बुद्ध ने स्वयं भी निरंतर, बार-बार कहा है: "तुम मेरे पास आओ जरूर, पर मुझसे बंध मत जाओ।' और बुद्ध से बंधने की आकांक्षा इतनी प्रबल होती है कि उसे जीतना बहुत कठिन है।
तुम साधारण व्यक्तियों से बंध जाते हो--जिनमें बंधने जैसा भी कुछ न था। तुम हथकड़ियां लोहे की बना लेते हो, जिसमें सिवाय बोझ ढोने के और कोई अर्थ नहीं है। बुद्ध जैसे व्यक्ति को पाकर तो तुम बंधना ही चाहोगे; "हथकड़ियां' सोने की हैं--हीरे-जवाहरात से जड़ी हैं।
तुम किसी को भी अपना बंधन बना लेते हो; पत्नी है, पति है, बेटे हैं। बुद्ध को पाकर तुम कैसे बचोगे? तुम बुद्ध को अपना बड़े से बड़ा कारागृह बना लोगे।
पत्नियों से पति मुक्त हो जाते हैं--बड़ी आसानी से; पतियों से पत्नियों मुक्त हो जाती हैं बड़ी आसानी से; लेकिन
बुद्धों से मुक्त होने में हजारों साल लग जाते हैं। और करोड़ों लोग तो कभी मुक्त नहीं हो पाते, बंधे ही रहते हैं।
जिनको तुम धर्म कहते हो, वे किन लोगों की भीड़ हैं? कौन हैं हिंदू? वही जो अब तक राम और कृष्ण से मुक्त नहीं हो पाए हैं। कौन हैं जैन?--जो महावीर से छुटकारा अभी तक नहीं पा सके। कौन हैं बौद्ध?--बुद्ध का कारागृह है।
सारे धर्म कारागृह बन गए हैं। इसलिए नहीं कि वे कारागृह थे, बल्कि इसलिए कि तुम आदमी ऐसे हो कि तुम जहां भी जाओगे, वहां बंधन निर्मित करोगे।
तुम्हारे जीने का ढंग ऐसा है कि तुम सिर्फ हथकड़ियां ही ढालते हो--अनजाने--निश्चित ही। क्योंकि जानकर तो तुम स्वतंत्रता चाहते हो, जानकर तो तुम मुक्ति चाहते हो। लेकिन अनजाने तुम ऐसा कुछ चाहते हो, जिससे मुक्ति घट नहीं पाती, स्वतंत्रता हो नहीं पाती।
बुद्ध ने कहा है: "मेरे पास आना, लेकिन मुझसे बंध मत जाना। तुम मुझे सम्मान देना, सिर्फ इसलिए कि मैं तुम्हारा भविष्य हूं; तुम भी मेरे जैसे हो सकते हो, इसकी सूचना हूं। तुम मुझे सम्मान दो, तो यह तुम्हारा बुद्धत्व को ही दिया गया सम्मान है। लेकिन तुम मेरा अंधानुकरण मत करना। क्योंकि तुम अंधे होकर मेरे पीछे चले तो तुम बुद्ध कैसे हो पाओगे?'
बुद्धत्व तो खुली आंखों उपलब्ध होता है--बंद आंखों नहीं। और बुद्धत्व तो तभी उपलब्ध होता है, जब तुम किसी के पीछे नहीं चलते, खुद के भीतर जाते हो।
किसी के पीछे आना तो सदा बाहर जाना है। क्योंकि किसी के पीछे चलो, चाहे वह कोई भी हो, वह बाहर ही होगा। बुद्ध के पीछे चलो, तो भी यात्रा बाहर होगी। महावीर के पीछे चलो, तो भी यात्रा बाहर होगी। भीतर तुम कब जाओगे?
भीतर तो तुम जाओगे तब, जब तुम बाहर चलोगे ही नहीं। आंख बंद करोगे और भीतर की तरफ चलोगे।
भीतर तुम किसका अनुकरण करोगे? वहां तुम्हारे अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। इसलिए आत्म-अनुभव तो उसे होगा, जो सभी अनुकरण से मुक्त हो जाएगा।
तो, बुद्ध कहते हैं: "तुम सम्मान मुझे देना, लेकिन अंधी-श्रद्धा नहीं। सम्मान तुम सिर्फ इसलिए देना कि मैं तुम्हारा भविष्य का इशारा हूं।' जैसे एक बीज पड़ा है, और पास में एक वृक्ष उगा है। जो बीज में छिपा है, वह वृक्ष में प्रकट हो गया है। यह बीज इस वृक्ष को सम्मान दे सकता है, क्योंकि यह वृक्ष खबर देता है कि मैं भी वृक्ष हो सकता हूं। इस वृक्ष का धन्यवाद भी हो सकता है, कि तूने मुझे जगाया; तूने मुझे खयाल दिया कि क्या हो सकता है; तूने संभावनाओं के प्रति मुझे सचेत किया। मैं तो बंद अपने में पड़ा था--एक कंकड़ की तरह। मुझे तो पता ही न था कि मैं बीज हूं। कंकड़ों की जमात में था; कंकड़ ही मैंने अपने को समझा था। तुझे देखकर मुझे खबर आई, चेत हुआ, मेरी नींद टूटी; मुझे लगा कि यह मैं भी हो सकता हूं। तूने ही मुझे जगाया कि: "कभी मैं भी बीज था और वृक्ष हो गया हूं; आज तू बीज है, कभी तू वृक्ष हो सकता है।'
बुद्धों के प्रति जो हमारा समादर है, वह समादर उनके इस इशारे के लिए है, क्योंकि उन्होंने हमें हमारी संभावनाओं के प्रति सचेत किया; जो छिपा था, उसे उघाड़ा। जिसका हमें भी पता न था, उसकी खबर दी।
जो हम हैं, वह हमारा पूरा होना नहीं है। हम और बहुत कुछ हो सकते हैं। बुद्धों को देखकर हमें उस "बहुत कुछ' होने का सपना पैदा होता है। वह आदर्श की एक झलक मिलती है। जैसे अंधेरे में बिजली कौंध गई हो, और हमने रास्ता देख लिया हो। ऐसे बुद्ध की सन्निधि में, सत्संग में, उनकी झलक में हमें रास्ता दिखाई पड़ा। अनुगृहीत हम हैं। तो बुद्ध ने कहा: "अनुग्रह ठीक है, अंधानुकरण ठीक नहीं है।'
यह बड़ा मुश्किल है। या तो तुम अंधानुकरण कर सकते हो या अंध-विरोध कर सकते हो। यह बिलकुल आसान है। और बुद्धों के साथ लोग दो ही व्यवहार करते हैं। एक तो उनके अनुयायी होते हैं और एक उनके शत्रु। एक उनके पीछे चलते हैं--आंख बंद करके, और एक उनसे भागते हैं--आंख बंद करके। दोनों अंधे हैं; दोनों समान हैं; इनमें बहुत भेद नहीं है।
तीसरा आदमी खोजना मुश्किल है। और वही तीसरा आदमी बुद्ध को समझ पाता है। वह आदमी जोशू जैसा होगा। वह सुबह फूल भी चढ़ायेगा मंदिर में बुद्ध के; सिर भी झुकायेगा। और दोपहर अपने शिष्यों से कहेगा कि "ध्यान रखना, बुद्ध से सावधान रहना। और अगर मुंह में बुद्ध का नाम आ जाए, तो कुल्ला करके मुंह साफ कर लेना।'
जोशू ने कहा है कि "अगर ध्यान करते बुद्ध बीच में दिखाई पड़ जाएं, तो उठाकर तलवार, दो टुकड़े कर देना; खड़े मत होने देना--बुद्ध को ध्यान में खड़े मत होने देना।'
इस जोशू जैसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो बुद्ध के चरणों में सिर भी झुकाता है और जो यह भी कहता है कि बुद्ध को ध्यान में खड़े मत होने देना, तलवार उठाकर दो टुकड़े कर देना !
