Saturday, 14 February 2015

वहां कोई द्वैत नहीं

प्रकर्ति से आ रही छोटी से छोटी संवेदनाओं और आशीर्वादों के प्रति जागरूक रहें , सतर्क रहे , अपनी पूर्ण सहज स्वीकृति के साथ धैर्य पूर्वक ग्रार्ह्यता बनाये रखें। अंतर्दृष्टि जागृत रखें और अपनी ध्यान क्षमता संकल्प पूर्वक बनाये रखें , बाह्य विचरण से परहेज करें , सूक्ष्म और परिवर्तनशील संसार में अपरिवर्तशील के प्रति जागृत रहें .....

Osho says :- " छोटे-से-छोटे में भी विराट के संदेश छिपे हैं। जो उन्हें उघाड़ना जानता है, वह ज्ञान को प्राप्त करता है जीवन में सजग होकर चलने से प्रत्येक अनुभव प्रज्ञा बन जाता है। जो मूर्च्छित बने रहते हैं, वे दरवाजे पर आये आलोक को भी लौटा देते हैं। "
मैंने  प्रेम- योग  के इक्षुक  के ध्यानी की राह का रोड़ा देखा है , नाम है बुद्धि ,  काम है प्रश्न करना , जिनके उत्तर तर्कपूर्ण हो तो सही नहीं तो अस्वीकार , शायद यही सबसे बड़ी चूक है , सोचा आपसे  बांटू ये भाव , शायद किसी  की  कंटक पथ पे चाल सही हो जाये , शायद मेरे लिखने का प्रयोजन कुछ हो  जो शायद मुझे भी नहीं मालूम ,पर यहाँ इस क्षण मकसद  इतना ही है की मैंने कुछ बुद्धि प्रेरित  पढ़ा है जिसमे  बौद्धिक चातुर्य से  किसी के अनुभव की धज्जिया उड़ने का काम  कुशलता से किया गया है , और  फलस्वरूप वो तरंग चतुर मछली जैसी फिसल गयी जिसका बुद्धिमान को भान भी नहीं हुआ   !

जरा सोचें !   पाना क्या और खोना क्या , कहाँ  बुद्धिमानी और कहाँ  मूर्खता ? सब  एक ही थाली के चट्टे बट्टे , नीचे मुख्य ऊर्जा रूप  अग्नि   जल रही है  धूं धूं  करके ,उसके ऊपर बर्तन चढ़ा है , जिसमे  मकई के दाने जैसे  फूटते  फुदकते और नृत्य करते जीव , क्या पाना और क्या खोना ? अपनी ही चीरफाड़ करके मकई के दाने को क्या मिलेगा ?

पर गलती हो जाती है , हम सब बौद्धिक प्राणियों से  गलती हो जाती है , जन्म से मिली  बुद्धिगत जीवन शैली ऐसी ही है विषय   और  विषय से सम्बंधित जिज्ञासाएँ  आशंकाएं , डरे हुए की कही हानि न हो जाये    , जब हम  स्वयं को बुद्धिमान जान के बुद्धि का सदुपयोग करने लगते है ( और वस्तुतः  इसमें गलत नजर भी नहीं आता  क्यूंकि सभी कर रहे है , जो  समुचित उपयोग नहीं कर पा रहे वे दिमागी अस्पताल में अपना इलाज करवा रहे होते  है ) यही  बौद्धिक प्राणी को  भासता है  बौद्धिक प्रयोग आवश्यक है  अन्यथा वो मरीज है !  यहाँ  इस आध्यात्मिक अभ्यास में सबसे पहले  सही और गलत का स्केल तोडना होगा  जो अपना भी है और दुसरो का भी ,  दुसरो को सही करने का कार्य करेंगे तो आप उलझते जायेंगे जैसा अभी तक आप करते आ रहे है  , तनिक ठहरिये विश्राम लीजिये  और स्वयं पे अभ्यास शुरू कीजिये , जो भी  जैसा भी यदि   किसी ने प्रकट रूप में कहा  तो वो उसका अपना अनुभव है , जो उसकी अपनी यात्रा का परिणाम है ,  जो गलत  नहीं है , अनुभव भी कभी सही या गलत हुए है ? अनुभव तो सुन्दर  सीख है , नसीहत है ,जो  संभल के  चलना सिखाते है, बिलकुल वैसे ही जैसे ऊंचाई पे बंधी  रस्सी पे चलते हुए  जिमनास्ट ।  ये अनुभव ही तो परिपक्व बनाते है , फिर इनको भी सही गलत की कसौटी पे कैसे कोई रख सकता है ?  पर रखते है , बुद्धिमान लोग रखते है।

