Saturday, 28 February 2015

चौथा आदमी - - "ओशो"


नीचे यहाँ  ओशो  ने तीसरे  से  अपनी बात कही , शायद प्रथम वो है  जो बाह्य गामी  है , जिसके विचार  निर्णय  सुख दुःख  सब  बाहर को  मुंह किये हुए है।  और दूसरे  श्रेणी में वो व्यक्ति है  जिन्होंने  अंतरयात्रा का आरम्भ कर दिया है ,  तीसरे आदमी तक आते आते  सब धर्म लुप्त हो जाते है , सिर्फ एक दृष्टि बचती है , और इसीसे भी एक कदम आगे  छलांग है उस तुरिया में स्थित  बुद्ध  बुद्धि की। और  इसी  श्रृंखला में एक कोण पांचवी  ऊर्जा  का बचता है , जो समग्र है ,  जहाँ व्यक्ति शब्द  बचता ही  नहीं  जिसमे बुद्ध व्यक्ति भी विलीन हो जाता है  सम्पूर्ण एकात्मकता के साथ और ये  मृत्यु  पश्चात की अवस्था नहीं , इसी जीवन की अवस्था है  जो  जीवन से परे  है ।
शुक्रिया ओशो , आभार


इसलिए ज्ञानी पुरुषों ने कहा है: जब तक तुम्हारी वासना है, तब तक तुम सत्य को न देख सकोगे। क्योंकि तुम रंगोगे; तुम्हारी वासना रंग देगी।

संस्कृत में जो शब्द है--वासना के लिए, वह बड़ा बहुमूल्य है। वह है--राग। और राग का एक अर्थ रंग भी होता है।
जब तक तुम्हारे मन में राग है, तब तक तुम्हारी आंखों में रंग है। वैराग्य तो उसी का फलित होगा, जिसकी आंखों के सब रंग खो जाएं।

विराग का अर्थ है--रंगहीन, रंगशून्य दृष्टि। जब तक तुम्हारी आंख में कोई भी वासना है, वही तुम्हारी आंख का रंग है। तुम उसी से देख रहे हो।

ब्रह्मचारी निकले रास्ते से, तो उसे पुरुष नहीं दिखाई पड़ते, सिर्फ स्त्रियां दिखाई पड़ती हैं। उसकी आंखों पर एक रंग है। तुम जो भी आंख में लिए हो, वही रंग तुम्हारे चारों तरफ प्रोजेक्ट होता है। इसको हमने माया कहा है।

तथ्य को रंगकर देखना माया हैतथ्य को तथ्य की तरह देख लेना ब्रह्म है। तब तुम बाजार से गुजरते हो, तुम्हारी आंखें खाली हैं। तब तुम चुनते नहीं। तब "जो है', वह तुम्हें दिखाई पड़ता है। तब तुम जगत में कुछ डालते नहीं। तुम सिर्फ साक्षी होते हो।

तथ्य न तो उदास करता है, न दुखी करता है, न प्रफुल्लित करता है। तथ्य केवल शांत कर जाता है। और शांति बड़ी अलग दशा है। वह अनुत्तेजना की स्थिति है। तब तुम ठीक संतुलित हो। न तुम यहां झुके हो, इस तरफ--दुख, उदासी। न झुके उस तरफ--प्रफुल्लता, सुख। तब तुम झुके ही नहीं हो; तुम बीच में खड़े हो; तुम संतुलित हो। इसको गीता में स्थितप्रज्ञ कहा है।

तब तुम्हारी चेतना ऐसे थिर हो गई है, जैसे किसी भवन में--जहां हवा का झोंका न आता हो--कोई दीया थिर हो जाए; दीए की ज्योति निष्कंप हो जाए।

तीसरे आदमी पर सब धर्म समाप्त हो जाते हैं; सब मंदिर, मसजिद, गुरुद्वारे--तीसरे आदमी पर समाप्त हो जाते हैं। और असली आदमी चौथा है--दि फोर्थ। वह जो चौथा--तुरीय है, वह जो चौथा आदमी है, वह जो बुद्ध-पुरुष है--खोज तो उसकी करना। वह परम लक्ष्य है। वहां तुम जैसे हो, वैसे ही बचोगे। संसार जैसा है, वैसा ही बचेगा--दो कोरे दर्पण हों।

किसी ने पूछा रिन्झाई को कि "जब तुम ज्ञान को उपलब्ध हुए तो तुम्हें कैसा लगा?' तो उसने कहा कि "जैसे एक दर्पण दूसरे दर्पण के समाने है और एक दर्पण दूसरे दर्पण की निर्मलता को प्रतिबिम्बित करता है। दूसरा पहले की निर्मलता को प्रतिबिम्बित करता है। निर्मलता अनंत गुना होती चली जाती है। क्योंकि एक दर्पण के सामने दूसरा दर्पण, चित्र कोई बनता नहीं है, निर्मलता ही प्रतिफलित होती है।

