मकान सब तरफ से बंद है। भोजन का इंतजाम है। सारी व्यवस्था है। शर्त यह है कि तीन महीने न तो कोई कुछ पढ़ेगा। न कोई कुछ लिखेगा। न कोई किसी से बात करेगा। न कोई दूसरे को रिकग्नीशन देगा। तीस आदमी मकान के भीतर है। और गुरूजिएफने कहा है कि तुम ऐसे सब समझना कि एक-एक ही यहां हो। तीस यहां नहीं है। उनतीस यहां है ही नहीं। तुम्हारे अलावा दूसरा कोई नहीं है। आँख से। गेस्चर से भी मत बताना कि दूसरा है। उसको रिकग्नाइज़ ही मत करना। प्रत्यभिज्ञा भी न होनी चाहिए। सुबह तुम बैठोगे। कोईनिकल रहा हे। जैसे हवा गुजरती है। ऐसे रहना। पैर भी मत सिकोड़ना जब कोई पास से जा रहा है। अगर कोई देख कर नमस्कार भी मत लेना न ही करना। क्योंकि दूसरा तुम्हारे सिवाय कोई है ही नहीं यहां। नमुसकुराना। न आंख से पहचानना। कोई भाव भी प्रकट मत करना। और जो आदमी इस तरह से भाव प्रकट करेगा। उसे मैं बाहर निकाल दूँगा। पंद्रह दिन में छंटनी करूंगा।
पंद्रह दिन में सत्ताईस आदमी उसने बाहर कर दिए। तीन आदमी भीतर रह गए। उनमें एक रूस का गणितज्ञ ओस्पेंस्की भी था। ओस्पेंस्की ने लिखा हे कि पंद्रह दिन इतनी कठिनाई के थे। दूसरे को न मानना इतना कठिन था। कभी सोचा भी नहीं था। यह कि इतनी कठिनाई हो सकती है और दूसरे की उपस्थिति को स्वीकार करने का इतना मन में भाव हो सकता है। इतना कठिन गुजरा। इतना कठिन गुजरा लेकिन संघर्ष से संकल्प से पंद्रह दिन में वह सीमा पार हो गई। दूसरे का ख्याल बंद हो गया।ओस्पेंस्की ने लिखा हे जिस दिन दूसरे का ख्याल बंद हुआ उसी दिन से पहली दफा अपना ख्याल शुरू हुआ।
अब हम सब अपना ख्याल करना चाहते है और दूसरे का ख्याल मिटता नहीं। अपना ख्याल कभी हो ही नहीं सकता। जगह खाली नहीं है। कहते है आत्म–स्मरण। आत्म–स्मरण कैसे होगातो ओस्पेंस्की ने लिखा है कि तब तक मैं समझा नहीं था कि सैल्फ–रिमेंबरिंग का मतलब क्या होता है । और बहुत दफे कोशिश की थी आने को याद करने की कुछ नहीं होता था। किसको याद करना है तब ख्याल में आया। पंद्रह दिन वह जो दूसरा " दो " अदर है। जब वह विदा हो गया तो जगह खाली रह गई और सिवाय अपने स्मरण के कोई मौका ही नहीं रह गया । क्योंकि अब पहली दफे मैं अपने प्रति जागा ।
सोलहवें दिन सुबह में उठा तो मैं ऐसा उठा जैसा में जिंदगी में कभी नहीं उठा था। पहली दफे मुझे मेरा बोध था। और तब मुझे ख्याल आया अब तक मैं दूसरे के बोध में ही उठता था। पहली दफे मुझ मेरा बोध था। और तब मुझे ख्याल आया अब तक में जो भी कर या जी रहा था दूसरे के ही बोध से जी या चल रहा था। और तब वह चौबीस घंटे घेरे रहने लगा। क्योंकि अब कोई उपाय न रहा। दूसरे से भरने की जगह न रही।
एक महीना पूरा होते-होते उसने लिखा है कि मैं तो हैरानी में पड़ गया। दिन बीत जाते और मुझे पता न चलता कि जगत भी है। वहां बाहर एक संसार भी है। बाजार भी है। लोगों की भीड़ भी है। ऐसे दिन बीत जाते ओर पात न चलता। सपने विलीन हो गए। जि दिन दूसरा भूला उसी दिन सपने विलीन हो गए। क्योंकि सब सपने बहुत गहरे में दूसरे से संबधित है।जिस दिन सपने विलीन हुए उसने लिख उसी दिन से मुझे रात में भी स्मरण रहने लगा अपना। रात में भी ऐसा नहीं है कि मैं सोया ही हुआ हूं। रात में भी सब सोया है और मैं जागा हुआ हूं। ऐसा होने लगा।
तीन महीने पूरे होने के तीन दिन पहले गुरूजिएफ आया। दरवाजा खोला। ओस्पेंस्की ने लिखा है उस दिन मैंने गुरूजिएफ को पहली बार देखा की ये आदमी कैसा अदभुत है। क्योंकि इतना खाली हो गया था में उस कि आब मैं अब मैं देख सकता था । भरी हुई आँख क्या देखती।
उस दिन गुरूजिएफ को मैंने पहली दफा देखा कि ओफ़ यह आदमी और इसके साथ होने का सौभाग्य। कभी नहीं दिखा था। जैसे और लोग थे। वैसा गुरूजिएफ था। खाली मन मेंपहली दफा गुरूजिएफ को देखा। और उसने लिखा है कि उस दिन मैंने जाना कि वह कौन है। गुरूजिएफ सामने आकर बैठ गया और मुझे एकदम से सुनाई पड़ा। ओस्पेंस्की पहचाने तो मैंने चारों और चौक कर देखा। गुरूजिएफ चुप बैठा था। आवाज गुरूजिएफ की है। शक-शुबहा नहीं था। फिर भी—उसने लिखा है—कि फिर भी मैं चुप रहा। फिर आवाज आई। ओस्पेंस्की पहचाने नहीं। सुना नहीं तब उसने चौंक कर गुरूजिएफ की तरफ देखा। वह बिलकुल चुप बैठा है। उसकेमुंह से एक शब्द नहीं निकल रहा है।
तब वह गुरूजिएफ खूब मुस्कुराने लगा। और फिर बोला कि अब शब्द की कोई जरूरत नहीं है। अब बिना शब्द के बात हो सकती है। अब तू इतना चुप हो गया है अब में बोलूं तभी सुनेगा। अब तो मैं भीतर सोचूं और सुन लगा। क्योंकि जितनी शांति है उतनी सूक्ष्म तरंगें पकड़ी जा सकती है।
ओशो - महावीरा वाणी
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