! विपस्यना या सहज-ध्यान चमत्कारी परिणाम वाला है !
! परिवर्तन आत्मिक है स्वयं के है और स्वयं के लिए है !
! यथा दृष्टि तथा सृष्टि !
My mind is just a mechanism. For me now it is absolutely useless: it is just for your sake that I go on feeding it a little bit. Just for your sake I am speaking, otherwise now there is no point for me. In fact there is no point for me even to breathe! It is only for you that I am breathing, speaking, living. Those who have eyes will be able to see it. Everything is a device. Remember it: you have to see the device to grow beyond it. Osho
कभी भी दो जीवन तुलना के योग्य नहीं हर एक का प्रारभ्ध और गति अलग अलग है , उपलब्धियां भोग अलग अलग है , आत्मिक उन्नति के सोपान अलग अलग है। हर जीवन अलग और सम्पूर्ण है। फिर वो आपसे जन्म लिया आपका अपना अंश ही क्यों हो , आप मात्र माध्यम है उस जीव के लिए , सहायक है उसकी यात्रा के।
विपस्यना या सहज ध्यान ध्यानो का राजा है श्वास पे ध्यान एकत्रित करना , सुनने में छोटा है , करने में सहज , पर गंभीर परिणाम देने वाला है। मात्र श्वांस के आने जाने पे ध्यान लगाने से , आप समस्त वाहिनियों , धमनियों और असत्यों में भ्रमण करके बाहर आ सकते है। जो हर बार आपको नया और अभूतपूर्व अनुभव देगा। और सहजता , सरलता स्वयं आपके ह्रदय में प्रवेश करेगी।
दो विषय है जिनपे विस्तार-चर्चा से ज्यादा इनकी सारगर्भित हार्दिक भावात्मक ग्राह्यता होनी चाहिए।
पहला है , ऐसा कैसे हो की खुद का खुद से साक्षात्कार हो ? कैसे चहरे के ऊपर चहरे वाले अनेक नकाब उतारें ?
जन्म से समाज से और स्वयं से पहने गए वस्त्र आवरण या नकाब जीवन जीने को सुविधाजनक बनाने के कारन अक्सर हमारे अचेतन मन का हिस्सा बन जाते है , बहुत ही आहिस्ता से ये हमारे व्यक्तित्व का अंग बन जाते है , और हम जान भी नहीं पाते , की समाज में अपना स्थान बनाते बनाते , ये हमारा ही हिस्सा बन चुके होते है। अनजाने में यही हमें पीड़ा भी देते है और हमारे अहंकार की तुष्टि भी करते है। वस्तुतः हमें अहसास भी नहीं होता की हम कितनी नकली जिंदगी जीने के आदि हो चुके है , दुसरो के लिए हंसना , अपने लिए रोना भी कठिन हो जाता है , मन भारी और व्यक्तित्व विद्रोह करता है , संक्षेप में ये चहरे आपको आपसे बहुत दूर करते जाते है , हम जिस भी समाज में रहते रहते है , वयवहरिक होने के लोभ में और स्वयं के स्तर को समाज में बनाये रखने के संघर्ष में स्वाभाविक-झूठ ( क्यूँकि ये दूजे के भला और बुरा से प्रेरित न हो के सिर्फ स्वयं की सामाजिक स्थिति से सम्बंधित होते है इसलिए ये झूठ भी सरल होते है, पर झूठ बने तो विष से है प्रभाव भी विष का ही देंगे ) को पालते पालते इतने त्रस्त हो जाते है की स्वयं के सतही होने का सब्र का घड़ा भर जाता है पर पीड़ाएँ ही आपको प्रेरणा भी देती है की किसी भी तरह , इन नकली चेहरों से स्वयं को आजाद करना है। , और वही से आपको अपने स्व दर्पण का रास्ता मिलता है।
