Saturday, 28 February 2015

बुद्ध का कारागृह - Osho

बुद्ध ने स्वयं भी निरंतर, बार-बार कहा है: "तुम मेरे पास आओ जरूर, पर मुझसे बंध मत जाओ।' और बुद्ध से बंधने की आकांक्षा इतनी प्रबल होती है कि उसे जीतना बहुत कठिन है।

तुम साधारण व्यक्तियों से बंध जाते हो--जिनमें बंधने जैसा भी कुछ न था। तुम हथकड़ियां लोहे की बना लेते हो, जिसमें सिवाय बोझ ढोने के और कोई अर्थ नहीं है। बुद्ध जैसे व्यक्ति को पाकर तो तुम बंधना ही चाहोगे; "हथकड़ियां' सोने की हैं--हीरे-जवाहरात से जड़ी हैं।

तुम किसी को भी अपना बंधन बना लेते हो; पत्नी है, पति है, बेटे हैं। बुद्ध को पाकर तुम कैसे बचोगे? तुम बुद्ध को अपना बड़े से बड़ा कारागृह बना लोगे।

पत्नियों से पति मुक्त हो जाते हैं--बड़ी आसानी से; पतियों से पत्नियों मुक्त हो जाती हैं बड़ी आसानी से; लेकिन 
बुद्धों से मुक्त होने में हजारों साल लग जाते हैं। और करोड़ों लोग तो कभी मुक्त नहीं हो पाते, बंधे ही रहते हैं।

जिनको तुम धर्म कहते हो, वे किन लोगों की भीड़ हैं? कौन हैं हिंदू? वही जो अब तक राम और कृष्ण से मुक्त नहीं हो पाए हैं। कौन हैं जैन?--जो महावीर से छुटकारा अभी तक नहीं पा सके। कौन हैं बौद्ध?--बुद्ध का कारागृह है।

सारे धर्म कारागृह बन गए हैं। इसलिए नहीं कि वे कारागृह थे, बल्कि इसलिए कि तुम आदमी ऐसे हो कि तुम जहां भी जाओगे, वहां बंधन निर्मित करोगे।

तुम्हारे जीने का ढंग ऐसा है कि तुम सिर्फ हथकड़ियां ही ढालते हो--अनजाने--निश्चित ही। क्योंकि जानकर तो तुम स्वतंत्रता चाहते हो, जानकर तो तुम मुक्ति चाहते हो। लेकिन अनजाने तुम ऐसा कुछ चाहते हो, जिससे मुक्ति घट नहीं पाती, स्वतंत्रता हो नहीं पाती।

बुद्ध ने कहा है: "मेरे पास आना, लेकिन मुझसे बंध मत जाना। तुम मुझे सम्मान देना, सिर्फ इसलिए कि मैं तुम्हारा भविष्य हूं; तुम भी मेरे जैसे हो सकते हो, इसकी सूचना हूं। तुम मुझे सम्मान दो, तो यह तुम्हारा बुद्धत्व को ही दिया गया सम्मान है। लेकिन तुम मेरा अंधानुकरण मत करना। क्योंकि तुम अंधे होकर मेरे पीछे चले तो तुम बुद्ध कैसे हो पाओगे?'

बुद्धत्व तो खुली आंखों उपलब्ध होता है--बंद आंखों नहीं। और बुद्धत्व तो तभी उपलब्ध होता है, जब तुम किसी के पीछे नहीं चलते, खुद के भीतर जाते हो।

किसी के पीछे आना तो सदा बाहर जाना है। क्योंकि किसी के पीछे चलो, चाहे वह कोई भी हो, वह बाहर ही होगा। बुद्ध के पीछे चलो, तो भी यात्रा बाहर होगी। महावीर के पीछे चलो, तो भी यात्रा बाहर होगी। भीतर तुम कब जाओगे?
भीतर तो तुम जाओगे तब, जब तुम बाहर चलोगे ही नहीं। आंख बंद करोगे और भीतर की तरफ चलोगे।

भीतर तुम किसका अनुकरण करोगे? वहां तुम्हारे अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। इसलिए आत्म-अनुभव तो उसे होगा, जो सभी अनुकरण से मुक्त हो जाएगा।

तो, बुद्ध कहते हैं: "तुम सम्मान मुझे देना, लेकिन अंधी-श्रद्धा नहीं। सम्मान तुम सिर्फ इसलिए देना कि मैं तुम्हारा भविष्य का इशारा हूं।' जैसे एक बीज पड़ा है, और पास में एक वृक्ष उगा है। जो बीज में छिपा है, वह वृक्ष में प्रकट हो गया है। यह बीज इस वृक्ष को सम्मान दे सकता है, क्योंकि यह वृक्ष खबर देता है कि मैं भी वृक्ष हो सकता हूं। इस वृक्ष का धन्यवाद भी हो सकता है, कि तूने मुझे जगाया; तूने मुझे खयाल दिया कि क्या हो सकता है; तूने संभावनाओं के प्रति मुझे सचेत किया। मैं तो बंद अपने में पड़ा था--एक कंकड़ की तरह। मुझे तो पता ही न था कि मैं बीज हूं। कंकड़ों की जमात में था; कंकड़ ही मैंने अपने को समझा था। तुझे देखकर मुझे खबर आई, चेत हुआ, मेरी नींद टूटी; मुझे लगा कि यह मैं भी हो सकता हूं। तूने ही मुझे जगाया कि: "कभी मैं भी बीज था और वृक्ष हो गया हूं; आज तू बीज है, कभी तू वृक्ष हो सकता है।'

बुद्धों के प्रति जो हमारा समादर है, वह समादर उनके इस इशारे के लिए है, क्योंकि उन्होंने हमें हमारी संभावनाओं के प्रति सचेत किया; जो छिपा था, उसे उघाड़ा। जिसका हमें भी पता न था, उसकी खबर दी।

जो हम हैं, वह हमारा पूरा होना नहीं है। हम और बहुत कुछ हो सकते हैं। बुद्धों को देखकर हमें उस "बहुत कुछ' होने का सपना पैदा होता है। वह आदर्श की एक झलक मिलती है। जैसे अंधेरे में बिजली कौंध गई हो, और हमने रास्ता देख लिया हो। ऐसे बुद्ध की सन्निधि में, सत्संग में, उनकी झलक में हमें रास्ता दिखाई पड़ा। अनुगृहीत हम हैं। तो बुद्ध ने कहा: "अनुग्रह ठीक है, अंधानुकरण ठीक नहीं है।'

यह बड़ा मुश्किल है। या तो तुम अंधानुकरण कर सकते हो या अंध-विरोध कर सकते हो। यह बिलकुल आसान है। और बुद्धों के साथ लोग दो ही व्यवहार करते हैं। एक तो उनके अनुयायी होते हैं और एक उनके शत्रु। एक उनके पीछे चलते हैं--आंख बंद करके, और एक उनसे भागते हैं--आंख बंद करके। दोनों अंधे हैं; दोनों समान हैं; इनमें बहुत भेद नहीं है।

तीसरा आदमी खोजना मुश्किल है। और वही तीसरा आदमी बुद्ध को समझ पाता है। वह आदमी जोशू जैसा होगा। वह सुबह फूल भी चढ़ायेगा मंदिर में बुद्ध के; सिर भी झुकायेगा। और दोपहर अपने शिष्यों से कहेगा कि "ध्यान रखना, बुद्ध से सावधान रहना। और अगर मुंह में बुद्ध का नाम आ जाए, तो कुल्ला करके मुंह साफ कर लेना।'

जोशू ने कहा है कि "अगर ध्यान करते बुद्ध बीच में दिखाई पड़ जाएं, तो उठाकर तलवार, दो टुकड़े कर देना; खड़े मत होने देना--बुद्ध को ध्यान में खड़े मत होने देना।'

इस जोशू जैसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो बुद्ध के चरणों में सिर भी झुकाता है और जो यह भी कहता है कि बुद्ध को ध्यान में खड़े मत होने देना, तलवार उठाकर दो टुकड़े कर देना !

यह समझ गया है सार। यह न तो अंधानुकरण करता है और न अंध-विरोधी है। दोनों के मध्य चलता है। इसलिए सुबह फूल चढ़ाता है, सांझ इनकार भी करता है। शिष्यों को समझाता है कि नाम, शब्द--सभी अपवित्र हैं।

वेश्या का नाम ही अपवित्र नहीं है, बुद्ध का नाम भी अपवित्र है। क्योंकि जब शब्द मुंह में आता है तो मन आ गया। जहां मन आया, वहां अपवित्रता आ गई। जब कोई शब्द भीतर नहीं उठता, तो मन शून्य होगा। जहां शून्य है, वहीं पुनीत पवित्रता है। शून्यता एकमात्र पवित्रता है।

तो तुमने अगर मन में दोहराया: "बुद्धं शरणं गच्छामि--मैं बुद्ध की शरण जाता हूं'--तो शब्द आ गया, मन निर्मित हो गया।

कौन दोहरा रहा है यह? आत्मा कुछ भी नहीं दोहराती। चेतना कोई पुनरुक्ति नहीं करती। यह तो मन ही दोहरा रहा है।

कौन कह रहा है: "बुद्धं शरणं गच्छामि?--यह कौन बुद्ध की शरण जा रहा है? यह तुम हो या तुम्हारा मन हैं? अगर तुम जरा ही खोजबीन करोगे तो पा लोगे कि यह तुम्हारा मन है। और मन अपवित्र है।

