संतुलन से समान्यतः क्या समझा जाता है ! ? शायद जब योगी कहते है की मध्य में ठहरो तो ऐसा समझा जाता है , की किसी भी तरह से मध्य में ठहरना है , जप से तप से , हठ से , बस कुछ भी करके अवगुणो को दबा के चलना ही मध्य में रुकना है , और गुणों को दिखाते जाना है। हठी योग और प्रणायाम भी ऐसे करते है जैसे शरीर से युद्ध कर रहे हों।
पर इस प्रयास में अत्यधिक ऊर्जा का खर्च होता है , जो व्यक्ति में एक अलग ही असंतुलन लाता है। यानि की अवगुणो को दबाना और गुणों को उभारना , एक मानसिक ग्रंथि को जन्म देता जाता है। जहाँ ये सीखा और सिखाया जाता है , की ग्रंथि को दबा लो चूँकि उचित वातावरण नहीं , " और लोग क्या कहेंगे !" इनसे ही एक नकलीपन व्यक्तित्व में आता है , और साथ ही उन भावो को शक्ति से दबाने का उल्टा परिणाम भी। अपने ही अंदर नकारात्मक ऊर्जा इकठा होने लग जाती है।
यहाँ तक भी हो तो ठीक ! पर ऐसी दबी ऊर्जाएं अक्सर ज्वालामुखी का रूप लेती जाती है , जो समय आने पर पता नहीं किस विकराल रूप में दिखाई पड़ती है।
इनका सरल , अति सरल , और सहज उपाय है , इनकी जड़ में , जब ये उत्पन्न हो रही होती है। उस वक्त जीव की सजगता , और स्वीकारोक्ति से ये काबू में आतीं है। उदाहरण के रूप में कोई भी और कितने भी गुणों को संज्ञा शब्द रूप से समझा जा सकता है , क्रोध , लोभ , मोह , घृणा या लौकिक सम्मोहन आदि आदि , लौकिक से मतलब सांसारिक प्रलोभन और आकर्षण से है ।
तीन बातें
१- इनका उत्पन्न होना
२- इनको देखा जाना
३- और इनका चले जाना
बस ये तीन ही कदम है।
सामान्यतः ,अज्ञानतावश इनको देखे जाने तक भी बात नहीं आ पाती , उसके पहले ही इनका बहना शुरू हो जाता है, और इनके बहते ही शीघ्र ही इनके परिणाम भी आने लगते है दूसरी तरफ से भी उत्पात शुरू हो जाता है , अरे भई !! मानी सी बात है .. अगर हम सामान्य है तो जिससे बात हो रही है वो भी तो सामान्य मानव ही है , क्रिया और प्रतिक्रिया तो होनी ही है। ये तो मनुष्य की बात है। आपके अंदर अगर अकेले कमरे में भी ऐसा कोई नकारात्मक विचार उत्पन्न हो जाता है , फिर देखिये उसका कमाल खुद के ही ऊपर। कैसे आप खुद से खुद को समझाते भी है और झगड़ते भी है , खुद से खुद में गुथम गुथा। और आखिर में कोई फ़ायदा नहीं , होना भी नहीं। सिर्फ ऊर्जा का क्षय। इसी अज्ञानतावश कभी हम अपनी ऊर्जा को नष्ट करते है तो कभी सामने वाले की।
यदि आप सचमुच स्वयं को इस विष से दूर रखना चाहते है , स्वयं को इसके विषैले प्रभाव से बचाना चाहते है। तो आपको दृष्टा बनना ही पड़ेगा।
इनका उत्पन्न होने से लेकर , इनके चले जाने तक आपको साक्षी भाव के साथ रहना ही होगा। इस विचार के साथ , न तो इनको निकलने देना है और न ही इनको दबाना है। बस देखना है। और ये स्वयं प्रेरणा के आभाव में समाप्त हो जायेंगे , नकारात्मक विचारो में बड़ा अहम होता है। बिना स्वागत ये नहीं रुकते। जहाँ इनको मान न मिले वह तो पल भर भी नहीं ठहरते। इनको रोकने के लिए इनका स्वागत करना पड़ता है ,इनको पोषित करना पड़ता है , फिर ये मनमाने तरीके से आपके ही शरीर के द्वारा अपना दुषप्रभाव आपके ही ऊपर डाल के आपको अहसान दिखाते हुए चले जायेंगे , की मैं ही हूँ तुम्हारा स्वाभिमान , पहचानो मुझे , मेरे बिना एक पल नहीं रह पाओगे।
पर क्या वास्तव में ऐसी ही स्थति है ? क्या वास्तव में इनके बिना हम नहीं रह सकते ?