जिस दिन तुम चौथा आदमी हो जाओगे--तुम दर्पण की तरह कोरे, यह जगत भी दर्पण की तरह कोरा। और ये दोनों दर्पण एक दूसरे को प्रतिफलित करते हैं--करते चले जाते हैं। अनंतगुना निर्दोष, निर्मलता--अनंत अनंत होती चली जाती है। कहीं कोई रूप नहीं बनता, कोई आकृति नहीं बनती। यह अनंत गुना निर्मलता निराकार बन जाती है।

चौथे की खोज करना; वही खोज है; वही परम लक्ष्य है। लेकिन अगर चौथे को असंभव पाओ, तो पहले से राजी मत होना।

मंदिर के भी ऊपर जाना है। मंदिर कोई गंतव्य नहीं है। लेकिन घर से तुम मंदिर तक पहुंच जाओ, तो भी काफी है। फिर मंदिर को भी पार कर जाना है।

चौथा आदमी--उसके आसपास कोई धर्म निर्मित नहीं हो सकता। बुद्ध, महावीर, लाओत्से जैसा व्यक्ति--उसके आसपास कोई धर्म निर्मित नहीं होता है। सब धर्म इन तीन के आसपास कहीं बन जाते हैं।

वह चौथा आदमी निराकार जैसा है। तुम उसे समझ भी लोगे, फिर भी पकड़ न पाओगे। वह तुम्हारी मुट्ठी में नहीं आता है। वह परम स्वतंत्र है। लेकिन उसपर ध्यान रखना। ऐसा हो जाना है कि जहां न उदासी हो, न जहां क्रोध हो, न जहां प्रसन्नता हो--जहां ये सभी रोग छूट जाएं। जहां कोई भी तरंग न उठे। न आंसू बहें और न हंसना पड़े। जहां गहन सन्नाटा हो, शून्य हो, शांति हो--वही सम्यकत्व है। वही सम अवस्था है। वहीं तुम पूरे संतुलित हुए। वहीं बैलेंस आया। उस क्षण ही तुम इस संसार के बाहर हो जाते हो।

जैसे ही तुम संतुलित हुए, शांत हुए, तुम्हारी आंखें शून्य हुईं, तुम्हारा कोई राग न रहा, कोई रंग न रहा, तुम्हारी कोई व्याख्या न रही--सत्य प्रकट हो जाता है।

जिस दिन तुम व्याख्या-शून्य हो, उसी दिन सत्य प्रकट हो जाएगा। इसलिए कृष्णमूर्ति निरंतर दुहराते हैं: तुम किसी सत्य के सिद्धांत को लेकर सत्य के पास मत जाना। तुम कोई सिद्धांत लेकर मत जाना; क्योंकि सिद्धांत सत्य को विकृत कर देगा। तुम व्याख्या मत करना। तुम कोरे, नग्न, शून्य--उसके पास जाना।
यह चौथी ही ध्यान धारणा है। यह चौथी ही समाधिस्थ होने की कला है।

यह कहानी तुम्हारे बाबत है। यह चौथी ही समाधिस्थ होने की कला।

यह कहानी तुम्हारे बाबत है। और इस कहानी से पार जाना है--तभी तुम्हारा जो सार--जीवन का निचोड़ है, जो फूल है, जो सुगंध है, वह उठेगी। तभी तुम्हारा दीया जलेगा।

मुझसे पूछा तो इन तीनों को छोड़ना; चौथे की तलाश करना ; और ध्यान रहे, ये तीनों कितने ही सरल दिखाई पड़ते हों, बहुत कठिन हैं। क्योंकि तीनों झूठ हैं। झूठ से कठिन और कुछ भी नहीं हो सकता है। और वह चौथा कितना ही कठिन दिखाई पड़े, बहुत सरल है, सहज है; क्योंकि स्वभाव सहज ही हो सकता है। जो कबीर गुनगुनाते हैं: "साधो सहज समाधि भली'--वह चौथा सहज आदमी है। ये तीनों असहज हैं।

सहज का अर्थ है: जैसा तुम्हारा स्वभाव है, जिसमें कुछ भी न जोड़ना पड़े। जोड़ा कि असहज हुआ। रंग पोता कि असहज हुआ। जैसे तुम तुम्हारी नग्नता में हो--तुम्हारी दिगंबरत्व, तुम्हारी नग्नता--वही सहजता है, वही समाधि है।

इस कहानी को सोचना और इस कहानी के पार चलने की कोशिश करना।

- "ओशो"
Sahaj Samadhi Bhali - 09

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