शब्द बदलने से कुछ भी नहीं होता है। तुम "वेश्या' कहो या "बुद्ध' कहो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम गाली दो कि मंत्र पढ़ो, कोई फर्क नहीं पड़ता है। मन दोनों तरफ से आ जाता है। मन शब्द के साथ ही प्रवेश कर जाता है। और जहां मन आया--जोशू कहता है--मुंह साफ कर लेना। भूल मत जाना। और प्यारे शब्दों के साथ बड़ा खतरा है, और शब्दों का बड़ा खेल है।

मैंने सुना है: एक सम्राट गरीबों की पीड़ा से बहुत परेशान था। थोड़े से लोग समृद्ध थे, सारा राज्य गरीब था। दूध नहीं मिलता, मक्खन नहीं मिलता; गरीब को छाछ से ही गुजारा करना पड़ता। उसने अपने बुद्धिमानों को बुलाया और उनसे कहा, "कोई रास्ता निकालो, ताकि गरीब भी दूध पी सके।' बहुत सोचा बुद्धिमानों ने, लेकिन रास्ता क्या निकले? बुद्धिमान कितने जमाने से सोच रहे हैं, रास्ता निकला नहीं। और बुद्धिमानों ने बहुत उपाय किए, सब व्यर्थ गए । लेकिन पुराने जमाने में हर राजा के दरबार में एक मूर्ख भी राजा रखते थे--एक महामूर्ख भी रखते थे। यह बड़े मजे की बात है कि कई बार बुद्धिमान जो नहीं खोज पाता, वह मूर्ख खोज लेता है। क्योंकि बुद्धिमान सोचता ही रहता है; मूर्ख छलांग लगा जाता है।

कहावत है कि जहां बुद्धिमान चलने में डरते हैं, वहां मूर्ख आंख बंद करके प्रवेश कर जाता है। कभी-कभी वह पहुंच भी जाता है। कभी-कभी वह ऐसी चोट करता है कि बुद्धिमान तिलमिला जाएं। बुद्धिमान तो कुछ उत्तर न ला सके। उस मूर्ख ने एक दिन सुबह चिल्लाते हुए कहा, "मिल गया सूत्र; आ गई बात पकड़ में; निकाल लाया राज।' दरबार इकट्ठा हो गया। उन्होंने पूछा, "क्या हल तूने निकाला है?' उसने कहा, "बड़ी सरल तरकीब है। कल से हर आदमी दूध पीएगा।' राजा भी चकित हुआ; उसने कहा, "एक छोटी-सी बात है। एक फरमान निकाला जाए कि अब से छाछ दूध कहा जाएगा, दूध छाछ कही जाएगी। इतनी-सी बात है। हर गरीब दूध पाएगा, हर अमीर छाछ पीएगा। जरा-से एक फरमान की जरूरत है ;  नाम बदल देने की जरूरत है।  इसमें इतना परेशान होने की बात ही कहां है!'

और जिंदगी में अक्सर हम इसी मूर्ख की सलाह मानकर चलते हैं--नाम बदल लेते हैं, शब्द बदल लेते हैं। शब्द बदल लिए और सोचते हैं कि सब हल हो गया!

कल संसार के शब्द चलते थे, आज धर्म के शब्द चलने लगे। सोचते हैं: "सब हल हो गया!' लेकिन शब्द बदलने से न तो दूध छाछ होता है, और न छाछ दूध होती है। शब्द बदलने से मन आत्मा नहीं हो जाता। शब्द बदलने से मन, मन ही रहता है। जोशू यही कह रहा है।

जोशू सचेत कर रहा है। पर बड़ी बारीक है बात। कह रहा है कि बुद्ध के पास तो जाना, लेकिन सावधान रहना कि कहीं बुद्ध को कारागृह न बना लो। इसके पहले कि बुद्ध कारागृह की तरह तुम्हें घेरने लगें--बुद्ध तुम्हें नहीं घेरते हैं, तुम्हीं--घिरते हो। इसके पहले कि तुम बुद्ध की जंजीरें अपने हाथ में डाल लो--भाग खड़े होना।

और जब बुद्ध से इतना खतरा है, तो बुद्धओं से कितना होगा?

जब जोशू कह रहा है: बुद्ध के पास से भाग खड़े होना तत्क्षण, तो जो बुद्ध नहीं है, उनके तो पास ही मत जाना। क्योंकि बुद्ध तो तुम्हें सचेत भी करेंगे; जब उनका कारागृह बनाने लगोगे, तो तुम्हें चेतायेंगे, वे तुम्हें समझायेंगे। 

- "ओशो "
Sahaj Samadhi Bhali - 10

शब्द का मूल्य ही कुछ नहीं -Osho

शब्द का मूल्य ही कुछ नहीं है। शब्द काम-चलाऊ है, उपकरण है। एक दूसरे से बात करने के लिए उपयोगी है। और ध्यान रहे, अगर अस्तित्व से बात करनी हो तो शब्द बिलकुल उपयोगी नहीं है, बाधा है। वहां निशब्द उपयोगी है।

आदमी से बात करनी हो तो शब्द उपयोगी है, शब्द माध्यम है। आकाश से बात करनी हो तो शब्द माध्यम नहीं है। वृक्षों से बात करनी हो, तो शब्द माध्यम नहीं है। तारों से बात करनी हो, तो शब्द माध्यम नहीं है। और अगर तारों के साथ भी तुम शब्दों का उपयोग करो, तो तुम पागल हो। क्योंकि तुम अकेले ही बोल रहे हो। वह एकालाप है--मोनोलॉग है, डायलॉग नहीं है। वहां कोई संवाद नहीं हो रहा है; दूसरी तरफ से कोई उत्तर नहीं आ रहा है।

लेकिन अगर तुम चुप हो जाओ, तो तारे बोलते हैं, अगर तुम चुप हो जाओ, तो आकाश भी बोलता है। अगर तुम चुप हो जाओ, तो कंकड़-पत्थर भी बोलते हैं--लेकिन चुप हो जाओ तब।

जीसस ने कहा है: "तोड़ो लकड़ी को, तुम मुझे वहां मौजूद पाओगे।' उठाओ पत्थर को, तुम मुझे वहां छिपा पाओगे।' लेकिन तुमने कई बार लकड़ी तोड़ी है और जीसस वहां मिले! और तुमने कई बार पत्थर उठाया, और सिर्फ गङ्ढा हो जाता है; कोई जीसस वहां नहीं मिलते। क्योंकि तुम शब्द से भरे हो। अगर तुम पत्थर उठाओ और तुम मौन हो, तो जीसस ठीक कहते हैं, तुम्हें वे वहां मिल जाएंगे।


परमात्मा के लिए किसी मंदिर में जाने की जरूरत नहीं है। तुम जहां मौन हो गए, वहीं वह मौजूद है। वह हर घड़ी मौजूद है।

अस्तित्व पूरे समय बोल रहा है, पल-पल उसकी वाणी गूंज रही है। वह निनाद हो ही रहा है। तुम चुप नहीं हो; तुम शब्दों से भरे हो। तुम्हारी खोपड़ी का एक ही रोग है कि तुम शब्द, शब्द और उनकी भीड़ खड़ी किए जाते हो। तुम चुप होना नहीं जानते। उसी से तुम चूक रहे हो।

फिर लोग हैं, जो बाजार से भरे हैं, दुकान से भरे हैं। वे मंदिर जाते हैं। वे वहां भी कहते हैं, "कोई मंत्र दे दो।'
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, "कोई मंत्र दे दें।' मैं उनसे पूछता हूं, "मंत्र से क्या करोगे? मंत्रों से तो तुम भरे ही हुए हो। तुम अब मौन सीखो।' वे कहते हैं, "मौन तो मुश्किल है। मंत्र आप दे दें, तो हम रटते रहेंगे।'

मंत्र आसान है। क्योंकि मन उस काम को भलीभांति जानता है। वह मन के विपरीत नहीं है। पहले कुछ और रटता था: "रुपया, रुपया, रुपया।' अब रटता है: "राम, राम, राम।' फर्क कुछ नहीं है। दुकान पर बैठा रटता रहता था, अब मंदिर में बैठकर रटता रहता है। रटन जारी है। मन चुप नहीं होता।

एक बीमारी को छोड़कर तुम दूसरी पकड़ लेते हो। पहले खाते वगैरह में आंखें गड़ाए रहे, अब गीता, कुरान, बाइबिल में आंखें गड़ाए रखते हो। लेकिन शब्द से छुटकारा नहीं हुआ। और जब तक शब्द से छुटकारा न हो जाए, तब तक सत्य से कोई मिलन नहीं है।

जब तुम पैदा नहीं हुए थे, तब तुम कौन-सी भाषा जानते थे? तब भी तुम थे--निर्भाषा में, मौन में। जब तुम मरोगे, तब तुम्हारी सब भाषा यहीं छूट जाएंगी; तुम्हारे शब्द सब यहीं बिखर जाएंगे। तुम फिर खाली होकर जाओगे।

खाली तुम आए, खाली तुम जाते हो। बीच में थोड़ी देर के लिए शोरगुल है। काश, तुम बीच में खाली होना सीख लो, तो तुम्हें ध्यान आ गया।


 - "ओशो"....
Sahaj Samadhi Bhali - 10

Shrunken Heart and expended mind - Osho


Mind & Heart


Whenever you are trusting, you will be relaxed, and whenever you allow any doubt, you will become tense in the heart -- because the heart relaxes with trust and shrinks with doubt.

