लोग बांते बहुत बड़ी बड़ी करते है। चर्चा बहुत करते है। ख़ास कर जब विषय जीवन और मृत्यु से सम्बंधित हो।वार्ता में रस तो है ही , अध्यात्म " विषय " खासकर ऐसी बुद्धियों के लिए अध्यात्म विषय ही है , तो इस विषय में चर्चा कर पाना ही आंतरिक संतुष्टि दे जाता है , भले ही वो तुष्टि क्षणिक हो या माया सहित हो ; आत्मा ऐसी दिखती है , आत्मा वैसी होती है , और धारणा इतनी प्रबल की दूसरे की सुनने को तैयार नहीं होते। ऐसा ज्ञान तब घाती हो जाता है जब बुद्धि कोमल हो यानि ग्राह्यता अधिक हो और ज्ञान की उपलब्धि माया युक्त हो , तो व्यक्ति का मस्तिष्क सिर्फ बिना सच या झूठ विचार सिर्फ उस ज्ञान को ग्रहण करता है और अनजाने में धारण भी कर लेता है।
मस्तिष्क आपके लिए सुविचार कब करेगा ? जब बुद्धि के घोड़े बेलगाम दौड़ रहे है , सबसे पहले , सबसे पहला कदम मस्तिष्क सुर मन को विराम देना। फिर काबू पाना , तभी वो आपके लिए सोच सकेंगे।
मन और मस्तिष्क पे ध्यान द्वारा काबू कीजिये फिर सोचिये ; हवा का चित्र कैसे लीजियेगा , बुद्धि से सोचिये ? सौना एक्स रे के जरिये व्यक्ति के अंदर सर्दी और गर्मी को पकड़ने के लिए कुछ मापक यंत्र है जो तरंगो को रंगो के माध्यम से दिखाते है, नीले रंग की अधिकता वाला चित्र ऊर्जायुक्त है , और लाल रंग की अधिकता वाला चित्र में जीवन नहीं है।
यहाँ भी सिर्फ रंग ही ऊर्जा की स्थति बता पाएंगे , आत्मा का चित्र का यदि कही कोई दावा कर रहा है तो वो विश्वास योग्य भी योग्य भी नहीं। चर्चा तो व्यर्थ है। वास्तव में , ये दिमाग बहुत ही अद्भुत और शातिर है , बहुत माहिर है।
ये वक्तव्य इसी चित्र-प्रकाशक का है
(This is the excerpt, which you can find above)
CLN Editor Note: The photo at the top of the post that appeared on Before It’s News is NOT a Kirlian photography photo of the soul leaving the body. Note also that RT first reported on this topic in July 2009: Russian camera can see human soul.
CLN Editor Note: The photo at the top of the post that appeared on Before It’s News is NOT a Kirlian photography photo of the soul leaving the body. Note also that RT first reported on this topic in July 2009: Russian camera can see human soul.
ऐसा ही और चित्र है , कहा जाता है ये वैज्ञानिक का प्रायोगिक चित्र है जिससे उन्होंने आत्मतत्व को निकलते दिखाया है।
Scientist Photographs The Soul Leaving The Body
17:38 ADG UKScientist Photographs The Soul Leaving The Body
The timing of astral disembodiment in which the spirit leaves the body has been captured by Russian scientist Konstantin Korotkov, who photographed a person at the moment of his death with a bioelectrographic camera.
