जो भी शुद्ध बुद्ध आत्माएं है जो इस राह पे अग्रसर है या इक्षा रखती है उन सभी से विनम्र निवेदन पूर्वक कहना चाहूंगी , ' अक्सर लोग मस्तिष्क का साथ नहीं छोड़ पाते ' और अक्सर बुद्धि सहित तर्क वितर्क में उलझ के वो बहुमूल्य तरंग छोड़ देते है जो शायद वह कहने वाला व्यक्ति किसी भी कारन से उतना सक्षम नहीं पर वो बहुमूल्य तरंग अवश्य सक्षम थी उनको उनकी वंचित / प्रारब्धिक / अथवा महत्वपूर्ण जीवन-राह पे आगे ले जाने में।
सहज समर्पण और सहज स्वीकृति का मात्र इतना ही तात्पर्य है जो समर्पण (सांसारिक या पीड़ित का नहीं ) और जो स्वीकृति ( मज़बूरी नहीं ) स्वेक्छा से अंदर से पैदा हुआ हो और जिस भाव के लिए बौद्धिक चेष्टा अथवा प्रयास न किया हो। संक्षेप में ; ऐसा भाव जो स्वयं से उत्पन्न हुआ हो। ऐसा भाव जिसमे बाह्य उन्मुख आलोचना न हो , जिसकी दृष्टि बाहर न होके अंदर से गुजरती हो , ऐसी दृष्टि जिसका प्रकाश पहले अंदर पड़ता हो फिर उस प्रकाश के प्रकाश से प्रकाशित हृदयस्थल के प्रकाश की किरण बाहर को फैले। ( जरा यही रुकिए ! इस विचार को पुनः विचार कीजिये ' यह प्रकाशित वो ही स्थान / स्तर है जहाँ अक्सर अनेक व्यथित लोग पहले से ही अपने अपने निर्णयात्मक फ्रेम लिए इंतजार में है और इस प्रकाश के आते ही उसे सशरीर अर्थात तात्विक भाव को घेर लेते है ' और इस गलती का नतीजा भी शीघ्र मिलता है , क्यूंकि जो घेरा गया है वो शरीर है तरंग नहीं, और शरीर प्रकृति के सत रज और तम गुणों से युक्त है , फिर आपके अपने ही फ्रेम कराह उठते है जो ढूंढ रहे थे वो नहीं मिला )
यहाँ एक विचार आपको देना चाहती हूँ सारांश ह्रदय में उतार के पुनर्विचार अवश्य कीजियेगा ........ ऐसी स्वीकृति सबसे पहले स्वयं के लिए होती है " मैं जैसा भी हूँ परमात्मा का अंश हूँ और स्वयं के अंदर झाँक के अच्छे बुरे को देख पा रहा हूँ स्वीकार कर रहा हूँ। " इस स्वीकार भाव के साथ वो अनोखी स्वीकृति भी आती है , जिसमे तत्व से ज्यादा तरंगे महत्वपूर्ण हो जाती है , रूप से ज्यादा गुण सुगन्धित होते है। ऐसी स्वीकृति भाव से ये आत्माएं जहाँ भी बैठी है वही सत्संग हो जाता है , क्यूंकि इनको सिर्फ तरंग ही प्रभावित करती है तरंगे ही लेते है और तरंगे ही देते है। और ये तरंगे इतनी महीन होती है की किस भी परिस्थिति में एक न एक छोटा या महीन धागा छू ही लेता है , और इनका सत्संग पूरा हो जाता है। फिर इनको ये भी मतलब नहीं ,की तथाकथित ज्ञान शास्त्र से मिला या किसी जंगल की फूलों से भरी सुन्दर बेल से अथवा सूख चले किसी पुरातन जीर्ण वृक्ष से अथवा ध्वस्त खंडहर से , किसी वृद्ध की अनुभव आँखों ने कुछ कह दिया या बालक का निश्छल व्यवहार कुछ दे गया , अथवा किसी प्रसिद्ध और प्रचलित धर्म शास्त्री ने कुछ सिखाया या फिर राह चलते कोई बालक सीखा गया। सन्नाटे में लगे पेड़ की महीन डाल पे बैठी छोटी सी चिड़िया की कुहुक से वो सीख मिली , या शोर से भरे उद्यान में किसी कोने में बैठ के कुछ निहारते हुए वो ज्ञान मिला, कहने का अर्थ है ज्ञान के रस्ते अनेक हो सकते है यदि हम अपना स्वीकृति तंत्र सचेत रखे। सामूहिक निर्णयात्मक आलोचनाओ से परहेज करें। ध्यान रखे आप जो स्वयं को ज्ञान देंगे वो ही ज्ञान आपके अंदर प्रवेश करेगा, अन्यथा ज्ञान प्रवेश नहीं कर सकेगा। यहाँ ज्ञान ज्यादा महत्वपूर्ण है उससे भी ज्यादा जो कह रहा है अथवा जो सुन रहा है। ज्ञान तरंगित है और बाकि सब माध्यम है जो तात्विक है । यदि आप ऐसे ज्ञान को स्वीकृति देते है , तो आप विश्वास कर सकते है की श्री दत्तात्रेय ऋषि ने भी यही रास्ता अपनाया था , ऋषि दत्तात्रेय ऐसे ऋषि थे जिनके गुरु प्रकति उत्पन्न जीवजन्तु ही थे । और इस वास्तविकता को मैंने तो अपने अध्यात्म में उतारा है , मानव क्या कह रहे है या क्या कह गए है ज्यादा फर्क नहीं यदि आपका तंत्र मन्त्र जागृत है अपने जीवन में , आप आज भी जीवित से तरंग लेंगे और जो जीवित नहीं वे भी आपको तरंग ही देंगे।
ऐसे शुद्ध सम्पूर्ण स्वीकार भाव में व्यक्ति का व्यक्तित्व भी नगण्य हो जाता है मात्र आती हुई ज्ञान तरंग महत्वपूर्ण होती है , और एक अपनी व्यक्तिगत छन्नी भी सक्रीय रहती है जो आत्मसात क्या करना है और क्या नहीं ; में सहायता करती है ।
साधू ऐसा चाहिए , जैसे सूप सुभाव
सारसार को गहि रहे थोथा देहि उड़ाय
Sadhu aisa chahiye jaisa soop subhaay
Saar saar ko gahi rahe, thotha dey udaay
#Kabir
gist meaning : Wise like a winnow should retain grain;
इसी सन्दर्भ में :-
जीसस ने कहा की बुद्ध ने कहा अथवा मोहम्मद ने कहा या राम कह गए की कृष्ण ने कहा अथवा बीत गए गुरु क्या कह गए अथवा जागृत गुरु क्या कह रहे है आदि आदि।
कब कहा !
किसने कहा !
किस भाव से कहा !
वस्तुतः सब नगण्य है , मात्र एक भाव गहरा है , " मैं इस (जो भी व्यक्ति विशेष अथवा सम्बंधित गुण अथवा सम्बंधित दोष ) व्यक्तिव के गुण दोषो से परे और अप्रभावित रह कर वांछित तरंगित ज्ञान को आत्मसात करता हूँ , क्यूंकि ये मेरी वांछित क्षुधा और पिपासा के अनुकूल है यही मेरे आत्ममंथन का सार है और यही मेरी तपस्या स्वयं के लिए है । " बिलकुल वैसे ही जैसी हरे भरे सुवासित पुष्पों से भरे उद्यान के मध्य में बैठे है तो हवाये हर दिशा से सुगन्धित ही आएँगी , उस सुगंध प्रसन्नता के समक्ष यदि कोई पौधा वांछित स्वस्थ नहीं भी है तो नगण्य है । आह ! तरंगित संसार इतना ही सुन्दर है। क्यूंकि वह आत्मसात महत्वपूर्ण है निर्णयात्मक दूषित आलोचना का कोई स्थान ही नहीं।