Ordinarily people are not aware of it. In fact they continuously remain shrunk and contracted at the heart, so they have forgotten how it feels to be relaxed there. Knowing no opposite, they think that everything is okay, but out of one hundred persons, ninety-nine live with a contracted heart.

The more you are in the head, the more the heart contracts. When you are not in the head, the heart opens like a lotus flower... and it is tremendously beautiful when it opens. Then you are really alive and the heart is relaxed. But the heart can only be relaxed in trust, in love. With suspicion with doubt, the mind enters. Doubt is the door of the mind. It is like bait. You go fishing and you put out bait. Doubt is the bait for the mind.

Once you are caught in doubt, you are caught with the mind. So when doubt comes, even if it comes, then too it is not worth it. I'm not saying that your doubt is always wrong; that I'm not saying. I'm the last person to say that. 


Your doubt may be perfectly right, but then too it is wrong because it destroys your heart. 

It is not worth it. 

Osho
A Rose is a Rose is a Rose
Chapter #3
Chapter title: None
30 June 1976 pm in Chuang Tzu Auditorium




( Surrender  to whom !   not less than  entity , Love to whom ! Not settle   in wont , in  elements , surely  you can make gate  to elements , thats  why you take birth on Earth in Human body  but don't   agree  to accept  less than  the Source  of main center . under the feeling  of trust  and gratitude , give your heart flower to not less than thy , and compassion and happiness  will sure follow  you. Om pranam )  

चौथा आदमी - - "ओशो"


नीचे यहाँ  ओशो  ने तीसरे  से  अपनी बात कही , शायद प्रथम वो है  जो बाह्य गामी  है , जिसके विचार  निर्णय  सुख दुःख  सब  बाहर को  मुंह किये हुए है।  और दूसरे  श्रेणी में वो व्यक्ति है  जिन्होंने  अंतरयात्रा का आरम्भ कर दिया है ,  तीसरे आदमी तक आते आते  सब धर्म लुप्त हो जाते है , सिर्फ एक दृष्टि बचती है , और इसीसे भी एक कदम आगे  छलांग है उस तुरिया में स्थित  बुद्ध  बुद्धि की। और  इसी  श्रृंखला में एक कोण पांचवी  ऊर्जा  का बचता है , जो समग्र है ,  जहाँ व्यक्ति शब्द  बचता ही  नहीं  जिसमे बुद्ध व्यक्ति भी विलीन हो जाता है  सम्पूर्ण एकात्मकता के साथ और ये  मृत्यु  पश्चात की अवस्था नहीं , इसी जीवन की अवस्था है  जो  जीवन से परे  है ।
शुक्रिया ओशो , आभार


इसलिए ज्ञानी पुरुषों ने कहा है: जब तक तुम्हारी वासना है, तब तक तुम सत्य को न देख सकोगे। क्योंकि तुम रंगोगे; तुम्हारी वासना रंग देगी।

संस्कृत में जो शब्द है--वासना के लिए, वह बड़ा बहुमूल्य है। वह है--राग। और राग का एक अर्थ रंग भी होता है।
जब तक तुम्हारे मन में राग है, तब तक तुम्हारी आंखों में रंग है। वैराग्य तो उसी का फलित होगा, जिसकी आंखों के सब रंग खो जाएं।

विराग का अर्थ है--रंगहीन, रंगशून्य दृष्टि। जब तक तुम्हारी आंख में कोई भी वासना है, वही तुम्हारी आंख का रंग है। तुम उसी से देख रहे हो।

ब्रह्मचारी निकले रास्ते से, तो उसे पुरुष नहीं दिखाई पड़ते, सिर्फ स्त्रियां दिखाई पड़ती हैं। उसकी आंखों पर एक रंग है। तुम जो भी आंख में लिए हो, वही रंग तुम्हारे चारों तरफ प्रोजेक्ट होता है। इसको हमने माया कहा है।

तथ्य को रंगकर देखना माया हैतथ्य को तथ्य की तरह देख लेना ब्रह्म है। तब तुम बाजार से गुजरते हो, तुम्हारी आंखें खाली हैं। तब तुम चुनते नहीं। तब "जो है', वह तुम्हें दिखाई पड़ता है। तब तुम जगत में कुछ डालते नहीं। तुम सिर्फ साक्षी होते हो।

तथ्य न तो उदास करता है, न दुखी करता है, न प्रफुल्लित करता है। तथ्य केवल शांत कर जाता है। और शांति बड़ी अलग दशा है। वह अनुत्तेजना की स्थिति है। तब तुम ठीक संतुलित हो। न तुम यहां झुके हो, इस तरफ--दुख, उदासी। न झुके उस तरफ--प्रफुल्लता, सुख। तब तुम झुके ही नहीं हो; तुम बीच में खड़े हो; तुम संतुलित हो। इसको गीता में स्थितप्रज्ञ कहा है।

तब तुम्हारी चेतना ऐसे थिर हो गई है, जैसे किसी भवन में--जहां हवा का झोंका न आता हो--कोई दीया थिर हो जाए; दीए की ज्योति निष्कंप हो जाए।

तीसरे आदमी पर सब धर्म समाप्त हो जाते हैं; सब मंदिर, मसजिद, गुरुद्वारे--तीसरे आदमी पर समाप्त हो जाते हैं। और असली आदमी चौथा है--दि फोर्थ। वह जो चौथा--तुरीय है, वह जो चौथा आदमी है, वह जो बुद्ध-पुरुष है--खोज तो उसकी करना। वह परम लक्ष्य है। वहां तुम जैसे हो, वैसे ही बचोगे। संसार जैसा है, वैसा ही बचेगा--दो कोरे दर्पण हों।

किसी ने पूछा रिन्झाई को कि "जब तुम ज्ञान को उपलब्ध हुए तो तुम्हें कैसा लगा?' तो उसने कहा कि "जैसे एक दर्पण दूसरे दर्पण के समाने है और एक दर्पण दूसरे दर्पण की निर्मलता को प्रतिबिम्बित करता है। दूसरा पहले की निर्मलता को प्रतिबिम्बित करता है। निर्मलता अनंत गुना होती चली जाती है। क्योंकि एक दर्पण के सामने दूसरा दर्पण, चित्र कोई बनता नहीं है, निर्मलता ही प्रतिफलित होती है।

जिस दिन तुम चौथा आदमी हो जाओगे--तुम दर्पण की तरह कोरे, यह जगत भी दर्पण की तरह कोरा। और ये दोनों दर्पण एक दूसरे को प्रतिफलित करते हैं--करते चले जाते हैं। अनंतगुना निर्दोष, निर्मलता--अनंत अनंत होती चली जाती है। कहीं कोई रूप नहीं बनता, कोई आकृति नहीं बनती। यह अनंत गुना निर्मलता निराकार बन जाती है।

चौथे की खोज करना; वही खोज है; वही परम लक्ष्य है। लेकिन अगर चौथे को असंभव पाओ, तो पहले से राजी मत होना।

मंदिर के भी ऊपर जाना है। मंदिर कोई गंतव्य नहीं है। लेकिन घर से तुम मंदिर तक पहुंच जाओ, तो भी काफी है। फिर मंदिर को भी पार कर जाना है।

चौथा आदमी--उसके आसपास कोई धर्म निर्मित नहीं हो सकता। बुद्ध, महावीर, लाओत्से जैसा व्यक्ति--उसके आसपास कोई धर्म निर्मित नहीं होता है। सब धर्म इन तीन के आसपास कहीं बन जाते हैं।

वह चौथा आदमी निराकार जैसा है। तुम उसे समझ भी लोगे, फिर भी पकड़ न पाओगे। वह तुम्हारी मुट्ठी में नहीं आता है। वह परम स्वतंत्र है। लेकिन उसपर ध्यान रखना। ऐसा हो जाना है कि जहां न उदासी हो, न जहां क्रोध हो, न जहां प्रसन्नता हो--जहां ये सभी रोग छूट जाएं। जहां कोई भी तरंग न उठे। न आंसू बहें और न हंसना पड़े। जहां गहन सन्नाटा हो, शून्य हो, शांति हो--वही सम्यकत्व है। वही सम अवस्था है। वहीं तुम पूरे संतुलित हुए। वहीं बैलेंस आया। उस क्षण ही तुम इस संसार के बाहर हो जाते हो।

जैसे ही तुम संतुलित हुए, शांत हुए, तुम्हारी आंखें शून्य हुईं, तुम्हारा कोई राग न रहा, कोई रंग न रहा, तुम्हारी कोई व्याख्या न रही--सत्य प्रकट हो जाता है।

जिस दिन तुम व्याख्या-शून्य हो, उसी दिन सत्य प्रकट हो जाएगा। इसलिए कृष्णमूर्ति निरंतर दुहराते हैं: तुम किसी सत्य के सिद्धांत को लेकर सत्य के पास मत जाना। तुम कोई सिद्धांत लेकर मत जाना; क्योंकि सिद्धांत सत्य को विकृत कर देगा। तुम व्याख्या मत करना। तुम कोरे, नग्न, शून्य--उसके पास जाना।
यह चौथी ही ध्यान धारणा है। यह चौथी ही समाधिस्थ होने की कला है।

यह कहानी तुम्हारे बाबत है। यह चौथी ही समाधिस्थ होने की कला।

यह कहानी तुम्हारे बाबत है। और इस कहानी से पार जाना है--तभी तुम्हारा जो सार--जीवन का निचोड़ है, जो फूल है, जो सुगंध है, वह उठेगी। तभी तुम्हारा दीया जलेगा।

मुझसे पूछा तो इन तीनों को छोड़ना; चौथे की तलाश करना ; और ध्यान रहे, ये तीनों कितने ही सरल दिखाई पड़ते हों, बहुत कठिन हैं। क्योंकि तीनों झूठ हैं। झूठ से कठिन और कुछ भी नहीं हो सकता है। और वह चौथा कितना ही कठिन दिखाई पड़े, बहुत सरल है, सहज है; क्योंकि स्वभाव सहज ही हो सकता है। जो कबीर गुनगुनाते हैं: "साधो सहज समाधि भली'--वह चौथा सहज आदमी है। ये तीनों असहज हैं।

सहज का अर्थ है: जैसा तुम्हारा स्वभाव है, जिसमें कुछ भी न जोड़ना पड़े। जोड़ा कि असहज हुआ। रंग पोता कि असहज हुआ। जैसे तुम तुम्हारी नग्नता में हो--तुम्हारी दिगंबरत्व, तुम्हारी नग्नता--वही सहजता है, वही समाधि है।

इस कहानी को सोचना और इस कहानी के पार चलने की कोशिश करना।

- "ओशो"
Sahaj Samadhi Bhali - 09

Wednesday, 25 February 2015

Bhakti-Devotion/ Samarpan - Surrender - Osho ;I Am the Gate




I will call you near just to give you a taste of oneness, and if you can realize this even for a single moment, then you will never be the same again. This is a very patient effort -- very unknown, unpredictable. No one can say when the moment is near. Sometimes your mind is so tuned that you can feel the oneness. That is why I insist on meditation, because it is nothing but tuning the mind to such a peak that you can jump into the oneness.

Meditation to me means tuning of the mind toward oneness, opening of the mind toward oneness. This can only happen when your meditation has gone beyond you; otherwise it can never happen. If it is below you -- you are doing it, you are the controller -- then it cannot happen, because you are the disease. So I persuade you toward meditation in which, beyond certain limits, you will not be. Meditation will take you over. By and by you will be pushed. Of course you will begin the meditation, because there can be no other way. You will have to begin, but you will not end the meditation. You will begin, but you will not end it. In between, somewhere the happening will happen. The meditation will catch hold of you. You will be thrown, and meditation will come in. Then you will be tuned to the cosmos. Then you will be one.

Oneness is important, not relationship. Relationship is sansar, the world, and because of relationship we have to be born again and again. Once you have known oneness, then there is no birth, then there is no death. Then there is no one except you. All are included. You have become the cosmic. The individual must go before the oneness comes. The ego must go before the divine comes.

Ego is the source of all relationship. The world is the relationship. God is not a relationship, the divine is not a relationship. The divine is not selfness. This means you cannot become one with it. So a bhakta, a devotee, can never reach the cosmic, because he thinks in terms of relationship -- God the father, God the lover, God the beloved. He thinks in terms of relationship. He goes on thinking in terms of self and the other. He can never transcend the ego. This is something very subtle, because the devotee is always struggling to surrender. Devotion, the path of devotion, is the path of surrender. He is trying to surrender, but to someone.

If you try to surrender to someone, the other is there. And the other cannot exist if you are not; so you will go on existing in the shadows. You will forget yourself, but forgetting yourself is not surrender. You remember the divine so much that you cannot remember yourself now, but you are in the back, you exist in the shadows. Otherwise God cannot exist as the other.

So the path of devotion, as it exists, cannot lead you to the transcendental, to the cosmic, to the one. To me, it is not a question of surrendering to someone, it is just a question of surrendering the self -- not at someone's feet, just surrendering yourself. If there is no self, then you have become one.

The self can go on creating the seeds, it can go on creating the deception. And the greatest and most certain deception is that of the devotee and God -- a religious deception. Any deception which becomes religious can be dangerous, because you cannot even deny it. Even to deny it will create guilt. You will feel guilty to deny selfhood to the divine, but to the divine the selfhood is the projection of your self. The moment you are not a self, there is no self as far as God is concerned. The whole existence has become selfless. And when the whole existence has become selfless, then you are one with it.

Selflessness is the path.
Selflessness is the real devotion.
Selflessness is the authentic surrender.


So the problem is always of the self. Even if we think of liberation, moksha, we think of freedom of the self, not freedom from the self. We think that then we will be free. But then you cannot be free -- moksha is not the freedom of the self, it is freedom from the self. So I exist in a selflessness, in a flux, in a process of selflessness. Neither am I a self nor is anyone else a self.

Osho
I Am the Gate
Chapter #1
Chapter title: I am consciousness, I am freedom
14 April 1971 am in Bombay, India

Sunday, 22 February 2015

there’s always room for a .... (story of balls stone pebble sand liquid )

and i find this beautiful inspiring story  from net , saved it in my blog  and share  with you ! 

No matter life is hard  and difficult , there's always room for  a .........
A professor stood before his philosophy class with some items in front of him. When the class began, he picked up a very large and empty glass jar, and began to fill it with golf balls. He then asked the students if the jar was full, and they agreed that it was.
The professor then picked up a box of pebbles and poured them into the jar. He shook the jar lightly. The pebbles rolled into the open areas between the golf balls. He asked the students again if the jar was full. They agreed it was.
The professor next picked up a box of sand and poured it into the jar. Of course, the sand filled up everything else. He asked once more if the jar was full. The students responded with a unanimous, yes.
The professor then produced two cups of coffee from under the table and poured the entire contents into the jar, effectively filling the empty space between the sand. The students laughed.
His point from everything he did was that the jar represents your life. The Golf balls are the important things – family, partner, health, children – things that if everything else will be lost, they are the only once who will remains and still your life would still be full. The pebbles are the other things that matter like – job, house and car. While the sand is everything else meaning all the small stuff.
If you put the sand into the jar first, there is no room for the pebbles and Golf balls. If you spend all your time and energy on the small stuff, you will never have room for the things that are important. Always pay attention to the things that are critical to your happiness. Know your priorities because this will only result everything that will happen in your life. Take care of the Golf balls first – the rest are just pebbles and sand.

One of the students raised her hand and inquired what the coffee represented. The professor smiled.
“I’m glad you asked,” he said. “It just goes to show you that no matter how full your life may seem, there’s always room for a couple cups of drinks with a friend.

When things in your life seem almost too much to handle, when 24 hours in a day is not enough, remember the jar and the two cups of drink.


Everything that we do in life always end up in choosing which should we prioritize first and which we should treat as an option. We might not end up as successful or just living plainly, but we should know who will be there when everything goes down in your life and who will be there to stand up for you when life is a bit hard. Don’t ignore the important things, because these important things are the only one who can help you stand up and make everything go up.
ps: i find  after put in Balls -  stones - pebble - sand  and  poured  liquid inside  a jar , there is a  enough room for air  .  so no end of  space of hopes ... all  energy is frequencial  and frequencies  thinner  to move  to enter  anywhere ...  and Soul energy is thinnest . 

Saturday, 21 February 2015

Mind troubles ! (Mooji)

You say, 'Mind troubles me. Help me Mooji ! I don't want to believe my mind anymore.'

Sounds credible like this person is really hot for liberation.
But is this 'person' really true ?
If you want to overcome the mind, you have to also overcome the person.
They go together.
The person and thinking.
The person and striving.
The person and restlessness or discontentment.
The person and attachment.

The person and desire.
The person and practice.
The person and training.
All of this, they go together.

But the person itself also is observable.
So far we have been thinking the person observes everything.
You feel your starting point is the person.
Your starting point of the practise is–I am the person.
This ' I am the person belief' is even saying 'I am the supreme consciousness' while continuing to function as the person.
And it is this person that experiences a sense of being established in the Self but then it goes back out into the mind field, oscillating between the two continually.
'But when is all this going to stop?', it asks.
' When will I finally get this monkey off my back?'
But the monkey is not only on the back, the monkey is in the mind.
Remember, this oscillation is itself phenomenal.
You are the witness of this.
As this mist of misunderstanding clears, a deeper Awareness becomes obvious to Itself.
Now, you understand: But I am just here as the unmoving Seer.
I am not the person.
As the power of this seeing is felt, automatically, the umbilical cord to the psychological identity is cut.
The monkey vanishes without leaving even a banana skin in sight.
There remains only the expanse of pure Peace and undisturbed Being–the Supreme Self.


~ Mooji, India 2015

Friday, 20 February 2015

झील बन जाओ , Osho


एक बार एक नव युवक गौतम बुद्ध के पास पहुंचा और बोला “महात्मा जी, मैं
अपनी ज़िन्दगी से बहुत परेशान हूँ , कृपया इस परेशानी से निकलने का उपाय
बताएं।
बुद्ध बोले: “पानी के ग्लास में एक मुट्ठी नमक डालो और उसे पियो..।”

युवक ने ऐसा ही किया.।

“इसका स्वाद कैसा लगा.?” बुद्ध ने पुछा। 

“बहुत ही खराब, एकदम खारा” – युवक थूकते हुए बोला। 

बुद्ध मुस्कुराते हुए बोले: “एक बार फिर अपने हाथ में एक मुट्ठी नमक लेलो और मेरे पीछे-पीछे आओ।

दोनों धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे और थोड़ी दूर जाकर स्वच्छ पानी से बनी एक झील के सामने रुक गए।

“चलो, अब इस नमक को पानी में दाल दो बुद्ध ने निर्देश दिया।" युवक ने ऐसा ही किया.। “अब इस झील का पानी पियो”, बुद्ध बोले। युवक पानी पीने लगा, एक बार फिर बुद्ध ने पूछा: “बताओ इसका स्वाद कैसा है, क्या अभी भी तुम्हे ये खारा लग
रहा है. ?” “नहीं, ये तो मीठा है , बहुत अच्छा है ”, युवक बोला।

बुद्ध युवक के बगल में बैठ गए और उसका हाथ थामते हुए बोले: “जीवन के दुःख बिलकुल नमक की तरह हैं, न इससे कम ना ज्यादा। जीवन में दुःख की मात्रा वही रहती है, बिलकुल वही। लेकिन हम कितने दुःख का स्वाद लेते हैं, ये इस पर निर्भर करता है कि हम उसे किस पात्र में डाल रहे हैं।

इसलिए जब तुम दुखी हो तो सिर्फ इतना कर सकते हो कि खुद को बड़ा कर लो, ग़्लास मत बने रहो झील बन जाओ।

Osho

Innocent Common Query of Mind

Y : Oh mind , i can run from anyone but how can i run from you ? i can control all feelings cos of you , i can save with all unwanted only cos of you .... many time curiosity comes how can i jump over to you ? 

