बस  एक  शख्स का अक्स गहराई में उतर गया  कुछ कहते कहते , पौराणिक किरदार है , कथाओं में प्रचलित है , तो अनसुना सा नहीं लगेगा।  पर  वो जो दे गया  उसे मैं कुछ शब्दों में कहती हूँ - 
मेरे जीवन में  कुछ परिवर्तन होता है  तो मुझे अध्यात्म का सहारा लेना पड़ता है  क्यूंकि सहज स्वीकार नहीं है , परिवर्तन को स्वीकार करना चाहिए  ; जबकि धर्म अध्यात्म के विद्य ऐसा कहते है ।  
पर परिवर्तन  लहरों जैसे है  जो  दृढ से दृढ़ जमे खड़े मकतूल पे प्रहार करते है  और सब उलट पुलट हो जाता है।  छोटे छोटे परिवर्तन  तो रोज ही होते है , जैसे  समय का बदलना , सुबह से शाम का होना  बच्चे का धीरे धीरे बड़ा होना  और युवा का वृद्ध होना। ये तो है देह का बदलना , फिर  इसके साथ ही  कुछ परिवर्तन ऐसे है  जो व्यक्तित्व बदलते है  सम्बन्ध बदलते है और  ध्यान दीजियेगा  इस शब्द पे @धुरी बदलते हैं।  माने  केंद्र  पे नियुक्तियां  बदलती है  तो जाहिर बात है की शासनतंत्र बदल जाता है। 
ये हैं कुछ छोटे छोटे परिवर्तन .... देश के.... समाज के... और मामूली लोगो के जीवन के। 
ऐसे में  राजतन्त्र  के परिवर्तन गहरे है , उसपे भी अपने पिता के लिए ताउम्र अविवाहित रहने की भीष्म प्रतिज्ञा  युवाकाल में यदि कोई युवक ले  तो बड़ी बात है।  उसपे भी उस प्रतिज्ञा से बंध के  उस देश के लिए  बंध जाये ये और बड़ी बात है , क्यूंकि नैतिकता में इसका कोई सानी नहीं।  ये सब समझता है  सब देखता है  फिर भी परिवर्तन घट रहा है इसकी आँखों के आगे। दिन प्रतिदिन इसका योग और सुदृढ़  हो रहा है  किन्तु समय  का दिल नहीं पिघलता क्यूंकि वो और तप  मांगता  है। 
ऐसे ही परिवर्तन और उसे  सहन करने का ख्याल आया , अब आप  बताईये कोई सीमा है ?  नहीं न ! 
ऐसे  दिल दहलाने वाले  परिवर्तन  उस पे  राज डोर से नैतिक रूप से   बंधा हुआ तपस्वी जिसे  स्वेक्छा मृत्यु का वरदान  स्वयं उसके पिता ने दिया  , आज उसी पे भारी  हो रहा है , किन्तु जीवन-नाश का भी  कोई तो तरीका होना चाहिए ,  ऐसे क्या विपत्ति से डर के  आत्महत्या कर लें ! 
तो  इस वीर ने भी  वो ही किया  जो इसके नैतिक धर्म  ने इसे सुझाया।  पर इसकी भी सहनशक्ति साथ छोड़ गयी , जब दस दिन  मृत्यु शैय्या पे पड़े हो गए , युद्ध बहुत कुछ ले गया , या यूँ कहें कुछ बचा ही नहीं।  
पर फिर भी एक बात है  जैसा भी समय हो  उस समय का स्वागत करने के लिए हर पल तैयार रहना चाहिए  सभी को। यही समय कहता है। नए युग का स्वागत करो ! और अपना धर्म विवेक बना के रखो। 
कारन से कार्य की श्रृंखला बड़ी है , ये हुआ तो वो हुआ , सब सही है , पर योनि तो मानव की ही है , जन्म भी बालक का है, और धीरे धीरे  अतिवृद्ध भी ये ही  बालक ही हुआ , सब कुछ मानवीय है , पर आश्चर्य तो इस मानव मशीन पे है ,  हमारा  ये यांत्रिकी-सोच-विचार  भी अद्भुत है जो हमें उतना ही सोच  देकर  हमारा दिमाग और उसमे उठने वाले विचार बंद कर देता है  और दिल का रास्ते कहीं और खुल  के जुड़ जाता है फिर हम कुछ और सोच के मन बहला लेते है , वैसे ये चरित्र  पौराणिक है , इसे तालियां और गलियां दोनों ही बहुत मिलती है , जिस के जीवन घटनाओं पे हम सभी बौद्धिकजन विचार करते ही रहते है। 
पर ये जरा अलग ढंग का भाव है जिसमे मात्र परिवर्तन जो जन्म से शुरू होता है  परस्थतियों के अधीन आपको कितना कुछ सीखता है , और यकीं जानिए ये अंतहीन है , सीमा रहित है।  वख्त आपसे कुछ भी मांग सकता है  , ऐसा जिसके लिए शायद आपको मात्र तैयारी के लिए  गहरा प्रयास करना पड़े और आप जैसा ही कोई इंसान कोई इसे जी के चला गया। 
मुझे लगता है  इस शोक भाव को , इस  परिवर्तन की तपस्या के भाव को समझने के लिए उस ‘एक  मां’ का ह्रदय  जीवित करना पड़ेगा  । जिसने सिर्फ समय चक्र  और जीवात्मा के कर्म जाल के लिए अपने इस पुत्र को  जीवित  छोड़ दिया। 
मुझे समझ नहीं आता  के असली दुख क्या था ! एक मां का  एक एक कर अपनी संतान को  नदी में बहाना  या इस पुत्र को जीवित छोड़ देना।  मुझे तो यही समझ आया जो नदी में बह गए  वे तर गए  और इसे अपने कर्मो के चलते  जीवन मिला। और घोर जीवन। 
उफ़ !!
