.............स्वीकार की आग.............
~सहज समाधी भली~
~सहज समाधी भली~
कितना ही समय बिता दो, जागरण घटित न होगा।
तुम जिसे पकड़ना चाह रहे हो, वह तुम्हारी "पूंछ' है। और तुम जितने जोर से छलांग लगा कर पकड़ने की कोशिश करते हो, उतनी ही जोर से वह तुम्हारे हाथ से निकल जाती है। इससे तुम बड़े पीड़ित होते हो। इससे तुम सोचते हो कि " शायद छलांग छोटी है; ताकत कम है; समय नहीं आया; भाग्य साथ नहीं देता; कर्मों की बाधा है।' कुछ भी नहीं है। सिर्फ इतनी ही बात जाननी है कि पूंछ तुम्हारी है और पकड़ने की कोई जरूरत नहीं है, वह पकड़ी ही हुई है। तुम कहीं भी जाओ, वह तुम्हारे पीछे ही होगी। सिद्धत्व, बुद्धत्व पकड़ा ही हुआ है; तुम्हें वहां पहुंचना नहीं है, तुम सदा से वहां रह रहे हो। इसलिए यह घटना घट सकती है एक क्षण में, एक शब्द की चोट किसी को जगा दे।
ठीक से समझने की बात केवल इतनी ही है कि अपने को धोखा देने का कोई उपाय नहीं है और न अपने को बदलने का कोई उपाय है। बड़ा कठिन है; क्योंकि जब तक लगता है--"अपने को बदल सकते हैं', तो आशा बंधती है। और ऐसा लगता है कि आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों बदल ही लेंगे। इस बदलने की आशा से तुम बदलते नहीं हो, सिर्फ जो घटना अभी घट सकती थी, उसे तुम टाल देते हो।
मन उदास होगा, अगर पता चले कि बदलाहट हो ही नहीं सकती। लेकिन तुम उदासी से बेचैन मत होओ; क्योंकि आशा तुम्हें कहीं भी नहीं ले गई, तो उदासी से घबड़ाते क्यों हो? आशा ने तुम्हें कहीं नहीं पहुंचाया है, तो निराशा से इतनी बेचैनी क्या है? बदल-बदलकर तुम बदल तो नहीं पाये। अगर बदलने से बदलाहट नहीं होती है, इस तथ्य का उदघाटन होता है और आंख खोलकर यह दिखाई पड़ता है, तो तुम इतने ज्यादा चिंतित क्यों होते हो?
लौटकर देखें--बचपन से इस जन्म का तो तुम्हें पता है--तुम जरा भी बदले हो? एक कण भी बदला है? तुम वही के वही हो। तुमने रंग-रोगन थोड़ा-सा बदला होगा, कपड़े बदल लिये होंगे; लेकिन अगर तुम थोड़ी-सी भी समझपूर्वक देखो, तो तुम पाओगे कि तुम वही के वही हो। जरा भी कुछ बदला नहीं है। लेकिन फिर भी मन में आशा रखते हो कि कभी बदल जायेंगे।
कौन बदलेगा? तुम्हीं बदलोगे, कैसे तुम बदलोगे? "तुम्हारी कोशिश व्यर्थ है,' इस बात की प्रतीति हो जाये, तो दूसरी प्रतीति और कर लेनी जरूरी है कि धोखा देने में भी कोई सार नहीं है; क्योंकि किसको धोखा दोगे? आंख बंद करके इमली खाओगे, इससे क्या फर्क पड़ेगा? धोखा भी नहीं दिया जा सकता और बदलाहट भी नहीं होती। तब क्या बच रहता है? जो बच रहता है, वही झेन का सार है; वही सहज-योग का सार है--जो बच रहता है
क्या बच रहता है? बच रहता है--स्वीकार। जो दैनन्दिन जीवन है--उसका स्वीकार। "तुम जैसे हो, वैसे हो', इस तथ्य की सहज स्वीकृति। और इस तथ्य के लिए तुम कुछ भी न करना। अगर तुम आलसी हो, तो आलसी हो। अगर तुम क्रोधी हो, तो क्रोधी हो। अगर तुम बेईमान हो, तो बेईमान हो। अगर यह बेईमान ही बेईमानी को बदलने की कोशिश करेगा, तो बेईमानी करेगा--इसमें भी। चोर अगर चोरी से बचने की कोशिश करेगा, तो उस बचने में भी चोरी कर जायेगा। झूठा आदमी है--अगर सच बोलने की कोशिश करेगा तो उसके सच बोलने में भी झूठ होगा, क्योंकि झूठ उसका स्वभाव है, उसकी आदत है। उसमें से सच भी निकलेगा, तो झूठ हो जायेगा।
स्वयं को स्वीकार जो कर ले, उसके अहंकार के खड़े होने का कोई उपाय नहीं रह जाता। क्योंकि जैसा तुम अपने को पाओगे, उसमें अहंकार करने जैसी गुंजाइश नहीं है। किस बात का गौरव करना है? क्या है, जिसका गौरव करना है? और जो व्यक्ति स्वयं को स्वीकार कर लेगा--तो न अहंकार उठेगा, न धोखा देना पैदा होगा, न बदलाहट की चेष्टा होगी; फिर क्या होगा? फिर तुम ही बच रहते हो। और तुम जैसे हो, वैसे ही बच रहते हो। यही मार्ग है।
सहज-योग का अर्थ यह है कि कुछ भी करने जैसा नहीं है; सिर्फ स्वीकार की दशा को उपलब्ध हो जायें; क्रांति घटित होगी। वह तुम्हारे करने से घटित नहीं होगी। वह तुम्हारे इस महान स्वीकार से फलित होगी। क्योंकि जैसे ही तुमने स्वीकार किया, विचार समाप्त हुआ।
सहज समाधि भली....