L : Ans is Very simple n short " Awareness , Alertness and Awakening " are the tools to control over unwanted running , with all three wild horses will walk on desired direction .

Can't escape , can't kill , can't rule over , all are attempt goes in vain. all life lead only through mind even heart also take help to mind to express well logically of bhava .

Just think wise ! what one can do while Pranayam ! while meditation ! what one can do while chakra sadhna ? while Introspection ! , and why good food is precious for body and soul during sadhna or before and after ! why one may moves narrow in veins of chakra to sort out of damage . and how it is possible ! cos of mind..... only the mind is who is allow to body for good or bad receivings ! it means ; to allow self is big task ! hold on this allow factor !

All is right ! why we missing over here ,' Krishna as Sarthi Arjun as Soul and Sarathi tightly hold the rope of seven horses ...'

Spirituality is the condition of mind where is poison not entered . the body become ashram and mind is prim-minister , and Soul is powerful King with Honest Prime-minister , which is further make strong ministry for best rule over body - kingdom . and those ministers are senses .

So you can not run from any minister of yours , if you think so , forget it , you get failed on very first step .

If soul is wise she will catch the pulse of Mind is only source who can control over all administration well .

So mind is here , senses is here , soul is here , body is here , all is here , only "my" horses are in "my" ( mind )control . I'm the Arjun ( I ) Of my Krishna (wisdom) as Sarathi and horses moves well !

And Dhyan is the prime source to encounter self - king of kingdom .

आस्था के स्वर

आज दिखने वाले  कर्म के कारण की शुरुआत पहले ही हो जाती है , लक्षण भी बाद में प्रकट होते है . अवस्था शारीरिक हो या आत्मिक , बीज बहुत पहले पड़ता है , पौधे का अंकुरण उचित समय पे ही होता है। 

ऐसा ही सुना है व्योमवासी-नियंत्रणकर्ता-नक्षत्र भी अपनी चाल से और चुंबकत्व ऊर्जा से हमारी शारीरक शक्ति और मानसिक उद्वेगों को नियंत्रित करते है। जो हमारे इस जन्म के कर्मो का कारण बनते है , प्रारब्ध और कर्मो का चक्र नक्षत्रीय कारणों से गुथमगुथा है। और मनुष्य के पास एक शक्ति है वो है केंद्र से संपर्क , जिसका माध्यम भी उसका अपना स्वयं का केंद्र है। बाकी सब शक्तियां उसी एक शक्ति से संचालित है। दोस्तों , कोई भेद और संशय है ही नहीं , नक्षत्रो के जीवन पे प्रभाव और और ये अन्धविश्वास नहीं की नक्षत्रो के चुम्बक शक्ति होती है , जो शरीर तत्व के द्वारा आत्माओं के कर्म और तत्जनित फल पे काबू करते है ( ये जरूर है की सब प्राकृतिक है , प्रकर्ति के अपने नियम है , ब्रह्माण्ड के अपने नियम है जो वैज्ञानिक रूप से वैज्ञानिको के अथक बौद्धिक प्रयास से प्रमाणित भी है ), अक्सर जब समय ठीक नहीं होता तो लोग कहते है की लगता है ग्रहों की चाल सही नहीं , और " विनाशकाले विपरीत बुद्धि " ऐसा भी कहा जाता है  की समय सही न हो तो  बुद्धि साथ नहीं देती।  ये समय क्या है ?  इसकी चाल  क्या है ? क्या ये  उस  नक्षत्रीय चाल के सूचक तो नहीं ?    
ये  सब कहने का और लिखने का इतना ही अर्थ है की , हर व्यक्ति के अंदर अच्छे बुरे गुणों और कर्मो का सामंजस्य है , जो जन्म से , संस्कार से प्रभावित है , और फिर बहुत कुछ नक्षत्रो की चाल हमें काबू में रखती है  पर कोई कोई भाव दशा इस कदर व्यक्ति के  मस्तिष्क को प्रभावित करती है  जो कर्म करने को प्रेरणा या धक्का देते है तब तक  जब तक वह जीव उस कर्म को करने को  प्रेरित न हो जाये , सारे तर्क उसी दिशा में  दौड़ने लगते है , जो उसको उसके कर्म की गुणवत्ता के प्रति  आश्वस्त करते है , पर परिणाम बताते है की  मन की प्रेरणा  से किया गया कर्म हर कर्म  सुफल देने वाला नहीं होता , और मन प्रेरित  होता है बुद्धि से  इक्छाओं से लोभ से  ( दौड़ का कारन कोई भी हो सकता है ) किन्तु फल भोगने का कारण देह ही बनती है , और  जो भी थोड़ा सा भी  खगोल ज्ञान रखते है   उनको  आभास होता है  की धरती पे उत्पन्न  जीवों को  कैसे  तारागण  अपने प्रभाव से प्रभावित करते है  , थोड़ा सा मैं आपसे  वो प्रभाव बाटना चाहती हूँ  विज्ञानं के सूत्रों से पता चलता है की  नक्षत्र  भी  कभी न कभी  समय के गर्त में  में अपने मूल से अलग हुए  टुकड़े है और ये भी तथ्य है की जो जिस पिंड से अलग हुआ  वो उसी के  चुंबकीय  प्रभाव  में  उसी की परिधि में घूम रहा है , और इस नाते हमारी धरती   जिसपे हम सब मानवीय जीवन भोग रहे है  वो सूर्य से अलग हुई है  और धरती से चंन्द्रमा टूट  के अलग हुआ  इसी प्रकार  जो चुंबकीय घेरे में आते है  वो हमारे नक्षत्र है जिनसे हमारा अटूट नाता  है चूँकि धरती का चुम्बक और नक्षत्रो का चुम्बक एक है  इसी कारन धरती पे  उत्पन्न जीव और  प्रकर्ति भी अलग अलग गुणरूप में इनसे प्रभावित होती है ,  ऋषि  मुनियों  के खगोलशास्त्र  ज्ञान से पाया गया  की  ऊर्जा का कारक सूर्य है  मंगल भी ऊर्जावान है  किन्तु   धरती से  दूर है इसीलिए काम प्रभावी है   इसी अनुसार  बृहस्ति नामक गृह  बुद्धि को काबू करता है , चन्द्रमा भावनाओ को ,  बुध   व्यक्तित्व को  और शुक्र सौंदर्य को , शनि और राहु छाया गृह है ,  इनका तात्पर्य  मात्र इतना है  की ग्रहों की चाल में  परिधि पे घूमते हुए ऐसे भी  घेरे बनते है जब  कुछ गारो ही छाया बनती है , उनका एक नाम शनि और राहु  दिया गया क्यूंकि इनका भी  जीव  जीवन पे प्रभाव है ,  माना  की  ग्रहों की अपार शक्ति के आगे अन्य जीव को तो ज्ञान ही नहीं  वो तो मात्र जीवन जी रहे है  किन्तु मनुष्य का जुड़ाव दिव्य है ,  मनुष्य नामके जीवधारी  की शक्ति सिमित है किन्तु  उसकी क्षमता असीमित और परम केंद्र से जुड़ती है , इसी लिए वो पुरुषार्थ  का अर्थ भी समझता है   इन सबके बाद भी वो मानता है की  पुरुषार्थ वही है , जो हार नहीं मानता पर कैसे ! 