सिर्फ एक अभ्यास , साँसों के आने जाने पे अपना ध्यान लगाते हुए , अपने वास्तविक स्वरुप के करीब जाना है , क्यूनी आत्मा दोषमुक्त है , सारे दोष की शुरुआत मन और बुद्धि के संयोग से ही होती है। एक एक दर्द को जो आपके अंदर बस गया है , उसको मात्र देखना है , और सहज स्वीकार करते जाना है , अपनी सीमाओं को , अपनी योजनाओ को , और अपने अंदर पल रहे तमाम सतही स्वभावगत विष को स्वयं ही पीना है, जो आपके अपने संघर्ष का कारण है।और अंदर के स्वक्छ चमकते दिए को देखना है। वो दिया सब दोषो से मुक्त है , यही दिया आपको बार बार चेतावनी भी देता आया है , जिसको आप क्षणिक लोभवश अनसुना करते आये है। यही दिया हमेशा आपके शरीर में जीव रूप में आपके तत्व शरीर में वास करता है , आपका शुद्ध चैतन्य परम के प्रकाश से प्रज्वलित परममित्र यानि स्वयं आप। ध्यान द्वारा स्वयं का दर्शन कीजिये , साक्षी बनिए , मात्र इतना कर्म ही आपको जो है वो नहीं रहने देगा , समस्त आवरण स्वयं आपका साथ छोड़ देंगे। तो चेतना के द्वार पे अपने स्व की सरकार बिठाएँ चेतना के द्वार से तात्पर्य आपके अनुभूति के द्वार से है। इसके लिए आपको स्वयं को जानना पड़ेगा , इसके लिए आपको मात्र ३० से ४५ मिनट अंदर की यात्रा करनी होगी ( उससे काम या अधिक बैठक भी आपकी अपनी इक्छा पे निर्भर है ) । कुछ सुख की अनुभूति और वेदना की अनुभूति , पर आपको सिर्फ दृष्टा रहना है, धीरे धीरे आपको स्वयं से परिचय मिलेगा , कुछ नकारात्मक ऊर्जाएं होंगी और सकारात्मक भी (क्यूंकि आप इंसान है सही और गलत आपमें ही है ) दोनों ऊर्जा प्रवेश भी आपके द्वारा ही आमंत्रित होगा , सब आप ही करेंगे , सारी शक्तियां आपमें निहित है , सिर्फ उन ऊर्जाओं से मिलना भर है। नित्तांत एकांत में , मौन में वे आपका स्वागत करेंगी , और दर्शन देते ही वे स्वतः स्वयं ही बिना प्रयास जादू के सामान विलुप्त होती जाएँगी। जैसे पहले से उन्होंने सोच रखा हो की जैसे ही मेरा ज्ञान / दर्शन इस जीव को मिलेगा अदृश्य हो जाउंगी।
हर अंदर जाती सांस आपमें जीवन का संचार करेगी , और हर बाहर आती सांस आपके अंदर के इकठा विष को बाहर लाएगी , धीरे धीरे स्वयं महसूस करेंगे की आप जीवन शक्ति से भर रहे है। संभवतः घटनाएं शायद वैसे न हो जैसे योजना पहले से बना रखी हो। जीवन को योजनाओ से नहीं , उसके प्रवाह से स्वीकार कीजिये।
एक बात को हमेशा याद रखें , चाहे सुख हो या दुःख , अनुभूति का स्वागत हम ही करते है , यदि हम आज्ञा हमारे शरीर में प्रवेश ही नहीं कर पाएंगी। और न ही कोई प्रभाव दिखा पाएंगी।