मनना और न मानना दोनों आप के ऊपर है , मैं तो सिर्फ संकेत ही दे सकती हूँ।
जहाँ तक मुझे लगता है की ये व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का एक तरीका है जिसमे आत्मा तत्व रूप में बहार निकल रही है , सच्चाई से इसका दूर दूर का नाता नहीं, क्यूंकि आत्मा तत्व है ही नहीं तो कैमरे में कैसे पकड़ में आएगी ? वैसे तो संसार अचरज से भरा है , कल्पनायें भी कहीं न कहीं सच से जुड़ जाती है , पर उनका भी तरीका है समान गुणों के मेल से गुणों को पकड़ने की चेष्टा , तत्व को तत्व से , तरंगो को तरंगो से और आत्मा को आत्मा से।
ऐसे ही असंख्य अद्धे अद्धे प्रयोग मानव के वैज्ञानिक मस्तिष्क की उस उद्विग्न को दर्शाते है , जहाँ पे वो उस अदृश्य तार को पाना चाहता है जहां से वो परम को छूने या पाने का रास्ता सुलभ कर सके। दर्शन भी उस रहस्य को छूने को सुलझाने को बेचैन है , पर यही अभी तक सफलता नहीं मिली , यहाँ ये भी साफ़ दीखता है , की दर्शन और विज्ञानं के रस्ते अलग है पर दोनों के प्रयास बुद्धि और तर्क से ही गुजरते है। बस विज्ञान लौकिक बौद्धिक प्रमाण पे चलता है और दर्शन अलौकिक। कल्पना से दोनों ही शुरू करते है , बस विज्ञानं कल्पना को प्रमाण के जरिये बुद्धि द्वारा तुष्ट करता चलता है और अध्यात्म के मार्ग का कोई चिन्हित रास्ता नहीं , सबको अपना मार्ग खुद ही खोदना है और चलना है , अद्भुत है पीछे का खोदा मिटता चलता है , प्रमाण और अनुभव भी इसीलिए हर खोजी के लिए नए हो जाते है। विज्ञानं इन्द्रियों के लिए है इसलिए इन्द्रिय द्वारा उपयोग किए जाने से विश्वास योग्य है। और एक उपयोग करेगा तो करोडो व्यक्ति उसको उसी रूप में उपयोग कर सकते है। जब की अध्यात्म , हर आत्मा के लिए नवीन है , नया अनुभव , आत्मा तो जाने दीजिये बड़ी बात है , उस आत्मा के ही छोटे से जीवन मृत्यु के चक्र में घूमती उसकी गति ऐसी है की दो जन्मो का भी याद नहीं रहता , जन्म तो जाने दीजिये , यादाश्त तो इतनी माशाल्लाह है की सालों दिनों और घंटो का भी पूरा हिसाब नहीं। । फिर जन्मो का कैसे याद रहे ? इसलिए हर बार उतनी ही नयी नयी मेहनत करता सा लगता है। पर प्रारब्ध है उसके पास इत्र रूप में पूरा हमारे बही खाते का हिसाब है। वो ही हमारे लिए योजना और कार्य को अंजाम देता चलता है। और हम अहंकारी सोचते है की , हमारी बुद्धि सब कर रही है। और एक बात आपको बता दू क्यूंकि प्रश्नो से भरे , दिमाग में पता नहीं कब क्या प्रश्न आजाये , कोई कहीं बैठा हमारे लिए ये कार्य नहीं कर रहा , एक चुंबकीय शक्ति से सब संचालित है समस्त तारागण , सौरमंडल परिधियां , घेरे घेरों में स्वयं में घूमते और दूसरे के मंडल में चक्कर काटते तारागण (नक्षत्र ) इनकी अपनी अति प्रबल शक्तियां है जिनके अंश हमारे अंदर है , और उनका चुंबकीय तत्व इतना अधिक शक्तिशाली है की करोडो मील दूर से वो हमारे हर सेल को गुणात्मक रूप से खींच रहे है , (हर सेल को नहीं जो उनसे जुड़ा है सिर्फ उसी को , क्यूंकि हम स्वयं तारो के धूलकण है ) और इसी का प्रभाव हमारे जीवन पे स्पष्ट है। हमारा स्वभाव हमारी मूल रुचियाँ , मिलके कर्म का सञ्चालन करते है ,जन्म से प्राप्त मूल स्वाभाव और कर्म के प्रेरक मिल के भाग्य बनाते है , और इस एक जीवन में कर्म स्वभाव और तत्जनित भाग्य मिल के पिछले जन्म से चले आ आ रहे संचित प्रारब्ध को इत्र वापिस देते है।