यह समझ गया है सार। यह न तो अंधानुकरण करता है और न अंध-विरोधी है। दोनों के मध्य चलता है। इसलिए सुबह फूल चढ़ाता है, सांझ इनकार भी करता है। शिष्यों को समझाता है कि नाम, शब्द--सभी अपवित्र हैं।
वेश्या का नाम ही अपवित्र नहीं है, बुद्ध का नाम भी अपवित्र है। क्योंकि जब शब्द मुंह में आता है तो मन आ गया। जहां मन आया, वहां अपवित्रता आ गई। जब कोई शब्द भीतर नहीं उठता, तो मन शून्य होगा। जहां शून्य है, वहीं पुनीत पवित्रता है। शून्यता एकमात्र पवित्रता है।
तो तुमने अगर मन में दोहराया: "बुद्धं शरणं गच्छामि--मैं बुद्ध की शरण जाता हूं'--तो शब्द आ गया, मन निर्मित हो गया।
कौन दोहरा रहा है यह? आत्मा कुछ भी नहीं दोहराती। चेतना कोई पुनरुक्ति नहीं करती। यह तो मन ही दोहरा रहा है।
कौन कह रहा है: "बुद्धं शरणं गच्छामि?--यह कौन बुद्ध की शरण जा रहा है? यह तुम हो या तुम्हारा मन हैं? अगर तुम जरा ही खोजबीन करोगे तो पा लोगे कि यह तुम्हारा मन है। और मन अपवित्र है।
शब्द बदलने से कुछ भी नहीं होता है। तुम "वेश्या' कहो या "बुद्ध' कहो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम गाली दो कि मंत्र पढ़ो, कोई फर्क नहीं पड़ता है। मन दोनों तरफ से आ जाता है। मन शब्द के साथ ही प्रवेश कर जाता है। और जहां मन आया--जोशू कहता है--मुंह साफ कर लेना। भूल मत जाना। और प्यारे शब्दों के साथ बड़ा खतरा है, और शब्दों का बड़ा खेल है।
मैंने सुना है: एक सम्राट गरीबों की पीड़ा से बहुत परेशान था। थोड़े से लोग समृद्ध थे, सारा राज्य गरीब था। दूध नहीं मिलता, मक्खन नहीं मिलता; गरीब को छाछ से ही गुजारा करना पड़ता। उसने अपने बुद्धिमानों को बुलाया और उनसे कहा, "कोई रास्ता निकालो, ताकि गरीब भी दूध पी सके।' बहुत सोचा बुद्धिमानों ने, लेकिन रास्ता क्या निकले? बुद्धिमान कितने जमाने से सोच रहे हैं, रास्ता निकला नहीं। और बुद्धिमानों ने बहुत उपाय किए, सब व्यर्थ गए । लेकिन पुराने जमाने में हर राजा के दरबार में एक मूर्ख भी राजा रखते थे--एक महामूर्ख भी रखते थे। यह बड़े मजे की बात है कि कई बार बुद्धिमान जो नहीं खोज पाता, वह मूर्ख खोज लेता है। क्योंकि बुद्धिमान सोचता ही रहता है; मूर्ख छलांग लगा जाता है।
कहावत है कि जहां बुद्धिमान चलने में डरते हैं, वहां मूर्ख आंख बंद करके प्रवेश कर जाता है। कभी-कभी वह पहुंच भी जाता है। कभी-कभी वह ऐसी चोट करता है कि बुद्धिमान तिलमिला जाएं। बुद्धिमान तो कुछ उत्तर न ला सके। उस मूर्ख ने एक दिन सुबह चिल्लाते हुए कहा, "मिल गया सूत्र; आ गई बात पकड़ में; निकाल लाया राज।' दरबार इकट्ठा हो गया। उन्होंने पूछा, "क्या हल तूने निकाला है?' उसने कहा, "बड़ी सरल तरकीब है। कल से हर आदमी दूध पीएगा।' राजा भी चकित हुआ; उसने कहा, "एक छोटी-सी बात है। एक फरमान निकाला जाए कि अब से छाछ दूध कहा जाएगा, दूध छाछ कही जाएगी। इतनी-सी बात है। हर गरीब दूध पाएगा, हर अमीर छाछ पीएगा। जरा-से एक फरमान की जरूरत है ; नाम बदल देने की जरूरत है। इसमें इतना परेशान होने की बात ही कहां है!'
और जिंदगी में अक्सर हम इसी मूर्ख की सलाह मानकर चलते हैं--नाम बदल लेते हैं, शब्द बदल लेते हैं। शब्द बदल लिए और सोचते हैं कि सब हल हो गया!
कल संसार के शब्द चलते थे, आज धर्म के शब्द चलने लगे। सोचते हैं: "सब हल हो गया!' लेकिन शब्द बदलने से न तो दूध छाछ होता है, और न छाछ दूध होती है। शब्द बदलने से मन आत्मा नहीं हो जाता। शब्द बदलने से मन, मन ही रहता है। जोशू यही कह रहा है।
जोशू सचेत कर रहा है। पर बड़ी बारीक है बात। कह रहा है कि बुद्ध के पास तो जाना, लेकिन सावधान रहना कि कहीं बुद्ध को कारागृह न बना लो। इसके पहले कि बुद्ध कारागृह की तरह तुम्हें घेरने लगें--बुद्ध तुम्हें नहीं घेरते हैं, तुम्हीं--घिरते हो। इसके पहले कि तुम बुद्ध की जंजीरें अपने हाथ में डाल लो--भाग खड़े होना।
और जब बुद्ध से इतना खतरा है, तो बुद्धओं से कितना होगा?
जब जोशू कह रहा है: बुद्ध के पास से भाग खड़े होना तत्क्षण, तो जो बुद्ध नहीं है, उनके तो पास ही मत जाना। क्योंकि बुद्ध तो तुम्हें सचेत भी करेंगे; जब उनका कारागृह बनाने लगोगे, तो तुम्हें चेतायेंगे, वे तुम्हें समझायेंगे।
- "ओशो "
Sahaj Samadhi Bhali - 10
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