सहज ध्यान कीजिये , सहज स्वभाव को स्वीकार कीजिये , जब आप अपने लिए कार्य कर रहे हो तो नकारात्मक व्यक्तियों , पर्यावरण , और नकारात्मक ऊर्जा से जहाँ तक संभव हो स्वयं को अलग रखिये। क्यूंकि नम धरती के गड्ढे आसानी से पड़ते है , आपको अपना ख्याल रखना ही पड़ेगा।
समस्त सकारात्मक ऊर्जा जब सघन हो जाएगी तो स्वयं एक एक करके नकली व्यक्तित्व जनित स्वभाव तथा जितने भी दुःख संताप है पीले पत्तों के सामान झरने लग जाएंगे।
बिना प्रयास।आप यकीं कर सकते है।
ये नकली चेहरे भी यूँ ही जीवित नहीं रहते , इनकी भी खुराक है , भोजन जितना ज्यादा मिलेगा उतना ज्यादा ताकतवर हो जायेंगे। आप विश्वास कर सकते है , जिस दिन आपके नकली चेहरे आपका साथ छोड़ देंगे उस दिन आप स्वयं को अत्यंत हल्का और भारहीन महसूस करेंगे। सारा बोझ ही नकलीपन का है।
मन्त्र कोई भी चुने , साँसों के आने जाने के साथ आपके ध्यान को स्थिर रखेगा , सोहम , हुम् , अथवा ओम का उच्चारण। जो भी आपकी आस्था को भाये और जिसे आस्थापूर्वक आप ध्यान का आधार बना सकते है।
भाव महत्वपूर्ण है और संकल्प महत्वपूर्ण है।
सुझाव : विपस्यना या सहज-ध्यान लाभदायक है , नकारात्मकता से प्रयास पूर्वक दूर रहना है , आत्मा के मूल स्वभाव को पहचानना है जो सरल है , सहज है। शरीर के स्वस्थ्य के लिए हल्का स्वस्थ भोजन , और थोड़ा व्यायाम ,रूचि के अनुसार मन पसंद कार्य करिये , संगीत , भ्रमण , या अन्य कुछ , पर नकलीपन क्रोध ईर्ष्या द्वेष जैसे शत्रु जहाँ आक्रमण करे उसको प्रवेश करने ही मत दीजिये। प्रबल इक्षाशक्ति , थोड़ा अभ्यास थोड़ा प्रयास और फिर सब सहज।
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दूसरा है अति चर्चित और दुर्गम , समझ समझ के भी न समझा गया शब्द - भाव प्रेम , स्त्री हो या पुरुष शारीरिक सुख का अनुभव क्या वास्तव में परमात्मा के करीब ले जा सकता है ?
परमात्मा का दिया कुछ भी व्यर्थ नहीं , बस संतुलन और उपयोगिता समझ आनी चाहिए। स्वयं शिव के माध्यम से सम्पूर्ण योग की शिक्षा - विज्ञानं भैरव नामक ग्रन्थ में १०१ तरीको के ध्यान को स्थान मिला है , जिनको माँ पारवती के सहयोग से पूर्णता प्राप्त हुई है। माँ पारवती ने शिव को सहयोग किया के अर्थ से ही स्पष्ट है की दो शक्तियां जब मिल के एक हुई तभी योग का विज्ञानं पूरा हुआ। वास्तव में जीवन के साथ जो भी मिला है वो अत्यंत दुर्लभ है , और महत्त्व समझे जाने योग्य है। शायद ये मानव जन्म इसीकारण मिला भी है। की हम परमात्मा का आभार प्रकट कर सके। पर अज्ञानतावश हम अहंकार में अधिकार की भाषा ज्यादा समझते है . इसी कारन वो सामने होते हुए भी छुपा सा दीखता है , जो वास्तव में हमारा ही भ्रम है।
भ्रम के कारन ही कठिनतम बना वो यदि इतना ही सरल होता ( जो वास्तव में सरलतम है ) तो वैश्यालय जाने वाला हर कामी ईश्वर को पा लेता !