मित्रों ! अगर कभी दुर्भाग्य से अगर उस परम आत्म तत्व को पाने की सफलता मिल भी गयी तो पता नहीं इस अहंकारी दिमाग का क्या होगा ? हमारा अति सौभाग्य है , की हमारा ज्ञान अधूरा है , और तत्व ही तत्व को ही छू पाते है और अतत्व अतत्व को मिल पता है । मस्तिष्क की दौड़ अभी तक यहाँ कारगर नहीं। रहस्यवादिता का बना रहना भी उचित ही है , मृत्यु का ख़ौफ़ ही है की अच्छी बुरी सभी आत्माएं मानवता के वस्त्र पहने मानव जैसी दिखती है वार्ना मानव के चोले में देवता और दानव नग्न और स्पष्ट हो जायेंगे।
मुझे अच्छी तरह से याद है , मानव के चोले को धारण करना देवता और दानव के लिए अति सहज और सरल है, इस वस्त्र को आड़ में दोनों ही अपना अपना उधेेश्य पूर्ण करते है , क्यूंकि ये तरंग रूप में वास करते है इसलिए पकड़ना सिर्फ गुणों द्वारा ही संभव है , ये अपने ही पुराणो में प्रसंग रूप में मिलता है , सब सांकेतिक है , सब हमारे ही अंदर है। भारतीय ऋषि जैसा प्रायोगिक और वैज्ञानिक आज भी संसार में नहीं। पर ये घमंड का विषय नहीं , बुद्धि से धारण करने वाली बात है। मान्यता देने वाली बात है। ध्यान दीजियेगा , मान्यता देते समय आलोचनाओ और दलालो को किनारे रख के सीधा संपर्क कीजियेगा। वो आपसे प्रसन्न हो के सब बताएँगे। एक अरसे से वो भी किसी ऐसी ही चिंतक ज्ञानी को आज भी खोज रहे है ! उनकी भी खोज सीमा बद्ध है क्यूंकि मानव के जीवन की सीमा है। दशकों में कही जाके कोई उचित आत्मा उन दिव्य आत्माओ के संपर्क में आती है और अपना कार्य बीच में ही अधूरा छोड़ के चली जाती है। चली जाती है माने की उनके ही पास , क्यूंकि देह तो चाहिए देह को समझाने के लिए , दिव्य तरंगे सब को नहीं छू पाती।उनके प्रवाह के लिए उचित तरंगो का गुणात्मक मेल चाहिए।
ऐसे ही असंख्य अद्धे अद्धे प्रयोग मानव के वैज्ञानिक मस्तिष्क की उस उद्विग्न को दर्शाते है , जहाँ पे वो उस अदृश्य तार को पाना चाहता है जहां से वो परम को छूने या पाने का रास्ता सुलभ कर सके। दर्शन भी उस रहस्य को छूने को सुलझाने को बेचैन है , पर यही अभी तक सफलता नहीं मिली , यहाँ ये भी साफ़ दीखता है , की दर्शन और विज्ञानं के रस्ते अलग है पर दोनों के प्रयास बुद्धि और तर्क से ही गुजरते है। बस विज्ञान लौकिक बौद्धिक प्रमाण पे चलता है और दर्शन अलौकिक। कल्पना से दोनों ही शुरू करते है , बस विज्ञानं कल्पना को प्रमाण के जरिये बुद्धि द्वारा तुष्ट करता चलता है और अध्यात्म के मार्ग का कोई चिन्हित रास्ता नहीं , सबको अपना मार्ग खुद ही खोदना है और चलना है , अद्भुत है पीछे का खोदा मिटता चलता है , प्रमाण और अनुभव भी इसीलिए हर खोजी के लिए नए हो जाते है। विज्ञानं इन्द्रियों के