इस भाव के साथ कभी कभी ऐसा भी विचित्र अनुभव होता है की ज्ञान भी वैसे ही प्रवाहित होता है जैसे अन्य तरंगित प्रवाह उदाहरण के लिए प्रकाश , सुगंध , विद्युत अथवा जल । या इस प्रवाह को अनुवांशिक रोग कीटाणुओं से भी समझा जा सकता है जिसमे परम्परागत पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाह छोड़ के ज्ञान छलांग लगाता है बिलकुल मधुमेह की बीमारी जैसा की बीच की पीढ़ी में रोगाणु सुप्तावस्था में ही रहते है और अगली पीढ़ी में जागृत होते है , उदाहरण स्वरुप यहाँ ज्ञान- परिवार रक्त सम्बन्ध का नहीं वरन ज्ञान सम्बन्ध का होता है , कहने का तात्पर्य है की जरुरी नहीं किसी गुरु परंपरा में कतार से सभी ज्ञानी हो कुछ अज्ञानी भी हो सकते है किन्तु परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से ज्ञान प्रवाह का कारन हो जाते है ।
प्रवाह इस श्रृंखला में कहीं ज्ञान प्रकट है तो कही अप्रकट , कहीं आप को सूचीबद्ध तरीके से सुचारू और विधिपूर्वक ज्ञान आपके अनुसार नहीं मिल पा रहा , सम्भावना है की आपकी आकांक्षा के अनुरूप कोई ज्ञान तरंग आपके तराजू पे नहीं उतर पा रही किन्तु ज्ञान वहां भी मौन रूप में बह रहा है बिलकुल इंद्रधनुषी रंगों के सामान वातावरण में ज्ञान सर्व सुलभ है , बस स्वीकृत ह्रदय चाहिए , तरंगे स्वयं आकर्षित हो के मिलेंगी। फिर ज्ञान हर तरफ से आकर्षित हो तरंगित हो खिंचा चला आता है। ऐसे व्यक्ति के लिए व्यक्ति विशेष , विशेष धर्म या प्रसंग महत्वपूर्ण नहीं रह जाता। क्यूकी एकटक शुन्य को देख के भी वो ज्ञान आता है जो किसी तपोस्थली में बैठ के तरंग छूटी है , गंगा का किनारा उतना ही मनोरम जितना बंद आँख ध्यानस्थ घर का कोना।
तो देखा आपने ! महत्वपूर्ण ये नहीं की कहाँ से ज्ञान आ रहा है और कौन कह रहा है , महत्वपूर्ण उसे ग्रहण करने वाले की ग्राह्यता है और उस ग्राह्यता की स्वीकृति है और स्वयं के प्रति प्रेम और स्वयं के प्रति ही समर्पण है। अध्यात्म है ही बाहर से अंदर की ओर घूम के अंदर की गहन यात्रा , जो एक क्षण में सुलभ है , अभी और यही , यदि यही यात्रा बाहर को है तो कहीं भी नहीं कभी भी नहीं , स्वयं को धोखा देने से कोई लाभ नहीं होने वाला।
इसीलिए सबसे पहले जो महत्वपूर्ण है वह स्वप्रेम * स्वध्यान * और स्वयं के प्रति जागरूकता स्वयं के प्रति सतर्कता ( कहीं कुछ अनुचित अथवा जो मुझे नहीं चाहिए ऐसा तो अंदर नहीं जा रहा ) और फिर आप पाएंगे की " आपो गुरु आपो भवः " एकमात्र सार्थक मन्त्र है अन्य नगण्य है मात्र उपलब्ध और साधन है।
इसी सन्दर्भ में :-
जीसस ने कहा की बुद्ध ने कहा अथवा मोहम्मद ने कहा या राम कह गए की कृष्ण ने कहा अथवा बीत गए गुरु क्या कह गए अथवा जागृत गुरु क्या कह रहे है आदि आदि।
कब कहा !
किसने कहा !
किस भाव से कहा !
