करुणा , आभार , कृतज्ञता एक दिव्यआशीष
पहचान करने के अनेक उपाय है , परन्तु यहाँ मैं ऋषियों को और मसीहा को और उन शुद्ध बुद्ध आत्माओ का धन्यवाद आभार देना चाहूंगी जिन्होंने मानवीयता के लिए इस अध्यात्म रूप (दिव्य धर्म ) तरंग को जागृत किया। और आत्म योग के कर्म से अलंकृत किया।
ये कोई छद्म विधा नहीं जो दिखावे के लिए हो , समाज में समस्त सहयोग दूसरों के लिए स्पष्ट है , किन्तु पहले दूसरे फिर स्वयं और, कहीं न कहीं ये सभी जितने भी गहरे और सत्य हो धन के उपयोग (जमा खरच ) से सम्बंधित है , फिर विद्या संस्कार विवाह संतान बीमारी समेत समेत सांसारिकता का प्रवेश होता है । किन्तु अध्यात्म ऐसा सहयोग है जो पहले स्वयं में प्रवेश करता है फिर अन्य तक जाता है।
ये सच है की सांसारिक हो या असंसारिक सभी का उद्देश्य जीव की महत्तम उपलब्धि संतोष संतुष्टि और चेतना को प्रकाशित करना है , यही अध्यात्म भी करता है। पर जो लौकिक उपलब्धियों से ग्रसित सब विषय नहीं करते या कहे की उनकी उन गहराईयों में उतराने की क्षमता ही नहीं वो अध्यात्म की क्षमता है , उन उंचाईयों पे रुक कर जब वो पुनः पुनर्निरीक्षण का अवसर देता है तो अंतर दृष्टि वैसे ही स्पष्ट होती है जैसे बाज की दृष्टि उन ऊंचाइयों से पृथ्वी को देख सकती है समग्रता के साथ। यही फर्क है अन्य विषयो और अध्यात्म में , अध्यात्म आपके स्वयं के अस्तित्व को परत दर परत उधेड़ कर पुनः वैसा ही सफाई से पुनः सिल देता है , और भी उत्कृष्ट धागे से ये अंतर्वस्त्र निर्मित होता है। और एक आध्यात्मिक चेतना , हस्ती समान इस पूर्ण विषय के जिस पक्ष को स्पर्श करती है , वहीँ से एक सुन्दर भावपूर्ण राग ,मार्मिक गीत, सुन्दर चित्र , कल्याणकारी विज्ञानं तथा अनहद का नाद जन्म लेता है।
इतनी सुन्दर सिलाई इतनी सुंदर बुनावट और वस्त्र की कटान और इतना सुंदर वस्त्र का अंतरदेह पे दुरुस्त आ जाना , अद्भुत है और समस्त विषयों से ऊपर है शायद इसीलिए दिव्य है । जब की अन्य विषय ऊपर ऊपर ही अपना उद्देश्य पूरा कर पाते है। यहाँ यही अध्यात्म उन विषयों की भी बुनावट में उतर तरंग रूप सत निकल के लाने में न ही सिर्फ सक्षम है वरन उनके अस्तित्व का वास्तविक परिचय भी करता है , स्वयं से और स्वयं के लिए। यहाँ मैं कह सकती हूँ की संसार की जटिल संरचना मनोवैज्ञानिक रूप से सुलझने लगती है , आत्मतत्व स्पष्ट होने लगता है , स्वयं का बोध होता है , वास्तविकता का बोध होता है।
स्त्री के आंसू बहते है अश्रुधार बन बहते है अक्सर पुरुषों में क्यूंकि सामाजिक गठन ऐसा है की पुरुषत्व को वीर और अश्रु न बहाने की सारी विद्यां सीखा दी जाती है ये रुदन इतना गहरा और मार्मिक होता है की अश्रु भी साथ नहीं दे पाते नतीजा ये आंतरिक क्रंदन भी शुष्क ही होता है। पर जैसा भी है होने देना चाहिए क्रंदन कारुणिक हो के ही दिव्यता को स्पर्श करता है।