एक कथा का स्मरण आ रहा है , दो मित्र थे , एक नित्य वैश्यालय जाता था , और उसका दोस्त मंदिर में पूजा करने जाता था , दोनों परम मित्र थे , कभी आलोचना या सही गलत समझाते भी नहीं थे, बस वैश्यालय और मंदिर के बीच दोस्ती में जीवन यूँ ही बीत गया , मृत्यु देवता जब मुक्ति के लिए आये तो पुजारी भी था और वैश्यापथगामी दोस्त भी , पर वो अपने साथ वैश्यालय जाने वाले दोस्त को स्वर्ग ले जाने लगे , और दूसरे पुजारी को यमलोक , तो पुजारी से रहा नहीं गया , बोला देव ! सारी उम्र मैंने आपकी सेवा की और आप मुझे छोड़ के इनको ले जा रहे है ? कैसा आश्चर्य ? देवता बोले इसमें आश्चर्य कुछ भी नहीं , तुमको लगता है की ये वैश्यालय में अपना जीवन सुख से बितात्ता था , परन्तु इसके स्मरण में मंदिर ईश्वर और तुम ही रहते थे , और इसको लगता था की तुम पूजा कर रहे हो , परन्तु तुम स्वयं को ही धोका देते रहे क्यूंकि तुम्हारे समरण में तो वैश्यालय , शरीर के सुख और लोभ बसा था। फिर वो पुजारी निरुत्तर हो गया , उसको अपने किये का स्मरण हो आया। .
बार-बार इसीलिए याद दिलाया जाता है की ईश्वर का वास भाव में है दिखावे में नहीं। पर इसका अहसास भी तब ही होता है जब अज्ञानता के बादल छंटते है।
संभवतः इस पाने की सरलता के पीछे कारन भी अति सरल है , बस समस्या है की हम सरल नहीं। हम स्वयं ही फेरों में , चालाकियों में , अज्ञानता में उलझे है , इस कारण हमको जो समझ आता है वो चालाकी भरा , जो मिलता है वो भी चालाकी से भरा। चालाकियों के समंदर में हम गोते लगा रहे है , और स्वयं को कुशल तैराक मान रहे है ! संभवतः आपकी चालाकी सही हो। पर जिस रासायनिक तत्व के साथ चालाकी का जन्म हुआ है फल भी उसी रासायनिक मिश्रण के होंगे। इतना विज्ञानं तो सभी पता है , की जैसा बीज बोयेंगे वैसा ही फल मिलेगा । बीज हमेशा बोये ही नहीं जाते कभी कभी अनजाने में हम जन्म से संस्कार रूप में उसी की खेती में उलझे होते है। जिस दिन ये ज्ञात हो जाये बस स्वयं को उन चालाकियों से बाहर निकालना है। स्वयं के भाव सरल होते ही सब सरल हो जायेगा।
परमात्मा एक गहन भाव की अवस्था है , तरंग है , अहसास है , और या कहु , कोई व्यक्ति नहीं , तत्व नहीं गुण है , जिसको अत्यंत गहरे भाव से महसूस किया जासकता है। एक ऐसी दृष्टि से , जहाँ कण कण में जीवन दिखे , और उस जीवन में परमात्मा दिखे , प्रेम में भी ऐसे ही सामान गुण है भावरूप है , तरंगित है , अहसास है , प्रेम में ईश्वर का वास है और ईश्वर में ही प्रेम का। दोनों समानार्थ में एक भाव की गहराई से झंकृत होते है।
पर हमारी बुद्धि है की आँखों पे और हृदय पे आवरण की पट्टी चढ़ा रखी है , इसलिए तर्क और धारणाये बना लेते है। मोटे तौर पे देखे तो एक प्राकृतिक नियम है गुणों का मेल गुणों से तत्व का तत्व से और तरंग का तरंग से मेल संभव है।