ज्ञान आने पे ही इनके विषाक्त प्रभाव का पता चलता है उसके पहले ये व्यक्तित्व में ऐसे शामिल रहते है जैसे वस्त्र में रंग। फिर आप कैसे भी कपडे महंगे महंगे नए नए फैशन के सिलवाये , ये उस वस्त्र से चिपके ही रहते है और वस्त्र आपसे। आप सड़क पे चलरहे है , अपने विशिष्ट पोशाक के साथ। आप समाज में किसी समारोह में , किसी सम्मलेन में , किसी व्यक्तिगत कार्य से , कहीं भी है अपर अपने विशिष्ट रंग और विशिष्ट पोशाक के साथ। कैसे पीछा छुड़ाएंगे इस विशिष्ट रंग और विशिष्ट वस्त्र से ?
सोचिये ?
और तब जब आपकी पोशाक सबसे ज्यादा आपको ही नुक्सान दे रही हो , कही आपको ही घुन की तरह खा खा के समाप्त कर रही हो ? मुझे पूरा विश्वास है , जब तक आपको स्पष्ट अपना नुक्सान होता नहीं दिखेगा , आपको ये चेतावनी भी नहीं आएगी।
पर यदि किसी भी वजह से , ये शुभदस्तक हो गयी है। तो इस मौके को जाने मत दीजिये। स्वयं से आग्रह कीजिये , जब भी ये नकारात्मक गुन आपके मस्तिष्क पे छाने की चेष्टा करे उसके पहले आप उनके दर्शन कर सके। दर्शन कीजिये , उबलते हुए देखिये , और जाते हुए देखिये। धीरे धीरे , स्वागत के आभाव में ये आना ही बंद करदेंगे। शुरू में आपको तकलीफ दे सकते है क्यूंकि इनको स्वागत की आदत लग चुकी है , पर समझ जायेंगे। शीघ्र समझ जायेंगे !
ध्यान आपका सहयोगी होगा ! ध्यान से बड़ा मित्र कोई नहीं। इसका स्वागत कीजिये। यही एक है जो आपको आपकी मंजिल तक ले जा सकता है।
कभी रस्सी पे चलते व्यक्ति को सहज साक्षी दृष्टि से देखिये , आपको जीवन का फलसफा समझ आ जायेगा , इस रस्सी पे चलना वो पहले दिन से नहीं सीखा , प्रयास किया है , प्रयास किया है निष्प्रयास होने का। और अब वो ऐसे चल रहा है जैसे कोई प्रयास ही नहीं बस टहल रहा है। पर इस निष्प्रयास में भी सहज बहाव है उसकी गति का , वो थोड़ा दायें भागता है बाएं भी भागता है , पर मुख्य रूप से रस्सी पे चलता रहता है संतुलन के साथ। उसका उद्देश्य है रस्सी पे चलना और उस पार तक ऐसे ही चलते चले जाना।बिना अपना मुख्य उद्देश्य खोए वो ध्यान केंद्रित करके अपनी सधी चाल से उस पार पहुँच जाता है।
बस यही जीवन है , मन दबता नहीं है , दब सकता ही नहीं , यही भूल है, दबते ही दुगने वेग से प्रकट होता है बलवान हो के , ये अद्भुत विष सिर्फ प्रभाव और दुष्प्रभाव से जाना जाता है और जानने से ही उपचार है, ये मनुष्य का शरीर है , इसमें सारे उपद्रव है। जिनको जान के पार लगा जा सकता है ,चिकित्सा का मनोविज्ञान फलता फूलता इसीलिए है क्यूकी लोग भावों को दबा-दबा के नासूर बना लेते है। और फिर मनोविकार बढ़ने पर चिकित्सक के दरवाजे खटखटाते है। और यही हम छोटे से दर्शन से स्वयं के शरीर को और आस पास को भी बड़े उपद्रव से बचा सकते है।
शुभकामनाये !
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