आपने अपने अपने श्रद्धेय से सुना होगा  की ध्यानी  को सबसे पहले , शुद्ध रूप से अंतर्मन से  विचारशून्य  हो के सिर्फ बैठक का अभ्यास करना चाहिए !  उसके पश्चात  श्रवण शक्ति बढ़ानी है ,  फिर " अपनी " इन्द्रिओं को समझना है , उनकी गुणवत्ता  और उनके सहयोग को समझना है , ये सत्य है चक्रों को  समझने  तक का सफर आप उस बुद्धि से कर रहे है जो तार्किक है।  बुद्धि  संतुष्ट है  क्यूंकि वो जो उचित समझ रही है आपका शरीर वो ही कर रहा है। और इस यात्रा में शांति भी है , क्यूंकि  विष का बनना भी कम हो चला है , इसी यात्रा में  आपके अपने अनुभव भी संगृहीत होने शुरू हो गए है।

यहाँ आपको दूसरा पायदान  दिया जाता है जिसमे सही और गलत को समभाव रखकर  मध्य में रहने की सलाह दी जाती है।  किसी भी निर्णय पे न पहुँचने की सलाह दी जाती है सारी  यात्रा स्वयं से शुरू होक स्वयं पे ही समाप्त करने की सलाह दी जाती है ,  स्पष्ट  तौर पे  दुसरो के जीवन में ताक  झांक  और दूसरों के व्यक्तित्व के बारे में निर्णयात्मक बौद्धिक उपयोग  में  खतरे वाला निशान  लगा हुआ है , यानि  बिलकुल ही  मना है ,  बाह्योन्मुख यात्रा  का निषेध है।  यह  " समभाव " बहुत कीमती है , इसको ह्रदय में धारण करना है  दिमाग में नहीं। आप ही नहीं सभी जानते  है की ये  दुनिया बहुरंगी है , किन्तु आपको सारे रंग स्वयं में ही स्वयं के ही देखने है।  दिमागी द्वन्द दिमाग से बाहर  ही रहनें  दें  जो भी तरंगित सलाह है वो सब आपको ह्रदय  में बिठानी है प्रेम पूर्वक  श्रद्धा पूर्वक।  अब तक आप  सहज बैठना  सहज सुनना  और  सहज  मध्य में रहने की सलाह ले चुके है।     शरीर को स्वस्थ रखे ऐसी  अभ्यासी को  सलाह दी जाती है , कारन इतना ही  की स्वस्थ  मस्तिष्क  और स्वस्थ्य आत्मा का  अद्भुत योग है।  तत्पश्चात आपकी  यात्रा में अगला पड़ाव आता है  जब आपको  शरीर भाव  छोड़ के  अपने सातो चक्रों पे  कार्य करने को कहा जाता है।  इन समस्त सातों चक्रो को  साधने  और सफल  गृहकार्य के पश्चात  आपको  पृथ्वी को  और  बृह्माण्ड में विचरण के लिए प्रेरित किया जाता है।  संभवतः  इस यात्रा  जो सबसे बड़ी उपलब्धि है  वो है अपना सूक्ष्म अस्तित्व  की जानकारी हो जाना , अनुभव हो जाना  की  जीवन सिर्फ हमारा ही नहीं , उन सबका सिमित है जो भी इस धरती पे जन्म लिए है।  इस भाईचारे के भाव के साथ  जब आप अपनी यात्रा  जारी रखते है , तो कहाँ  मौलिक सही और गलत  बचता है ? सोचिये-सोचिये  जरा , क्यूंकि अभी भी आप अपनी बुद्धि से ही सोच रहे है।  आप सोच सकते है सही और गलत।