लिए है इसलिए इन्द्रिय द्वारा उपयोग किए जाने से विश्वास योग्य है। और एक उपयोग करेगा तो करोडो व्यक्ति उसको उसी रूप में उपयोग कर सकते है। जब की अध्यात्म , हर आत्मा के लिए नवीन है , नया अनुभव , आत्मा तो जाने दीजिये बड़ी बात है , उस आत्मा के ही छोटे से जीवन मृत्यु के चक्र में घूमती उसकी गति ऐसी है की दो जन्मो का भी याद नहीं रहता , जन्म तो जाने दीजिये , यादाश्त तो इतनी माशाल्लाह है की सालों दिनों और घंटो का भी पूरा हिसाब नहीं। । फिर जन्मो का कैसे याद रहे ? इसलिए हर बार उतनी ही नयी नयी मेहनत करता सा लगता है। पर प्रारब्ध है उसके पास इत्र रूप में पूरा हमारे बही खाते का हिसाब है। वो ही हमारे लिए योजना और कार्य को अंजाम देता चलता है। और हम अहंकारी सोचते है की , हमारी बुद्धि सब कर रही है। और एक बात आपको बता दू क्यूंकि प्रश्नो से भरे , दिमाग में पता नहीं कब क्या प्रश्न आजाये , कोई कहीं बैठा हमारे लिए ये कार्य नहीं कर रहा , एक चुंबकीय शक्ति से सब संचालित है समस्त तारागण , सौरमंडल परिधियां , घेरे घेरों में स्वयं में घूमते और दूसरे के मंडल में चक्कर काटते तारागण (नक्षत्र ) इनकी अपनी अति प्रबल शक्तियां है जिनके अंश हमारे अंदर है , और उनका चुंबकीय तत्व इतना अधिक शक्तिशाली है की करोडो मील दूर से वो हमारे हर सेल को गुणात्मक रूप से खींच रहे है , (हर सेल को नहीं जो उनसे जुड़ा है सिर्फ उसी को , क्यूंकि हम स्वयं तारो के धूलकण है ) और इसी का प्रभाव हमारे जीवन पे स्पष्ट है। हमारा स्वभाव हमारी मूल रुचियाँ , मिलके कर्म का सञ्चालन करते है ,जन्म से प्राप्त मूल स्वाभाव और कर्म के प्रेरक मिल के भाग्य बनाते है , और इस एक जीवन में कर्म स्वभाव और तत्जनित भाग्य मिल के पिछले जन्म से चले आ आ रहे संचित प्रारब्ध को इत्र वापिस देते है।
मित्रों ! अगर कभी दुर्भाग्य से अगर उस परम आत्म तत्व को पाने की सफलता मिल भी गयी तो पता नहीं इस अहंकारी दिमाग का क्या होगा ? हमारा अति सौभाग्य है , की हमारा ज्ञान अधूरा है , और तत्व ही तत्व को ही छू पाते है और अतत्व अतत्व को मिल पता है । मस्तिष्क की दौड़ अभी तक यहाँ कारगर नहीं। रहस्यवादिता का बना रहना भी उचित ही है , मृत्यु का ख़ौफ़ ही है की अच्छी बुरी सभी आत्माएं मानवता के वस्त्र पहने मानव जैसी दिखती है वार्ना मानव के चोले में देवता और दानव नग्न और स्पष्ट हो जायेंगे।
मुझे अच्छी तरह से याद है , मानव के चोले को धारण करना देवता और दानव के लिए अति सहज और सरल है, इस वस्त्र को आड़ में दोनों ही अपना अपना उधेेश्य पूर्ण करते है , क्यूंकि ये तरंग रूप में वास करते है इसलिए पकड़ना सिर्फ गुणों द्वारा ही संभव है , ये अपने ही पुराणो में प्रसंग रूप में मिलता है , सब सांकेतिक है , सब हमारे ही अंदर है। भारतीय ऋषि जैसा प्रायोगिक और वैज्ञानिक आज भी संसार में नहीं। पर ये घमंड का विषय नहीं , बुद्धि से धारण करने वाली बात है। मान्यता देने वाली बात है। ध्यान दीजियेगा , मान्यता देते समय आलोचनाओ और दलालो को