अवश्य ही स्वयं के केंद्र पे विश्वास और प्रेम केंद्र  उसके प्रति परम आस्था  जिसने जन्म दिया , ये अटूट विश्वास  पूर्व निर्धारित कर्मो पे मरहम तो है , जो ध्यान के फलित होने से पूरा आभासित होता है।  बाकी सारे मध्यस्तो  को ज्ञानी ने ध्वस्त कर दिया।  गृह नक्षत्र प्रभाव  पूर्व कर्म  , प्रारब्ध  सभी एक साथ परास्त हो गए।  कैसे ?  की अब वो  हराने की चष्ट तो करते है  किन्तु  संयम  और धैर्य को नहीं तोड़ पाते  , नतीजा  ध्यानी  परम योग में स्थित  अप्रभावी रहता है।  

आप ये सब  माने या न माने ये आपके ऊपर है , आप सिमित बौद्धिक शक्ति और तर्क का सहारा ले सकते है , पर किसी के मानने या न मानने से , सत्य नहीं बदलता । वो अखंड है । इस नियम के तहत आप नक्षत्रो की चाल नहीं बदल सकते , विज्ञानं भी मात्र ज्ञान करता है  परिवर्तन उसके लिए भी संभव नहीं । किन्तु आध्यात्मिक स्तर  पे आपकी प्रार्थनाएं आपके अंदर शक्ति जरूर पैदा करती है। और आपका ध्यान आपके होने वाले कर्मो के प्रवाह को निर्धारित करता है , और इन दोनो तरफ के प्रयास से ही प्रचंड कर्म की समुद्री लहरे शांत होती है। इस कर्म और प्रारब्ध के चक्र को तोडना अत्यंत आवश्यक है। 

मैं खगोल विज्ञानं की सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता तो नहीं पर ध्यान में संकेत अवश्य मिले है , इसलिए  मेरे  ध्यान भाव आप वैज्ञानिक प्रमाणों से मिला सकते है , समझती हूँ ये अन्धविश्वास नहीं वरन एक अजब सी कशिश के साथ विश्वास है , 
नक्षत्रो का अपना खिंचाव है जो वैज्ञानिक भी है , प्रकर्ति के नियमों पे , ब्रह्माण्ड की शक्ति पे और अपनी नाल पे जो सीधा जुड़ती है परमात्मा के नाल से।  एक सूक्ष्म  सेल  केंद्र  युक्त उसी प्रकार है  जिसप्रकार धरती समेत  ब्रह्माण्ड  के तारागण  और ब्रह्माण्ड के केंद्र  की पुष्टि विज्ञानं करता है   इतना गहरा संयोग मात्र कल्पना नहीं हो सकता। हाँ ! कल्पना से शुरू जरूर होता है। जिसे ध्यानी का ध्यान कहते है। जो ध्यान समस्त बिखरे हुए विषयों को पहले एक जुट करता है और फिर एकमय कर  एक माला में पिरो  देता है। इस अवस्था में सिर्फ एक ही विषय समग्र रूप से उपस्थित होता है वो है ओम का स्वर ,जहां से सभी विषय शुरू होते है और समाप्त भी यहीं पे होते है ओम का स्वर समग्रता से गुंजित होते ही आप पूर्ण रूप से तैयार हो जाते है उस केंद्र से मिलने के लिए , वर्ना खंडित ज्ञान आपके मस्तिष्क के अधीन  तर्क की भाषा से दबा हुआ  खंड खंड ही रहता है , और आपके समग्र होने का इन्तजार करता है । 

इतना सब लिखने का मेरा उद्देश्य मात्र इतना है की आप अपने केंद्र की शक्ति को पहचाने , ना की छोटे मोटे उपाय सुन के अपना दिल बहलाएं। यदि आपका विश्वास बहिर्मुखी होके आचार्य विद्वानो के चरणो में गिरता है और आप अपने धन के बदले थोड़ा सा उपाय ले के संतुष्ट है , तो मेरे लेख का कोई अर्थ नहीं , कित्नु यदि आपका विश्वास जागता है , आपके केंद्र से उस केंद्र तक जुड़ता है , तो मैं धन्य हुई। हमेशा मूल मन्त्र याद रखियेगा " आपो गुरु आपोभवः "

Om Naman

The story of King and his mad public - Osho

Kahlil Gibran has a beautiful story:- 

In an ancient village there were two wells. One was in the palace, which was not available for anybody else than the royal family, and the other well was in the marketplace, which was available for everybody else except the royal family.

But one day a witch came into the town, and she chanted some gibberish and threw something inside the well. People watched but they could not understand what was happening. But by the time the sun was setting, everybody had drunk water from the well -- except the royal family -- and everybody had gone mad. The whole capital was mad, from the smallest child to the oldest man -- except the king and the queen and the prince.

And a strange thing happened .... The whole crowd gathered around the palace and they started shouting that the king has gone mad. They were all mad, obviously, and they all agreed on the point that "The king does not seem to be the same as we are."

The king immediately asked his prime minister what to do. "Even our armies have gone mad. They are all dancing and they are asking, `Come out of the palace! We will choose a new king who is sane just like us!'"

The prime minister was very old, an ancient wise man. He told the king, "The only way is to run from the back door. I will keep them engaged at the front door, telling them that `I am bringing the king, he is getting ready.' You run to the well that they have been drinking the water from. Drink the water -- you, your wife, your son -- and you all get drunk. Unless you are mad this crowd is going to kill you!"

The advice was absolutely correct. The king and his family ran from the back door, drank quickly the water of the well that the witch had changed with a certain alchemical phenomenon. They did not come to the back door, they came dancing and rejoicing to the front gate, and the crowd was very happy that their king had become sane.

That night there was a great festival in the capital. "Our king, our queen, our future king -- all have become sane!"

The crowd is living so unconsciously. You cannot expect from this crowd any act of virtue, any act of unselfishness. It is simply not possible. It is categorically impossible. First comes meditation, then everything else follows.

The Beautiful story narrate by Osho

Om Pranam

Thursday, 19 February 2015

आशा - आत्महत्या : कोई ज्ञानी आत्महत्या नहीं कर सकता - Osho


-: आशा - आत्महत्या  लेख ( सारांश ):- 

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आत्महत्या मृत्यु से भी आशा बांधने का नाम है। और ज्ञानी कहते हैं: तुम जीवन से भी आशा छोड़ देना। 
और अज्ञानी कहते हैं: मृत्यु से भी तुम आशा बांधे रखना।...........................................................बुद्ध ने अपने पूरे धर्म को चार हिस्सों में विभाजित किया है। वे ये चार हिस्से हैं।

पहला धर्म है--दुख को जानना। दूसरा धर्म है--दुख के कारण को पहचानना। तीसरा धर्म है--दुख के निरोध की संभावना को जानना। और चौथा धर्म है--दुख-निरोध के जितने उपाय हैं, उनकी साधना। इन चार चरणों में, बुद्ध कहते हैं, पूरा धर्म समाहित हो जाता है। 

इसलिए इनको उन्होंने चार आर्य-सत्य कहा है। आर्य का अर्थ है: श्रेष्ठ। इनसे ऊपर कोई सत्य नहीं है।

लेकिन मैं कहता हूं कि एक और भी सत्य है, जो इन चारों के पूर्व है। मैं पांचवां सत्य भी देखता हूं और यह पांचवां इन चारों के पूर्व है। वह न हो तो ये चारों भी नहीं रह सकते। 

पांचवां या प्रथम आर्य-सत्य है--दुख के प्रति मूर्च्छा

तुम्हारी संख्या बड़ी है। बुद्धों की कोई संख्या नहीं है। तुम्हारी भीड़ महान है, अनगिनत है। तुम एक दूसरे की भ्रांति को मजबूत करते हो। 

बुद्ध की आवाज जैसे शून्य में खो जाती है .... 

Osho 
Sahaj Samadhi Bhali - 07






तुम में और बुद्ध में क्या फासला है! जरा-सा फासला है।..............

मैं निरंतर कहता हूं: "वर्तमान में जीओ।' 

लेकिन यह बात थोड़ी गलत है।.................

आदमी अदभुत है। जीवन में तो आशा रखता ही है; मौत में भी आशा रखता है। इसलिए तो लोग आत्महत्या करते हैं। आत्महत्या मौत से भी आशा बांधनी है। आत्महत्या का अर्थ है: मौत से भी हम कुछ आशा रखते हैं। दुख से छुटकारा हो जाएगा; इस जिंदगी का अंत होगा। शायद इससे कुछ बेहतर शुरू हो। इससे बुरा तो कुछ हो नहीं सकता।

आत्महत्या मृत्यु से भी आशा बांधने का नाम है। और ज्ञानी कहते हैं: तुम जीवन से भी आशा छोड़ देना। और अज्ञानी कहते हैं: मृत्यु से भी तुम आशा बांधे रखना।

इसलिए कोई ज्ञानी आत्महत्या नहीं कर सकता। ज्ञानी जीने तक को तैयार नहीं है, मरने को क्यों तैयार होगा! ज्ञानी की कोई आशा नहीं है। उसे जीवन का सत्य जैसा है, वैसा दिखाई पड़ गया है। इससे लगता है कि ज्ञानी दुखवादी है, जो कि भ्रांति है।

पश्चिम में बुद्ध को लोग पेसिमिस्ट समझते हैं--निराशावादी समझते हैं, जो गलत है। बुद्ध निराशावादी नहीं हैं। ज्ञानी दुखवादी नहीं है; केवल तथ्यवादी है। ऐसा है।

बुद्ध जीवन में दुख को "देख' नहीं रहे हैं; दुख जीवन में है। कुशल तो तुम हो कि जहां दुख है, वहां तुम सुख देख रहे हो! तुमने कोई इंतजाम किया हुआ है; तुमने कोई मानसिक ढांचा बनाया है कि दुख बाहर ही रुक जाता है। दुख भीतर तक नहीं आ पाता।
मैंने सुना है: एक फकीर यात्रा कर रहा है--एक जहाज से। तूफान आया बड़ा; नाव डूबने को होने लगी। अब डूबी, तब डूबी। सारे नाविक घुटने टेककर परमात्मा से प्रार्थना करने लगे। सिर्फ वह फकीर चुपचाप खड़ा रहा। आखिर कप्तान को क्रोध आ गया। उसने कहा, "तुम क्यों खड़े हो? धार्मिक आदमी होकर तुमसे इतना भी नहीं बनता कि तुम प्रार्थना में सम्मिलित हो जाओ?' उसे फकीर ने कहा, "यह नाव क्या मेरे बाप की है? जिसकी है: वह फिक्र करे।'