अंत में :-
इस व्यक्ति के समूचे जीवन में  घटनाक्रम   मंच पे परदे गिरने जैसे , हमारे आपके जीवन भी इससे अलग नहीं ...  ऐसे ही परदे गिरते हैं  और कलाकार तत्कालीन कथा के साथ  बदल जाते हैं , मौलिक पटकथा के रूप में मूल कलाकार , परिस्थतियों  और नैतिकता कर्त्तव्य के साथ हर बार  थोड़ा और  मंज के योग्य  हो जाता है। इसके साथ ही  थोड़ा और अहंकारी भी।  क्यूंकि अनुभव की सीख  साथ है। अब ; इस कलाकार को ही लीजिये  इसके जन्म से अंत तक  अनेक चरित्र आये  और इसकी उम्र  के अनुसार  इसके जीवन में  उपद्रव  मचा के चले गए ,  और ये थोड़ा और दृढ हो गया , अंत तक आते आते  इस चरित्र की दृढ़ता देखते ही बनती थी , अतुलनीय हो गयी इतिहास में दर्ज होगयी , तिस्पे   शिखंडी  जैसे बदले की ज्वाला में झुलसते जीव  लौट के भी आये  और इसके अंत का कारन साबित हुए। इस दौरान पूरे कथानक में  ये पात्र मात्र अपने योग और नैतिकता को सुदृढ़  करता रहा ,  और योग्यता की  रेत थी की इसके हाथ से फिसलती ही रही।  और अंत में तमाम  योग  तमाम प्रतिज्ञा के बावजूद  जो इसके हाथ आया  वो महाशून्य था जिसका इतिहास साक्षी बना, माने खोया पाया सब बराबर।  हाँ ! कुछ हिसाब किताब कुछ शिकवा फिर भी इसके मन में रह गया  और उस बाण शैय्या पे लेटे  हुए  घोर पीड़ा के साथ  घना असमंजस भी के मेरे इतने ज्ञान इतने तप के बाद भी,  ऐसा अनर्थ कैसे होगया ! तो खोदा पहाड़ निकला चूहा , इसे  पता चला  की एक  मात्र कारण अज्ञानता और अज्ञानता के कारण  पोषित इसका अहंकार ही था, जिसने इसे इतना नाच नचाया,  न सिर्फ नचाया बल्कि ऐसी  नैतिकता से जकड के रखा  जिस नैतिकता ने ही इसे उचित निर्णय  नहीं लेने दिया ।  वैसे भी आप देखें  तो इस चरित्र में आप  दो ही अनूठी चीज़े पाएंगे  एक  सिंहासन के प्रति अगाध  कर्तव्यपरायणता और शृद्धा  जो संभवतः संस्कारगत पिता माता के प्रति थी वो ही सिंहासन के प्रति बदल गयी।  और दूसरा  अनजाने में  या अज्ञानता में ; अहंकार  का पोषण जिसने इसे उच्कोटी  का धनुर्धारी, पर्ले दर्जे का  योगी , नैतिकता को और सुदृढ़ करता  अति धैर्यवान और आत्मशक्ति से बना महा शक्तिशाली।  पर बुनियाद का क्या करें!  अहंकार कुंडली मार के बैठा है , तो गुण भी विषयुक्त सर्प ही साबित हुए। अंत में ; महाशून्य ने इसे अपना परिचय दिया  तो पता चला की इसके जीवन की  कथा का कुल सार  तो चूहे जैसा ही है। इस ज्ञान के साथ ही इस वीर ने अपनी देह त्याग की।  गौर से देखे  तो व्यक्तित्व कोई भी हो अपने समाज और अपने संस्कार की गहरी छाप  लिए होता है , यहाँ तक नैतिकता भी  और तप भी  समाज और संस्कार से बाहर व्यक्तित्व हो ही नहीं सकता।  तो जब इस व्यक्तित्व को समझे की बारी आयी  तो  मनुष्यता को समझना जरुरी हो गया , और जब मनुष्यता  के रहस्य  प्रकर्ति ने खोले (ध्यान दीजियेगा  ये अनुभव की बात है सिर्फ जानने की नहीं  प्रकर्ति जब भी रहस्य खोलती है  अनुभव के साथ ही सामान्य ज्ञान के लिए  विज्ञान है ) तो ऊर्जा का रहस्यानावरण हुआ  .....  और ऊर्जा का रहस्य जब प्रकति ने  खोला  परम का साक्षात्कार संभव हुआ।  जैसा इस चरित्र को भी हुआ। 
इस लेख के उत्तर में ये कविता पढ़  निम्न  रचना से एक संपर्क सूत्र अनुभव हुआ। आभार  सहित धन्यवाद-
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