किनारे रख के सीधा संपर्क कीजियेगा। वो आपसे प्रसन्न हो के सब बताएँगे। एक अरसे से वो भी किसी ऐसी ही चिंतक ज्ञानी को आज भी खोज रहे है ! उनकी भी खोज सीमा बद्ध है क्यूंकि मानव के जीवन की सीमा है। दशकों में कही जाके कोई उचित आत्मा उन दिव्य आत्माओ के संपर्क में आती है और अपना कार्य बीच में ही अधूरा छोड़ के चली जाती है। चली जाती है माने की उनके ही पास , क्यूंकि देह तो चाहिए देह को समझाने के लिए , दिव्य तरंगे सब को नहीं छू पाती।उनके प्रवाह के लिए उचित तरंगो का गुणात्मक मेल चाहिए।
यहां भी एक सच है, वो है आत्मा के प्राणवायु तत्व से भी परे होने का , क्यूंकि प्राण वायु तत्व ही जीवन का आधार है , पञ्च कोष मय शरीर की कल्पना वेदांत में की गयी है
Kosha | Stage | Type | Actions |
Anna-maya kosha | Organic body | Eat-drink-and-be-merry | Download movies, Upload family pics to facebook, parties on weekends |
Prana-maya kosha | Energy body , vitality | Vitality seeker, Health consciousness | Sports, Attends Yoga workshops for health purpose |
Mana-maya kosha | Psychic body, thoughts and feelings | Philosopher, Social consciousness | Help people, participate in social activities (not parties) |
Vigyana-maya kosha | Intellectual body, spiritual discrimination and wisdom | Sage, scientists | Seeking knowledge |
Ananda-maya kosha | Body of joy, pure consciousness | Self- and God-realized | State of Blissful being, Body is still within awareness. |
Chitta Maya Kosha Atma Maya Kosha | body of
| Siddharudh swami, Raman Maharshi body of pure spirit (Purity beyond human perception, visualization) |
जो अंतिम और न्यूनतम स्थति है वो आत्मा की है , इसलीए ये बहस प्रश्न ही की आत्मा का चित्र संभव है ! सिर्फ एक स्थति है जिससे आत्मतत्व का आभास किया जा है , वो है ध्यान की उपलब्धि।
दोस्तों ! बार बार एक ही बात कहती हूँ , दिमाग को अपना दास बनाइये , दिमाग के दास मत बनिए।
दिमाग से जो प्रेरणा आ रही है उसका अपने ही दिमाग से स्केन करके फिर अपना मत या विचार बनाइये धारणा फिर भी नहीं। किसी भी कीमत पे धारणा तक नहीं पहुंचना है। क्यूंकि धारणाये ही उपलब्धि के मार्ग की सबसे बड़ी रूकावट है , सच तक पहुँचने ही नहीं देंगी।
विचार करने जैसा है , हवा को खुली आँखों से देखा नहीं जा सकता किन्तु मन की आँखों से महसूस किया जा सकता है , तत्व ही तत्व की पकड़ में आएंगे , कुछ हद तक तरंगे भी पकड़ी जा सकती है। पर आत्मा न तो तत्व है न ही तरंग। क्यूंकि तत्व के जरिये आत्मा अपने कर्म को प्रकट कर पाती है , और तरंग उसका साधन है। तरंगो के जरिये ही आत्मा आभास करती है। अपने मुख्य केंद्र के स्वरुप का और अपने को जोड़ पाती है तरंगो के माध्यम से। इसका सीधा अर्थ है की आत्म तत्व इनसे भी परे है।