आत्मा परमात्मा की  सर्जरी  कर सकते है , ब्रह्माण्ड की  सर्जरी  कर सकते है , मनुष्यों के विश्वासों की बखिया उधेड़ सकते है , रिश्तों में सही गलत ढूंढ सकते है ,और तो और जिनसे आपका कोई प्रयोजन नहीं उनकी भी ऐसी की तैसी कर सकते है , आप बुद्धिमान  है  और तर्क आलोचना आपके अधिकारक्षेत्र में है , मेरे तेरे के   दो भागों में बंटी बुद्धि   में पहली उठी भाव तरंग आपकी  है  फिर वो शब्द में  बदलती है और दूसरे  के मस्तिष्क तक शब्द  रूप में  जाती है  और इसी तारतम्य में  दूसरे के शब्द  आप तक आते है  वो  तरंग माध्यमो  के दुष्चक्र में  फंस महीन हो जाती है  सूक्ष्म हो जाती है , यदि कोई अति संवेदनशील हो तो ही उस तरंग को छू  पाता  है , ये माध्यम का चक्र ही कुछ ऐसा है ,  विचारो का जन्मस्थान तरंग रूप है जो  सभी में एक जैसा है , लेकिन प्रक्रिया  में कई माध्यम है।  ध्यान दीजियेगा !  माध्यमो के बीच रहते रहते हम माध्यमो के आदि हो जाते  है , यहाँ तक परमात्मा के लिए भी माध्यम तलाशते  है  वर्ना  शिथिल से  पड़े अपनी भाग्यहीनता को  कोसते है और  बहार के गुरुओं को लांछित भी करते है ( यहाँ सही गलत  आपके साथ चिपका ही रहेगा जब तक आप  आलोचनाओ में डूबे रहेंगे और लाभ हानि में पड़े  सावधान सशंकित  रहेंगे )  किसका लाभ और किसकी हानि ? ये  आंतरिक दृष्टि के विकास के साथ ही आभास होने लगता है।  सब सांसारिक है  और बुद्धि प्रेरित।

विचार कीजिये :-

" मैं एक सकुशल माली  हूँ "  जन्म के साथ  ही मुझे मेरे हिस्से की धरती मिली है ,  जिसकी सीमायें  है , जो असीमित और अनंत नहीं , इसकी देखभाल करू मेरा जन्म से मिला दायित्व है , जिसमे बूढी मुझे भ्रमित करती है , बुद्धि प्रेरित इन्द्रयाँ मुझे  लालच देती है , की मैं माया जगत में भटक जाऊं , अपना  मूल उद्देश्य  भूल जाऊं।  किन्तु मैं  अपने केंद्र से  अपने  मूल केंद्र से जुड़े रहना का अभ्यास करता हूँ , और बुद्धि  समस्त इन्द्रियों समेत  अपनी दौड़ को  काबू में रखती है।   मैं एक कुशल जुलाहा हूँ , ईश्वर के दिए पवित्र  वस्त्र को  पङूँगा समझूंगा और वापिस  वैसे ही रख दुंगा।  अपने केंद्र से जुड़ने के लिए मुझे  किसी अन्य माध्यम की आवश्यकता नहीं , क्यूंकि शुद्ध विदुयत  का आकर्षण शुद्ध  विद्युत  ही है।  किन्तु  अन्य ऊर्जाओं का भी सम्मान करता हूँ , उनकी अपनी यात्रा है  , और सहयोग भी , सहयोग  इन अर्थों में  जो मेरे योग्य तरंगे है  वो मुझ तक आएँगी , मेरा दायित्व है  की उनको स्वीकार करना  और संभल के  रखना  और जो तरंगे मेरे योग्य नहीं वो मेरे अंदर प्रवेश नहीं प् सकती।  इसके लिए मुझे  अपना फ़िल्टर  साफ़ रखना होगा , और इन सब कार्य मे एकमात्र  मेरा साथी मेरा अपना ध्यानयोग  है ।  वैसे तो  सब सुलझा और सहज है , किन्तु यदि मैं उलझ गया भटक गया तो मेरी सीमित शक्ति  व्यर्थ  जायेगी। मेरे अंदर  धरती के मूल गुण स्वरूप सभी गुण  बीज रूप है मैं कुशल  अपने खेल ही का संयोजक और खिलाडी हूँ  गीतकार संगीतकार चित्रकार  वैज्ञानिक  और धार्मिक हूँ  , बीज रूप सभी विद्याएँ मुझमे है  किन्तु मेरा  कौशल  महारथ  किसी एक तरंग में सबसे ज्यादा है , शायदा   मेरा उच्छ्तम् केंद्र उसीके द्वारा मुझे सहयोग करना चाहता है  इनको समझना इनमे सामजस्य रखना  ये मेरी सर्वप्रथम नैतिक जिम्मेदारी है  "

