , सम्यक कर्म , सम्यक प्रयास , सम्यक बुद्धि , सम्यक ध्यान और सम्यक जीवन जीने से हो के है।
सभी कालों में मनुष्य मनुष्य ही था , अपनी अच्छाईयों और बुराईयों के साथ स्वयं को संतुलित करने का प्रयास करता हुआ।
विकास के इस युग में , विज्ञानं ने बहुत विकास किया पहले के युगों के विकास का आधार धार्मिक हो गया, किन्तु शास्त्र के चलने और गति और प्रयोग के तरीके बताते है की विज्ञान और ज्ञान का विकास तब भी चरम पे था। कोई तो यंत्र था जिससे ऋषि मुनि आस्मां में नक्षत्रो की चाल की गणना सहजता से करते थे। कोई रॉकेट या ग्रहीय यान तो होगा जो कमजोर पड गया और त्रिशंकु को दूसरे गृह के चुंबकीय घेरे में नहीं ले जा सका , न ही पृथ्वी पे वापिस ला सका। महाभारत काल में या राम रावण युद्ध में एक से एक आधुनिक मिसाइल जैसे शस्त्र का उपयोग हुआ। . जैसे आज निर्भय अस्त्र है उसके और ब्रह्मास्त्र के गुन मिलते जुलते है . पर युग समाप्ति के साथ ज्ञान भी समाप्त हो गया।
बस मनुष्य अपने उन्ही गुण और दोषों के साथ पुनः पुनः जन्म लेता है। सो आज भी वही बुद्धि दिखाई देती है , इसलिए ये अहंकार की हम ही सबसे आगे है आधुनिक है , हर युग से आगे हमारा ज्ञान है , उचित नहीं। सिर्फ पुनरावर्ती है , जी हाँ , वो ज्ञान , वो प्रगति , और उन ही राक्षसीय दैवीय तथा मानवीय गुणों की पुनरावृत्ति है। हर बार हम वो ही दोहराते है , बिना थके , बिना सीखे वो ही बोझ उठाए जाते है। बार बार राम का चरित्र बनता है , रावण का बनता है , सीता बनती है , कृष्णा बनते है राधा रुक्मणी बनती है , बुद्धा बनते है , बोल बोल के समय गुजार के चले जाते है। तो उनके कहे के शास्त्र बन जाते है। पूजा होने लगती है। अपनी ढपली अपना राग धर्म अपने को दोहराये जाते है , और मनुष्य अपने को।
कोई बदलाव है क्या ?
फिर एक तरफ सांस्कृतिक उन्नति विकास की बाते तो दुसरो तरफ हथियार नए नए इकठे हो रहे है हर देश में , हर देश ताकतवर बनना चाह रहा है , जो जरुरी भी है , समय की मांग है। फिर एक विनाशकारी युद्ध , जिसमे समूची शक्तियां दो भागों में बाँट जाएंगी , एक देवता एक दानव , फिर परिणाम तो सभी को पता है। तो क्या हुआ ? क्या कुछ बदलेगा ? नहीं नहीं , फिर जब सब मिट जायेगा। कहीं जंगल में कोने में आदि मानव जन्म लेगा , फिर से विकास के वो ही चरण पुरे होंगे , वो ही कोई शिव और त्रिमूर्ति के आधार पे एक स्थानीय धर्म का स्थापन करेगा , फिर उससे मिलते जुलते धर्म अपना सर उठाएंगे , वो ही धार्मिक राजनीती और नेता , वो ही देशगत राजनीती और नेता , वो ही मनुष्य के प्रेम शब्द के प्रति घातक नसमझियां , वो ही अहंकार वो ही घातक ख्वाहिशे , वो ही मार काट खून खराबा , इस महान बुद्धियुक्त प्राणी मानव के मन में भावनाए ( अमृत और विष युक्त ) जागेगी। फिर से शक्ति प्रदर्शन होगा। फिर से कमजोर पे राज्य होगा। और इसप्रकार 99.9 % सोया हुआ मानव सोया का सोया ही रहेगा और अगर जागा भी तो भी नींद में ही जागेगा । ऐसा नहीं की ईश्वरत्व की कमी है , वो ही ऊर्जा जो जागृत में है सभी में है ,बस कुछ स्वयं को सिद्ध करना यानि स्वज्ञान की दृढ़ता और ज्ञान भी क्या ! समस्त सूचनाएं इकठी है इस ज्ञान की गठरी में , और इसी पे अहंकार। बस यही भेद लाता है।
ओशो :- लाओत्से कहता है, पांडित्य छोड़ो तो मुसीबतें समाप्त हो जाती हैं - गुरजिएफ ने मनुष्य को दो विभागों में बांटा है। एक, जिसे वह कहता है व्यक्तित्व, पर्सनैलिटी; और दूसरा, जिसे वह कहता है आत्मा, एसेंस। व्यक्तित्व वह हिस्सा है, जो हम सीखते हैं। और आत्मा वह हिस्सा है, जो अनसीखा हमारे साथ है। एक तो हमारे जीवन का वह पहलू है, जो हमने दूसरों से सीखा है। और एक हमारे जीवन की वह गहराई है, जो हम लेकर पैदा हुए हैं। एक तो मैं हूं, अंतरतम में छिपा हुआ। और एक मेरी बाहरी परिधि है, मेरे वस्त्र हैं, जो मैंने दूसरों से उधार लिए हैं। व्यक्तित्व उधार घटना है, बारोड; आत्मा अपनी है।लाओत्से का यह सूत्र आत्मा और व्यक्तित्व के संबंध में है। लाओत्से कहता है, पांडित्य छोड़ो तो मुसीबतें समाप्त हो जाती हैं। बैनिश लर्निंग, वह जो सीखा है, उसे छोड़ो; वह जो अनसीखा है, उसे पा लो। बड़ी कठिनाई होगी लेकिन। क्योंकि हम अगर अपने संबंध में विचार करने जाएं तो पाएंगे कि सभी कुछ सीखा हुआ है। आप जो भी अपने संबंध में जानते हैं, वह सभी कुछ सीखा हुआ है। किसी ने आपको बताया है, वही आपका ज्ञान है। और जो दूसरे ने बताया है, जो दूसरे ने सिखाया है, वह आपका स्वभाव नहीं हो सकता।