यदि जीव की अति विकसित भाव और दृष्टि है , ध्यान की एक अवस्था में स्थित हो के मन और बुद्धि के यांत्रिक कार्य को जान गया है , तो ही एक जीव की आखिरी छलांग , शारीरिक प्रेम के माध्यम से संभव है , पर वहां भी नियम है , की प्रेम कार्य कृत्य न होके भावरूप हो जाये , उदाहरण के लिए जैसे मीरा का कृष्ण के साथ , परमात्मा के दर्शन सिर्फ भाव में स्थति होके ही संभव है . अन्य कोई उपाय नहीं , यदि अन्य कोई उपाय आपको बताया जा रहा है , तो वो मात्र भ्रम है। शरीर का समर्पण भी एक सत्ता के चरणो में पुष्प के सामान हो जाये। तो संभव है। अन्य कोई उपाय नहीं।
सुझाव : प्रेम की सरलता को समझने के लिए श्वांस के आवागमन की धीमी सहज गति पे अपना ध्यान केंद्रित करते हुए सबसे पहले स्वयं से साक्षात्कार करे , स्वयं से प्रेम करें। चक्रों में ह्रदय - रानी और अज्ञान राजा है। इनको साधे। रानी यानि ह्रदय को पहले साधे , फिर अज्ञान चक्र को साधें।
जैसी दिव्यता स्वयं में पाई वैसी ही निर्मल ( भेदभाव रहित )दृष्टि से समस्त जीव जगत को देखें।
इसके बाद ही प्रेम के सम्बन्ध में कोई विचार बनने दें।
प्रयास करें की धारणा न बनने पाये नम्र विचार तक ही ठीक है।
स्वभावगत , सरलता , तरलता , ग्राह्यता , आपके अपने विकासक्रम में सहायक है।
तभी आप इस अतिसरल और सुलभ भाव को जान पाएंगे। बिना ध्यान अभ्यास के यदि कोई अभिव्यक्ति आपके अंदर जागृति होती है किसी के कहने से , समझाने से अथवा आपके स्वयं के अंदर कोई प्रेम जैसा भाव प्रकट होता है , तो संभतः वो लौकिक है सिमित है । आपकी सीमित इक्षाएं और वासनाएं मात्र आपको अपने ही गोल गोल घेरे में भटकाने के लिए मृगमरीचिका साबित हो सकती है। यहाँ महत्वपूर्ण ये है की ईश्वर कोई कोई व्यवस्था व्यर्थ नहीं पर सिर्फ परम की झलक है और अभ्यास से जानने और अनुभव से मानने योग्य है , सम्पूर्ण भाव और तत्व के इस मेल के खेल में सामंजस्य स्वयं का स्वयं से , और वैसा ही दिव्य सामंजस्य अन्य से होना आवश्यक है।
सामाजिक व्यवस्था में और दैवीय व्यवस्था में भी सीमाओं का महत्वपूर्ण स्थान है , सीमाओंके द्वारा ही सीमाओं के पार के संसार को जानना और पाना है। या यूँ भी कह सकते है जानना ही पाना है।
भाव जगत में समस्त कर्म भाव जनित , भाव प्रेरित और भाव के ही फल देने वाले है। क्यूंकि सम्पूर्ण खेती ही भाव की है , खाद पानी , पौधा सब भाव जगत से है , तो फल भी भाव के ही है। यहाँ शरीर एक तंत्र , मन और बुद्धि सहायक यंत्र साबित होते है। जो मात्र प्रारब्ध के अनुसार फल भोग में सहायक है।
यहाँ एक ही स्वास्थ्य है, और वह है जैसे तुम हो वैसे ही स्वीकार लो, बेशर्त! अपनी निंदा मत करो, और मूल्यांकन मत करो। मूल्यांकन करने के लिए कोई मानदंड मत बनाओ और कसौटियाँ मत बनाओ। और, तब अचानक तुम देखोगे कि तुम चलने लगे और नदी बह रही है। और नदी अपने आप समुद्र तक पहुँचती है, स्वयं को या किसी और को धक्का देने की जरूरत नहीं होती! इसलिए जहाँ हो वहीं होओ, जो कुछ समझ सकते हो, समझो -- और जो कुछ भी तुम ले सकते हो, ले लो, और चलो, और बहो ! ओशो
असीम शुभकामनाएं
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