अजीब लगता है उसका वक्तव्य। लेकिन बड़ा सोचने जैसा है।

कप्तान ने सीधा कहा, "न हो नाव तुम्हारी, लेकिन डूबोगे तो तुम भी?' उस फकीर ने कहा, "जिसको समझ में आ गया है कि नाव मेरी नहीं है, वह कभी डूबता नहीं। "मेरापन' ही डूबता है। न नाव मेरी है, न शरीर मेरा है, न जीवन मेरा है। जिसकी हो वह रोये, चिल्लाये, प्रार्थना करे। हम कुछ बचाने को उत्सुक नहीं हैं। क्योंकि बचाने योग्य कुछ है भी नहीं। हम राजी हैं; जो हो जाए।'

आशा के दो रुख हैं। जो है--आशा उससे तुम्हें कभी राजी नहीं होने देती। और जो नहीं है और जो कभी नहीं होगा, उसका भ्रम बनाए रखती है।

आशा टूटते से ही धार्मिक व्यक्ति का जन्म होता है। आशा खोयी आंख से कि आंखें निर्मल हो जाती है। और दिखाई पड़ने लगता है, वह--जो है।

बुद्ध ने कहे हैं--चार आर्य-सत्य: दुख, दुख का कारण, दुख-निरोध और दुख-निरोध का मार्ग। पहला, कि जीवन में दुख है। दूसरा, कि दुख अकारण नहीं है। क्योंकि जो अकारण हो, उसको मिटाया नहीं जा सकता है।

अगर कोई दीया बिना बाती, बिना तेल के जल रहा हो, तो तुम उसे बुझा नहीं सकते हो! हां, अगर तेल बाती से जल रहा हो, बुझा सकते हो। तेल हटा लो, बुझ जाएगा। लेकिन अगर कोई दीया "बिन बाती बिन तेल' जल रहा हो, फिर तुम उसे कैसे बुझाओगे? जिस आग के जलने का कारण न हो, उस आग को बुझाने का उपाय भी न होगा। "अकारण' को मिटाया नहीं जा सकता है।

बुद्ध कहते हैं: "लेकिन दुख का कारण है, इसलिए भयभीत मत हो जाओ। दुख का कारण है और दुख मिटाया जा सकता है।

दुख-निरोध की स्थिति, ऐसी चेतना की स्थिति है, जहां दुख नहीं होता। क्योंकि यह भी हो सकता है कि तुम एक दुख मिटाओ, लेकिन दुख-निरोध की स्थिति बनती ही न हो। तो दूसरा दुख पैदा होगा--तीसरा दुख पैदा होगा। तुम एक दीया बुझाओ, दूसरा पैदा होगा। तुम तीसरा बुझाओ, चौथा पैदा होगा। तो बुद्ध कहते हैं कि ऐसी भी चेतना की अवस्था है, जहां दुख नहीं होता। इसलिए दुख मिटाया जा सकता है और निर्दुख की अवस्था में रहा जा सकता है। और दुख-निरोध का मार्ग है। और वह रास्ता भी है, जिससे कारण समाप्त किए जाते हैं, उसकी जड़ें काटी जाती हैं।

बुद्ध ने अपने पूरे धर्म को चार हिस्सों में विभाजित किया है। वे ये चार हिस्से हैं। पहला धर्म है--दुख को जानना। दूसरा धर्म है--दुख के कारण को पहचानना। तीसरा धर्म है--दुख के निरोध की संभावना को जानना। और चौथा धर्म है--दुख-निरोध के जितने उपाय हैं, उनकी साधना। इन चार चरणों में, बुद्ध कहते हैं, पूरा धर्म समाहित हो जाता है। इसलिए इनको उन्होंने चार आर्य-सत्य कहा है। आर्य का अर्थ है: श्रेष्ठ। इनसे ऊपर कोई सत्य नहीं है।

लेकिन मैं कहता हूं कि एक और भी सत्य है, जो इन चारों के पूर्व है। मैं पांचवां सत्य भी देखता हूं और यह पांचवां इन चारों के पूर्व है। वह न हो तो ये चारों भी नहीं रह सकते। पांचवां या प्रथम आर्य-सत्य है--दुख के प्रति मूर्च्छा।

वही भेद है--बुद्ध में और तुम में।
तुम में और बुद्ध में क्या फासला है! जरा-सा फासला है। जो बुद्ध देख रहे हैं, वह तुम नहीं देख रहे हो। जो बुद्ध को दिखाई पड़ता है, वह तुम्हें सुनाई भी पड़ जाए तो भी दिखाई नहीं पड़ता। तुम सुन भी लो, समझ भी लो, फिर भी पकड़ में नहीं आता; फिर भी तुम्हारा अपनी प्रत्यभिज्ञा नहीं बनती, तुम्हारी पहचान उससे निर्मित नहीं होती।

क्या कारण है कि बुद्ध चिल्लाये चले जाते हैं और तुम नहीं सुन पाते? शायद तुम्हारी आंख पर कोई परदा है, जिसके कारण जो भी तुम देखते हो, वह विकृत हो जाता है। जैसे पीलिया का मरीज होता है, उसे सब पीला दिखाई पड़ने लगता है।

मेरे दादा निरंतर कहा करते थे कि "सावन के अंधे को हरा-हरा सूझता है।' सावन में अगर कोई अंधा हो जाए, तो फिर उसे जिंदगी भर हरा-हरा ही सूझता है। क्योंकि सावन का वह हरापन आंखों में रह जाता है; और आंख बंद हो गई।

जिंदगी में हमें जो हरा-हरा सूझता है, उसके सूत्र को अगर समझ लें, तो बुद्ध में और तुम में क्या अंतर है, वह साफ हो जाएगा। अंतर जरा-सा है। जैसे कोई सोता हो और कोई जगता हो; बस उतना ही अंतर है।

तुम्हें दुख दिखाई नहीं पड़ रहा है। बुद्ध को सिवाय दुख के कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा है। तुम्हारी संख्या बड़ी है। बुद्धों की कोई संख्या नहीं है। तुम्हारी भीड़ महान है, अनगिनत है। तुम एक दूसरे की भ्रांति को मजबूत करते हो। बुद्ध की आवाज जैसे शून्य में खो जाती है।

किसी ने जॉन बैप्टिस्ट को पूछा कि "तुम कौन हो?' बप्तिस्मावाले जॉन ने ही जीसस को दीक्षा दी थी। वह जीसस का गुरु था। उसने जीसस को बप्तिस्मा दिया, इसलिए वह जॉन बप्तिस्मावाला कहलाता था। वह अनूठा फकीर था। उससे किसी ने पूछा कि "तुम कौन हो? क्या तुम वही मसीहा हो, जिसके आने का शास्त्रों में उल्लेख है?' उसने कहा कि "नहीं, मैं तो सिर्फ सूने रेगिस्तान में गूंजती हुई एक आवाज हूं। जस्ट ए वायस इन वाइल्डरनेस। बस, एक आवाज--जंगल में गूंजती हुई।' बड़ा ठीक उत्तर दिया। बुद्धों की आवाज जंगल में गूंजती हुई आवाज है। कोई सुननेवाला नहीं है। लोग सुन भी लेते हैं, तो फिर, अपने रास्ते पर चले जाते हैं। उनके चलने से पता चलता है कि वे चूक गए; उन्होंने सुना नहीं।

आंख पर कोई ऐसा परदा है कि हर चीज को विकृत कर जाता है! बुद्ध की बात को सुनकर उसको भी हम विकृत कर लेते हैं। जब हम सुनते हैं: "जीवन में दुख है', तो तत्क्षण हमारे मन में यह आशा बंधती है कि शायद बुद्ध के पास हमें कोई उपाय मिल जाए, जिससे जीवन का दुख मिट जाए। तत्क्षण हम बुद्ध के चरण पकड़ लेते हैं कि "बताओ मार्ग, जीवन का दुख मिट जाए।'

दुख को मिटाने का कोई मार्ग नहीं है। वस्तुतः दुख मिटाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारी आशा टूट जाए, तो आशा के साथ ही सुख-दुख सब विलीन हो जाते हैं।

आशा के दो पहलू हैं--भविष्य में सुख और अभी दुख। जैसे ही आशा टूटी कि भविष्य का सुख खो जाता है और अभी का दुख खो जाता है। क्योंकि जो तुम्हें दुख दिखाई पड़ता है, वह इसीलिए तो दुख दिखाई पड़ता है, क्योंकि तुमने सुख के कोई सपने संजो रखे हैं; उनकी तुलना में ही, उनकी अपेक्षा में ही दुख है।

तुम्हारे सभी दुख तुम्हारे सुख की अपेक्षा से निर्मित होते हैं। इसलिए जितनी बड़ी अपेक्षा, उतना दुखी आदमी। जिसकी कोई अपेक्षा नहीं, उसका कोई दुख नहीं। लेकिन तुम बुद्ध को सुनकर फिर सुख के सपने बनाते हो। तुम बुद्ध से भी सपना निकाल लेते हो। तुम बुद्ध को भी अपने नींद की दवा बना लेते हो। तुम बुद्ध से भी पूछते हो, "बताओ रास्ता--सुख को पाने का।'

और ध्यान रहे: बुद्ध केवल तुम्हें दुख को देखने का रास्ता बता सकते हैं। सुख को पाने का कोई सवाल ही नहीं है। जिस दिन तुम दुख देखें लेते हो, जिस दिन कोई सुख तुम्हें लुभाता नहीं है; जिस दिन तुम लोभ की वृत्ति से मुक्त हो जाते हो और जान लेते हो कि सब भ्रांति है, जिस दिन तुम दुख के लिए राजी हो जाते हो, उसी दिन दुख विसर्जित हो जाते हैं।