मैंने जाना , अध्यात्म वो द्वार है जो जीवन की और मुड़ता है , जहाँ अधिकार नहीं कर्त्तव्य प्रमुख है और कर्त्तव्य भी प्रेम से भरा है , ऐसा प्रेम जो स्वयं में पूर्ण है , जो बदले में कुछ नहीं चाहता क्यूंकि उथलपुथल जिंदगियों का सहज और समग्रता से अथवा पूर्णता से आभास होने लगता है। और एक अभूतपूर्व पूर्ण दिव्य अस्तित्व का जन्म होता है। जो करुणा प्रधान है। अब यहाँ ऐसे तत्वों का निर्माण नहीं हो सकता जो स्वयं के लिए घातक हो और समाज के लिए विनाशक। अब यहाँ इस नश्वर देह में विष का बीज समाप्त हो अमृत ही जन्म लेता है। आभास होता है
प्रकृति की देह संरचना किसी की भी हो .... गुणदोषयुक्त है फिर आत्मिक उठान का स्तर ही जीवन शैली में भेद लाता है , हाँ ; संतुलन आवश्यक है , आवश्यक ही नहीं परमावश्यक है , क्यूंकि विष और अमृत बीज प्रकर्ति प्रदत है , सभी देह में ये निर्माण में सक्रीय भी होते है , और अपने अपने प्रभाव भी डालते है। किन्तु आध्यात्मिक के विषबीज साधना स्तर के अनुसार प्रभावी अथवा निष्क्रिय होते है तथा अमृत बीज सक्रीय। निर्णय नाम का शब्द सिर्फ इतना उपयोग में कि " सभी देहधारी है , प्रेम करुणा और सहयोग के पात्र है " स्वयं उन्नत चेतना भी इन्ही तीन के घेरे में है , लेनदेन से भरे इस व्यवसायी जगत में जन्म से ही खाते का आरम्भ हो जाता है किन्तु जो शुद्ध लेनदेन है किसी भी निर्णय से परे...... यदि निर्णय लेना ही है स्वभावगत मजबूरी है वो भी प्रकृति वश तो उर्धगामी संवेदनशीलता बिना व्यक्तिगत प्रहार के बिना व्यक्तित्व को पूर्व अधिकृत कैद किये , इस प्रकार विचार कर सकती है।
संसार में समस्त ज्ञान धारी आत्माओं को यदि अभिमन्यु का नाम दे तो गलत नहीं होगा। " एक ऐसी विद्या जो पूर्ण है जिसको मात्र अर्जुन ही जानते है की चक्रव्यूह से कैसे बाहर निकला जाये " , जरा विचार करें इस वाक्य पे तो आपको मर्म समझ आएगा। आखिर वो क्या विद्या है जो सांसारिक चक्रव्यूह से बाहर निकल सकती है ! और हम सब अपरिपक्व अभिमन्यु क्यों है फिर भले ही हमारी शारीरिक उम्र कितनी भी हो। जी हां , अत्यंत मनोवैज्ञानिक गठन महाभारत का , इसके एक एक चरित्र को अनेकानेक तरीकों से मनोवैज्ञानिकों ने उधेड़ा है और अपने अंदाज से पुनः बुनाई की है , किन्तु जिस समग्रता से अध्यात्म समझता है वो पूर्ण है। शायद अध्यात्म ही वो विषय है जिसमे सभी विषय समाये है। जो दृष्टि को बाह्य से अंदर की और मोड़ता है और यही से उस दिव्य जगत का मार्ग मिलता है। जी हाँ , हम सब को जन्म से एक कला आती है सांसारिक युधःक्षेत्र में कूद जाना, हम सबको कूदना ही पड़ता है ये चयन नहीं अवश्यम्भावी कृत्य है , जिससे, बचत नहीं और जो बचत में उलझते है वो कर्तव्यविमुख हो जाते है , जो बिलकुल उचित नहीं , सर्वथा जन्म दायित्व के विपरीत है , मनुष्य जन्म सहयोग का हवन है और कर्त्तव्य की प्रेम पूर्वक आहुति डाल के ही अंतम में पूर्णाहुति का आयोजन होता है। यही मनुष्यता है यही कर्म और स्वयं के होने का उद्देेश्य भी है ,मुख्यतः प्रथम तो स्वयं का होना दूसरा परंपरा के निर्वाह के लिए जन्म श्रृंखला में सहयोग भी उसी कर्म का हिस्सा है। और जो स्वयं से परिचय कराये और साथ ही हमारी इस वास्तिविकता से परिचय कराये वो ही अध्यात्म। यहाँ अभिमन्यु सामान्य बालक के सामान युद्ध क्षेत्र में चला जाता है ( युद्ध उसका चयन नहीं था जिम्मेदारी थी , बाहर न निकलने का ज्ञान होने पे भी उसे जाना ही था , और अज्ञानतावश उलझ के समाप्त हो जाना भी उसकी नियति थी , जो अक्सर ज्ञान की अवस्था में आत्मा को प्राप्त होती है ) इसीलिए यदि ऐसी चेतना का जागरण हुआ है जो स्वयं की स्थति को स्पष्ट करे और अभिमन्यु से अर्जुन बनाये तो स्वयं को धन्य मानना है , क्यूंकि यही ज्ञान संसार सागर में फैले अगाध युद्ध क्षेत्र में बने चक्रव्यूह से चेतना को बाहर निकाल साक्षीभाव देने में सक्षम है।
ज्ञान के पहले और ज्ञान के बाद , क्या कुछ बदलता है ? दृष्टि विस्तार / अंतर्मन विकास / अथवा आत्मिक ऊर्ध्वगमन / परमेश्वर की सत्ता के दर्शन मात्र , आदि आदि कुछ भी कह सकते है , इस दृश्य के रस्ते कई हो सकते है , योग साधन , आत्मध्यान , आत्ममंथन चिंतन , सन्यास से या गृहस्थ के तप से , कुछ भी और कोई भी पथ अपनाया जा सकता है इस सत्य को जानने और आत्मसात करने के लिए। यही जीवन का अभूतपूर्व तप-यज्ञ है जो अपनी पूर्णाहुति मांगता ही है। और हर वो आत्मा ऋषि है जो इस यज्ञ में उतरी है आहुतियां डाल रही है। ऋषि की अन्य परिभाषा नहीं है , गुरु शब्द भी भ्रमित करने वाला है , जो मात्र सहयोग को इशारा करता है। यदि बाह्य है या आंतरिक है दोनों ही अर्थों में सत्य के करीब जो लानेजाये में सक्षम है वो ही " गुरु " है।
वस्तुतः शरीर रूप से प्रकर्ति की जटिल रचना में सभी शरीरधारी है , कुछ जान गए तो वे सहयोग कर रहे है की अन्य भी इस सत्य को जाने .......! , इसी भाव के विस्तार में समयातीत शास्त्र बन गए उनके वाक्य परमेश्वर के वचन , तो अन्य धर्म में आत्मज्ञानी , मसीहा , तो कहीं पैगम्बर कहलाये। उद्देश्य सभी के एक थे वे अलग नहीं थे। इस पूर्ण कोरी चादर को अलग-अलग करके अथवा तार तार करके जो भी पाया वो अधिकतर के लिए बंदर-माफिक साबित हुआ , क्यूंकि धुरी को छोड़ बौद्धिक सहयोग से विस्तार पे अटक गए , तार तार कर दी चादर पर वो तत्व नहीं मिला , जिसकी बात मसीहा करते थे , कैसे मिलता ! वो तो तार-तार चादर को पुनः निर्मित करने से ही मिलेगा। और जब कोई भी पुनः स्वयं का जुलाहा बनता है स्वयं की इस चादर का पुनः-निर्माण पुनः करता है वो उस तत्व का अनुभव कर पाता है।
और तभी उन मूल्यवान निधियों का भी ज्ञान अनुभव होता है जो पहले से ही उपहार स्वरुप मिली हुई है , जैसे प्रेम फिर करुणा (दया ) कर्तव्य और आभार। क्यूंकि मूल्यवान उपलब्धियां तरंगरूप होती है और बहती है जड़ रूप उनका स्पर्श अथवा शाब्दिक व्याख्यान संभव नहीं मात्र आभासित होती है।
शायद अति संवेदनशील अवस्था में ही ध्यानी जब उन तत्वो को उन दिव्य अभासों को और अपनी समस्त अज्ञान से लिप्त भावों जाने अंजाने में स्पर्श करता है तो यही सांसारिक-नेत्र की अंतर-दृष्टि अश्रुधारा का कारन बनती है जो संभवतः आंतरिक गोमुख से गंगा का जागृत प्रस्फुटन है।
असीम शुभकामनाएं , ओम प्रणाम
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