तथ्य क्रांति ले आते हैं। सत्य क्रांति है। जैसे ही सत्य दिखाई पड़ता है, क्रांति हो जाती है।
बेईमान आदमी को बेईमानी बदलने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन बेईमान आदमी अगर अपनी बेईमानी को पूरी तरह स्वीकार कर ले, इस स्वीकृति में इतनी अग्नि पैदा होती है कि बेईमानी राख हो जाती है, जल जाती है। लेकिन बेईमान भी धोखा देता है, वह कहता है : " कल ईमानदार हो जायेंगे। और आज अगर बेईमानी करनी पड़ी, तो परिस्थिति के कारण करनी पड़ी। करना मैं चाहता नहीं था। मजबूरी थी। कोई आदमी मैं बुरा नहीं हूं। आदमी तो भला हूं। और भले होने की पूरी कोशिश कर रहा हूं। कल भी कर रहा था, कल भी करूंगा। आज छोटी-सी बेईमानी करनी पड़ी--परिस्थितिवश। बच्चे हैं, पत्नी है, घर-द्वार है--इसको चलाना है--संसार है।'
बेईमान आदमी को बेईमानी बदलने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन बेईमान आदमी अगर अपनी बेईमानी को पूरी तरह स्वीकार कर ले, इस स्वीकृति में इतनी अग्नि पैदा होती है कि बेईमानी राख हो जाती है, जल जाती है। लेकिन बेईमान भी धोखा देता है, वह कहता है : " कल ईमानदार हो जायेंगे। और आज अगर बेईमानी करनी पड़ी, तो परिस्थिति के कारण करनी पड़ी। करना मैं चाहता नहीं था। मजबूरी थी। कोई आदमी मैं बुरा नहीं हूं। आदमी तो भला हूं। और भले होने की पूरी कोशिश कर रहा हूं। कल भी कर रहा था, कल भी करूंगा। आज छोटी-सी बेईमानी करनी पड़ी--परिस्थितिवश। बच्चे हैं, पत्नी है, घर-द्वार है--इसको चलाना है--संसार है।'
यह आदमी रोज अपने को धोखा देता रहेगा। क्योंकि यह अपनी बेईमानी को भी देख नहीं रहा है, उसे छुपा रहा है, ढांक रहा है। बदलाहट कैसे होगी?
ढांकने से कहीं कोई बदलाहट हुई है ! घाव ढंक लेने से कोई बीमारियों से छुटकारा हुआ है ! यह आदमी अगर अपनी बेईमानी को पूरी तरह देखे और देखेगा तभी, जब समझ ले कि न तो बदल सकता हूं, न आंख बंद करके धोखा दे सकता हूं; यह बेईमानी है, यह मैं हूं और इसी के साथ मुझे रहना है, इससे हटने का कोई उपाय नहीं है; यह मेरी छाया है।
क्या होगा? ऐसे क्षण में क्या होगा जब तुम बदल भी नहीं सकते, धोखा भी नहीं दे सकते और तुम्हें अपना पूरा रोग, पूरा मवाद, पूरा घाव दिखाई पड़ता है? क्या होगा? तुम्हारे जीवन में वैसी छलांग लग जायेगी, जैसे तुम्हें अचानक पता लगे कि घर में आग लगी है, चारों तरफ लपटें हैं, तब न तो तुम पूछते हो कि कहां से बाहर जाऊं, न तुम सलाह मांगते हो, न तुम कोई नक्शा खोजते हो, न तुम सोचते हो कि कल निकलेंगे, इतनी जल्दी निकलना कैसे हो सकता है! तुम बस, छलांग लगा जाते हो। तुम सोचते भी नहीं कि खिड़की कहां, द्वार कहां, मार्ग कहां? तुम बस छलांग लगा जाते हो ! क्योंकि जब घर में आग लगी हो, तो सोचने की सुविधा नहीं है।
या तुम रास्ते से गुजरते हो और एक सर्प तुम्हें दिखाई पड़ता है, फन उठाये; उस वक्त तुम क्या करते हो? तुम सोचते हो? तुम सर्प से कहते हो कि "रुको। एक-दो क्षण मुझे विचार का मौका दो, ताकि मैं कुछ उपाय कर सकूं? कैसे निकलूं इस घेरे से?' नहीं, तुम बस, छलांग लगा जाते हो। सोच-विचार बाद में आता है; छलांग पहले आती है। अगर ठीक से समझो तो "सांप भी है', यह तुम्हें बाद में पता चलता है--जब तुम छलांग लगा जाते हो। छलांग पहले घट जाती है।
जब जीवन इतने खतरे में होता है, तो क्रांति स्वयं घटित होती है, उसे करना नहीं पड़ता।
दैनंदिन जीवन अगर पूरी तरह स्वीकार हो, तो क्रांति घटित होगी, तुम्हें "करना' न होगा। तुम्हें साधक न बनना पड़ेगा, तुम सिद्ध हो जाओगे। सहज-योग का सार यही है।
दैनंदिन जीवन अगर पूरी तरह स्वीकार हो, तो क्रांति घटित होगी, तुम्हें "करना' न होगा। तुम्हें साधक न बनना पड़ेगा, तुम सिद्ध हो जाओगे। सहज-योग का सार यही है।
Sahaj Samadhi Bhali - 02
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