स्वयं को जानने के लिए किसी दूसरे की किसी भी शिक्षा की जरूरत नहीं है। हां, स्वयं को ढांकना हो, छिपाना हो, तो दूसरे की शिक्षा जरूरी और अनिवार्य है। स्वयं का होना तो एक आंतरिक, आत्मिक नग्नता है, दिगंबरत्व है। वस्त्र तो उसे छिपाने के काम आते हैं। हमारी सारी जानकारी ज्ञान को छिपाने के काम आती है। लेकिन जो जानकारी को ही ज्ञान मान लेते हैं, वे फिर सदा के लिए ज्ञान से वंचित हो जाते हैं।
एक बच्चा पैदा होता है; जो भी एसेंस है, जो सार है, जो आत्मा है, लेकर पैदा होता है; लेकिन एक कोरी किताब की तरह। फिर हम उस पर लिखना शुरू करते हैं--शिक्षा, समाज, संस्कृति, सभ्यता। फिर हम उस पर लिखना शुरू करते हैं। थोड़े ही दिनों में कोरी किताब अक्षरों से भर जाएगी। स्याही के काले धब्बे पूरी किताब को घेर लेंगे। और क्या कभी आपने खयाल किया है कि जब आप किताब पढ़ते हैं, तो आपको सिर्फ स्याही के काले अक्षर ही दिखाई पड़ते हैं, पीछे का वह जो सफेद कागज है, कोरा, वह दिखाई नहीं पड़ता?
Tao Upanishad,Vol.3--ताओ उपनिषद
एक कविता पढ़ी है , आप सब से बांटती हूँ -
" The Road Not Taken " by Robert Frost
more than 50 years ago and its freshness has not decreased so far
'Two roads diverged in a yellow wood,
And sorry I could not travel both
And be one traveler, long I stood
And looked down one as far as I could
To where it bent in the undergrowth;
And sorry I could not travel both
And be one traveler, long I stood
And looked down one as far as I could
To where it bent in the undergrowth;
Then took the other, as just as fair
And having perhaps the better claim,
Because it was grassy and wanted wear;
Though as for that the passing there
Had worn them really about the same,
And having perhaps the better claim,
Because it was grassy and wanted wear;
Though as for that the passing there
Had worn them really about the same,
And both that morning equally lay
In leaves no step had trodden black.
Oh, I kept the first for another day!
Yet knowing how way leads on to way,
I doubted if I should ever come back.
In leaves no step had trodden black.
Oh, I kept the first for another day!
Yet knowing how way leads on to way,
I doubted if I should ever come back.
I shall be telling this with a sigh
Somewhere ages and ages hence:
Two roads diverged in a wood, and I —
I took the one less traveled by,
And that has made all the difference.'
Somewhere ages and ages hence:
Two roads diverged in a wood, and I —
I took the one less traveled by,
And that has made all the difference.'
वो निर्णय या तो बौद्धिक है या भाव प्रधान , जीवन में खासा मायने रखते है आगे के आने वाले समय के लिए , जब दोराहे पे खड़े हो के तनिक , संशय से भरे निर्णय पे जाना की किस राह को चुनना है , एक लम्बी बड़ी एक छोटी पतली। इन राहो पे दोबारा चलना , दोबारा चुनाव संभव नहीं। हालाँकि ऐसे दोराहे बार बार मिलते है और हर बार एक ही राह पे चलना संभव होता है। शायद यही दोराहे और किसी एक पे चलना जीवन की दशा और दिशा में सहायक होते है।
Also remember these immortal lines from Robert Frost.
“These woods are lovely, dark and deep,
But I have promises to keep,
And miles to go before I sleep
And miles to go before I sleep.”
यही है मानव बुद्धि , यही है मानव बुद्धि , अज्ञानता से जकड़ी सदियों से स्वयं को दोहराती , पर कुछ याद नहीं। भुला हुआ सा ,घने नशे में जीवन जीता जाता है। नशा भी ऐसा की उतरता ही नहीं , युग समाप्त हो जाते है। न तो नींद टूटती है न ही नशा उतरता है। अद्भुत है मानव , विलक्षण है ये प्राणी।
सीधा सा सरल मंत्र नहीं समझता - " सरल होना , सहज होना , जो है उसके लिए आभार देना और कृतज्ञहोना , संसार - वास को अपनी जागीर न मानना , यहाँ पे जो भी जीवन है उसको मात्र अवसर मानना " सच्चा सरल जीवन जीना कितना कठिन होता है , और कठिन नकली जीवन नियमित जीवनशैली बन जाता है। शायद कठिन को अपनाते अपनाते सरल स्वयं ही छुटता जाता है ! इसलिए स्वयं की वास्तविकता से जुड़ना अति आवश्यक है , उस सरलतम को अनुभव करने के लिए।
No comments:
Post a Comment