वस्तुतः सब नगण्य है , मात्र एक भाव गहरा है , " मैं इस (जो भी व्यक्ति विशेष अथवा सम्बंधित गुण अथवा सम्बंधित दोष ) व्यक्तिव के गुण दोषो से परे और अप्रभावित रह कर वांछित तरंगित ज्ञान को आत्मसात करता हूँ , क्यूंकि ये मेरी वांछित क्षुधा और पिपासा के अनुकूल है यही मेरे आत्ममंथन का सार है और यही मेरी तपस्या स्वयं के लिए है । " बिलकुल वैसे ही जैसी हरे भरे सुवासित पुष्पों से भरे उद्यान के मध्य में बैठे है तो हवाये हर दिशा से सुगन्धित ही आएँगी , उस सुगंध प्रसन्नता के समक्ष यदि कोई पौधा वांछित स्वस्थ नहीं भी है तो नगण्य है । आह ! तरंगित संसार इतना ही सुन्दर है। क्यूंकि वह आत्मसात महत्वपूर्ण है निर्णयात्मक दूषित आलोचना का कोई स्थान ही नहीं।
इस भाव के साथ कभी कभी ऐसा भी विचित्र अनुभव होता है की ज्ञान भी वैसे ही प्रवाहित होता है जैसे अन्य तरंगित प्रवाह उदाहरण के लिए प्रकाश , सुगंध , विद्युत अथवा जल । या इस प्रवाह को अनुवांशिक रोग कीटाणुओं से भी समझा जा सकता है जिसमे परम्परागत पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाह छोड़ के ज्ञान छलांग लगाता है बिलकुल मधुमेह की बीमारी जैसा की बीच की पीढ़ी में रोगाणु सुप्तावस्था में ही रहते है और अगली पीढ़ी में जागृत होते है , उदाहरण स्वरुप यहाँ ज्ञान- परिवार रक्त सम्बन्ध का नहीं वरन ज्ञान सम्बन्ध का होता है , कहने का तात्पर्य है की जरुरी नहीं किसी गुरु परंपरा में कतार से सभी ज्ञानी हो कुछ अज्ञानी भी हो सकते है किन्तु परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से ज्ञान प्रवाह का कारन हो जाते है ।
प्रवाह इस श्रृंखला में कहीं ज्ञान प्रकट है तो कही अप्रकट , कहीं आप को सूचीबद्ध तरीके से सुचारू और विधिपूर्वक ज्ञान आपके अनुसार नहीं मिल पा रहा , सम्भावना है की आपकी आकांक्षा के अनुरूप कोई ज्ञान तरंग आपके तराजू पे नहीं उतर पा रही किन्तु ज्ञान वहां भी मौन रूप में बह रहा है बिलकुल इंद्रधनुषी रंगों के सामान वातावरण में ज्ञान सर्व सुलभ है , बस स्वीकृत ह्रदय चाहिए , तरंगे स्वयं आकर्षित हो के मिलेंगी। फिर ज्ञान हर तरफ से आकर्षित हो तरंगित हो खिंचा चला आता है। ऐसे व्यक्ति के लिए व्यक्ति विशेष , विशेष धर्म या प्रसंग महत्वपूर्ण नहीं रह जाता। क्यूकी एकटक शुन्य को देख के भी वो ज्ञान आता है जो किसी तपोस्थली में बैठ के तरंग छूटी है , गंगा का किनारा उतना ही मनोरम जितना बंद आँख ध्यानस्थ घर का कोना।
तो देखा आपने ! महत्वपूर्ण ये नहीं की कहाँ से ज्ञान आ रहा है और कौन कह रहा है , महत्वपूर्ण उसे ग्रहण करने वाले की ग्राह्यता है और उस ग्राह्यता की स्वीकृति है और स्वयं के प्रति प्रेम और स्वयं के प्रति ही समर्पण है। अध्यात्म है ही बाहर से अंदर की ओर घूम के अंदर की गहन यात्रा , जो एक क्षण में सुलभ है , अभी और यही , यदि यही यात्रा बाहर को है तो कहीं भी नहीं कभी भी नहीं , स्वयं को धोखा देने से कोई लाभ नहीं होने वाला।
इसीलिए सबसे पहले जो महत्वपूर्ण है वह स्वप्रेम * स्वध्यान * और स्वयं के प्रति जागरूकता स्वयं के प्रति सतर्कता ( कहीं कुछ अनुचित अथवा जो मुझे नहीं चाहिए ऐसा तो अंदर नहीं जा रहा ) और फिर आप पाएंगे की " आपो गुरु आपो भवः " एकमात्र सार्थक मन्त्र है अन्य नगण्य है मात्र उपलब्ध और साधन है।
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