आपका जन्म से प्राप्त  प्रमुख गुण  और उसका आकर्षण और संतुलित संयोजन ही आपकी नाव बन सकता है।  तभी आपने  मनोवैज्ञानिकों  से सुना होगा कहा जाता है  अभिभावक को  अपनी संतान के जन्म से प्राप्त गुणों को ही बढ़ावा देना चाहिए।  यहाँ वो अपने अभिभावक भी आप ही है।  बिलकुल अर्धनारीश्वर के समान आपकी स्थति है , स्त्री  और  पुरुष दोनों ही एक  शरीर में  गुण रूप हो समाएं है , बिलकुल वैसे ही जैसे बाह्यजगत में दीखते है।  इनमे  सामंजस्य सर्वप्रथम  आवश्यक  है , अध्यात्म की  सारी  चेष्टा यही है  की सबसे पहले वो आपसे आपका परिचय कराये , आपको आपसे मिलवाए  समग्र रूप से , समस्त गुणों समेत , समस्त रंगो सहित।  जिस दिन अंदर से परिचय हो जाता है , फिर बाहर मात्र अपना ही विस्तार नजर  आता है।  अपने द्वारा लिए गए अनुभव के बाद  आप इस वाक्य पे विश्वास कर सकते है।  और यहाँ आपकी निर्णयात्मक बुद्धि  स्वयं ही शिथिल हो जाएगी , बिना प्रयास के।

यहाँ ध्यान दीजियेगा , तरंगे  शब्दहीन है  किन्तु भावयुक्त  है  , इस राह में भाव प्रमुख है शब्द गौण।  शब्द काम से काम उपयोग में आएं इसलिए मौन को  बढ़ावा दिया जाता है।  सहजता की धरती पे  मौन के वृक्ष में उचित फल लगते है।

ये भी ध्यान देने योग्य है , जो  आपकी कर्म संचित थैली है आपके कंधो पे , बीच बीच में भारयुक्त होगी। ध्यान के सहयोग से इसको हल्का करना उचित है।  कहीं रुकना नहीं  कहीं  अटकना नहीं , कोई कील नहीं गाड़नी , मात्र मेरा केंद्र  और दूसरा जोड़  मुख्य-केंद्र से  ही  मुख्य  है   बाकी सब चिरकाल  से मृत या जागृत  सहयोगी और मित्र है । सभी का सम्मान  सभी के अनुभव का सम्मान , सभी  से प्रेम  और जीव मात्र के लिए करुणा।  क्यूंकि धरती पे किसी का भी जीवन  सरल नहीं , भोग  और कर्म के चलते कठिनतम है।

दरअसल ;  यदि मैं निष्कर्ष बता भी दूँ तो भी आपको लगेगा की इसमें नया क्या है , ये तो हमें पता है।  सच है , नया कुछ नहीं , पाना कुछ नहीं , खोना कुछ नहीं , जैसे जैसे ये भाव गहराएगा , आपको अपने स्वानुभव होने लगेंगे , एक एक करके सभी  तर्क गिर जायेंगे , एक एक प्रश्न जिज्ञासा गिर जाएगी। . तब जो  बचेगा  , वो है वास्तविकता  जंगल में खिले फूल जैसी , बुद्धत्व है ये।  इस भाव से आप किसी जीव का अहित करना तो दूर सोच भी नहीं सकेंगे।  जीवन का उद्देश्य का भान होते ही  सभी जीवों  के प्रति  समभाव , मित्रता का भाव  और  सहयोग  का भाव  जागृत होगा।  सचाई मात्र एक होगी , द्वित्व  में विभाजित  आपका अपना केंद्र  और उच्छ्तम्  केंद्र  मिलके एक होंगे, वहां कोई द्वैत नहीं , कोई विरोध नहीं , कोई  सहीगलत  का मापदंड नहीं। सब धरती  के आकर्षण है , धरती के तत्व है।

ओम प्रणाम 

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