आत्म तत्व वो है जिसको आप व्यख्या भी नहीं कर सकते , शब्दातीत है उस परम केंद्र के सामान भव्य है। कही गहरे ह्रदय में ध्यान लगा के आप सिर्फ झलक पा सकते है , वो भी क्षण मात्र को , क्यूंकि जयादा गहरा ध्यान समाधी में ले जाता है , जहाँ सब स्पष्ट होता है , पर वहाँ से लौटना सबके लिए संभव नहीं होता। इसलिए झलक भी मिल जाये तो धन्य भाग , उस परमात्मा की अति कृपा आपके ऊपर होगी।
ऐसी आत्मा के चित्र के दावे हास्यास्पद प्रतीत होते है। जैसे की कोई कहे की उसने पमात्मा को महसूस किया है। बात समझ आती है , पर परमात्मा का चित्र खींच के कोई लाने का दावा करे , ये सहज ही समझ में आएगा की बेवक़ूफ़ बना रहा है।
चित्र खींचना भी बहुत बड़ी बात है , यदि आपको कोई कहता है की अपनी तपस्या के प्रभाव से आपको दर्शन करा सकता है या आपको ईश्वर तक भेज सकता है , मित्रो यकीं मत करना। सहज ही कोई दुर्लभ वास्तु सहज नहीं होती , स्वयं की साधना है , स्वयं की खोज है , लौकिक धन से सम्पदा से आचार व्यवहार से बिलकुल अलग।
ये बुद्धि का संरचना जाल इतना विषद है जिसको ज्ञान द्वारा ही सुलझाया जा सकता है ! गहरा अनुभव कीजिये एक व्यक्ति दुर्घटना में धरती पे पड़ा है मृत , जिसके चारो तरफ खून फैला हुआ है , जिसके सर पे ही गहरी चोट है जिस कारन सर खुल गया बीच से आधा और क्रियाशील मस्तिष्क सड़का पे बिखरा पड़ा है निष्प्राण , जो तार्किक था , गुण दोषो से भरा था ,जीवन था , प्रारब्ध था , फिर ? ये मस्तिष्क तो धरती पे पड़ा धुल में मिल गया। देह निष्प्राण हो गयी। क्या था जो चला गया। जिसको इस देह के तर्कों से कोई प्रयोजन नहीं। इस देह की आस्था इस देह के साथ जमीं पे पड़ी है। आत्म तत्व इन मन बुद्धि देह सबसे परे है।
आपका स्वयं का ध्यान ही आपका आपसे मेल करवा सकता है , अन्य कोई उपाय है ही नहीं। कोई भी सद्गुरु आपकी तरीके बतएगा अनुभव के रास्ते दिखायेगा , पर अनुभूति कोई नहीं बता सकता , शब्द ही नहीं , कहते ही शब्द झूठे हो जायेंगे।
और एक बात अपनी ईमानदारी और अपने गुण और योग्यता और अपनी साधना पे भरोसा करना , जिस दिन परमात्मा आपके अंदर वो योग्यता पा लेगा , स्वयं उपस्थित हो जायेगा।
शास्त्र के मूल में वर्णित जो भी है मेरी आस्था है क्यूंकि वो क्रमानुसार व्यक्तियों और कई दिमागों से हो के नहीं वरन विशुश्द महर्षियों के ह्रदय की यात्रा है। और भी विशुधः है जब वो ऋषि स्वयं आपको अपनी बुद्धि की तरंगो द्वारा सुचना देते है ( बुद्धि की तरंगो से अर्थ है भाव तरंगे, तत्व रूप बुद्धि तो देह के साथ ही नष्ट हो जाती है ) तरंगे उसी प्रकार नष्ट नहीं होती जिस प्रकार जीव तत्व और पंचतत्व।
किसी वैज्ञानिक ने अभी तक ये प्रमाण नहीं दिया की उसने आत्मा का चित्र लिया। कोई ऊर्जा शरीर से निकलती है तो मापक यंत्र ह्रदय और मस्तिष्क की आवाज यानी की ध्वनि तरंग से पकड़ते है। श्वास , नाड़ी के स्पंदन से पकड़ते है , और शरीर को मृत घोषित करते है।