दुख इतना घना होता है कि तुम्हें जगा देता है। एक आदमी की सर्जरी करनी हो अस्पताल में, तो हमें उसे बेहोश करना पड़ता है। बेहोश करके फिर हड्डी-पसलियां काटो, हाथ-पैर तोड़ो, हृदय खोलो, उसे कुछ पता नहीं चलता। वह इतना बेहोश है कि दुख पता नहीं चलता।

बेहोशी दुख को झेलने में समर्थ बनाती है। और जितना बड़ा दुख झेलना हो, उतनी बड़ी बेहोशी चाहिए। अन्यथा बीच में टूट जाए बेहोशी, तो कठिन हो जाए। बड़े दुख के लिए बड़ी बेहोशी चाहिए और छोटे दुख के लिए छोटी बेहोशी। और अगर बिलकुल दुख न झेलना हो, तो पूर्ण होश चाहिए।

होश आते ही जैसे सारे जीवन का रूपांतरण हो जाता है। जहां कल दुख दिखाई पड़ता था, जहां कल सुख दिखाई पड़ता था, वे दोनों एक साथ खो जाते हैं। धूप-छांव दोनों एक साथ खो जाते हैं; रह जाते हो तुम--अकेले। और तुम्हारा वह अकेलापन ही मुक्ति है। तुम्हारे उस अकेलेपन में ही आनंद की वर्षा होती है। तुम्हारे उस अकेलेपन में ही अमृत का पहली बार अनुभव होता है।

जिस दिन कोई आशा नहीं--भविष्य की, उसी दिन वर्तमान की कोई पीड़ा नहीं; भविष्य और वर्तमान एक साथ समाप्त हो जाते हैं।

मैं निरंतर कहता हूं: "वर्तमान में जीओ।' लेकिन यह बात थोड़ी गलत है। लेकिन तुम गलत हो और तुमसे गलत भाषा में बोलना पड़ता है। तुमसे मैं कहता हूं: "वर्तमान में जीओ।' लेकिन कभी तुमने पूछा नहीं, सोचा भी नहीं कि अगर भविष्य नहीं है और अतीत भी जा चुका है और भविष्य अभी आया नहीं, तो वर्तमान कैसे हो सकता है! नदी का "वह' किनारा भी नहीं है, नदी का "यह' किनारा भी नहीं है, तो बीच का सेतु कैसे खड़ा हो सकता है! यह जो वर्तमान का क्षण है, यह हो ही तब सकता है, जब अतीत का क्षण इसे पीछे से सम्हालता हो। और भविष्य का क्षण इसे आगे से सम्हालता हो। दो किनारे हों--अतीत और भविष्य के, तो वर्तमान का सेतु होगा।

तुमसे मैं निरंतर कहता हूं: वर्तमान में जीओ, लेकिन जिस दिन तुम जीओगे, उस दिन अतीत और भविष्य तो खो ही जाएंगे, वर्तमान भी खो जाएगा। क्योंकि जब किनारे ही न रहे, तो बीच का सेतु कैसे रहेगा; उस दिन अचानक तुम पाओगे, कि समय खो गया। इसलिए ज्ञानियों ने कहा है कि समाधि कालातीत है। वह वर्तमान में भी नहीं है, क्योंकि वर्तमान तो अतीत और भविष्य के ही बीच की लकीर है।

अगर अतीत और भविष्य दोनों झूठ हैं, तो वर्तमान भी झूठ है। और मध्य कैसे बच सकता है, जब दोनों छोर खो जाएं! मध्य कहां बचेगा? दोनों छोर के खोते ही मध्य भी खो जाता है।

जिस दिन तुम भविष्य की आशा नहीं रखते, जिस दिन तुम अतीत की स्मृति नहीं सम्हालते, उस दिन तुम वर्तमान में रहोगे, यह कहना गलत है। क्योंकि वर्तमान भी नहीं बचेगा। उस दिन तत्क्षण समय खो जाएगा; तुम समयातीत हो जाओगे। तुम अपने को अचानक पाओगे--वहां, जहां कोई समय नहीं है; जहां न कुछ कभी हुआ, न जहां कभी कुछ होनेवाला है; न जहां कुछ हो रहा है।

यह जो अवस्था है, यह अवस्था बुद्ध की अवस्था है। इस अवस्था में कोई दुख नहीं है, क्योंकि इस अवस्था में सुख की कोई वासना नहीं है। इस अवस्था में कोई विषाद नहीं है, क्योंकि इस अवस्था में कोई आशा नहीं है। इस अवस्था में तुम कुछ पाना नहीं चाहते, इसलिए तुम पीड़ित भी नहीं हो सकते। इस अवस्था में तुम ही बचते हो--निपट तुम--तुम्हारा "होना' बचता है।

इस अवस्था को बुद्ध मोक्ष कहते हैं, महावीर कैवल्य कहते हैं, क्योंकि केवल तुम ही बच रहते हो। इसे हिंदू ब्रह्म कहते हैं, क्योंकि तुम तो खो जाते हो, केवल समग्र की सत्ता शेष रह जाती है।

ये चार आर्य-सत्य तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहे हैं, क्योंकि इन चारों के पहले एक परदा तुम्हारी आंख पर है--दुख के प्रति मूर्च्छा का।

तुम दुख को देखती ही नहीं। तुम कभी दुख को आंख भरकर नहीं देखते। तुम सदा दुख से आंखें छिपाते हो। तुमने कभी दुख का आमना-सामना किया है? घर में कोई मर गया हो, तब तुमने उसके पास बैठकर उसकी मृत्यु का आमना-सामना किया है? तुम छाती पीटोगे, रोओगे, चिल्लाओगे--सब करोगे। लेकिन यह सब "बचने' की तरकीबें हैं।

एक घटना घटी है--मृत्यु की, उसको तुम भुलाने के उपाय कर रहे हो। तुम जाओगे सुनोगे ज्ञानियों को, कि "आत्मा अमर है, कोई मरता नहीं; शरीर ही मरता है। पंचतत्व पंचत्तत्वों में मिल गए और भी भीतर छिपा था, वह तो शाश्वत अजन्मा--अभी भी है।' तुम ये सब बातें सुनोगे। तुम रोओगे, दुखी होओगे, पीड़ित होओगे, सांत्वना इकट्ठी करोगे। लेकिन एक बात तुम कभी न करोगे कि मौत सामने खड़ी है, अभी घट रही है, तुम इसे देख लो। क्योंकि उससे तो तुम्हें घबड़ाहट लगेगी।

अगर तुम मौत को एक बार भी देख लो--समय बिना खोये, बिना दूसरी बातों को बीच में लाये--तो तुम्हें दिखाई पड़ जाएंगे बुद्ध के चार आर्यसत्य। क्योंकि मौत तुम्हारी तंद्रा को तोड़ देगी।

यूनान में हुआ--एक बहुत बड़ा विचारशील सम्राट। उसने अपने संस्मरणों में लिखा है कि "नासमझ दूसरे के अनुभवों से सीख नहीं सकता। नासमझ अपने अनुभवों से भी मुश्किल से सीख पाता है। समझदार अपने अनुभव के लिए नहीं रुकता है; दूसरे के अनुभव से भी वह सीख लेता है।'

इस सम्राट का नाम था--मारकस आरेलियस। दुनिया में जो विचारशील सम्राट हुए हैं, उनमें इसका कोई मुकाबला नहीं है। न अशोक, न अकबर--कोई उसके मुकाबले नहीं पहुंच सकते। उसकी छोटी-सी किताब "मेडिटेशंस' बहुत गहन रूप से पढ़ने जैसी है। वह कह रहा है कि "नासमझ अपने अनुभव से भी नहीं सीख पाता। नासमझ मरेगा तब भी छाती पीटते हुए, शोरगुल मचाते हुए मर जाएगा, ताकि मौत को देख न पाए। समझदार दूसरे के अनुभव से भी सीख लेता है; दूसरा भी मरेगा तो भी समझदार उसी पीड़ा को अनुभव कर लेगा, जो मृत्यु की पीड़ा है।'

बुद्ध के साथ यही हुआ। दूसरे की लाश देखना बुद्ध को पर्याप्त हो गया। उन्होंने कहा: बस, अब जीवन व्यर्थ है। जब वह आदमी मर गया है और मुझे भी मरना है, तो इन बीच के थोड़े से दिनों को व्यर्थ खोना उचित नहीं है। मैं इन्हें "खोज' में लगाऊंगा। जब मौत आने ही वाली है, दिन दो-दिन की बात है, दिन चार-दिन की बात है--मौत आने ही वाली है, तो इस बचे हुए जीवन को मैं जीवन की खोज में लगाऊंगा। इसके पहले कि मौत आए, कम से कम मैं जान तो लूं कि जीवन क्या है! इसके पहले कि मेरे हाथ से अवसर छीन लिया जाए, मैं झांक तो लूं कि मुझे किस जगत में भेजा गया था और वहां क्या था!

दूसरे की मृत्यु से बुद्ध को ज्ञान हुआ। तुम्हें "तुम्हारी मृत्यु' से भी "ज्ञान' न होगा। और यह दूसरा अजनबी था, परिचित भी न था। तुम्हारे प्रियजन भी मरते हैं, तो भी तुम्हें ज्ञान नहीं होता; क्योंकि तुम बचने की तरकीब जानते हो। तुम आंखें चुराना जानते हो। जहां भी दुख हुआ, तुम तत्क्षण आंख चुराते हो। 

- "ओशो "
Sahaj Samadhi Bhali - 07