जिस प्रकार विद्युत प्रवाह के लिए बिजली के तार है , उसी प्रकार आत्मा को , ध्यान दीजियेगा ! आत्मा को अपनी तरंगो को दौड़ाने के लिए धमनियों की आवश्यकता पड़ती है। आत्मतत्व इन तरंगो से भी सूक्ष्म है। ह्रदय में वास करता है , भाव रूप में। अति सूक्ष्म , अति दुर्लभ लौकिक बुद्धि से , लौकिक तर्क से , लौकिक विचार से। अति सुलभ मन की आँख से , ह्रदय चक्र पे ध्यान से , और अज्ञान चक्र को शांत करने के बाद , सहस्त्रधार में स्थित होते ही , एक बिजली सी चमकती है , जो दिखती भी नहीं , सिर्फ अनुभव होती है।
मृत्यु का ध्यान कीजिये , साक्षात्कार कीजिये , वास्तविक मृत्यु ध्यान में उतारते वख्त आपके रोये खड़े हो सकते है मृत्यु को बहुत करीबी से महसूस करने वाले लोगों के अनुभवों पर आधारित दो प्रख्यात वैज्ञानिकों ने मृत्यु के अनुभव पर एक सिद्धांत प्रतिपादित किया है। प्राणी की तंत्रिका प्रणाली से जब आत्मा को बनाने वाला क्वांटम पदार्थ निकलकर व्यापक ब्रह्मांड में विलीन होता है तो मृत्यु जैसा अनुभव होता है। यही मृत्यु ध्यान का अभ्यास का आधार है , आपकी अनुभूति इतनी तीव्र होती है की आपको साक्षात उस जीव के होने का अनुभव होता है।
वैज्ञानिकों ने इस सिद्धांत को आर्वेक्स्ट्रेड ऑब्जेक्टिव रिडक्शन (आर्च-ओर) का नाम दिया है। इस सिद्धांत के अनुसार हमारी आत्मा मस्तिष्क में न्यूरॉन के बीच होने वाले संबंध से कहीं व्यापक है। दरअसल, इसका निर्माण उन्हीं तंतुओं से हुआ जिससे ब्रह्मांड बना था। यह आत्मा काल के जन्म से ही व्याप्त थी।
भारत में सदियों से पारंपरिक रूप से यह माना जाता रहा है कि आत्मा का अस्तित्व होता है और श्राद्ध पक्ष में उनका आह्वान भी किया जाता है।
वेद में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, विध्वंस और आत्मा की गति को पंचकोश के क्रम में समझाया गया है। पंचकोश- 1.अन्नमय, 2.प्राणमय, 3.मनोमय, 4.विज्ञानमय और 5.आनंदमय। इन्हीं पंचकोश को ही पांच तरह का शरीर भी कहा गया है। वेदों की उक्त धारणा विज्ञान सम्मत है।
एक बार यदि जीव को अपने स्वरुप का आभास हो जाये , तो फिर उसे कोई भ्रमित नहीं सकता। फिर सब चर्चा बाल क्रीड़ा जैसी प्रतीत होती है।
अपने घर से बहार निकल के ही अपने घर के दर्शन संभव है। कमरे में बैठ के घर की बाते अंदाजा लगाने जैसी है , जो अक्सर चर्चा का रस रूप ले लेती है , अनुभूति से इनका कोई सम्बन्ध नहीं।
आप यकीन कर सकते है की आत्मा सिर्फ और सिर्फ अनुभूति है।
पांच तत्वों के लिए भी अलग अलग ध्यान की अवस्थाये है
१- ध्वनि ध्यान (ॐ) अन्न मय कोष के लिए
२- सहज प्राणायाम प्राणमय कोष के लिए
३- जप ध्यान मनोमय कोष केलिए
४- साक्षी ध्यान विज्ञानमयकोश केलिए
५- मौन ध्यान परमतत्व आत्ममय कोष के लिए
अधिक जानकारी के लिए इस नीचे लिंक पे विधिया भी मौजूद है। किसी सन्यासी ने प्रण लिया है की आध्यात्मिक ज्ञान के कोई लौकिक सम्पदा नहीं लेगा। इसी कारन इस तरीके से ज्ञान का प्रचार किया जा रहा है। http://www.meditationandyoga.in/panchkosh-hindi.html
आपको जितना उचित लगे ग्रहण करें !
आप सभी को आनंदमय कोष के अनुभव के लिए शुभकामनाये
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